Book Title: Jain Darshan aur Vigyan
Author(s): Mahendramuni, Jethalal S Zaveri
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान परस्परोपग्रहो जीवानाम् समाकलन : मुनि महेन्द्र कुमार Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान [ अजमेर विश्वविद्यालय तथा जैन विश्वभारती (मान्य विश्वविद्यालय ) द्वारा बी.ए. के पाठ्यक्रम के अन्तर्गत “जीवन विज्ञान एवं जैन विद्या” विषय के तृतीय वर्ष के द्वितीय पत्र के लिए स्वीकृत ] समाकलन मुनि महेन्द्र कुमार प्रेक्षा- प्राध्यापक जेठालाल एस. झवेरी प्रेक्षा - प्रवक्ता जैन विश्वभारती इंस्टीट्यूट (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं - ३४१ ३०६ ( राजस्थान ) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISB NO. 81-7195-027-2 तीसरा संस्करण : 2008 -1100 मूल्य : 100 रुपये मात्र मुद्रक : श्री वर्द्धमान प्रेस, नवीन शाहदरा, दिल्ली JAIN DARSHAN AUR VIGYAN Compiled By Muni Mahendra Kumar & Jethalal S. Zaveri Rs.100 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन हम बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में जी रहे हैं और इक्कीसवीं की दहलीज पर खड़े हैं। युगीन चुनौतियों को झेलने के लिए एक विद्यार्थी के लिए किन-किन विद्याओं का अध्ययन अत्यावश्यक है, यह शिक्षा-जगत् का एक अहम प्रश्न है। “जीवन-विज्ञान और जैन विद्या" इस चुनौति का एक उत्तर है। इस सर्वथा नवीन विषय की परिकल्पना में प्राचीन प्रज्ञा-प्रसूत ज्ञान-राशि को आधुनिक प्रयोग-प्रसूत विज्ञान-राशि के साथ जोड़कर विद्यार्थी की अन्त:चेतना को जागृत करने का प्रयास किया जा रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में 'जैन दर्शन और विज्ञान' को इस पाठ्यक्रम में समाविष्ट किया गया है। इस विषय की प्रतिपत्ति एक ओर विद्यार्थी को प्राचीन के प्रति श्रद्धाशील बनाएगी, तो साथ ही आधुनिक विज्ञान का अवबोध उसे प्रायोगिक आधार प्रदान करेगा। इस अर्थ में जीवन-विज्ञान और जैन विद्या' की अभिनव विधा वर्तमान शिक्षा-पद्धति के लिए दिशासूचक अवदान सिद्ध होगी। जैन दर्शन की विशाल ज्ञान-राशि में अध्यात्म, धर्म, तत्व-दर्शन, जीवनशैली, आचार-शास्त्र, अतीन्द्रियज्ञान, पुनर्जन्मवाद, भावनात्मक स्वास्थ्य, योगविद्या, प्रेक्षा यान, विश्व-विज्ञान, परमाणु-विज्ञान आदि विभिन्न महत्त्वपूर्ण विषयों के सम्बन्ध में जो सूक्ष्म विवेचन उपलब्ध है उसका आधुनिक विज्ञान की भौतिकी (Physics), जैविकी (Biology), मनोविज्ञान (Psychology), विश्व-विज्ञान (Cosmology), सृष्टिशास्त्र (Cosmogony), परमाणु-विज्ञान (Atomic Science), स्वस्थ्य-विज्ञान (Health Science) आदि विभिन्न शाखाओं के अन्तर्गत प्रस्तुत अवधारणाओं के सन्दर्भ में सूक्ष्मेक्षिकया किया गया अध्ययन न केवल विद्यार्थी के बौद्धिक विकास एवं ज्ञानवर्धन की दृष्टि से उपयोगी सिद्ध होगा, अपितु उसके अपने जीवन-विकास के लिए भी बहुत लाभप्रद होगा-इस उद्देश्य से प्रस्तुत पुस्तक को आकार दिया गया है। आज के युग में प्राच्य विद्याओं के वैज्ञानिक स्वरूप को हृदयंगम करना प्रत्येक विद्यार्थी के लिए अत्यन्त अपेक्षित है। इससे भारतीय दर्शन एवं संस्कृत की सार्वदेशिकता एवं सार्वकालिकता उजागर होती है। कोरे बौद्धिक ज्ञान या वैज्ञानिक पद्धति से प्राप्त ज्ञान की अपेक्षा अन्त:दर्शन (intuition) द्वारा होने वाला बोध अधिक सूक्ष्म और सत्य-स्पर्शी होता है, इसे वह जान सकेगा। Tao of Physics के लेखक डॉ. फ्रिटजोफ काप्रा (Fritzof Capra) के शब्दों में-“जब बौद्धिक/तार्किक Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतना को शांत किया जाता है, तब अन्त:दर्शन की चेतना द्वारा अतिविशिष्ट बोध प्राप्त होता है; उसमें बाह्य जगत् को धारणात्मक चिन्तन से छाने बिना प्रत्यक्ष ही अनुभव कर लिया जाता है। "चुआंग-त्जु के शब्दों में ऋषि (प्रज्ञावान्) का शांत चित्त सम्पूर्ण स्वर्ग और पृथ्वी-समस्त पदार्थों का दर्पण है।"१ यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि जिन अध्यायत्म-मनीषियों ने दो-ढाई सहस्राब्दियों पूर्व परमाणु से ब्रह्माण्ड तक या आत्मा से परमात्मा तक सूक्ष्मविश्व (microcosmos) और महाविश्व (macrocosmos) के स्वरूप, संरचना, आकार-प्रकार, क्षेत्रमान-कालमान आदि विभिन्न पहलुओं पर इतनी गहरी मीमांसा की वे उस युग के ही महान दार्शनिक नहीं अपितु युगों-युगों तक ज्ञान-रश्मियों का आलोक देने वाले प्रज्ञा के धनी 'अध्यात्मविज्ञानी' थे। उनके अन्त:दर्शन एवं अन्त:अनुभूति से प्रस्फुटित ज्ञानधारा में ही हमें मानव मन की चिरन्तन जिज्ञासाओं का समाधान प्राप्त हो सकता है। आभारोक्ति प्रस्तुत पुस्तक के समाकलन में उन अनेक लेखकों की कृतियों का उपयोग किया गया है, जिन्होंने तटस्थ भाव से अध्यात्म/दर्शन और विज्ञान के भिन्न-भिन्न विषयों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। । प्रस्तुत पुस्तक को ९ अध्यायों में अजमेर वि. वि. के पाठ्यक्रमानुसार विभक्त किया गया है। प्रथम अध्याय दर्शन और विज्ञान का आधार है-मुनि महेन्द्रकुमार कृत विश्व-प्रहेलिका। ___ द्वितीय अध्याय अध्यात्म और विज्ञान के आधार हैं-आचार्य महाप्रज्ञ कृत मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता, आचार्य तुलसी कृत प्रज्ञापर्व, आचार्य महाप्रज्ञ कृत अमूर्त चिन्तन तथा उनका लेख 'अध्यात्म और विज्ञान (भारत-निर्माण द्वारा प्रकाशित विशेषांक) तृतीय अध्याय जैन दर्शन और परामनोविज्ञान के आधार हैं-डा. ईयान स्टीवनसन कृत Twenty Cases Suggestive of Reincarnation, डा. कीर्तिस्वरूप रावत कृत परामनोविज्ञान, मुनि महेन्द्रकुमार का शोध-लेख-पुनर्जन्म : 1. When the rational mind is silenced, the intuitive mind produces an extraordinary awareness; the environment is experienced in a direct way without the filter of conceptual thinking. In the words of chuang Tzu, "The still mind of a sage is a mirror of heaven and earth-the glass of all things." . -Tao of Physics, p. 62. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान (अणुव्रत एवं युवादृष्टि में प्रकाशित), आचार्य महाप्रज्ञ कृत जैन दर्शन : मनन और मीमांसा, जैन योग, चित्त और मन तथा अभ्युदय । चतुर्थ अध्याय विज्ञान के सन्दर्भ में जैन जीवन शैली के मुख्य आधार हैं-मुनि सुखलाल कृत विज्ञान के सन्दर्भ में जैन धर्म तथा साधना का सोना : विज्ञान की कसौटी, आचार्य महाप्रज्ञ कृत प्रेक्षाध्यान : आहार-विज्ञान, जैन धर्म : अह और अर्हताएं, शक्ति की साधना, मुनि महेन्द्रकुमार और जेठालाल झवेरी कृत प्रेक्षा ध्यान : स्वास्थ्य विज्ञान (भाग १), गोपीनाथ अग्रवाल कृत शाकाहार या मांसाहार तथा डॉ. वीरेन्द्र सिंह कृत जर्दा-धूम्रपान बीसवीं सदी का निर्मम हत्यारा। __ पञ्चम अध्याय जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा का आधार है-आचार्य महाप्रज्ञ-कृत जैन दर्शन और अनेकान्तवाद । षष्ठ अध्याय जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा का आधार है-मुनि महेन्द्र कुमार कृत विश्व प्रहेलिका। सप्तम अध्याय विश्व का परिमाण और आयु का आधार है-मुनि महेन्द्र कुमार कृत विश्व प्रहेलिका। __ अष्टम अध्याय जैन दर्शन और विज्ञान में पुद्गल तथा नवम अध्याय जैन दर्शन और विज्ञान में परमाणु का आधार है-जेठालाल एस. झवेरी तथा मुनि महेन्द्र कुमार कृत Microcosmology : Atom in Jain Philosophy and Modern Science तथा तीर्थकर (भौतिकी विशेषांक) के कुछ लेख । ___ आधारभूत ग्रंथों की सामग्री को विद्यार्थी के लिए सुगम बनाने की दृष्टि से तथा संक्षिप्तीकरण के उद्देश्य से परिवर्तित किया गया है। जिस कोटि की विषय-वस्त यहां प्रतिपाद्य है, उसके साथ यदि समुचित न्याय करना हो तो प्रत्येक अध्याय के लिए पूरे ग्रंथ का प्रणयन भी कदाचित् अपर्याप्त होगा। पर विद्यार्थी की अपेक्षा को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक अध्याय की सामग्री को लगभग ३०-४० पृष्ठों में समेटने का प्रयत्न किया गया है। कहीं-कहीं इस सीमा का उल्लंघन भी हुआ है, पर विषय-वस्तु के धैविध्य ने ऐसा करने के लिए हमें बाध्य किया है। फिर भी कुल मिलाकर बी.ए. के तृतीय वर्ष के लिए निर्धारित पाठ्यक्रम के अनुरूप समग्र सामग्री संगुम्फित कर हम उसे शिक्षा-जगत् को समर्पित कर रहे हैं। हमारे परमाराध्य आचार्यश्री तुलसी की सतत प्रेरणा एवं मार्ग-दर्शन ही इस दुरुह कार्य की सफल सम्पन्नता के लिए सर्वाधिक श्रेयोभाक है। इसके लिए हम उनके प्रति चिरऋणी है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ का अध्यात्म और विज्ञान के सामञ्स्य/तुलना का अपना एक मौलिक दृष्टिकोण रहा है जो समसामयिक दार्शनिकों में भी दुर्लभ है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी अनेक बहुमूल्य कृतियों से हमने सामग्री का चयन किया है। उनके चरणों में हम कृतज्ञतापूर्वक श्रद्धा अर्पित करते हैं। अन्य जिन-जिन लेखकों के ग्रंथों, लेखों एवं विचारों का हमने उपयोग किया है, उन सबके प्रति हम दोनों हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। माला की शोभा और सुरभि का श्रेय पुष्पों को ही देना चाहिए। मालाकार तो केवल उनके गुम्फन का निमित्त-मात्र होता है। पुस्तक के निर्माण में और भी अनेक व्यक्तियों का विभिन्न रूप में सहयोग मिला है। मेरे सहयोगी सन्त मुनि धर्मेश कुमारजी ने 'जीवन-शैली' के सामग्री-चयन में तथा मुनि तत्त्वरूचि ने मेरे अन्य कार्यों में सहयोग देकर मेरे कार्य को सरल बनाया है। उन्हें साधुवाद! ब्राह्मी विद्यापीठ के व्याख्यता श्री आनन्दप्रकाश त्रिपाठी तथा डा. पूरणचन्द जैन ने प्रूफरीडिंग के कार्य में उल्लेखनीय तत्परता रखी। जैन विश्व भारती प्रेस की तत्परता भी न होती, तो मुद्रण-कार्य इतना द्रुतगति से न होता। ___ आशा है, जीवन-विज्ञान और जैन विद्या' के विद्यार्थियों को यह पुस्तक न केवल विश्व-विद्यालय की परीक्षा में उर्तीण होने में सहायता करेगी अपितु जीवन की परीक्षा में सफलता का वरण करने में सशक्त अभिप्रेरक की भूमिका निभाएगी तथा वे इसके माध्यम से जीवन विज्ञान' विषय के मूल उद्देश्य–'आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व के निर्माण' को उपलब्ध कर सकेंगे। विद्यार्थियों के अतिरिक्त जो भी जिज्ञासु पाठक इस ग्रन्थ का स्वाध्याय करेंगे, वे भी निश्चित ही लाभान्वित होंगे। ३० सितम्बर १९९२ जैन विश्वभारती लाडनूं मुनि महेन्द्र कुमार जेठालाल झवेरी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम १. दर्शन और विज्ञान : तुलनात्मक अध्ययन.... ...१-४२ (१) दर्शन और विज्ञान में निकटताउच्चस्तरीय समन्विति की अपेक्षा १-क्या वैज्ञानिक सिद्धान्त अन्तिम सत्य का उच्चारण है? ४-तुलनात्मक अध्ययन का लाभ ६ (२) आधुनिक विज्ञान का दर्शन ८-४२ (क) वैज्ञानिकों का आदर्शवाद और जैन दर्शन ८-२८ एडिंग्टन का दर्शन और जैन दर्शन १२-जीन्स का दर्शन और जैन दर्शन २०-अन्य आदर्शवादी वैज्ञानिक और जैन दर्शन २५ (ख) वास्तविकता और जैन दर्शन २८-४१ भौतिकवाद और जैन दर्शन २८-बट्टैण्ड रसल का दर्शन और जैन दर्शन ३४-समीक्षात्मक वास्तविकतावाद और जैन दर्शन ३६-हाइजनबर्ग का दर्शन और जैन दर्शन ३८उपसंहार ३९ अभ्यास-४२ २. अध्यात्म और विज्ञान...... ४३-८१ अध्यात्म और विज्ञान द्वारा नियमों की खोज ४४-धर्म और विज्ञान की महानता ४५-जैन आगम के सूक्ष्म सत्य ४९-एस्ट्रल प्रोजेक्शन समुद्घात ५१-अतीन्द्रिय ज्ञान ५५ प्राण-शक्ति का आध्यात्मिक और वैज्ञानिक महत्त्व.......... ५५-६७ शरीर-शास्त्र ५५-सूक्ष्म का साक्षात्कार ५५-शरीर की शक्तियों का दोहन ५७अध्यात्म-विज्ञान में शरीर का महत्त्व ५९-कुंडलिनी : स्वरूप और जागरण ६०-कुंडलिनी-जागरण के मार्ग ६१-प्राण-शक्ति की विद्युत् का चमत्कार ६२ (३) आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण.............. ६७-८० अध्यात्म स्वयं एक विज्ञान ६७-वैज्ञानिक विकास : वरदान या अभिशाप ६८-फिर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी तनाव बढ़े हैं ६९ - श्रम को हेय न मानें ६९ - मन की शांति ६९ - संयम ७५ - सत्यनिष्ठा ७७ अभ्यास-८१ ३. जैन दर्शन और परामनोविज्ञान... ८२-१३८ (१) आत्मवाद और पुनर्जन्मवाद ८२ - १०८ जैन दर्शन का दृष्टिकोण ८२ - अध्यात्मवाद बनाम भौतिकवाद ८२ - जाति - स्मृति ज्ञान ८४-विभिन्न धर्म-दर्शनों में पुनर्जन्मवाद ८५ - परामनोविज्ञान ८७ - पुनर्जन्म पर परामनोविज्ञान में अनुसंधान ९१ - ब्राजील में अढ़ाई वर्ष की बालिका को पूर्व जन्म की स्मृति ९२–गवेषणा पद्धति ९७ - विस्मृति ९८ - आनुवंशिक स्मृति ९९ - अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण शक्ति ९९ - भूतावेश १०० - पूर्वजन्म की अद्भुत बातें १०२ - मृत शरीर का अधिग्रहण १०५ - उपसंहार १०७ (२) अतीन्द्रिय ज्ञान : दूरबोध एवं परचित्त-बोध १०९-१२४ जैन दर्शन का दृष्टिकोण १०९ - समाधान : अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के संदर्भ में ११० - चैतन्य- केन्द्र क्या है ? ११२ - समूचा शरीर ज्ञान का साधन ११२ - सभिन्न स्रोतोलब्धि ९१३ - मन की क्षमता ११३ - पूर्वाभास अतीन्द्रिय ज्ञान है ? ११३ - अतीन्द्रिय चेतना का प्रकटीकरण ११५ - विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र ११५ - प्रेक्षाध्यान की प्रक्रिया ९९६ - प्रेक्षाध्यान निष्पत्ति ११६–केन्द्र और संवादी केन्द्र ११७ - परामनोविज्ञान में अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण ११७-विचार-संप्रेषण १२१ - अतीन्द्रिय चेतना : विकास की प्रक्रिया १२२- भावतंत्र का परिष्कार १२३ (३) अतीन्द्रिय शक्ति - योगज उपलब्धियां एवं मनः प्रभाव १२४-१३८ जैन दर्शन का दृष्टिकोण - ऋद्धि और लब्धि १२४ - सही दिशा १२५ - लब्धियों की विचित्र शक्ति १२६-ऋद्धियां प्राप्ति और परिणाम १२७ - तेजोलेश्या (कुण्डलिनी) तैजस शरीर : अनुग्रह-विग्रह का साधन १२९ - तेजोलेश्या का साधन १३० - तेजोलेश्या के विकास स्रोत १३१–परामनोविज्ञान में मन:प्रभाव (साइकोकाइनेसिस) १३१ अभ्यास- १३८ ४. विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली ... १३९-२०९ जीवन जैन जीवन-शैली १३९- शैली क्यों ? १३९ - आहार - शुद्धि और व्यसन - - मुक्त १४० - दूषित आहार का परिणाम : रोग १४० .......... Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) उपवास आदि तप १४२-१५७ आहार और अनाहार १४२-उपवास १४३-उपवास का मूल्य : वैज्ञानिकों की दृष्टि में १४५-उपवास-चिकित्सा १४६-उपवास शरीर में क्या करता है? १४७-विभिन्न रोग और उपवास १४८-उपवास की अवधि १४९-उपवास में सावधानी १४९-भोजन में कमी करना (ऊनोदरी तप) एवं अस्वाद वृत्ति (वृत्ति संक्षेप) १५०-अध्यशन-वर्जन १५१-रात्रि-भोजन का परिहार १५२-रस-परित्याग १५३-चीनी और नमक पर नियंत्रण १५४-कुछ प्रयोग १५५ (२) शाकाहार बनाम मांसाहार १५७-१७२ मांसाहार का निषेध क्यों? १५७-अम्लों की विनाशलीला १५९-मनुष्य की प्राकृतिक रचना शाकाहारी जीवों जैसी १६०-मांसाहार रोगों का जन्मदाता १६३-हृदय रोग व उच्च रक्तचाप १६४-मांसाहार से कैंसर १६५-अन्य बीमारियां १६७-महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक तथ्य १६७-शाकाहार अधिक पौष्टिक व गुणकारी १६९-आर्थिक दृष्टि १७०-पर्यावरण १७२ (३) तम्बाकू-वर्जन १७२-१८३ व्यसनों की विनाश-लीला १७२-धूम्रपान १७२-नशीले पदार्थों का सेवन १७२-उत्तेजक पदार्थ १७५-जर्दा-धूम्रपान : बीसवीं सदी का निर्मम हत्यारा १७५-जर्दा-धूम्रपान : आत्म-हत्या का तरीका १७७-हत्या का प्रचलित तरीका धूम्रपान १७८-आत्मनिरीक्षण १७९-धूम्रपान क्यों और कैसे छोड़ें १७९-लोग जर्दा-धूम्रपान क्यों शुरू करते हैं? १७९-लोग जर्दा-धूम्रपान क्यों जारी रखते हैं? १८०-जर्दा-धूम्रपान कैसे छोड़ा जाए? १८१ (४) मद्यपान-वर्जन १८३-१९३ मद्यपान और अपराध १८४-मद्यपान और वेश्यावृत्ति १८७-मद्यपान और तलाक १८७-मद्यपान और गर्भस्थ शिशु १८७-मद्यपान और बाल-अपराध १८८-शराब और स्वास्थ्य १८८-मद्यपान और आयु १९१ (५) भाषा-विवेक १९४-२०९ शब्द भी : मौन भी १९४-वाणी की शक्ति १९४-मौन की शक्ति १९६-भाषा-विवेक के सूत्र १९७-शब्द और भावना १९८-धीमे बोलने का अभ्यास करें १९९-ध्वनिप्रदूषण के दुष्प्रभाव २००-मस्तिष्क में जासूसी २००-अल्ट्रासोनिक कार्डियोग्राफ २०१-शब्द और संगीत-चिकित्सा २०२-शब्द की शक्ति २०४-मंत्र की शक्ति २०५ अभ्यास-२०९ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा... २१०-२३६ (१) नियमवाद २१०-२१८ : नियमवाद : जैन दर्शन की मौलिक प्रस्थापना २१० - एकान्तवाद से बचने का सिद्धान्त २१०- (अ) सन्दर्भ : जन्म और मृत्यु का २११ - (ब) संदर्भ : रोग का २११ - ( स ) संदर्भ नींद का २१२ - (द) संदर्भ : अमीरी और गरीबी का २१४ - भविष्यवाणी मिथ्या क्यों होती है? २१४-ज्योतिर्विज्ञान : एक नियम २१५ - प्रभाव सौरमण्डल के विकिरणों का २१६-(ई) संदर्भ : भाव का २१६ - मूड क्यों बिगड़ता है? २१७ - नियमन का सिद्धान्त है नियमवाद २१७ - आधुनिक विज्ञान में नियमवाद २१७ (२) ईश्वरवाद : कर्मवाद २१८-२२५ सृष्टि है परिवर्तनात्मक २१८ - सृष्टि का नियन्ता कोई नहीं २१८ - सृष्टि का नियमन नियम के द्वारा २१९ - कर्तृत्व : भोक्तृत्व २१९ - प्रयोजनवादी सृष्टि २९१९ - एकोऽहं बहु स्याम् २२०-ईश्वरवाद : धार्मिक दृष्टिकोण २२० - ईश्वरवाद : नैतिक दृष्टिकोण २२० - कर्मवाद के तीन सिद्धान्त २२१ - अधिकार है परिवर्तन एवं प्रगति का २२१–परिवर्तन का आधार २२२ - एकांगी धारणा २२२ - कर्म का कर्तृत्व नहीं है-मिथ्या अवधारणाएं २२३ - कर्मवाद में पुरुषार्थ का मूल्य २२३ - महावीर पुरुषार्थवाद के सशक्त प्रवक्ता २२३ - नियामक कौन ? २२४ - वास्तविक सच्चाई: व्यावहारिक सच्चाई २२४-आधुनिक विज्ञान २२५ (३) कार्यकारणवाद २२५-२३० प्रश्न निरपेक्ष सत्य का २२६ - अनादि परिणमन है निरपेक्षसत्य २२६ - निराधार भ्रम २२७-कारण के तीन प्रकार २२७ - सृष्टि के निर्माण का प्रश्न २२७ - उपादान मूल कारण है २२८–कार्यकारण सर्वत्र मान्य नहीं २२८ - जगत् : दार्शनिक जगत् का अहम प्रश्न २२९-हृदय जगत् क्या है? २२९ (४) अनेकान्तवाद - २३०-२३६ सरल है पर्याय का दर्शन २३० - दो दृष्टिकोण २३१ - ज्ञेय तत्त्व दो हैं २३१ - अनेकान्त और सम्यग् दर्शन २३२ - अनेकान्त के निष्कर्ष २३२ - शाश्वतवाद की समस्या २३२ - तर्क जैन आचार्यों का २३३- जैन दर्शन की भाषा २३४ - समन्वय की मौलिक दृष्टियां २३४-परिवर्तन : अपरिवर्तन २३५ - वैराग्य का आधार : परिवर्तनवाद २३५ - पर्याय कहां से आता है? २३५ - समाधान है अनेकान्त २३६ अभ्यास- २३६ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व मीमांसा २३७-२६४ (१) जैन दर्शन का दृष्टिकोण २३७-२४४ द्रव्य-मीमांसा २३७-आकाश : लोक और अलोक २३७-धन और ऋण ईथर २३८काल द्रव्य २४१ (२) वैज्ञानिक दृष्टिकोण २४४-२५६ आपेक्षिकता के सिद्धान्त से पूर्व २४४-आपेक्षिकता के सिद्धान्त का आविष्कार २४७-आपेक्षिकता के सिद्धान्त के बाद २४८-आपेक्षिकता के सिद्धान्त का दार्शनिक पक्ष २५२-उपसंहार २५५ (३) तुलनात्मक अध्ययन २५६-२६६ न्यूटन और जैन दर्शन २५७-आपेक्षिकता का सिद्धान्त और जैन दर्शन २५७उपसंहार २६३ अभ्यास-२६४ ७. विश्व का परिमाण और आयु.. २६५-२९९ (१) जैन दर्शन : विश्व का परिमाण २६५-२६९ विश्व का आकार २६५-विश्व कितना बड़ा है २६५-गणितीय विवेचन २६५-दिगम्बर परम्परा २६६-श्वेताम्बर परम्परा २६६-दो परम्पराओं का मतभेद और समीक्षा २६६-आधुनिक गणित पद्धतियों के प्रकाश में २६८-रज्जु का अंकीकरण २६९ (२) जैन दर्शन : विश्व काल की दृष्टि से २६९-२७३ विश्व की अनादि-अनन्नता २६९-काल-चक्रीय विश्व-सिद्धान्त २७०--वर्तमान युग और भविष्य २७२-उपसंहार २७३ (३) वैज्ञानिक दृष्टिकोण : विश्व का परिमाण २७३-२७९ आपेक्षिकता के सिद्धान्त से पूर्व २७३-आपेक्षिकता के सिद्धान्त द्वारा समाधान २७४विश्व का परिमाण : स्थिर या बढ़ता हुआ? २७८ (४) वैज्ञानिक दृष्टिकोण : विश्व की आयु २७९-२८७ सादि और सान्त विश्व के सिद्धान्त २७९--अनादि और अनन्त विश्व के सिद्धान्त २८२ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) तुलनात्मक अध्ययन २८७-३०१ आइन्स्टीन का विश्व और जैन लोक २८७-विस्तारमान विश्व और जैन लोकालोक २८९-आरोह-अवरोहशील विश्व और अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी २९२-सादि विश्व सिद्धान्त और जैन दर्शन २९४-सान्त विश्व-सिद्धान्त और जैन दृष्टिकोण २९५-निष्कर्ष का नवनीत २९६ अभ्यास-२९९ ८. जैन दर्शन में पुद्गल ......... ३००-३२० (१) जैन दर्शन में पुद्गल ३००-३११ पुद्गल का नामकरण/परिभाषा ३००-पुद्गल के लाक्षणिक गुण और गुणों की पर्याय ३०१-पुद्गल की विशिष्ट पर्याय ३०१-१. शब्द ३०१-२. बन्ध ३०३-३. भेद ३०४४. सौक्ष्म्य, ५. स्थौल्य ३०५-६. संस्थान (आकार) ३०७-७. प्रकाश, ८. अंधकार ३०७ (२) पुद्गल का सामान्य स्वरूप ३११-३२० (१) पुद्गल अस्तिकाय है ३११-(२) पुद्गल सत् और द्रव्य है ३११-(३) पुद्गल नित्य, अविनाशी है-तत्त्वान्तरणीय नहीं है ३१२-(४) पुद्गल अचेतन सत्ता है ३१२-(५) पुद्गल परिणामी है ३१२-(६) पुद्गल गलन-मिलन-धर्मा है ३१४–परमाणु मिलन के नियम ३१७-(७) पुद्गल संख्या की दृष्टि से अनन्त है ३१७-(८) पुद्गल जीव को प्रभावित करता है ३१८-पुद्गल का वर्गीकरण ३१९ अभ्यास-३२० ९. जैन दर्शन और विज्ञान में परमाणु......... ३२३-३४१ (१) जैन परमाणुवाद ३२१-३२९ चार प्रकार के परमाणु ३२१-परमाणु की परिभाषा ३२२-परमाणु के गुणधर्म ३२३-परमाणु की विस्तृत व्याख्या ३२४-परमाणु की गति के नियम ३२६-परमाणु की प्रतिघाती और अप्रतिघाती गति ३२७-परमाणु का तीव्रतम वेग ३२८ (२) आधुनिक विज्ञान में परमाणु-सिद्धांत ३२९-३३३ विकास-वृत्त ३२९-अल्फा, बीटा तथा गामा का क्षय(रेडियोधर्मिता) ३२०-क्वाण्टमसिद्धान्त ३३१-प्रारम्भिक क्षण ३३१-क्वार्क : पदार्थ का मूलभूत कण ३३१-मूलभूत कण का वेग ३३१-आकर्षण के बल ३३३ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) जैन दर्शन और विज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन ३३३-३४० मूलभूत कण और परमाणु ३३३-द्रव्याक्षरत्वाद ३३४-पदार्थ एवं ऊर्जा ३३५-परमाणु के मूल गुणधर्म ३३७-सूक्ष्म परिणमन ३३८-परमाणु-ऊर्जा और तेजोलेश्या ३३९भावी संभावना ३४० अभ्यास-३४१ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. दर्शन और विज्ञान तुलनात्मक अध्ययन (१) दर्शन और विज्ञान में निकटता मानव-मस्तिष्क जिज्ञासाओं का महासागर है। उसमें प्रश्नों की तरंगें और कल्लोलें उठती रहती हैं। मनुष्य अपनी इंद्रियों के द्वारा ज्योंही प्रकृति की प्रक्रियाओं का दर्शन करता है, त्योंही कैसे? क्यों? क्या? कब से? कब तक? आदि प्रश्न खड़े हो जाते हैं। तब मनुष्य अपनी बुद्धि, तर्क या अन्त:दर्शन (intuition) के सहारे इन्हें समाहित करने का प्रयत्न करता है। जो इन प्रश्नों के उत्तर अपने सहज अन्त:दर्शन के सहारे दे सकता है, वह दार्शनिक है। दूसरी और जो बौद्धिक ज्ञान के आधार पर इन्हें उत्तरित करता है, वह वैज्ञानिक है। दर्शन और विज्ञान दोनों ज्ञान-स्रोत की धाराएं हैं। उच्चस्तरीय समन्विति की उपेक्षा ___ भारतीय दर्शन एवं इतिहास के मर्मज्ञ डा. गोविन्दचन्द्र पाण्डे ने दर्शन और विज्ञान की समन्विति के बहुत ही मार्मिक रूप में इस प्रकार अभिव्यक्ति दी है 'ज्ञान कर्म की एक पूर्वापक्षा है और अतएव समस्त व्यावहारिक जीवन नाना प्रकार के खंडज्ञान पर आधारित है। शिल्पी हो या व्यापारी, राजा हो या सिपाई, सभी अपने व्यवहार के लिये आवश्यक ज्ञान खोजते हैं। इस प्रकार का व्यवहार्थ खडज्ञान विकास के साथ समुचित और व्यवस्थित होने लगता है। कुतूहली और तर्कशील मस्तिष्क इस व्यवस्था में एक अनिवार्य संगति, एक मौलिक अन्विति खोजता है। इस खोज के परिणाम स्वरूप एकदेशी व्यावहारिक ज्ञान क्रमश: न्याय-सूत्र से संग्रथित अमूर्त तत्त्वों के प्रतिपादक एक शास्त्र का रूप धारण कर लेता है, इसी को विज्ञान कहते हैं। अमूर्त और समग्र तत्त्वों की ओर उद्दिष्ट होते हुए भी विज्ञान का एक छोर व्यवहार से बंधा रहता है। विज्ञान की धारणाओं ओर सिद्धान्तों का अन्तिम निकर्ष उनकी व्यावहारिक उपयोगिता और प्रयोजनीयता ही है। यही कारण है विज्ञान के अधिकाधिक प्रचार और प्रसार का और उसके कोरे शब्द-जाल से मुक्त रह कर निरन्तर प्रगति कर सकने की अदभुत क्षमता का। व्यावहारिक जीवन खंड सुख-दुख को लेकर प्रवृत होता है। विज्ञान की भी चरम उपयोगिता इसी संदर्भ में है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान इसके द्वारा मनुष्य नाना प्रकार के भौतिक साधन प्राप्त करता है, जिनसे वह अपने विशिष्ट दुःखों के परिहार और सुखों की प्राप्ति करने में समर्थ होता है। पर विज्ञान से मनुष्य को अपने चरम साध्य का ज्ञान नहीं हो सकता। मूलत: मनुष्य एक आत्मा है, जो अपने स्वरूप की ओर लौटना चाहती है, जो कि स्वर्गिक सख में भी कभी ऐकान्तिक तृप्ति का अनुभव नहीं कर सकती। मनुष्य यदि केवल देही ही होता और प्रकृति के क्षेत्र में प्रवृति मात्र उसका जीवन होता, तो सम्भवत: विज्ञान ही उसके लिये परम विद्या होती, परन्तु मनुष्य अपन को संसार के बन्धन में छटपटाता अनुभव करता है और मुक्ति के मार्ग को खोजता है। आत्म-ज्ञान के बिना मुक्ति सम्भव नहीं, इसीलिए जहां लोक-व्यवहार में निरत मनुष्य वस्तुज्ञानात्मक विज्ञान का सहारा लेता है, वहीं परमार्थ पक्ष का पथिक मनुष्य आत्म-ज्ञान रूपी दर्शन का प्रकाश ढूंढता है। यही दर्शन और विज्ञान का निगूढ़ सम्बन्ध है। विज्ञान बहिर्मुख है, दर्शन अध्यात्म-प्रवण । विज्ञान वस्तुजगत् को परिवर्तित करने के साधन देता है, दर्शन ऐसी अन्त-दृष्टि, जिससे मन को मुक्ति मिले। ___इस प्रकार एक मौलिक भेद के होते हुए भी विज्ञान और दर्शन अपने परम्परागत रूपों में निकट सम्बन्धी रहे हैं। समग्र विश्व के स्वरूप की जिज्ञासा दोनों में समान है। प्राचीन काल में विश्व-विज्ञान दार्शनिक प्रस्थानों का एक नियत अंग था। दर्शन के इस अंश से ही परवर्ती वैज्ञानिक चिन्तन ने अपनी प्रेरणा पाई है। बहत दिनों तक विज्ञान को प्रकृति-दर्शन कहा जाता था। न्यूटन ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ को 'प्राकृतिक दर्शन के गाणितिक सिद्धांत' नाम दिया है। पश्चिम में जैसे-जैसे आधनिक काल में विज्ञान का विकास हुआ, दर्शन ने प्राकृतिक विश्व के सम्बन्ध में अपने को विज्ञान का अनुचर मात्र मान लिया है आजकल बहुत से दार्शनिक कहते हैं कि दर्शन का वस्तु-सत्यों से सम्बन्ध नहीं, उनके अनुसार दर्शन का ठीक विषय ज्ञान अथवा मूल्यों की मीमांसा है। दूसरी ओर विश्व के स्वरूप के सम्बन्ध में परिकल्पनाएं वैज्ञानिक चिन्तन में नाना रूप से प्रकट हुई हैं और इन्हें दार्शनिक प्रवृतियों से असम्पृक्त नहीं माना जा सकता है। इस परिस्थिति का परिणाम एक विचित्र उलझन में है। विशुद्ध दार्शनिकरण विज्ञान की सहायता के बिना विश्व के स्वरूप का निर्धारण नहीं कर सकते और न विशुद्ध वैज्ञानिक ही दर्शन की सहायता के बिना अपने परम सिद्धांतों के व्यवस्थित और संगत रूप दे सकते हैं। दर्शन और विज्ञान की एक नई उच्चस्तरीय समन्विति आज के चिन्तन की परमावश्यकता है।" विज्ञान और दर्शन का लक्ष्य एक होते हुए भी इनके साधनों में अन्तर है। दर्शन अन्तर्ज्ञान-शक्ति (Intutional Power) पर आधारित होता है, जबकि १. विश्व-प्रहेलिका, भूमिका, पृ० १,२ । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और विज्ञान विज्ञान बौद्धिक शक्ति पर। दर्शन 'तर्क' को कसौटी मानकर चलता है, जबकि विज्ञान तर्क के साथ प्रयोग को भी। विज्ञान और दर्शन की इस भिन्नता के होते हुए भी, कभी-कभी ये एक दूसरे के बहुत निकट आ जाते हैं--यहां तक कि एक दूसरे में घुल-मिल जाते हैं। इसीलिए सुप्रसिद्ध ब्रिटिश वैज्ञानिक सर जेम्स जीन्स (Sir James Jeans) अपनी एक पुस्तक में लिखते है । : भौतिक विज्ञान और दर्शन की सीमा-रेखा, एक प्रकार के निरर्थक हो चुकी थी; पर सैद्धान्तिक भौतिक-विज्ञान के निकटभूत में होने वाले विकास के कारण अब वही सीमारेखा महत्त्वपूर्ण और आकर्षक बन गई है। दर्शन और विज्ञान के इस सन्निकर्ष का कारण यह है कि इनका उद्गम-स्थान एक ही है।' कभी-कभी वैज्ञानिक सिद्धान्तों का आविष्कार वैज्ञानिक के अन्तर्ज्ञान से स्फुरित होता है। तब वैज्ञानिक' भी ‘दार्शनिक' बन जाता है-ऐसी स्थितियों में दर्शन और विज्ञान का सुभग मिलन हो जाता है। विज्ञान के इतिहास में ऐसे उदाहरणों की अल्पता नहीं है, जहां विज्ञान सिद्धांतों का वृक्ष दर्शन-बीज से जन्म लेता हो। दर्शन के सुख्यात इतिहासकार विल डूरण्ट (Will Durant) ने सही लिखा है :२ “प्रत्येक विज्ञान का प्रारम्भ दर्शन से होता है और अन्त कला में; वह उपकल्पना' से जन्म लेता है और 'सिद्धांत' के रूप में परिणित हो जाता है। दर्शन अज्ञान का उपकल्पित प्रतिपादन है (जैसे-तत्त्वदर्शन में), अथवा अपूर्णतया ज्ञात का (जैसे-नितीदर्शन ओर राजनीति दर्शन में)। दर्शन सत्य के घेरे में प्रथम 'दरार' है। विज्ञान एक सीमित भूमि है; उसकी पृष्ठभूमि में वह प्रदेश है, जहां ज्ञान और कला द्वारा सृष्टि की रचना होती है। किन्तु दर्शन जनक की तरह सदा ही व्यथित-सा दिखाई देता है। वह व्यथित इसलिए है कि विजय का श्रेय सदा वह अपने संतानों-विज्ञानों को देकर, स्वयं अज्ञात और अविहरित प्रदेश में नई खोज के लिए भटकता रहता है।" कुछ विचारक विज्ञान और दर्शन की तुलना करते समय विज्ञान को 'दर्शन' से अधिक पूर्ण बताते हैं। किन्तु यह अभिप्राय सत्य नहीं लगता। यह नि:सन्देह कहा जा सकता है कि दर्शन का स्थान विज्ञान से नीचा नहीं है। बल्कि दर्शन विज्ञान से अधिक साहसिक है। जैसे कि विल डूरण्ट ने एक स्थान में लिखा है :३ प्राय ऐसा प्रतीत होता है कि विज्ञान की जीत होती है और दर्शन की हार। किन्तु इसका कारण यही है कि दर्शन उन समस्याओं को सुलझाने का दुरूह मार्ग अपनाता है, जो विज्ञान की पहुंच से बाहर है। जैसे--पुण्य और पाप, सौन्दर्य और विद्रूपता, व्यवस्था और अव्यवस्था, जन्म और मृत्यु की समस्याएं। जैसे ही जिज्ञासा का १. फिजिक्स एण्ड फिलोसफी के प्रिफेस से। २. दी स्टोरी ऑफ फिलोसोफी, पृ० २ । ३. वही, पृ० २। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान समाधान सम्यक् ज्ञान के रूप में होता है वह 'विज्ञान' की संज्ञा को प्राप्त कर लेता है ।' डूरण्ट के इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि दर्शन किसी भी रूप में विज्ञान से निम्न नहीं है । ४ विज्ञान को दर्शन से अधिक पूर्ण बताने वाले अधिकांशतया यह तर्क उपस्थित करते हैं कि केवल कल्पना पर आधारित होने के कारण दर्शन का प्रामाण्य संदिग्ध है, जबकि विज्ञान निरीक्षण और परीक्षण पर आधारित होने के कारण अधिक प्रामाणिक है। यह बात सत्य है कि आज के युग में विज्ञान ने अभियान्त्रिकी (Engineering) और प्रौद्योगिकी (Technology) के क्षेत्रों में अभूतपूर्व सफलता पाकर, ज्ञान की अन्य शाखाओं को बहुत पीछे रख दिया है। इस सफलता ने मनुष्य के मस्तिष्क में विज्ञान के प्रति सम्मान और हृदय में उसके प्रति श्रद्धा उत्पन्न कर दी है। अधिकांश लोग यह मानते हैं कि जो कुछ भी विज्ञान द्वारा घोषित होता है, वह 'अन्तिम सत्य' का उच्चारण है । क्या वैज्ञानिक सिद्धान्त अन्तिम सत्य का उच्चारण है? किन्तु सामान्यतया लोग सैद्धांतिक (वैचारिक) विज्ञान और व्यावहारिक (प्रायोगिक) विज्ञान के बीच जो अन्तर है, उसे परख नहीं पाते । यद्यपि यह सत्य है कि विज्ञान का व्यावहारिक पक्ष सैद्धांतिक पक्ष से निकटतया सम्बन्धित है, फिर भी इनके प्रामाण्य के विषय में मूलभूत अन्तर भी है। वस्तुत: यह निश्चित रूप से माना गया है कि' प्रायोगिक विज्ञान के तथ्य विज्ञान के वैचारिक पक्ष को सूचित नहीं करते । अतः अभियांत्रिकी और तकनीकी क्षेत्र में विज्ञान की अद्वितीय सफलता होते हुए भी 'वैज्ञानिक नियम' अथवा 'वैज्ञानिक सिद्धांत' अन्तिम सत्य का उच्चारण है, ऐसा नहीं माना जा सकता। इसका कारण यही है कि सामान्य मनुष्य वैज्ञानिक सिद्धांतो को जितना वास्तविक मानता है उससे अधिक वे काल्पनिक हैं । यह बात एफ. एस. सी. नोर्थरोप (F.S.C.Northrop) के इन शब्दों में स्पष्ट रूप से व्यक्त हुई हैं : विधानात्मक शब्दों में हम इसे प्रकार कह सकते हैं कि भौतिक विज्ञान के सिद्धांत, प्रायोगिक तथ्यों का वर्णन मात्र नहीं है; और न इस वर्णन के आधार पर किया वाला अनुमान है। किन्तु जैसे आइंस्टीन ने जोर देकर कहा है, भौतिक विज्ञानवेत्ता अपने सिद्धांत का निर्णय काल्पनिक आधारों पर करता है । उसके आनुमानिक निर्णयों में तथ्य साधन और काल्पनिक सिद्धांत साध्य नहीं होते, आनुमानिक निर्णयों में तथ्यों १. देखें, फिजिक्स एण्ड फिलोसोफी, ले० डबल्यु० हाईजनबर्ग, पर एफ० एस० सी० नोर्थरोप द्वारा लिखित इन्ट्रोडक्शन, पृ. १४ । २. वही, पृ. १३ । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और विज्ञान साधन और काल्पनिक सिद्धांत साध्य नहीं होते, प्रत्युत काल्पनिक सिद्धांतों के आधार पर वह तथ्यों का और प्रायोगिक निष्कर्षों का अनुमान करता है । संक्षिप्त में, भौतिक विज्ञान का कोई भी सिद्धांत तथ्यों द्वारा आधारित कल्पनाओं से भी अधिक अनेक भौतिक और दार्शनिक कल्पनाएं करता है । इसीलिए किसी भी सिद्धांत में परिवर्धन और परिवर्तन की सम्भावना रह जाती है।. इस प्रकार, वैज्ञानिक स्वयं इस तथ्य को जानने लगे हैं कि वर्तमान विज्ञान के रूप में उनके पास जो ज्ञान- राशि है, वह न केवल 'अपूर्ण' है अपितु 'संदिग्ध' भी है । इसी बात को आज तक जगत् के महान् वैज्ञानिकों ने बार-बार दुहराया है। सुकरात (Socrates) से भी प्राचीन युनानी दार्शनिकों के अनुसार 'दर्शन' शब्द का अर्थ होता है- 'बहिर्जगत् का अध्ययन' ।' अब, आधुनिक शब्दाकोश के अनुसार 'बहिर्जगत् के अध्ययन' को 'विज्ञान' की संज्ञा दी गई है। इस प्रकार शब्द-रचना की दृष्टि से भी दर्शन और विज्ञान में अत्यधिक साम्य है। 'विज्ञान' और 'दर्शन' के परस्पर सम्बन्धों के विषय में विचारकों में विचार-भेद होते हुए भी एक विचार स्पष्टयता मान्य हो चुका है कि दर्शन और विज्ञान में अति निकट का सम्बन्ध है, और यदि प्रकृति की कोई 'प्रहेलिका' को सुलझाने का प्रयत्न दोनों के द्वारा हुआ हो; तो उनके तुलनात्मक अध्ययन से उस प्रहेलिका को सुलझाने में अवश्य सरलता हो सकती है। कुछ एक आधुनिक वैज्ञानिकों ने इस तथ्य का मूल्यांकन किया है। उन्होंने आधुनिक विज्ञान के दर्शन-पक्ष की भी चर्चा की है । इसके परिणामस्वरूप एक नए विषय 'वैज्ञानिक दर्शन' (Philosophy of Science) का प्रादुर्भाव हुआ है। विज्ञान - जगत् में अपने 'अनिश्चितता के नियम' (Uncertainty Principle) से एक नया उन्मेष लाने वाले सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक वर्नर हाईजनबर्ग (Werner Heisenberg) ने 'भौतिक विज्ञान और दर्शन' नामक पुस्तक लिखकर, इस विषय में एक नया अध्याय जोड़ा है। इस पुस्तक के परिचय में वैज्ञानिक एफ. एस. सी. नोर्थरोप ने लिखा है: ये प्रश्न खड़े होते हैं कि 'क्या भौतिक विज्ञान दर्शन से सर्वथा स्वतंत्र है?' तथा क्या दर्शन को हटाकर ही आधुनिक विज्ञान अधिक प्रभावशाली बना है?' '- इन दोनों प्रश्नों का उत्तर हाईजनबर्ग निषेध' में देते है ।' नोर्थरोप के इन शब्दों से उस विचार को स्पष्ट चुनौती मिल जाती है जो विज्ञान और दर्शन का पूर्व-पश्चिम की तरह मानता है और यह एक प्रमाणित सत्य हो जाता है कि आधुनिक विज्ञान की अत्यधिक सफलता में दर्शन का भी योग है । १. देखें, फोम युक्लिड टू एडिंग्टन, पृ० १ । २. फिजिक्स एण्ड फिलोसोफी इन्ट्रोडक्शन, पृ० १२ । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलनात्मक अध्ययन का लाभ दर्शन और विज्ञान के तुलनात्मक अध्ययन से जो लाभ होता है, उसकी एक झांकी स्वयं हाईजनबर्ग के शब्दों में हमें मिलती है। 'वर्तमान चिन्तन में आधुनिक विज्ञान के योग' की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं । ' 'विज्ञान के इस आधुनिकतम अध्याय में बहुत स्थानों पर अति प्राचीन वैचारिक समस्याओं की चर्चा की गई है और वह भी एक नए दृष्टिकोण से । सामान्ययतया यह एक माना हुआ सत्य है कि मानव-चिन्तन के इतिहास में जब भी दो विचारधाराओं का मिलन होता है, तब अि सुपरिणामशाली विकास का उद्भव होता है। भले ही उन विचारधाराओं का उद्गम-स्थान मानव- - संस्कृति के भिन्न-भिन्न विभागों में हो, भिन्न-भिन्न काल में हो, भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक परिस्थितियों में हो अथवा भिन्न-भिन्न धार्मिक पंरपराओं में हो । प्रत्युत ऐसी विचारधाराएं यदि वस्तुतः परस्पर मिलती हैं - यदि उनमें ऐसा सम्बन्ध है कि जिससे उनका वास्तविक संगम होता है तो यह सहज अनुमान है कि उसके परिणामस्वरूप नवीन और रोचक निष्कर्ष निकल सकते हैं। उदाहरणार्थ, आधुनिक विज्ञान का एक अंश - अणु विज्ञान (Atomic Physics) आज के युग में वस्तुतः भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक परंपराओं को स्पर्श करता है।' हाईजनबर्ग ने इस चिन्तन से प्राचीन पारंपरिक दर्शन के और आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोणों के तुलनात्मक अध्ययन का मूल्यांकन सहज रूप से फलित होता है । यदि हम आधुनिक विज्ञान के दर्शन से प्रकृति के रहस्यों को उद्घाटित करना चाहते है, तो प्राचीन दर्शनों का दृष्टिकोण इस विषय में क्या रहा है, यह जानना हमारे लिए निःसन्देह उपयोगी होगा । जैन दर्शन और विज्ञान कुछ विचारक आधुनिक विज्ञान के दर्शन को 'वैज्ञानिक दर्शन' नहीं मानते। उनके अभिप्रायानुसार यह नई दार्शनिक धारा केवल कुछ एक वैज्ञानिकों की है । किन्तु 'विज्ञान' का सहज दार्शनिक स्वरूप सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक सर ए. एस. एडिंग्टन (Sir A.S.Eddington) के शब्दों में हमें देखने को मिलता है । 'भौतिक विज्ञान का दर्शन' नामक अपनी पुस्तक की भूमिका में वे लिखते है: ' 'यह बहुधा कहा जाता है कि विज्ञान का कोई 'दर्शन' नहीं है केवल कुछ एक वैज्ञानिकों का 'दर्शन' हो सकता है । किन्तु यह ठीक नहीं है । 'वर्तमान भौतिक विज्ञान क्या है और क्या नहीं है?' इसका निर्णय करने वाले अधिकारी विद्वानों के अभिप्राय को यदि हम मान्यता देते हैं, यह मानना ही पड़ेगा कि वर्तमान भौतिक विज्ञान का एक सुनिश्चित 'दर्शन' है । ९. फिजिक्स एण्ड फिलोसोफी, पृ० १६१ । २. फिलोसोफी ओफ फिजिकल साईन्स, प्रिफेस, पृ० ७ ! Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और विज्ञान यह वही 'दर्शन' है, जिसके साथ वे सभी वैज्ञानिक अपनी पद्धति से वाग्बद्ध होते हैं, जो विज्ञान द्वारा स्वीकृत पद्धति को अपना कर चलते हैं। यह दर्शन इनकी उन पद्धतियों में सहज रूप से निहित है, जिनसे वे विज्ञान का विकास करते हैं--कभी-कभी तो वे समझते भी नहीं कि क्यों वे ऐसी पद्धति को व्यवहत करते हैं।. ........ 'आज के अधिकांश वैज्ञानिक इस बात को स्वीकार करते हैं कि प्राचीन दार्शनिक समस्याएं और इनके समाधानों' की चर्चा यदि आधुनिक विज्ञान के सिद्धांतो के आलोक में की जाय तो वह वस्तुत: ही लाभदायक हो सकती है। जैसे कि माने हुए वैज्ञानिक सर एडमण्ड व्हीट्टाकर (Sir Edmund Whittakar) जिन्होंने प्राचीन यूनानी गणितज्ञ युक्लिड (Euclid) से लेकर आधुनिक वैज्ञानिक एडिग्टन तक के विज्ञान के इतिहास पर अधिकारपूर्ण पुस्तक लिखी है, अपनी उस पुस्तक की आदि में लिखते है: १ 'आज भी यह सत्य है कि बहुत सारे महत्त्वपूर्ण दानिक प्रश्नों की चर्चा भौतिक विश्व के सन्दर्भ के बिना करना लाभदायक नहीं हो सकता और भौतिक विज्ञान के निकटभूत में हुए विकास ने कुछ पारंपरिक दर्शन की समस्याओं पर प्रकाश डाला है। इन्हीं समस्याओं में 'आकाश के स्वरूप' का प्रश्न भी है।' प्रकृति की अनेक समस्याओं में से आकाश-तत्त्व' की समस्या भी एक है, जिसको आधुनिक विज्ञान ने नए दृष्टिकोण से हल करने का प्रयत्न किया है। और इस प्राचीन समस्या का यह नया हल अधिकतर ज्ञान मीमांसा पर आधारित है। किन्तु कुछ विचारक आधुनिक विज्ञान के इस दार्शनिक लक्षण को स्वीकार नहीं करते। प्रसिद्ध आधुनिक दार्शनिक और वैज्ञानिक हन्स राइशनबाख (Hans Reichenbach) के शब्दों में यह बात स्पष्ट रूप से प्रकट होती है: २ 'यदि वर्तमान युग के दार्शनिक समकालीन विज्ञान के दार्शनिक लक्षण को स्वीकार नहीं करते हैं--यदि 'आपेक्षिकता का सिद्धांत' (Theory of Relativity) और सेट्स का सिद्धांत' (Theory of Sets) जैसे सिद्धांत को वे 'अदार्शनिक' कहते है और उनको केवल विज्ञान-विशेष के ही अंग मानते हैं--तो यह निर्णय उन दार्शनिकों की आधुनिक वैज्ञानिक विचारों में निहित दार्शनिकता को समझने की असमर्थता को ही व्यक्त करता है।' आगे राइशनवाख लिखते हैं : ३'यह आवश्यक है कि विज्ञान को दार्शनिक दृष्टिकोणों से देखा जायें और उसके तीक्ष्ण उपकरणों से इस परिष्कृत ज्ञान का 'दर्शन' बनाया जाय।' १. फोम युक्लिड टू एडिंग्टन, पृ० १ । २. दी फिलोसोफी ऑक स्पेस एण्ड टाईम, प्रिफेस, पृ० १३ । ३. दी फिलोसोफी आफ स्पेस एण्ड टाईम, प्रिफेस, पृ० १४ । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान संक्षिप्त में यह कहा जा सकता है कि विज्ञान और दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन अत्यन्त उपयोगी हो सकता है। (२) आधुनिक विज्ञान का दर्शन वास्तविकता का स्वरूप सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक फेड होयल (Fred Hoyle) विश्व (Universe) की व्याख्या करते हुए लिखते हैं-'विश्व सब कुछ है; जीव और निर्जीव पदार्थ; अणु और आकाश-गंगाएं (galaxies); और यदि भौतिक पदार्थो के साथ आध्यात्मिक तत्त्वों का अस्तित्व हो तो वे भी; और यदि स्वर्ग और नरक भी हो, तो वे भी। चूंकि स्वभावत: विश्व सभी पदार्थों की सकलता है।' इस प्रकार, विश्व' शब्द का व्यापक अर्थ है उन सभी तत्त्वों का समूह, जिनका अस्तित्व हम इन्द्रिय, बुद्धि और आत्मा द्वारा जान सकते हैं। अणु से लेकर आकाश-गंगा तक के सभी छोटे-बड़े भौतिक पदार्थ तो इसमें समाहित हैं ही। किन्तु इनके अतिरिक्त आकाश (Space), काल (Time), ईथर (ether), चैतन्य (consciousness) आदि तत्त्वों का भी अनुभव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में हमें होता है। अत: ये भी विश्व के अंग है। यह जानना आवश्यक है कि वास्तविकता (reality)का क्या स्वरूप है? इस प्रश्न का समाधान वैज्ञानिकों ने किस प्रकार किया है? भिन्न-भिन्न वैज्ञानिकों ने भिन्न-भिन्न रूप से प्रश्न का उत्तर दिया है और ये उत्तर विभिन्न दार्शनिकों के द्वारा दिये गए समाधानों से सादृश्य रखते हैं। वैज्ञानिकों के और दार्शनिकों के अभिप्रायों को मुख्य रूप से दो प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है-- १. आदर्शवाद (Idealism)-इस विचारधारा के अनुसार हमारे ज्ञान में आने वाला विश्व 'वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता' (objective reality) न होकर केवल 'ज्ञाता-सापेक्ष वास्तविकता' (subjective reality) है। आदर्शवाद कहता १. फन्टियर्स ऑफ एस्ट्रोनोमी, पृ० ३०४ । २. आधुनिक विज्ञान के दर्शनवेत्ता हेनी मार्गेनौ इस विषय में लिखते हैं कि यह एक माना हुआ तथ्य है कि जहां तक शुद्ध वैज्ञानिक बातों का प्रश्न है, जगत् के वैज्ञानिक एकमत होते हैं। किन्तु 'वास्तविकता' के विषय में उनका भिन्न-भिन्न मत होना आश्चर्यजनक नहीं है।' -दी नेचर ऑफ फिजिकल रियलिटी, पृ० १२ ३. किसी भी पदार्थ का अस्तित्व यदि ज्ञाता की अपेक्षा बिना-अपने आप में स्वतन्त्रतया होता है, तो वह वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता' (objective reality) है। दूसरी ओर जिस पदार्थ का अपने आप में स्वतन्त्रतया कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है, किन्तु केवल ज्ञाता के मस्तिष्क में उसका अस्तित्व होता है, तो वह ज्ञाता-सापेक्ष वास्तविकता' (subjective reality) है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और विज्ञान ९ है कि वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता का अस्तित्व होने पर भी हमारा ( मनुष्य का ) ज्ञान केवल ज्ञाता - सापेक्ष वास्तविकता तक सीमित है । इस अभिप्राय को स्वीकार करने वाले वैज्ञानिकों में डा. अलबर्ट आईन्सटीन, सर ए. एस. एडिंग्टन, सर जेम्स जीन्स, हर्मन वाइल, अर्नस्ट माख, पोईनकेर आदि हैं और दार्शनिकों में प्लुतो (Plato), लाइबनीज, लोक, बर्कले, ह्यूम, काण्ट, हेगल आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। २. वास्तविकतावाद (Realism) - - इसके अनुसार विश्व वस्तुसापेक्ष वास्तविकता है । विश्व-स्थित पदार्थ ज्ञाता की अपेक्षा बिना भी वास्तविक अस्तित्व रखते हैं। इस अभिप्राय को स्वीकार करने वाले वैज्ञानिकों में न्यूटन, बोहर (Bohr), हाइजनबर्ग, व्हीट्टाकर, राइशनबाख, सी. इ. एम. जोड, सर ओलिवर लोज और भौतिकवादी सोवियत वैज्ञानिक हैं तथा दार्शनिकों में डेमोक्रिटस और अणुवादी यूनानी दार्शनिक, अरस्तु, ईसाई पाण्डित्यवादी (Scholastic) दार्शनिक, रेने डेकार्टस्, बर्ट्रेण्ड रसल, हेन्री मार्गेनौ आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। (क) वैज्ञानिकों का आदर्शवाद और जैन दर्शन विज्ञान के सहज दार्शनिक स्वभाव की चर्चा में यह बताया गया था कि 'विज्ञान का एक सुनिश्चत दर्शन है । इससे यही तात्पर्य था विज्ञान मनुष्य के ज्ञान की धारा होने के कारण 'दर्शन' से अछूता नहीं रह सकता । किन्तु वैज्ञानिकों के द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक धाराएं विज्ञान का दर्शन है, ऐसा नहीं माना जा सकता । जैसे मार्गेनौ के शब्दों में हमने देखा कि वास्तविकता के विषय में वैज्ञानिकों का भिन्न-भिन्न मत होना आश्चर्यजनक नहीं है । इस अभिप्राय के आधार पर मार्गेनौ ने वैज्ञानिकों को भिन्न-भिन्न दार्शनिक प्रकारों में विभक्त किया है, जिनमें प्लांक और आइन्सटीन को विवेचनात्मक वास्तविकतावादी (क्रिटिकल रियलिस्ट्स) एडिंग्टन और जीन्स को आदर्शवादी तथा बोहर और हाईजनबर्ग को विधानवादी अथवा प्रत्यक्षवादी (पॉजिटिबीस्ट ) बताया है । मार्गेनौ तो यहां तक मानते है कि नितांत आत्मवादी (सोलिप्सिष्ट) भी कुछ एक सीमाओं में वैज्ञानिक बन सकता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वैज्ञानिक दर्शन और वैज्ञानिकों का दर्शन एक ही नहीं है । एडिंग्टन ने विज्ञान के दर्शन का जिस रूप में प्रतिपादन किया है, उसे हम एडिंग्टन का दर्शन कह सकते हैं, परन्तु विज्ञान का दर्शन नहीं कह सकते । इसी प्रकार अन्य १. देखें, पृ० ६ । २. देखें, पृ० ८, टिप्पण ३ । ३. दी नेचर ऑफ फिजिकल रियलिटी, पृ० १२ । ४. देखें, वही, पृ० १२; नितान्त आत्मवादी में सामान्यतया 'स्व' (आत्मा) के अतिरिक्त विश्व की वास्तविकता का निषेध किया गया है। ज्ञाता-सापेक्ष आदर्शवाद का ऐकान्तिक रूप नितान्त आत्मवाद' है । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान वैज्ञानिकों के द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक विचारधाराएं, उन वैज्ञानिकों के दर्शन है, न कि 'विज्ञान का दर्शन'। आदर्शवादी वैज्ञानिकों में मुख्यत: एडिंग्टन, वाईल, सर जेम्स जीन्स जैसे वैज्ञानिक हैं। एडिंग्टन ने यह तो स्वीकार किया है कि वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता का अस्तित्व है, किन्तु भौतिक विज्ञान के द्वारा हम विश्व का जो ज्ञान करते हैं, वह ज्ञाता-सापेक्ष है। एडिंग्टन की विचारधारा में ज्ञाता अथवा चैतन्य को प्रधानता दी गई है। विज्ञान (विशेषत: भौतिक विज्ञान) विश्व के विषय में निरपेक्ष सत्य अथवा वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता को न जानना चाहता है और न जान सकता है। वैज्ञानिक पद्धतियों के द्वारा हम जो ज्ञान करते हैं, वह पूर्णत: ज्ञाता-सापेक्ष है। इसका कारण यही है कि विज्ञान चैतन्य और बाह्य विश्व की संयुक्त अनुभूति से सम्बन्धित है। इसका तात्पर्य यही हुआ कि भौतिक विश्व के पदार्थों का अस्तित्व चैतन्य की ज्ञान-पद्धति के द्वारा ही व्यक्त होता है और विज्ञान का सम्बन्ध इसके साथ होने के कारण विज्ञान द्वारा निर्मित नियम अथवा सिद्धांत ज्ञाता-सापेक्ष ही है। ___एडिंग्टन वास्तविकतावाद के कड़े विरोधी रहे हैं। उन्होंने वास्तविकतावाद को विरोधी विचारधारा के रूप में मानकर ही अपनी विचारधारा का प्रतिपादन किया है। वास्तविकतावाद का यह साधारण प्रतिपादन है कि भौतिक पदार्थो का अस्तित्व वस्तु-सापेक्ष है तथा उनमें रहे हुए स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि गुण भी वस्तु-सापेक्ष हैं। एडिंग्टन के कथनानुसार--'भौतिक पदार्थो में स्पर्श आदि वास्तविक गुणधर्म होते हैं, यह बात वैज्ञानिक प्रतिपादन के विरुद्ध है। उदारणस्वरूप वास्तविक सेव' का अस्तित्व ज्ञाता के मस्तिष्क के बाहर स्वतन्त्र रूप से होता है, इस बात का मैं विरोध नहीं करता और न मैं इस बात का भी विरोध करता हूं कि 'रस' का वास्तविक अस्तित्व है। मेरा विरोध तो वास्तविकतावादियों की इस मान्यता से है कि वास्तविक सेव के भीतर ही वास्तविक रस का अस्तित्व है, जो ज्ञाता से सर्वथा निरपेक्ष है। ‘एडिंग्टन स्वयं यह मानते है कि अनुभूति में आने वाली बातों में ज्ञाता' अथवा 'मन' सर्वप्रथम और प्रत्यक्ष है; शेष सब उत्तरवर्ती अनुमान होने से परोक्ष हैं। प्रत्येक मनुष्य की अनुभूति में यह बात तो आती ही है कि उसकी चेतना में क्रमगत परिवर्तन होता रहता है-स्मृति, कल्पना, भावना आदि की अनुभुति भी इसके १. देखें, दी फिलोसोफी ऑफ फिजिकल साईन्स, पृ० १८५, १८७ । २. देखें, वही, पृ० १८४ । ३. दी न्यू पाथवेज इन साईन्स, पृ० २८१ । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और विज्ञान साथ-साथ होती रहती है। इस प्रकार किसी भी प्रकार की अनुभूति में एक ऐसा तत्त्व रहता है, जो यद्यपि व्यक्तिगत चैतन्य से भिन्न है, बहिर्जगत् के पदार्थों से भी भिन्न है; बहिर्जगत् के पदार्थ और उनकी ऐन्द्रिय अनुभूति तो इससे बहुत बाद के हैं तथा परोक्ष हैं। इस प्रकार देखा जा सकता है कि एडिंग्टन की विचारधारा में ज्ञाता को प्रधानता दी गई है; वह इसलिए कि उनके अभिमत में ज्ञाता की कोई भी अनुभूति नई नहीं होती; पुरानी अनुभूति के साथ कुछ-न-कुछ सादृश्य रखती ही है। ज्ञाता वही रहता है और पुरानी अनुभूति के आधार पर नई अनुभूति को जन्म देता है। यह नई-पुरानी का चक्र चलता रहता है और पुन: हमें वही अनुभूति होती है, जो पहले हो चुकी थी। भौतिक विज्ञान इसी बात पर आधारित है कि भिन्न-भिन्न अनुभूतियों का ज्ञाता एक ही है और इसलिए ही भौतिक विज्ञान ज्ञाता-सापेक्ष विश्व का प्रतिपादन करता है। एडिंग्टन ने अपनी विचारधारा को सीमित ज्ञाता-सापेक्षवाद कहा है। नितान्त आत्वाद में केवल 'स्व' को ही वास्तविक माना गया है। एडिंग्टन की विचारधारा के अनुसार हमारी चेतना के अतिरिक्त भी अन्य चेतना का वास्तविक अस्तित्व हो सकता है, क्योंकि मेरे कान और वाचा की अनुभूति (सुने जाने और पढ़े जाने वाले शब्दों की) का जो मेरे लिए प्रत्यक्ष ज्ञान है, वह दूसरों के लिए नितान्त भिन्न अनुभूति का परोक्ष ज्ञान हो सकता है, किन्तु नितान्त आत्मवाद यह स्वीकार नहीं करता। अत: भौतिक विज्ञान आत्मवाद का विरोधी हो जाता है। एक स्थान में वास्तविकतावादी विचारधारा को उद्धृत करके, उन्होंने लिखा है कि इस प्रकार की विचारधारा बीसवीं सदी के दर्शन का आधार कैसे बन सकती है, यह मेरी समझ में नहीं आता। ___इस प्रकार एडिंग्टन के ज्ञाता-सापेक्षवाद का तात्पर्य यही लगता है कि चैतन्य या मन वस्तु-सापेक्ष वास्तविकतावाद है, जबकि भौतिक जगत् ज्ञाता-सापेक्ष वास्तविकता है। प्रो. स्टेबिंग ने तो स्पष्ट रूप से लिखा है-'सर आर्थर एडिंग्टन के दार्शनिक ग्रन्थों में यह बात पायी जाती है कि उनकी स्वयं की रूढ दार्शनिक भावना १. वही, पृ० २८० । २. वही, पृ० २८६। ३. वही पृ० २८७। ४. देखें, दी फिलोसोफी ऑफ फिजिकल साईन्स, पृ० २७ । ५. दी फिलोसोफी ऑफ फिजिकल साईन्स, पृ० १९८, १९९ । ६. वही, पृ० २११, २१२ । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैन दर्शन और विज्ञान उन्हें इस बात के लिए चिन्तित करती है कि उनके वैज्ञानिक दर्शन को वे किस प्रकार से उनके जीवन-दर्शन के साथ सम्बन्धित कर सकें। किन्तु ऐसा करने में जो मूल्य उन्हें चुकाना पड़ा है, वह उनकी धारणा से अत्यधिक है।' इस प्रकार एडिंग्टन के द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक विचारधारा उनके स्वयं का दर्शन है। एडिंग्टन का दर्शन और जैन दर्शन एडिंग्टन के दर्शन की जैन दर्शन के साथ तुलना करते समय हमें जैन दर्शन की ज्ञान-मीमांसा और तत्त्व-मीमांसा को ध्यान में रखना होगा। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का लक्षण 'उपयोग' अर्थात् चैतन्य-व्यापार है।' चैतन्य की प्रवृत्ति के द्वारा आत्मा-द्रव्यों को जानती है। प्रत्येक द्रव्य में सहज रूप से अनन्त गुण विद्यमान होते है, जो मुख्यतया दो प्रकार के हैं-सामान्य और विशेष। ये गुण द्रव्य में वस्तुनिष्ठ होते हैं। इनको आत्मा जब जानती है, तब वह जानना क्रमश: दर्शन (अनाकार उपयोग) और ज्ञान (साकार उपयोग) कहलाता है। तात्पर्य यह हुआ कि वस्तु (ज्ञेय) के वस्तु-निष्ठ गुणों के कारण ही ज्ञाता (आत्मा) का अवबोध दो प्रकारों मे विभक्त हो जाता है। दूसरी जो जैन ज्ञान-मीमांसा की अपनी मौलिक और विशिष्ट बात है, वह यह है कि ऐन्द्रिय ज्ञान के अतिरिक्त 'अतीन्द्रिय ज्ञान' का होना भी वह स्वीकार करता है। जहां ऐन्द्रिय ज्ञान में आत्मा वस्तुओं को इन्द्रिय और मन की सहायता से जानती है, वहां अतीन्द्रिय-ज्ञान में बिना इनकी सहायता से अपने आप ज्ञेय वस्तु को जान लेती है। जैन दर्शन में ज्ञान के पांच भेद बताये गये है। उनमें से १. फिलोसोफी एण्ड दी फिजिस्टिस, प्रिफेस, पृ० १० । २. उपयोगलक्षणो जीव: । चेतनाव्यापार उपयोगः ।। ___ -श्री जैन सिद्धांत दीपिका, २-१, २। ३. 'दर्शन' शब्द जैन ज्ञान-मीमांसा का पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है-वस्तु (द्रव्य) के ___सामान्य गुणों का अवबोध। यह सामान्यतया प्रयुक्त 'दर्शन' शब्द से नितान्त भिन्न है। ४. (१) मतिज्ञान-इन्द्रिय, मन और बुद्धि की सहायता से होने वाला। (२) श्रुतज्ञान-स्व और पर का अवबोध कराने में समर्थ मतिज्ञान । अवधिज्ञान-बाह्य साधनों की अपेक्षा के बिना केवल आत्मा के द्वारा ही होने वाला दृश्य पदार्थों का ज्ञान। (४) मन:पर्यवज्ञान-केवल आत्मा के द्वारा ही होने वाला संज्ञी प्राणियों के मनोभावों का ज्ञान। केवलज्ञान-केवल आत्मा के द्वारा ही होने वाला समस्त द्रव्यों व पर्यायों का साक्षात्कार। (इनके विस्तृत विवेचन के लिए देखें, श्री जैन सिद्धान्त दीपिका प्रकाश दूसरा तथा भिक्षुन्यायकर्णिका, विभाग ५) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और विज्ञान प्रथम दो--मतिज्ञान व श्रुतज्ञान तो ऐन्द्रिय हैं और शेष तीन-अवधिज्ञान, मन:पर्यव ज्ञान और केवलज्ञान अतीन्द्रिय हैं। प्रथम दो आत्मा के अतिरिक्त बाह्य साधनों की अपेक्षा रखते हैं (चाहे वे साधन इन्द्रिय अथवा मन के रूप में हों या भौतिक उपकरणों के रूप में हो), जबकि शेष तीन में बाह्य भौतिक साधनों की किंचित् भी अपेक्षा नहीं रहती। इसीलिए अवधि, मन:पर्यव और केवल-ये तीन प्रत्यक्ष माने जाते हैं और मति-श्रुत परोक्ष माने जाने है। दूसरी ओर जैन तत्त्व-मीमांसा का यह स्पष्ट निरूपण है कि जीवास्तिकाय (आत्मा) और पुद्गलास्तिकाय दोनों स्वतंत्र तत्त्व हैं और वस्तु-सापेक्ष वास्तविकताएं हैं। चैतन्य आत्मा का असाधारण गुण है। स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण- ये पुद्गल के अनिवार्य गुण हैं और वस्तु-सापेक्ष हैं। पुद्गल तत्त्व की परिभाषा ही इस प्रकार की गई है कि स्पर्श, रस, गंध और वर्ण (रंग), जिसमें हों, वह पुद्गल है।' एडिंग्टन के दर्शन और जैन दर्शन में कितना साम्य-वैषम्य है, यह अब सरलतया स्पष्ट हो सकता है। एडिंग्टन ने अपने दर्शन का आधार ज्ञान मैमासिक विश्लेषण को बना कर यह प्रतिपादित किया है कि चैतन्य एक वस्तुसापेक्ष वास्तविकता है, जो हमारे सारे ज्ञान, अनुभूति, विचार, स्मृति आदि का स्रोत है। जैन-दर्शन भी आत्मा का अस्तित्व वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता के रूप में स्वीकार करता है और उसको ही सभी चेतनामय प्रवृत्तियों का स्रोत मानता है। इस प्रकार आत्मा के अस्तित्व के विषय में तथा उसके गुण के विषय में दोनों दर्शनों का सदृश प्रतिपादन रहा है। बाह्य विश्व अथवा भौतिक जगत् के 'अस्तित्व' का जहां तक प्रश्न है दोनों ही दर्शन उसको स्वीकार करते हैं, किन्तु उसके स्वरूप के विषय में दोनों में मौलिक मतभेद प्रतीत होता है। एडिंग्टन यह मानते है कि भौतिक पदार्थ के वर्ण, रस आदि सभी गुण वस्तु-निष्ठ न होकर केवल चैतन्य की प्रवृति के निमित्त ही उसमें आरोपित होते हैं; जबकि जैन दर्शन के अनुसार वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का अस्तित्व चैतन्यजन्य नहीं, अपितु पुद्गल में स्वाभाविक रूप से ही होता है। पुद्गल के प्रत्येक परमाणु में एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और दो स्पर्श होते हैं। १. स्पर्शसगन्धवर्णवान् पुद्गलः । -श्री जैन सिद्धांत दीपिका, १-११ । २. एकरसगन्धवर्णों द्विस्पर्श: कार्यलिङ्गच । -पञ्चास्किायसार। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जैन दर्शन और विज्ञान परमाणु का अस्तित्व जिस प्रकार वस्तु सापेक्ष है- ज्ञाता सापेक्ष नहीं, उसी प्रकार स्पर्शादि गुणचतुष्टय भी परमाणु के वस्तु-सापेक्ष गुण है और ज्ञाता की अपेक्षा बिना ये सदा परमाणु में रहते हैं। इतना ही नहीं, बल्कि स्पर्शादि चतुष्टय की विविधता का अस्तित्व भी ज्ञाता-सापेक्ष न होकर वस्तु सापेक्ष ही है। विश्व में अस्तित्ववान् अनन्त परमाणुओं में अनन्त प्रकार से इन गुणों का वैविध्य और तारतम्य होता है। उदाहरणार्थ हम वर्ण को लें-काला, नीला, रक्त, पीत और श्वेत पांच प्रकार के वर्ण मौलिक माने जाते हैं। प्रत्येक परमाणु में इन पांच वर्णो में से कोई भी एक वर्ण अवश्य होता है। इसमें भी फिर समान वर्ण वाले परमाणुओं में उस वर्ण की मात्रा का तारतम्य होता है। कुछ एक परमाणु केवल एक गुण (यूनिट) वाले होते है; कुछ एक परमाणु दो गुण वाले, कुछ अनन्त गुण वाले भी होते है। इस प्रकार से अन्य वर्गों की तथा रस आदि गुणों की भी विविधता और तारतम्य वस्तु-सापेक्ष रूप में परमाणुओं में होता है। इस प्रकार वर्णदि चतुष्टय की विविधता का अस्तित्व न तो चेतना द्वारा आरोपित होता है। और न चेतना पर आधारित ही है। यह जैन परमाणुवाद की तात्त्विक रूपरेखा है। इसके अनुसार सेव' जिन परमाणुओं का बना हुआ है, उनमें से प्रत्येक परमाणु में कोई न कोई 'रस' तो होता ही है और इन सब परमाणुओं के समूह रूप सेव का रस भी वास्तविक अस्तित्व रखता है। आधुनिक विज्ञान भौतिक पदार्थ की अन्तिम इकाई तक पहुंच नहीं पाया है, फिर भी अणु-स्थित कण-'ऋणाणु' 'धनाणु' आदि व्यावहारिक रूप में भौतिक पदार्थो की इकाइयों के रूप में माने जाने हैं। एडिंग्टन इन कणों के वास्तविक अस्तित्व को तो स्वीकार करते हैं, पर इनमें वर्णादि गुणों का वास्तविक अस्तित्व है, ऐसा वे नहीं मानते। उनके यह बात समझ में नहीं आती कि ज्ञाता की अपेक्षा के बिना भी स्वयं परमाणु और पदार्थ वर्णादि को किस प्रकार धारण कर सकते है। किन्तु यह केवल उनकी रूढ़ आदर्शवादी विचारधारा के कारण से है, ऐसा लगता है। वर्णादि की विविधता प्रत्यक्षतया हमारी अनुभूति में आती है और एडिंग्टन भी इसका निषेध नहीं कर सकते। अब, यदि यह विविधता वस्तुनिष्ठ न होती, तो एक ही चैतन्य को विभिन्न पदार्थ, विविध वर्णादि वाले किस प्रकार अनुभूत होते? साथ ही यदि वर्णादि को बुनने वाला चैतन्य ही होता और पदार्थ अपने आपमें निर्गुण ही होता, तो फिर एक ही पदार्थ नाना ज्ञाताओं के द्वारा समान ही वर्णादि वाला क्यों १. देखें, दी न्यू पाथवेल इन साईन्स, पृ० ८८ । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और विज्ञान अनुभूत होता' अर्थात यदि पदार्थ में स्वयं किसी भी प्रकार का वैशिष्ट्य न हो तो सभी ज्ञाता उसे समान रूप से अनुभव करें, यह संभव नहीं हो सकता। उदाहरणार्थ-दूब का रंग सभी मनुष्यों को हरा दिखाई देता है। एडिंग्टन का मत यह है कि इसमें दूब की स्वयं की कोई विशिष्टता नहीं है। ज्ञाता अपनी विशिष्ट चैतन्य शक्ति के कारण ही दूब को हरी देखता है, किन्तु यह न तो सामान्य तर्क के आधार पर सही १.यह सही है कि कभी-कभी एक ही पदार्थ भिन्न-भिन्न ज्ञाताओं को भिन्न-भिन्न वर्णादि वाला अनुभूत होता है, किन्तु इसका कारण व्यक्तिगत क्षमता और साधनों की भिन्नता है। जैसे वर्णांध व्यक्तियों को वर्णों की विविधता का कोई पता नहीं चलता। इस प्रकार मुझे जो वस्तु स्वाद में मीठी लगती है, वह दूसरे व्यक्ति को खारी भी लग सकती है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वस्तु-निष्ठ कोई रस उस वस्तु में है ही नहीं। अनुभूति में रसों की भिन्नता का होना हम दोनों की रसनेन्द्रिय की क्षमता और रचना-भिन्नता का द्योतक है। जो 'रस' हमें अनुभूति में ज्ञात होता है, वह वस्तु-निष्ठ रस के साथ रसनेन्द्रिय के रासायनिक और भौतिक प्रक्रिया के फलस्वरूप निष्पन्न 'रस' है। अत: यदि मेरी और दूसरे व्यक्ति की रसनेन्द्रिय में थोड़ा-सा भी अन्तर हो, तो अनुभूत 'रस' दोनों के लिए भिन्न-भिन्न होगा। इसको हम गाणितिक समीकरण के द्वारा इस प्रकार बता सकते हैं : यदि अ वस्तु-निष्ठ गुण हो, ब, और ब, दो ज्ञाताओं की इन्द्रियों की रचना के द्योतक अचल हों और क, और क क्रमश: दोनों ज्ञाताओं द्वारा अनुभूत गुण हों, अ+ब, = क, होगा, और अ+ब = क होगा। इसी समीकरण से स्पष्ट हो जाता है कि यदि हो, तो क, = क, होगा अर्थात् दोनों ज्ञाताओं को समान अनुभूति होगी। सामान्यतया यही होता है, क्योंकि अधि कांश रूप में मनुष्यों के लिए ब, ब आदि भिन्न-भिन्न नहीं होते। इन समीकरणों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अ और के समान तभी हो सकते हैं जबकि ब का मूल्य शून्य हो अर्थात् इन्द्रिय रूप साधन की रचना और क्षमता का बिल्कुल ही प्रभाव हमारे ज्ञान पर न पड़े, तभी हमारी अनुभूति में आने वाले गुण पदार्थ के वस्तु-निष्ठ गुण हो सकते हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान में यह संभव हो जाता है। साथ ही यह भी संभव है कि एक ही ज्ञाता के लिए ऐन्द्रिय रचना और क्षमता परिवर्तित हो जाये, अर्थात् ब का मूल्य अचल न रहे; तब एक ही ज्ञाता को एक ही पदार्थ भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न रूप से अनुभूत होता। जैसे-एक मनुष्य यदि चीनी में मिलाया हुआ दूध पीता है तो उसे वह मीठा लगता है। वही मनुष्य मिठाई खाने के बाद उसी दूध को पीता है तो वह फीका लगता है। इसका अर्थ यही होता है कि ब का मूल्य दोनों परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न होगा। किन्तु सामान्य परिस्थिति में ब के मूल्य को सभी ज्ञाताओं के लिए सम माना जा सकता है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जैन दर्शन और विज्ञान लगता है, न वर्तमान में उपलब्ध वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर और न जैन दर्शन की तत्त्व-मीमांसा के आधार पर ही। सामान्य बुद्धि हमें यही बताती है कि दूब का चैतन्य से सम्बन्ध न हो तो भी वह हरी ही रहती है। दूसरी ओर विज्ञान 'रंग' की प्रक्रिया को तरंग-सिद्धांत के आधार पर समझाता है। विज्ञान का यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि सूर्य के सफेद प्रकाश में समग्र चाक्षुष वर्णपट का समावेश हो जाता है। सूर्य से प्रसारित होने वाले प्रकाश-तरंग जब पदार्थ में होकर गुजरते हैं, तब उस पदार्थ की स्वयं की विशिष्टता के कारण एक विशेष तरंग-दैर्ध्य को छोड़कर शेष सभी उस पदार्थ के द्वारा शोषित हो जाते है। इस प्रकार जब दूब में से प्रकाश की तरंगें गुजरती हैं, तब दूब की विशिष्टता के कारण ही हरे रंग को सूचित करने वाली तरंग-दैर्ध्य को छोड़कर शेष तरंग दैर्ध्य वाली सभी तरंगें दूब के द्वारा शोषित (एब्सोर्ड) हो जाती हैं। हमारी आंख तक केवल वे ही तरंगें पहुंचती हैं, जिनका तरंग-दैर्ध्य हरे रंग को सूचित करता है और इसीलिए हमें दूब हरी दिखाई देती है। इस तरह वैज्ञानिक सिद्धांतो के अनुसार भी हमारा-चैतन्य का-ज्ञाता का-दूब को हरा, गुलाब को लाल और संतरे को नारंगी देखना हमारे चैतन्य पर आधारित नहीं है, किन्तु इस बात पर आधारित है कि कौन-सा तरंग दैर्ध्य उन पदार्थों के द्वारा शोषित नहीं हो पाता। तरंग-दैर्ध्य का शोषण पदार्थ के स्वरूप पर निर्भर करता है अथवा दूसरे शब्दों में कहा जाये तो पदार्थ के स्वरूप में ही पदार्थ का वर्ण निहित है। इसलिए एडिंग्टन का यह मन्तव्य कि वर्ण को बुनने वाला चैतन्य है, वैज्ञानिक सिद्धान्त के आधार पर भी गलत ही सिद्ध हो जाता है। जैन दर्शन तो यह स्पष्ट रूप से बताता है कि पुद्गल स्वयं ही स्पर्श, रस, गन्ध, और वर्ण से युक्त होता है। दूब के परमाणुओं में सभी वर्ण वाले परमाणु मौजूद हैं, इसलिए वस्तुत: तो दूब का रंग हरा ही नहीं है, किन्तु हरे रंग वाले परमाणुओं की संख्या अधिक होने के कारण दूब हमें हरी दिखाई देती है। वस्तुत: तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण और जैन दर्शन के दृष्टिकोण में अधिक अन्तर ही नहीं रह जाता; क्योंकि पदार्थ का वर्ण दोनों दृष्टिकोणों के अनुसार पदार्थ की रचना में ही निहित होता है। पदार्थ के द्वारा कौन-कौन से तरंग-दैर्ध्य का शोषण होता है, इसका आधार पदार्थ की रचना है-पदार्थ-स्थित परमाणुओं का मूल वर्ण ही है। वर्णादि गुणों से रहित ऋणाणु किस प्रकार का अस्तित्व रखता है, इस विषय में एडिंग्टन ने कोई स्पष्टीकरण नहीं किया है। सम्भवत: उनके अभिमतानुसार संहित या विद्युत-आवेश ही केवल भौतिक पदार्थ (ऋणाणु आदि) का वास्तविक गुण है और वर्णादि गुण केवल चैतन्य द्वारा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और विज्ञान आरोपित होते हैं। जैन दर्शन संहति को 'स्पर्श' गुण मानता है। अकेले परमाणु में संहति होती ही नहीं है। अकेले परमाणु में दो स्पर्श होते हैं। स्निग्ध-रूक्ष के युग्म में से एक और शीत उष्ण के युग्म में से एक। इस प्रकार संहति' जो लघु-गुरु स्पर्श गुणों से उद्भत होती है, परमाणु का मूलभूत गुण नहीं है। अब तक हमने केवल ऐन्द्रिय ज्ञान की चर्चा की। जैन दर्शन में अतीन्द्रिय ज्ञान का विस्तृत रूप से विवेचन उपलब्ध होता है। अतीन्द्रिय ज्ञान में पदार्थ के वस्तु-निष्ठ गुण उसी रूप में जाने जाते हैं जिस रूप में वे वस्तुत: ही हैं, क्योंकि यहां आत्मा का ज्ञेय से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। अतीन्द्रिय ज्ञान में आत्मा किसी भौतिक साधन की सहायता के बिना पदार्थ के गुणों का ज्ञान करती है; अत: इन्द्रिय आदि साधनों के हस्तक्षेप के कारण जो भिन्नता अनुभूत गुण और वस्तु-निष्ठ गुण में उत्पन्न हो जाती है, वह यहां नहीं होती। इस प्रकार के ज्ञान की सहायता से परमाणु और स्कन्ध में रह हुए वस्तु-सापेक्ष वर्णादि गुण का ज्ञान मनुष्य कर सकता है। एडिंग्टन के दर्शन में प्रयुक्त 'भौतिक विज्ञान का विश्व' और 'भौतिक विश्व' इन दो शब्दों के उलझन की चर्चा हम कर चुके हैं। अब जैन दर्शन के आलोक में इन दो शब्दों के अर्थ अधिक स्पष्ट हो सकता है। 'भौतिक विश्व' पौद्गलिक विश्व है, जिसमें परमाणु और स्कन्ध अपना-अपना वास्तविक अस्तित्व रखते हैं, एक दूसरे के साथ जुड़ते हैं और एक दूसरे से पृथक होते हैं-यह भेद और संघात की क्रिया वस्तु-सापेक्ष रूप से चलती रहती है। जब इस विश्व को हम अतीन्द्रिय ज्ञान से जानते हैं, तब हमारे ज्ञान में आने वाला विश्व भी 'भौतिक विश्व' के सदश ही होता है, किन्तु जब इंद्रिय, मन और बाह्य उपकरणों की सहायता से हम 'भौतिक विश्व' को जानते हैं तब हमारे ज्ञान में आने वाले विश्व और 'भौतिक विश्व' में कुछ अन्तर रह जाता है। यह अन्तर हमारे अथवा ज्ञाता के इन्द्रिय, मन और अन्यान्य साधनों के हस्तक्षेप तथा सीमितता के कारण उत्पन्न होता है। 'भौतिक विज्ञान' भी इस प्रकार के ऐन्द्रिय ज्ञान का ही विशिष्ट प्रकार है। अत: इसके द्वारा जाने जाने वाले विश्व को हम 'भौतिक विज्ञान का विश्व' कह सकते हैं। इस दृष्टि से इसके नियमों को 'ज्ञाता-सापेक्ष' मानना १. स्पर्श पुद्गल का मूल गुण है। उसके आठ भेद है-स्निग्ध, रुक्ष, शीत, उष्ण, लघु, गुरु, मृदु, कठोर। इसमें से स्निग्ध-रुक्ष व शीत-उष्ण-ये चार स्पर्श मौलिक हैं और शेष चार स्पर्श परमाणुओं के संयोग से उत्पन्न होते हैं। रुक्ष, स्निग्ध आदि केवल स्पर्श की अभिव्यक्ति के प्रकार नहीं हैं, किन्तु परमाणु में वास्तु-सापेक्ष से रहने वाले गुण हैं। चैतन्य की अनुभूति के साथ इनकी स्थायी सत्ता नहीं बदलती। २. संहति-शून्य परमाणु की चर्चा 'आपेक्षिकता के सिद्धांत' की समीक्षा में विस्तृत रूप से की जायेगी। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जैन दर्शन और विज्ञान भी अनुचित नहीं है । इस प्रकार 'भौतिक विज्ञान के विश्व' को यदि एडिंग्टन ज्ञाता-सापेक्ष कहते है तो वह जैन दर्शन की दृष्टि से भी सही है । एडिंग्टन के दर्शन में 'भौतिक विश्व' और 'भौतिक विज्ञान के विश्व' के बीच के अन्तर के विषय में जो अस्पष्टता रही है, उसका एक कारण सम्भवतः यह भी हो सकता है-पदार्थ में रहे हुए स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि गुणों का ज्ञान स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय ध्राणेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा ही मनुष्य करता है 1 प्रत्येक इन्द्रिय में अपने-अपने विषय को ग्रहण करने वाले संवेदनशील ज्ञान - तन्तुओं की विशिष्ट प्रकार की रचना होती है। इस प्रकार ऐन्द्रिय रचना और पदार्थ के गुणों जो प्राकृतिक सादृश्य है, उससे यह प्रश्न खड़ा होता है कि क्या स्पर्शनोन्द्रिय आदि की ऐन्द्रिय विशिष्टता मौलिक है और इनके निमित्त से ही पदार्थ स्पर्शादि गुण वाले बन जाते हैं अथवा पदार्थ स्वभावतया स्पर्शादि गुणों को धारण करने वाले हैं और स्पर्शनेन्द्रिय आदि की रचना स्वतन्त्र तथ्य है ? एडिंग्टन ज्ञाता की ऐन्द्रिय विशिष्टता को मौलिक मान कर ज्ञाता - सापेक्षवाद को स्थापित करते हैं, किन्तु वस्तुत: तो 'भौतिक विश्व' में स्पर्शादि गुण ही मौलिक और प्रधान है। भौतिक विज्ञान के विश्व' में ऐन्द्रिय रचना की विशिष्टता को प्रधान माना जा सकता है; फिर भी यह केवल ज्ञान-मीमांसा के क्षेत्र से संबन्धित तथ्य है। जहां तत्त्व-मीमांसा का प्रश्न है, वह तो ऐन्द्रिय रचना को एक स्वतंत्र तथ्य के रूप में ही मानना उपयुक्त होगा I एडिंग्टन के दर्शन का सबसे अधिक निर्बल पक्ष यह है कि जिस भौतिक विज्ञान पर वह आधारित है, वह भौतिक विज्ञान अब तक, 'भौतिक पदार्थ की चरम इकाई क्या है?' 'उसका तात्त्विक स्वरूप क्या है ? आदि प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ रहा है। जिन संज्ञाओं का प्रयोग भौतिक विज्ञान में किया जाता है, उन संज्ञाओं के तात्त्विक स्वरूप के विषय में वह कुछ भी नहीं बताता । उदाहरणार्थ- वर्ण को समझाने के लिए भौतिक विज्ञान में प्रकाश तरंगों के दैर्ध्य का विवेचन किया गया है; किन्तु प्रकाश स्वय क्या है-तरंग-रूप है या कण रूप? पदार्थ प्रकाश-तरंगों को किस कारण से शोषित करता है ? आदि प्रश्नों का समाधान भौतिक विज्ञान अब तक नहीं दे पाया है और तब तक नहीं दे पायेगा, जब तक कि भौतिक पदार्थ का चरम रूप स्पष्ट नहीं हो जाता। वर्तमान में इस विषय में अनेक प्रकार की उपधारणाएं और परिकल्पनाएं विज्ञान-जगत् में प्रचलित हैं । भौतिकवादी वैज्ञानिक जहां ऐसी परिकल्पनाओं के आधार पर वर्ण को वस्तु-सापेक्ष गुण के रूप में प्रतिपादित करते है, वहां एडिंग्टन का दर्शन ऐसी ही कोई परिकल्पना का आधार लेकर वर्ण को ज्ञाता - सापेक्ष गुण के रूप में निरूपित करता है। इस प्रकार का प्रतिपादन केवल आनुमानिक है, अनाधारित है और प्रत्यक्ष अनुभव का प्रतिरोधी है । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ दर्शन और विज्ञान जैन दर्शनकारों ने पुद्गल के चरम स्वरूप को अपने अतीन्द्रिय ज्ञान की सहायता से जाना है और इसके आधार पर ही परमाणुवाद का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। वर्ण आदि गुण वस्तुत: ही वस्तु-निष्ठ होते हैं, इत्यादि प्रतिपादनों का आधार उनके वस्तु-स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान ही है। जैन दर्शन के अनुसार तो इस स्वरूप को ऐन्द्रिय ज्ञान के द्वारा जाना ही नहीं जा सकता। अत: भौतिक विज्ञान केवल ऐन्द्रिय ज्ञान के आधार पर कभी भी इसको जानने में समर्थ नहीं बनेगा, ऐसा जैन दर्शन के आधार पर कहा जा सकता है : एडिंग्टन के दर्शन की विविध दृष्टिकोणों के आलोक में समीक्षा करने का प्रयत्न हमने किया। विश्व के तत्त्व-मैमासिक पहलू की चर्चा एक स्वतन्त्र और अतिविस्तृत विषय है। यहां पर तो इसकी चर्चा गौण रूप में ही की गई है। इस चर्चा का उपसंहार इन छ: तथ्यों में किया जा सकता है। १. ज्ञान-मैमासिक विश्लेषण के आधार पर एडिंग्टन ने चैतन्य तत्त्व का वस्तु-सापेक्ष वास्तविक अस्तित्व स्वीकार किया है। जैन दर्शन भी जीवस्तिकाय को स्वतन्त्र वास्तविक तत्त्व के रूप में स्वीकार करता है। २. भौतिक विज्ञान के द्वारा इस वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता को जानना मनुष्य के लिए संभव नहीं है-यह एडिंग्टन का स्पष्ट अभिप्राय है। जैन दर्शन भी यह स्वीकार करता है कि आत्मा आदि अरूपी द्रव्य सकल ज्ञान (केवल ज्ञान) के विषय है; विकल ज्ञान (मति आदि चार) के द्वारा ये नहीं जाने जा सकते। ३. अनुभूति, स्मृति, कल्पना, संवेदना आदि चैतन्य तत्त्व के ही लक्षण है। एडिंग्टन के दर्शन की यह मान्यता जैन दर्शन को भी मान्य है। ४. एडिंग्टन अपने दर्शन को वर्तमान भौतिक विज्ञान द्वारा आधारित मानते हैं; अत: वे उसको वैज्ञानिक दर्शन' की संज्ञा देते है, किन्तु यह उपयुक्त नहीं लगता। वस्तुत: यह विचारधारा उनकी व्यक्तिगत रूढ़ मान्यताओं पर आधारित है; अत: इसको वैज्ञानिक दर्शन न मानकर 'एडिंग्टन का दर्शन' मानना ही अधिक उपयुक्त लगता ५. यद्यपि एडिंग्टन का दर्शन भौतिक जगत् का वास्तविक अस्तित्व स्वीकार करता है, फिर भी उसके स्वरूप के विषय में अस्पष्ट रहा है। अपने दर्शन को वे 'सीमित ज्ञाता-सापेक्षवाद' के रूप में प्रतिपादित करते हैं; इसका तात्पर्य यही लगता है कि भौतिक पदार्थ के अस्तित्व को तो वे वस्तु-सापेक्ष मानते है, किन्तु वर्ण, गन्ध आदि गुणों को ज्ञाता-सापेक्ष मानते हैं। इस विषय में जैन दर्शन भिन्न अभिमत रखता है। जैन दर्शन पुद्गलास्तिकाय को स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण से युक्त वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता के रूप में मानता है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान ६. भौतिक पदार्थ के चरम वास्तविक स्वरूप को अब तक भौतिक विज्ञान नहीं जान सका है। इस प्रकार एडिंग्टन का दर्शन वर्तमान भौतिक विज्ञान के अपूर्ण और सम्भवत: गलत ज्ञान पर आधारित है। जैन दार्शनिकों ने पुद्गल के चरम स्वरूप को अतीन्द्रिय ज्ञान द्वारा जान कर अपने दर्शन का प्रतिपादन किया है। जैन दर्शन के अनुसार तो पुद्गल (भौतिक तत्त्व) का चरम स्वरूप ऐन्द्रिय ज्ञान का विषय नहीं बना सकता' और 'इसलिए 'भौतिक विज्ञान' के आधार पर इसका वास्तविक ज्ञान होना संभव नहीं है। इस दृष्टि से एडिंग्टन का यह अभिमत कि 'भौतिक विज्ञान' के द्वारा सापेक्ष वास्तविकता को जानना अशक्य है, भी सही तथ्य का ही उच्चारण है, ऐसा कहा जा सकता है । जीन्स का दर्शन और जैन दर्शन २० आदर्शवादी वैज्ञानिकों में एडिंग्टन के बाद प्रधान स्थान सर जेम्स जीन्स का है। जीन्स ने अपनी विचारधारा का प्रतिपादन मुख्यतया अपनी पुस्तक 'दी मिस्टीस युनिवर्स' में किया है। जहां तक भौतिक विज्ञान के विचारक और प्रायोगिक क्षेत्रों का प्रश्न है, जीन्स का स्थान प्रथम श्रेणी के वैज्ञानिकों में रहा है । उष्णता के सम्बन्ध में जीन्स ने कुछ एक मौलिक सिद्धांतों का स्थापन भी किया है । किन्तु जहां दर्शन का प्रश्न है, वहां पर तो जीन्स का दर्शन भी एडिंग्टन के दर्शन की भांति अस्पष्ट ही रहा है। उनकी कृतियों में स्थान-स्थान पर परस्पर विरोधी कथन और उलझनपूर्ण चिन्तन नजर आता है। प्रो. स्टेबिंग ने जीन्स और एडिंग्टन; दोनों की कटु आलोचना की है। जीन्स के विचारों की अस्पष्टता का एक उदाहरण प्रो. स्टेबिंग के शब्दों में इस प्रकार मिलता है- 'विश्व शुद्ध गणितज्ञ के द्वारा निर्मित हुआ है' और 'विश्व शुद्ध गणितज्ञ के विचारों से बना हुआ है ।'; इन दो कथनों को जीन्स समानार्थक मानते है या नहीं इसका निर्णय करना सरल नहीं है । ये दो कथन निश्चय ही भिन्न-भिन्न अर्थ को सूचित करते हैं, किन्तु जीन्स को इनकी भिन्नार्थकता का ज्ञान नहीं है, ऐसा लगता है । प्रोफेसर स्टेबिंग ने इस प्रकार के अनेक उदाहरण अपनी कृति में दिये हैं, १. भगवती सूत्र, १८-८-६४१ । २. सुविख्यात विज्ञानविद् सर डब्ल्यू० सी० डैम्पियर ने विज्ञान के इतिहास पर लिखी अपनी पुस्तक में भी वैज्ञानिक पद्धति की इस सीमितता का स्पष्ट उल्लेख करते हुए लिखा है- 'जब हम किसी परमाणु का निरीक्षण करते हैं तो हर हालत में हम कोई न कोई बाहरी उपकरण प्रयुक्त करते हैं। यह उपकरण किसी-न-किसी रूप में परमाणु को प्रभावित करता है और उसमें परिवर्तन ला देता है तथा हम यही परिवर्तित परमाणु देख पाते हैं, वास्तविक परमाणु नहीं ।' - विज्ञान का संक्षिप्त इतिहास ( हिन्दी अनुवाद), पृ० २९९ । ३. फिलोसोफी एण्ड दी फिजिसिस्ट्स, पृ० २५ । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और विज्ञान २१ जो जीन्स के दर्शन की अस्पष्टता और त्रुटियों का विशद दिग्दर्शन कराते है। कुछ एक अस्पष्टताएं तो हमें भी सहसा प्रतीत होती है। जैसे एक स्थान में जीन्स ने विश्व को ईथर-तत्त्व की उर्मि-मालाओं से बना हुआ प्रतिपादित करते हुए लिखा है, “यह विश्व जिनसे बना है, वे ईथर-तत्त्व और उनकी उर्मि-मालाएं पूर्ण सम्भावनाओं के साथ काल्पनिक ही प्रतीत होती हैं। किन्तु कहने का अर्थ यह नहीं है कि उनका कोई अस्तित्व ही नहीं है, हां वे हमारे मस्तिष्क में अस्तित्व रखती हैं, अन्यथा तो हम उनकी चर्चा ही नहीं करते और इनके अतिरिक्त हमारे मस्तिष्क के बाहर भी ऐसा 'कुछ' विद्यमान होना चाहिए, जो कि इन विचारों को या अन्य विचारों हमारे मस्तिष्क में उत्पन्न करता हो। इस 'कुछ' को हम अस्थाई रूप से वास्तविकता' की संज्ञा दे सकते हैं। इसी वास्तविकता का अध्ययन करना विज्ञान का उद्देश्य है। अब इस उदाहरण को समालोचनात्मक दृष्टिकोण से देखा जाये तो जीन्स के चिन्तन की अस्पष्टता स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाती है। प्रथम तो जीन्स ने ईथर-तत्त्वों और उनकी उर्मि-मालाओं को पूर्ण सम्भावनाओं के साथ काल्पनिक बताया है। इसका तात्पर्य यही होता है कि इनका कोई वास्तविक अस्तित्व है ही नहीं और इसलिए विश्व जो इनसे बना हुआ है भी केवल काल्पनिक है, किन्तु वे स्वयं ही स्वीकार करते हैं कि काल्पनिक' का अर्थ 'अस्तित्वहीन' नहीं है और इसलिए वे उनको मस्तिष्क में अस्तित्व रखने वाले बताते हैं। साथ ही वे यह भी अनुभव करते हैं कि कुछ ऐसी भी वस्तु मस्तिष्क से बाहर (अर्थात् वस्तु-सापेक्ष रूप से) अस्तित्ववान् होनी चाहिए, जिनके निमित्त से हम ईथरों की और इनके तरंगों की कल्पना करते हैं। अब यदि इस प्रकार की वस्तुएं वास्तविक अस्तित्व रखती हैं तो विश्व को केवल ईथर-तरंगों के रूप में मानकर काल्पनिक कहना किस प्रकार संगत हो सकता है? इस प्रकार के अनेकों स्थल उनकी कृतियों में पाये जाते हैं, जिनको पढ़ने से पाठकों को यह पता नहीं चल पाता कि लेखक क्या कहना चाहते हैं। जीन्स अपने आप ही किस प्रकार उलझे हुए हैं, इसकी स्पष्ट झांकी हमें उनके उस कथन से मिलती है, जहां वे आदर्शवाद और वास्तविकतावाद के बीच की भेद-रेखा को ही स्पष्ट रूप से परखना कठिन मानते हैं। वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता के अस्तित्व को स्वीकार करने पर भी उसे वास्तविकता कहने में वे हिचकिचाते हैं तथा उसे 'गाणितिक' की संज्ञा देकर विश्व' को शुद्ध विचारों से बना हुआ बता कर जीन्स ने वस्तुत: कुछ भी स्पष्ट नहीं किया है, प्रत्युत उलझन ही पैदा कर दी है। वे पदार्थत्व को केवल एक मानसिक विचार के रूप में बताते हैं और साथ १. दी मिस्टीर्यस युनिवर्स, पृ० ७० । २. देखें, दी मिस्टीर्यस युनिवर्स, पृ० १२३ । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैन दर्शन और विज्ञान ही पदार्थों का अस्तित्व वस्तु-सापेक्ष मानकर उनके इन्द्रियों पर पड़ने वाले प्रभाव को ही 'पदार्थत्व' कहते है। एडिंग्टन के दर्शन की अपेक्षा जीन्स का दर्शन प्राचीन पाश्चात्य दर्शनों से अधिक प्रभावित है। ऐसा लगता है कि जीन्स ने अपनी दर्शन में प्लुतो और बर्कले के दर्शन को ही एक नया रूप दिया है। प्लुतो के दर्शन की प्रमुख मान्यताएं जीन्स के दर्शन में भी मान्य रही हैं। जीन्स ने प्लुतो की तरह 'ईश्वर को विश्व-स्रष्टा के रूप में चित्रित करने का प्रयत्न किया है। विश्व 'गणितज्ञ विचारक' के विचारों से बना हुआ है-इस कथन का तात्पर्य सम्भवत: यही है कि जीन्स ईश्वर की कल्पना एक गणितज्ञ के रूप में करते हैं और विश्व को उसकी सृष्टि के रूप में प्रतिपादित करना चाहते हैं। प्लुतो के प्रत्ययों का सिद्धांत' थोड़े से भिन्न रूप में जीन्स के विचारों में प्रतिबिम्बित होता दिखाई देता है। पदार्थों के वास्तविक तत्त्व को जानने की मनुष्य की असमर्थता भी प्लुतो के परमार्थवाद का ही दूसरा रूप प्रतीत होता है। इसके साथ-साथ बर्कले के ज्ञाता-सापेक्षवाद की छाया जीन्स के दर्शन में स्पष्ट दिखाई देती है। वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता का अस्तित्व स्वीकार कर उन्हें शाश्वत आत्मा के मन में अस्तित्ववान् मानने का संकेत' बर्कले के ज्ञाता-सापेक्षवाद का समर्थन करता है। इस प्रकार कुछ प्राचीन पाश्चात्य दार्शनिकों की विचारधारा को जीन्स ने अपने दर्शन में परोक्ष रूप से स्थान दिया है। किन्तु आज तक उन दार्शनिकों के विचारों में रहे हुए दोषों की विस्तृत चर्चाओं से पाश्चात्य दर्शन का इतिहास भरा पड़ा है और इन दार्शनिकों के खंडन का सम्भवत: अब तक प्रतिवाद भी नहीं हुआ है। प्रो. स्टेबिंग ने भी यही अभिप्राय व्यक्त करते हुए लिखा है-“यद्यपि जीन्स ने यह माना है कि जो व्यक्ति भौतिक विज्ञान के आधार पर दार्शनिक धारणाओं का निर्माण करना चाहता है, उसके लिए यह लाभदायक होगा कि वह दर्शन की शिक्षा पाया हुआ न हो अथवा दर्शन के प्रति उसकी रुचि न हो, फिर भी ऐसा लगता है कि उन्होंने प्लुतो और बर्कले के दर्शनों का अच्छा अध्ययन किया है। परन्तु स्पष्टतया प्रतीत होता है कि इन्होंने इन दार्शनिकों के बारे में की गई आलोचनाओं का अध्ययन नहीं किया है और इसका ही यह परिणाम है कि वे नहीं जानते कि उन्होंने उसी विचारधारा का प्रतिपादन किया है, जो अत्यन्त ही गम्भीर रूप से आलोचित हो चुकी है-जो अधिकतर दार्शनिकों के मत में तो निश्चयपूर्वक खंडित हो चुकी है।' १. वही, पृ० १२४ । २. वही, पृ० ११४, १२५ । ३. वही, पृ० १२७ । ४. फिलोसोफी एण्ड दी फिजिसिष्ट्स, पृ० २६५ । x Ihmisiuni mie cu I TV Hun uzu Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और विज्ञान २३ जीन्स के दर्शन का स्पष्ट मन्तव्य क्या है, यह जानना यद्यपि अत्यन्त कठिन है, फिर भी अनुमान के आधार पर उनकी विचारधारा का प्रतिपादन हम कर सकते है। यहां पर जैन दर्शन के साथ जीन्स के दर्शन की तुलना इसी आधार पर की गई है। १. जीन्स के दर्शन में एक बात का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन हुआ है कि विश्व का कोई स्रष्टा है और यह परम चैतन्यमय सत्ता ही वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता है। यद्यपि 'ईश्वर' शब्द का सीधा प्रयोग जीन्स ने नहीं किया है, फिर भी उन्होंने 'ईश्वर-कर्तृत्ववाद' का ही प्रतिपादन किया है, ऐसा प्रतीत होता है। जैन दर्शन 'ईश्वर-कर्तृत्ववाद' को स्वीकार नहीं करता। इस दृष्टि से जीन्स के दर्शन के साथ जैन दर्शन का वैषम्य स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। विश्व का ईश्वर द्वारा निर्मित होना और ईश्वर का एक महागणितज्ञ के रूप में होना, जीन्स के दर्शन का मुख्य सिद्धान्त है। किन्तु इसको सिद्ध करने के लिए जो तर्क जीन्स ने दिया है, वह सदोष २. जीन्स के दर्शन में मन को वास्तविकता के रूप में प्रतिपादित किया गया है। जैन दर्शन में प्रतिपादित 'आत्मा' और जीन्स का 'मन' वास्तविकता की दृष्टि से सदृश ही प्रतीत होते हैं। भौतिक पदार्थ से भिन्न और चैतन्यशील होते के कारण जीन्स द्वारा प्रतिपादित 'मन' जैन दर्शन में प्रतिपादित आत्म-तत्त्व का ही दूसरा नाम है, ऐसा कहा जा सकता है। मन के स्वरूप के विषय में जीन्स के दर्शन में विशेष वर्णन उपलब्ध नहीं होता है, इसलिए इस विषय में अधिक तुलना करना सम्भव नहीं ३. भौतिक पदार्थ के समूह रूप बाह्य विश्व को वस्तु-सापेक्ष' वास्तविकता के रूप में तो तीन जीन्स ने माना है और वह इसलिए कि वह भिन्न-भिन्न ज्ञाता (चेतना) को समान रूप से अनुभूत होता है, किन्तु जीन्स उसे वास्तविक मानने के लिए तैयार नहीं है। विश्व को विचार से बना हुआ अथवा गणितिक' कहने का कारण यही लगता है कि विज्ञान में पदार्थ के स्वरूप को गाणितिक संज्ञाओं के द्वारा समझाया जाता है। गणित की संज्ञाएं 'विचार' रूप होने से विश्व को भी जीन्स 'विचार' रूप ही बताते हैं। "विश्व जिन ईथरों से और उनकी उर्मि-मालाओं से बना है, वे सब काल्पनिक हैं'' जीन्स का यह अभिप्राय भी इसी तथ्य को सूचित करता है। यदि जीन्स गणितिक शब्द का प्रयोग केवल इसी अर्थ में करते हों, तब तो विश्व के वस्तु-सापेक्ष १. इन सिद्धांतों का खंडन प्रो० स्टेबिंग ने बहुत ही तार्किक ढंग से किया है। यह चर्चा अति विस्तृत होने से यहां नहीं दी गई है। इसके लिए देखें, फिलोसोफी एण्ड दी फिजिसिष्ट्स, पृष्ठ १९-४२। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैन दर्शन और विज्ञान अस्तित्व का कोई विरोध ही नहीं होता है। क्योंकि विश्व की सभी प्रक्रियाओं का हमारा ज्ञान गणित से सम्बन्धित होने के कारण उसे गाणितिक कहा जा सकता है, फिर भी इसका तात्पर्य यह नहीं होता है कि विश्व वस्तुत: ही काल्पनिक है । इस दृष्टि से जीन्स का दर्शन भी वास्तविकतावाद का ही प्रतिपादन करता है और इस रूप में जैन दर्शन के साथ भी इसका साम्य हो जाता है । ४. जीन्स का अभिप्राय है कि हम वस्तु के मूल तत्त्व को न जानते हैं, न जान सकते हैं हम जो कुछ जानते हैं, वह तो केवल पदार्थों की प्रक्रियाएं हैं और उनका परस्पर का व्यवहार है।' इसका तात्पर्य यही होता है कि 'विश्व क्या है?' इस प्रश्न का उत्तर मनुष्य कदापि नहीं दे सकता है। मनुष्य तो केवल यही जान सकता है कि विश्व की प्रक्रियाएं किस प्रकार होती हैं? इस प्रकार जीन्स काण्ट के परमार्थवाद ( ट्रान्सेण्डेण्टलिजम) की ओर झुकते हुए से दिखाई देते हैं । जीन्स का दर्शन भी इसी अपेक्षा से जैन दर्शन के निकट कहा जा सकता है। जैन दर्शन भी यह स्वीकार करता है कि ऐन्द्रिय ज्ञान (मति-श्रुत) के द्वारा पौद्गलिक जगत् के चरम रूप को नहीं जाना जा सकता। किंतु जैन दर्शन यह कभी स्वीकार नहीं करता कि हम कदापि और किसी भी प्रकार से वस्तु के मूल स्वरूप को नहीं जान सकते। अतीन्द्रिय और सकल ज्ञान के माध्यम से इसको भी जाना जा सकता है, फिर भी जीन्स का यह अभिप्राय तो सही लगता है कि हमारा ऐन्द्रिय ज्ञान और विज्ञान विश्व की प्रक्रियाओं और वस्तुओं के परस्पर व्यवहार तक ही सीमित रह जाता है । ५. 'पदार्थत्व' के विषय में जीन्स ने जो विचार व्यक्त किये हैं, वे वस्तुत: ही अत्यंत अस्पष्ट हैं। एक ओर तो जीन्स पदार्थत्व को मानसिक कल्पनामात्र कहते हैं और दूसरी ओर उसको ही पदार्थों का इंद्रियों के ऊपर पड़ने वाला प्रभाव बताते हैं । यदि 'पदार्थत्व' पदार्थों का ही प्रभाव हो, तो बिना 'पदार्थत्व' पदार्थ कैसे रह सकते हैं, यह समझ में आना कठिन है । अल्प पदार्थत्व और अधिक पदार्थत्व की चर्चा भी वस्तुत: ही अस्पष्ट और व्यर्थ - सी प्रतीत होती है । जैन दर्शन में द्रव्य, द्रव्यत्व आदि की स्पष्ट परिभाषाएं मिलती हैं और 'पदार्थ' का वस्तु- सापेक्ष अस्तित्व अनुभव और तर्क के आधार पर सिद्ध किया गया है । पदार्थो को केवल मानसिक कल्पना के रूप में मानना किसी भी रूप में सम्भव नहीं लगता । इस दृष्टि से जैन दर्शन और जीन्स का दर्शन परस्पर में विरोधी मन्तव्य उपस्थित करते हैं । जीन्स के दर्शन की समीक्षा के उपसंहार में यह कहा जा सकता है कि यदि जीन्स अपनी व्यक्तिगत रूढ़ विचारधाराओं से अपने दर्शन को मुक्त रखते और वास्तविक वैज्ञानिक तथ्यों को ही अपने दर्शन में स्थान देते, तो सम्भवतः उनका १. दी मिस्टीयर्स युनिवर्स, पृष्ठ १२८ । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और विज्ञान दर्शन जैन दर्शन के बहुत समीप आ जाता। अन्य आदर्शवादी वैज्ञानिक और जैन दर्शन ___आदर्शवादी वैज्ञानिकों में हर्मन वाईल का नाम भी उलेखनीय है। वाईल ने अपनी दार्शनिक विचारधारा का स्पष्ट प्रतिपादन अपनी पुस्तक स्पेस-टाईम-मैटर में किया है। यद्यपि इस कृति में गणित और भौतिक विज्ञान को प्रधानता दी गई है और दर्शन को केवल गौण स्थान ही मिला है, फिर भी स्पष्ट रूप से आदर्शवादी विचारधारा का प्रतिपादन हमें देखने को मिलता है। वाईल ने यह स्वीकार किया है कि दार्शनिक पहलू के विषय में जो कुछ भी कहा गया है, वह अब तक निश्चित और पूर्ण नहीं है। फिर भी आकाश, काल और भौतिक पदार्थ की वास्तविकता के सम्बन्ध में आधुनिक विज्ञान के आधार पर नये दार्शनिक दृष्टिकोणों का विवेचन करने का प्रयत्न उन्होंने किया है। वैज्ञानिक जगत् में वास्तविकता के विषय में जो विचार-विमर्श हुआ है, उसका एक ऐतिहासिक विहंगावलोकन करते हुए उन्होंने लिखा है; “पहले फराड़े और मैक्सवेल नामक भौतिक वैज्ञानिकों ने यह प्रस्ताव रखा था कि विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र' भी एक स्वतन्त्र प्रकार की ही वास्तविकता है, जो भौतिक पदार्थ से उल्टे प्रकार की है। बाद में पिछली शताब्दी (१९ वीं) में गणितज्ञों ने बिल्कुल ही भिन्न प्रकार के चिन्तन के आधार पर युक्लिडीय भूमिति की प्रामाणिकता के विषय में संदेह उत्पन्न कर अपने युग में एक ऐस झंझावात आ गया है, जिसने आकाश, काल और भौतिक पदार्थ रूप प्राकृतिक विज्ञान के दृढ़तम स्तम्भों को उखाड़ दिया है, पर केवल इसलिए कि अधिक विस्तृत प्रकार के द्रव्यों के विचार के स्थान मिले तथा दष्टि और अधिक गहन बने ।''३ इस उद्धरण से यह तात्पर्य निकलता है कि वैज्ञानिक तत्त्वमीमांसा जो पहले भौतिकवाद को प्रतिपादित करती थीं, धीरे-धीरे आदर्शवाद की ओर आ रही है और किसी अभौतिक तत्त्व को ही एक मात्र वास्तविकता मानने के प्रति झुक रही है। वाईल की विचारधारा में स्पष्ट रूप से चैतन्य को वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया गया है। कार्यों को करने वाली और भोगने वाली एक आध्यात्मिक वास्तविकता (साइकिकल रियलिटी) है, जो कि शरीर के साथ जुड़ी हुई है और ये दोनों मिल कर एक व्यक्ति 'मैं' बनता है।..........चैतन्य अपनी आन्तरिकता को १. वाईल स्वयं अपनी पुस्तक की आदि में लिखते हैं, 'हम यहां पर इन प्रश्नों के गाणितिक और वैज्ञानिक पहलुओं से अधिक सम्बन्धित रहेंगे। दार्शनिक पहलू की चर्चा तो मैं केवल कहीं-कहीं पर करूंगा।' देखें, स्पेस-टाईम-मैटर, पृ० २। २. वही, पृ० २। ३. वही, पृ० २। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैन दर्शन और विज्ञान खोये बिना ही वास्तविकता का एक खण्ड बनता है, इस व्यक्ति 'मैं' के रूप में आता है जो जन्मा था और मर जायेगा। वाईल का यह अभिमत व्यक्तिगत चैतन्य को स्पष्ट रूप से वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता के रूप में बताता है। भौतिक पदार्थ के विषय में वाईल का दृष्टिकोण ज्ञाता-सापेक्षवाद की ओर झुका हुआ दिखाई देता है। यद्यपि वे स्वयं स्वीकार करते हैं-"मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि वह विचारधारा, जो विश्व की घटनाओं को केवल अहं द्वारा जनित चैतन्य के नाटक के रूप में बताती है, सरल वास्तविकतावाद की विचारधारा से अधिक सत्य है। प्रत्युत यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि यदि हम वास्तविकता के विषय में स्पष्ट धारणा तथा उसके निरपेक्ष तात्पर्य को समझना चाहते हैं, तो चैतन्य के विषय-रूप पदार्थ ही वह आदि बिन्दु है, जहां से हमें प्रारम्भ करना होगा।'२ किन्तु थोड़ा-सा ही आगे चल कर वे भौतिक पदार्थ की वास्तविकता को गलत बताने का प्रयत्न करते हैं-सत्य के सिद्धांत का दार्शनिक परीक्षण हमें इसी निष्कर्ष पर पहुंचायेगा कि जिन अनुभवों के आधार पर हम वास्तविकता को पकड़ते हैं, उन अनुभवों को कराने वाले विषय-ग्रहण, स्मृति आदि कार्यों में एक भी कार्य ऐसा नहीं है, जो हमें ज्ञेय पदार्थों को अस्तित्ववान् बताने का तथा उनको गृहीत (ज्ञान) रूप के सदृश रचना वाले बताते का निर्णयात्मक अधिकार दे।''३ इस प्रकार भौतिक पदार्थों के वास्तविक अस्तित्व को तथा उनके गुणों की वस्तु-सापेक्षता को भी संदिग्ध बताया गया है। वाईल द्वारा की गई वर्ण की व्याख्या में तो स्पष्ट रूप से ज्ञाता-सापेक्षवाद का निरूपण मिलता है : “यह सरलतया देखा जा सकता है कि हरे' नामक गुण का अस्तित्व केवल 'हरे' की संवेदना और इन्द्रियों के द्वारा गृहीत पदार्थ के बीच के सम्बन्ध के रूप में ही है; किन्तु उसको अपने आप में कोई वस्तु मान कर अपने आप में अस्तित्ववान पदार्थों के साथ सम्बन्धित मानना निरर्थक है।.........इस (आधुनिक भौतिक विज्ञान की गाणितिक पद्धति) के अनुसार तो 'वर्ण' वस्तुत: ईथर का स्पन्दन ही है अर्थात् गति है..... (आपेक्षिकता के सिद्धांत के बाद तो) वर्ण' ईथर-स्पन्दन नहीं अपितु केवल उन गाणितिक फलनों के मूल्यों की श्रेणियां हैं, जिनमें आकाश की तीन विमिति और काल की एक विमिति से सम्बन्धित चार स्वतन्त्र परामितर है। यहां पर वाईल आधुनिक विज्ञान की पारिभाषिक गाणितिक शब्दावली में वर्णों को केवल गाणितिक संज्ञा के रूप में बताकर उसकी वस्तु-सापेक्षता का सर्वथा १. वही, पृ० ६। २. वही, पृ० ५। ३. वही, पृ० ५। ४. स्पेस-टाईम-मैटर, पृ० ३-४ । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और विज्ञान २७ निषेध करते हैं। इस प्रकार देखा जा सकता है कि वाईल भी एडिंग्टन और जीन्स की तरह यह मानते हैं कि आधुनिक विज्ञान के प्रतिपादनों के आधार पर भौतिक पदार्थों के गुणों की ज्ञात-सापेक्षता सिद्ध हो चुकी है। वाईल की विचारधारा के इस संक्षिप्त विवेचन से यह देखा जा सकता है कि यद्यपि वे वास्तविकतावाद का स्पष्ट रूप से निषेध नहीं करते हैं, फिर भी ज्ञाता-सापेक्षवाद का ही पक्ष ग्रहण करते हैं। उनकी दार्शनिक विचारधारा एडिंग्टन और जीन्स की तरह व्यवस्थित नहीं है। साथ-साथ यहां पर भी हमें विचारों की उलझन और अस्पष्टता दृष्टिगोचर होती है। जैन दर्शन के साथ उनके विचारों की तुलना में यह कहा जा सकता है कि जहां 'आत्मा' नामक एक चेतनशील वास्तविकता के अस्तित्व का प्रश्न है, वहां इन दोनों के दृष्टि-कोण सदृश हैं; किन्तु भौतिक पदार्थ के अस्तित्व और उसके गुणों की वस्तु-निष्ठता के विषय में वाईल का मन्तव्य निषेधात्मक है, जबकि जैन दर्शन का मन्तव्य विध्यात्मक है। वाईल की विचारधारा एडिंग्टन और जीन्स के दृष्टिकोण के साथ अधिकांश रूप में सदृश है; अत: वाईल के विचारों की विस्तृत समालोचना करना पूर्व विवेचन का केवल पिष्ट पेषण ही होगा। इस दृष्टि से इतना ही पर्याप्त मान कर हम अन्य वैज्ञानिकों के विचारों की चर्चा करेंगे। अन्य वैज्ञानिकों में आइन्स्टीन. अन्र्ट माख. पोइनकेर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। यद्यपि आइन्स्टीन को प्रो. मार्गेनौ ने समीक्षात्मक वास्तविकतावादी कहा है, फिर भी जहां तक भौतिक पदार्थों के गुणों का संबंध है, आइंस्टीन की मान्यता ज्ञाता-सापेक्षवाद की ही प्रतीत होती है। लिंकन बारनेट ने आइंस्टीन के विचारों को उद्धृत करने हुए लिखा है-"आइंस्टीन के अनुसार रंग, रूप और आकार की धारणाएं चेतना से पृथक नहीं हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि आइन्स्टीन भी भौतिक पदार्थों को ज्ञाता-सापेक्ष वास्तविकता के रूप में मानते थे। अट माख ने भी भौतिक पदार्थों की वास्तविकता को स्वीकार नहीं किया है। भौतिक पदार्थ के विषय में उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा है-“अणु इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किये जा सकते, अन्य सभी द्रव्यों की तरह वे भी केवल विचारगत वस्तुएं ही हैं ...........और एक प्रकार की गाणितिक अनुकृति (माडेल) है जो तथ्यों का मानसिक पुनरावर्तन करने में सहायक बनती है।''३ माख ने सन् १९१५ में भी यह कहा था कि मैं 'अणु का अस्तित्व' और ऐसे रूढ़िगत सिद्धांत को स्वीकार नहीं करता। १. दी नेचर ऑफ फिजिकल रियलिटी, पृ० १२ । २. दी युनिवर्स एण्ड डॉ० आइन्सटीन, पृ० २१ । ३. साईन्स ऑफ मेकेनिक्स, पृ० ५९०। ४ वही प० २६. तथा देखें दी नेचर ऑफ मेटाफिजिक्स प०६७। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जैन दर्शन और विज्ञान माख का यह सिद्धांत था कि संवेदन-तत्त्व के अतिरिक्त कुछ भी वास्तविकता नहीं है। माख के अणु के अस्तित्व-सम्बन्धी ये विचार बताते हैं कि वे पदार्थ की वास्तविकता का निषेध करते हैं। इन सभी वैज्ञानिकों का झुकाव ज्ञाता-सापेक्षवाद की ओर दिखाई देता हैं जो वैज्ञानिक भौतिकवाद की विचारधारा को स्वीकार नहीं करते हैं, अधिकांश रूप में वे इस प्रकार के आदर्शवाद को अपनाते देखे जाते हैं। वे आत्मा अथवा ऐसी ही कोई अभौतिक तत्त्व की, जो चैतन्यमय होने से भौतिक पदार्थों से उल्टे प्रकार के होते हैं, 'वास्तविकता' सिद्ध करने के लिए भौतिक पदार्थ को अवास्तविक बतोते हैं। जैन दर्शन की विचारधारा 'आत्मा' के वास्तविकता अस्तित्व को स्वीकार करती हुई भी भौतिक पदार्थ को अवास्तविक नहीं मानती। इस प्रकार उक्त वैज्ञानिकों की विचारधरा और जैन दर्शन के तात्त्विक सिद्धांत में आत्मा के वास्तविक अस्तित्व के विषय में जहां पूर्ण सादृश्य हैं, वहां भौतिक पदार्थ की वास्तविकता के विषय में मतभेद रह जाता है। (ख) वास्तविकतावाद और जैन दर्शन 'विश्व क्या है?' इस प्रश्न का उत्तर वास्तविकतावादी दार्शनिक और वैज्ञानिक किस रूप में देते हैं, इसका अवलोकन हम कर चुके हैं। यहां पर उनमें से कुछ प्रमुख दार्शनिकों की और वैज्ञानिकों की विचारधारा की जैन दर्शन के आलोक में एक तुलनात्मक समीक्षा करने का हम प्रयत्न करेंगे। वास्तविकतादी विचारधारा को हम मुख्य रूप से दो भेदों में विभाजित कर सकते हैं। १. भौतिकवाद- इस विचारधारा के अनुसार विश्व के सभी पदार्थों का अस्तित्व स्व-आधारित है। इसमें केवल एक ही वास्तविकता है, एक ही तत्त्व है, जिसे 'भूत' (जड़) कहा जाता है। इसके अतिरिक्त किसी भी अभौतिक तत्त्व के वास्तविकता अस्तित्व को यह विचारधारा स्वीकार नहीं करती। 'विश्व क्या है?' इस प्रश्न का उत्तर भौतिकवाद के अनुसार है-विश्व भूतमय है।। २. अनेक तत्त्वात्मक वास्तविकतावाद-इस विचारधारा के अनुसार विश्व में दो अथवा दो से अधिक तत्त्वों का वास्तविक अस्तित्व है। भौतिक पदार्थों के वस्तु-सापेक्ष अस्तित्व को तो यह विचारधारा स्वीकार करती है, किन्तु इसके साथ अभौतिक तत्त्वों को भी वास्तविकता के रूप में स्वीकार करती है। इस अभौतिक वास्तविकता की संख्या और स्वरूप के विषय में मतभेद होने के फलस्वरूप इस विचारधारा के अनेक उपभेद बन जाते हैं। भौतिकवाद और जैन दर्शन पश्चिम दर्शन जगत में भौतिकवाद के यूनानी विचारक थेल्स (Thales) १. दी नेचर ऑफ मेटाफिजिक्स, पृ० ६७ । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और विज्ञान (ई. पू. ६२४-ई. पू. ५५०) से प्रारम्भ होकर आधुनिक युग में कार्ल मार्क्स की विचारधारा तक विविध रूप में दिखाई देता है। यहां पर हम इसके ऐतिहासिक विवेचन और सूक्ष्म भेदोपभेद में न जाकर केवल इसके स्थूल रूप की ही समीक्षा करेंगे। जैन दर्शन और भौतिकवाद में भौतिक पदार्थों की वस्तु-सापेक्षता के विषय में जो सादृश्य है, वह तो स्पष्ट ही है। भौतिकवाद के अनुसार भूत तत्त्व की परिभाषा है, “जो कुछ हम अपनी इन्द्रियों से देखते-समझते (इन्द्रिय-गोचर) हैं, जो कुछ इन्द्रिय-गोचर वस्तुओं का मूल स्वरूप है, जो देश (लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई) में फैला हुआ है, जो कम या अधिक मात्रा में दबाव की रोकथाम करता है, जिनमें इन्द्रियों के जानने लायक गति पाई जाती है, वह 'भूत' है।" लेनिन के शब्दों में 'भूत' की दार्शनिक परिभाषा है-“भूत दार्शनिक परिभाषा में उस साकार वास्तविकता को कहते हैं, जिसका ज्ञान मनुष्य को उसकी इन्द्रियों द्वारा मिलता है। वह ऐसी वास्तविकता है, जिसकी नकल की जा सकती है, जिसका फोटो खींचा जा सकता है। जो हमारी संवेदनाओं (विषय-इन्द्रिय-मस्तिष्क सम्पर्क) द्वारा मस्तिष्क में प्रतिबिम्बित की जा सकती है, किन्तु उसकी सत्ता इन (संवेदनाओं) पर निर्भर नहीं है।''२ दूसरी ओर जैन दर्शन में पुद्गल की परिभाषा करते हुए कहा गया है-“स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण; इन गुणों से युक्त द्रव्य पुद्गल (अर्थात् भूत) है।''३ इन दोनों परिभाषाओं के सूक्ष्म अन्तरों को छोड़ दिया जाए, तो कहा जा सकता है कि दोनों ही परिभाषाओं का तात्पर्य एक ही है। यद्यपि जैन दर्शन पुद्गल की चरम इकाई को इन्द्रिय-गोचर नहीं मानता, फिर भी पुद्गल के मूर्तत्त्व गुण को तो स्वीकार करता ही है। इस प्रकार जहां तक भौतिक पदार्थों की वास्तविकता का प्रश्न है, जैन दर्शन और भौतिकवाद दोनों ही इनकी वस्तु-सापेक्ष सत्ता को स्वीकार करते है। जैन दर्शन और भौतिकवाद में जो सबसे बड़ा अन्तर है, वह है-मूल वास्तविकताओं की संख्या के विषय में। भौतिकवादी जहां केवल भूत तत्त्व को ही एक मात्र वास्तविकता के रूप में मानते हैं, वहां जैन दर्शन पुद्गल के अतिरिक्त जीव आदि अन्य अस्तिकायों को भी वास्तविकता के रूप में स्वीकार करता है। यद्यपि प्राचीन 'दार्शनिक भौतिकवाद' और आधुनिक वैज्ञानिकों के भौतिकवाद में यह अन्तर तो है कि जहां प्राचीन भौतिकवादी चेतन अथवा आत्मा को सर्वथा ही जड़ (भूत) तत्त्व से अभिन्न मानते थे, वहां आधुनिक भौतिकवादी वैज्ञानिक मार्क्स के 'द्वन्द्वात्मक १. दी मेटेरियलिजम एण्ड एम्पीरियो क्रिटिसिजम, पृ० १०२ । २. वैज्ञानिक भौतिकवाद, ले० राहुल सांकृत्यायन, पृ० १११ । ३. स्पर्शरसगन्धवर्णवान् पुद्गलः।। -श्री जैन सिद्धांत दीपिका, १-११ । ४. पाश्चात्य दार्शनिकों में डेमोक्रिटस की यह मान्यता थी कि भौतिक परमाणुओं से ही 'आत्मा' __ का निर्माण होता है। आत्मा की उत्पत्ति अत्यन्त ही चिकने, गतिशील और गोल परमाणुओं से होती है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैन दर्शन और विज्ञान भौतिकवादी' के आधार पर जीवन ओर मन को जड़ भौतिक तत्त्व से सर्वथा अभिन्न नहीं मानते। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार-“वैज्ञानिक भौतिकवादियों की मूल ईंटें परमाणु नहीं; कण, तरंग, विच्छेद-युक्त घटना-प्रवाह है, जिनके खमीर में भी क्षण-क्षण नाश उत्पाद का नियम मिला हुआ है। यह सच है कि जीवन या मन (आत्मा)जिससे पैदा हुआ है, वह भूत (भौतिक तत्त्व) ही है, किन्तु मन भूत हर्गिज नहीं है। किसी तरह से भी नहीं है, चाहे उसके अन्तस्तल में घुस कर देख लें। यह बिलकुल गुणात्मक परिवर्तन पूर्व (भूत) प्रवाह से टूट कर नया प्रवाह है।'२ इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि भौतिकवादी वैज्ञानिक चेतन को भूत से भिन्न तो मानते हैं और उसकी वास्तविकता का भी निषेध नहीं करते, परन्तु चेतन की सत्ता को चरम वास्ततिकता के रूप में स्वीकार नहीं करते। बल्कि उसको भूत के गुणात्मक परिवर्तन द्वारा ही उद्भूत मानते है; अत: इनके मत में विश्व के मूल में तो एक मात्र भूत ही चरम वास्तविकता हे। वैज्ञानिकों के भौतिकवाद के समर्थन में यह एक युक्ति दी जाती है कि शक्ति की अनश्वरता का नियम (ला ऑफ कोन्जरवेशन ऑफ ऐनर्जी) विज्ञान का प्रतिष्ठित नियम है। इस नियम के अनुसार विश्व की कुल शक्ति समान रहती है; न घटती है और न बढ़ती है, लेकिन रूपान्तरित होती है। यदि जीव और चैतन्य को हम अभौतिक मान लेते हैं, तो उस नियम का उल्लंघन होता है। विज्ञान ने सिद्ध किया है कि शरीर भौतिक तत्त्वों से बना है, इसलिए भौतिक है। जीवन और चैतन्य का अधिष्ठान वही है। हम देखते हैं कि भौतिक पदार्थों (जैसे-अन्न, जल, गर्मी आदि) से जीवन-शक्ति बढ़ती है। अब, यदि जीवन-शक्ति भौतिक शक्ति से भिन्न है, तो उसका अर्थ होगा कि बढ़ी हुई जीवन-शक्ति के रूप में नई शक्ति की उत्पत्ति हुई है, क्योंकि अभौतिक होने से उसे भौतिक शक्ति (अन्न, जल, आदि से प्राप्त शक्ति) का रूपान्तर नहीं कहा जा सकता। हम यह भी देखते है कि मानसिक इच्छाओं के कारण शरीर के अंगों का संचालन होता है। यहां भी मन या चैतन्य को अभौतिक मानने का अर्थ होगा कि शारीरिक क्रियाओं के रूप में व्यक्त अभौतिक शक्ति मन की इच्छाओं की अभौतिक शक्ति से उत्पन्न नई शक्ति है; क्योंकि भौतिक होने के कारण उसे अभौतिक शक्ति का रूपान्तर नहीं माना जा सकता। इस प्रकार जीव और चैतन्य को अभौतिक मानने का निष्कर्ष होता है-नई शक्ति की उत्पत्ति। किन्तु ऐसा होने से विश्व की कुल शक्ति में वृद्धि हो जायेगी, जो कि उपर्युक्त नियम के विरुद्ध है। चूंकि वह नियम सत्य है उसका विरोधी निष्कर्ष सत्य नहीं हो सकता; अत: जीव और चैतन्य को अभौतिक नहीं माना जा सकता। भौतिकवादियों की इस तर्क का निराकरण जैन १. देखें, वैज्ञानिक भौतिकवाद, ले० राहुल सांस्कृतायन, (प्रथम संस्करण), पृ० ५८-६० । २. वही, पृ० ५९। ३. देखें, दर्शनशास्त्र की रूपरेखा, पृ० ७४। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और विज्ञान दर्शन के आधार पर सहजतया हो सकता है। जैन दर्शन के तथ्यों का विवेचन हम कर चुके हैं; उनमें से इन तथ्यों को ध्यान में रखना होगा : १. पंचास्तिकाय रूप विश्व का प्रत्येक अस्तिकाय ‘अस्तित्व' की दृष्टि से एक-दूसरे से स्वतंत्र है; अत: जीव और पुद्गल का अस्तित्व भी परस्पर स्वतन्त्र है। २. सत् (वास्तविकता) की परिभाषा में ही प्रत्येक अस्तिकाय की 'अनश्वरता' (Conservation) का नियम निहित है। पर्यायत्व की अपेक्षा से सत् उत्पन्न और नष्ट होता रहता है, फिर भी द्रवयत्व की अपेक्षा से तो सदा ध्रुव ही रहता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि पर्याय (अवस्था) के सतत प्रवाह में प्रति समय परिवर्तन पाता हुआ भी पुद्गल द्रव्य सदा ही पुद्गल रहता है और जीव सदा जीव रहता है, न पुद्गल कभी जीव के रूप में परिणत होता है और न जीव कभी पुद्गल के रूप में। ३. पुद्गल द्रव्य में सभी भौतिक पदार्थों का और भौतिक शक्तियों का समावेश हो जाता है। अत: पुद्गल द्रव्य की अनश्वरता के नियम में भौतिक पदार्थों और भौतिक शक्तियों के परस्पर रूपान्तरण का निषेध नहीं है। अब पदार्थ और शक्ति की सुरक्षा का नियम वैज्ञानिक जगत् में संयुक्त रूप धारण कर चुका है। और इसके अनुसार विश्व के सभी प्रकार के भौतिक पदार्थ और भौतिक शक्ति की तुला-राशि सदा अचल रहती है। यह नियम केवल भूत तत्त्व पर ही लागू होता है। जैन दर्शन आत्मा को पुद्गल से भिन्न मानता है; अत: जैन दर्शन में आत्मा की अनश्वरता और पुद्गल की अनश्वरता के दो नियम बन गये हैं। प्रथम नियम के अनुसार पुद्गल-तत्त्व, चाहे वह भौतिक शक्ति के रूप में, द्रव्य की अपेक्षा से अक्षय और ध्रुव रहता है। दूसरे नियम के अनुसार जीव तत्त्व द्रव्य की अपेक्षा से शाश्वत और अचल रहता है। इन दो पृथक नियमों के आधार पर ऊपर दिये गये तर्क का सहजतया निराकरण हो जाता है। शरीर-सम्बन्धी समस्त क्रियाएं पौद्गलिक हैं, अत: अन्न, जल, गर्मी आदि जिस शक्ति का उत्पादन करते हैं, वह भी पौलिक ही है। ऊपर दिये गये तर्क में जिस जीवन-शक्ति को भौतिक शक्ति से भिन्न कहा गया है। वह वस्तुत: भिन्न नहीं है, बल्कि भौतिक (पौद्गलिक) ही है; क्योंकि अन्नादि की परिणति रस, रक्त, वीर्य, आदि में होती है, जो सारे पौद्गलिक हैं और इनके ही रूपान्तर को ऊपर जीवन शक्ति' कहा गया है। उसी प्रकार मन या चैतन्य से शारीरिक क्रियाओं की उत्पत्ति मानना भी गलत है। जैन-दर्शन के अनुसार कर्म-पुद्गलों से आवृत और संशलिष्ट आत्मा तो पौद्गलिक क्रियाओं का केवल प्रेरक बनता है। शारीरिक क्रियाओं में जो शक्ति व्यक्त होती है, वह कोई आत्मा से उत्पन्न नहीं होती है, बल्कि यह तो १. उत्पाद्व्यध्रौव्यमुक्तं सत्। -श्री जैन सिद्धान्त दीपिका, ९-३१ । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जैन दर्शन और विज्ञान पौद्गलिक पदार्थ और पौद्गलिक शक्तियों का ही रूपान्तरण होता है । इसलिए चैतन्य (आत्मा) को अभौतिक मानने पर 'अनश्वरता' का नियम जरा भी खंडि नहीं होता । दूसरे प्रकार से भी उक्त का खंडन किया जा सकता है । जैसे- "यह तर्क तभी प्रकार तभी कारगर हो सकता है, जबकि पहले यह मान लिया जाये कि जीव (चेतन) तथा जड़ सबकी व्याख्या भौतिक रासायनिक नियमों द्वारा हो सकती है । क्योंकि शक्ति की अनश्वरता का नियम भौतिक रासायनिक नियम ही है ।' किन्तु यह मान लेना तो भौतिकवाद को ही मान लेना है । अतएव यह तर्क भौतिकवाद को प्रमाणित करने के पहले ही उसे मान लेता है, जो कि उचित नहीं है । कुछ प्रमुख वैज्ञानिकों का मत है कि उक्त नियम भौतिक रासायनिक जगत् के लिए ही है, जीव या चेतन-जगत के लिए नहीं । उस हालत में तो निस्सन्देह ही वह भौतिकवाद की पुष्टि नहीं कर सकता। इस प्रकार भौतिकवाद के समर्थन में दिये जाने वाले उक्त तर्क का निराकरण हो जाता है 1 द्वन्द्वात्मक भौतिक चेतन की सत्ता को इन्कार तो नहीं करता, किन्तु चेतना को भूत के गुणात्मक परिवर्तन से उद्भूत मानता है । द्वंद्वात्मक भौतिकवादियों का कहना है कि पृथ्वी की आयु २०,००० लाख वर्ष की है, जबकि मन (आत्मा) की आयु ५०० लाख वर्ष से पुरानी नहीं है । अर्थात् विश्व में पहले केवल भूत ही था और ५०० लाख पूर्व उस भूत के गुणात्मक परिवर्तन से चेतन की उतपत्ति हुई । आधुनिक विज्ञान, जैन दर्शन और सामान्य तर्क के आलोक में यदि हम इस मान्यता पर विचार करेंगे, तो सहसा ही इसकी निर्मूलता का पता चल सकता है। आधुनिक विज्ञान न तो विश्व को केवल पृथ्वी तक ही सीमित मानता है और न जीवन को भी । पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य आकाशीय पिण्डों पर भी जीव के अस्तित्व की संभावना की जा रही है। और भावी अन्तरिक्ष यात्राएं सम्भवत: इसके पुष्ट प्रमाण उपस्थित कर सकेंगी, ऐसी आशा की जाती है। पृथ्वी पर भी जीवन कब अस्तित्व में आया, यह अब तक निश्चित नहीं हो पाया है भूत के गुणात्मक परिवर्तन से जीव की उत्पत्ति 'क्यों और कैसे होती' इसका कोई उत्तर वैज्ञानिक १. देखें, एन इन्ट्रोडक्शन टू फिलोसोफी, ले० डब्ल्यू जेरूसलेम, पृ० १४७। २. दर्शन शास्त्र की रूपरेखा, लेखक राजेन्द्रप्रसाद, पृ० ७८-७९ भौतिकवाद की समर्थक तर्के और उसके निराकरण के लिए देखें, वही, पृ० ७२-७९ । ३. वैज्ञानिक भौतिकवाद, (प्रथम संस्करण) पृ० ३६ । ४. कोरोनेट, खण्ड २६, अंक ५ पृ० ३० ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और विज्ञान आधारों पर नहीं दिया जा सकता। अत: यदि यह मान भी लिया जाये कि पृथ्वी पर 'जीवन' का प्रारम्भ पृथ्वी के उत्पत्ति के बहुत समय बाद हुआ, तो भी 'भूत' के गुणात्मक परिवर्तन से ही चेतन' की उत्पत्ति हुई, ऐसा भी किसी वैज्ञानिक आधार पर नहीं कहा जा सकता; यह तो केवल आनुमानिक कल्पना ही है। सामान्य अनुभव के आधार पर भी उक्त मान्यता की असिद्धि सरलतया हो सकती है। सामान्य अनुभव हमें यह बतलाता है कि जीव और भूत; इन दोनों तत्त्वों में गुणों की मौलिक भिन्नता है। आत्मा के चैतन्य-गुण का भूत में सर्वथा अभाव है। जिस पदार्थ में जिस गुण का सर्वथा अभाव हो, वह गुण किसी भी प्रकार के परिवर्तन द्वारा प्रकट नहीं हो सकता। तर्क शास्त्र में उत्पादन की यह मर्यादा सर्वमान्य है; अत: गुणात्मक परिवर्तन का उक्त प्रकार का सिद्धांत ही गलत हो जाता है। इसके अतिरिक्त हम यह भी अनुभव करते है कि जब आज भी जीवन की उत्पत्ति भूत-पदार्थ से होनी शक्य नहीं है, तो अतीत में ऐसा हुआ हो, यह कैसे माना जा सकता है। जैन दर्शन के आलोक में यदि उक्त मान्यता का अवलोकन किया जाये, जो सहसा उसकी निरर्थकता स्पष्ट हो जाती है। जैन दर्शन बतलाता है कि आत्मा और पुद्गल; ये दोनों तत्त्व सदा से इस विश्व में थे और सदा रहेंगे। दोनों के अस्तित्व को अनादिकालीन माने बिना विश्व-आयु' सबंधित अनेक प्रदेशों का समाधान नहीं मिल सकता। अब यदि विकासवादियों द्वारा कथित पृथ्वी की जीवन-विकास की कहानी को सत्य माना भी जाये, तो भी यह मानना जरूरी नहीं है कि 'भूत' ही स्वयं परिवर्तित होकर चेतन का रूप धारण कर विकसित हो रहा है। जैन दर्शन के काल-चक्र का सिद्धांत यह तो निरूपण करता ही है कि विकास और हास का क्रम विश्व के कुछ क्षेत्रों में चलता रहता है। 'पृथ्वी' के आदिकाल में पौद्गलिक परिस्थितियों की प्रतिकूलता के कारण जीवों के उत्पन्न होने के योग्य योनियों के अभाव में यहां जीवन का अभाव हो, यह सम्भव है। बाद में जैसे-जैसे जीवनानुकूल स्थिति बनी और जीवों के उत्पन्न होने के योग्य योनियों का प्रादुर्भाव हुआ, तो जीव' उनमें आकर जन्म लेने लगे। ऐसी ही सम्भवत: जीवन-विकास का क्रम बना हो। इस प्रकार भूत के गुणात्मक परिवर्तन से चेतन की उत्पत्ति को मानने की अपेक्षा जीव और भूत को पृथक-पृथक सत्ता के रूप में स्वीकार करना ही तर्कसंगत है। इस चर्चा के निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भौतिकवाद, चाहे वह प्राचीन रूप में हो या नवीन रूप में, विश्व क्या है?' का जो उत्तर प्रस्तुत करता है, १. द्रष्टव्य, दर्शनशास्त्र की रूपरेखा, पृ० ७८ । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जैन दर्शन और विज्ञान वह न्यायसंगत नहीं है। केवल भूत को चरम वास्तविकता मान लेने से विश्व क्या है' की प्रहेलिका सुलझ नहीं सकती। बट्टैण्ड रसल का दर्शन और जैन दर्शन विश्व की चरम वास्तविकता एक नहीं, अपितु अनेक हैं; यह अनेक तत्त्वात्मक वास्तविकतावाद है। दार्शनिक विचारधाराओं में यदि कोई विचार-धारा जैन दर्शन के अधिक निकट हो, तो वह अनेक तत्त्वात्मक वास्तविकतावाद की है। इस विचारधारा में भी तत्त्वों के स्वरूप, संख्या आदि को लेकर अनेक अभिप्राय प्रस्तुत हुए है। द्वैतवाद विश्व में दो तत्त्व की सत्ता का प्रतिपादन करता है। अनुभयवाद जड़ और चेतन के अतिरिक्त तीसरे ही प्रकार के तत्त्वों को विश्व की वास्तविकता मानता है। आधुनिक दार्शनिकों में बट्टैण्ड रसल की विचारधारा में 'अनेक तत्त्वात्मक वास्तविकवाद' का प्रतिपादन हुआ है। वे भौतिक पदार्थों के अस्तित्व को अनुभूति पर आधारित नहीं मानते। रसल ने सभी प्रकार की आदर्शवादी और ज्ञाता-सापेक्षवादी विचारधाराओं का तार्किक ढंग से खण्डन किया है। बर्कले के अनुभववाद और प्लुतो के 'प्रत्ययों के सिद्धांत' की भी उन्होंने तर्कपूर्ण रीति से धज्जियां उड़ाई हैं। ज्ञान-मैमासिक विश्लेषण की दृष्टि से रसल ने एक नये प्रकार के वास्तविकतावाद को जन्म दिया है। इसमें स्पष्ट रूप से माना गया है कि ज्ञेय पदार्थों का अस्तित्व ज्ञाता से सर्वथा स्वतंत्र है। जैन-दर्शन भी इस सिद्धांत को स्वीकार करता है। इस प्रकार पदार्थों के वस्तु-सापेक्ष अस्तित्व को दोनों दर्शनों में स्वीकार किया गया बर्टेण्ड रसल जहां पदार्थों के वास्तविक अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, वहां चैतन्य के अस्तित्व को भी स्वीकार करते है; अत: भौतिकवाद के भी वे विरोधी हैं। यहां तक तो उनका जैन दर्शन के साथ सामंजस्य रहता है। किन्तु इससे आगे वे मानते हैं कि विश्व की वास्तविकता 'अनुभय' अर्थात् जड़ और चेतन से परे तीसरे प्रकार के तत्त्व हैं, जिनको वे घटनाएं (ईवण्ट्स) कहते है। इस प्रकार उनके अनुसार विश्व के सभी पदार्थ घटनाओं के समूह हैं। घटनाएं अपने आप में जड़ और चेतन दोनों से भिन्न हैं और आकाश काल के सीमित प्रदेश में स्थित है। इन घटनाओं को वे स्वभावत: गत्यात्मक (डाइनेमिक) मानते हैं तथा एक-दूसरे से संबंधित भी। 'घटना' के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने लिखा है-“जब मैं 'घटना' के विषय १. एन आउटलाइन ऑफ फिलोसोफी, पृ० २८७ । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ दर्शन और विज्ञान में कह रहा हूं, तो मेरा तात्पर्य किसी अनुभवातीत वस्तु से नहीं है। बिजली की चमक को देखना एक घटना है; मोटर के टायर को फटते सनुना अथवा सड़े अण्डे का संघना या किसी मेंढ़क के शरीर की शीतता का अनुभव करना............. आदि 'घटनाएं' हैं।''१ इन घटनाओं के सम्बन्ध परस्पर भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं, जिनके कारण कोई समूह 'जड़' कहलाता है और कोई 'चेतन।' इस प्रकार जड़ पदार्थों की घटनाओं के पारस्परिक संबंध चेतन पदार्थों की घटनाओं के संबंधो से भिन्न हैं, यद्यपि दोनों में विद्यमान घटनाओं का स्वरूप एक ही है। जैन दर्शन के द्रव्य-गुण-पर्यायवाद के साथ यदि रसल के इस 'घटना' सिद्धांत की तुलना की जाए, तो इनके बीच रहे हुए सादृश्य-वैसदृश्य का पता लग सकता है। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक द्रव्य गुण और पर्याय का आश्रय है। प्रतिक्षण प्रत्येक द्रव्य में जो परिवर्तन होता है, उसे पर्याय कहा गया है। जीव और पुद्गल धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय, आकाश एवं काल; सभी द्रव्यों में प्रतिक्षण यह पर्याय का क्रम चलता रहता है। जिसको रसल 'घटना' कहते हैं, वह संभवत: 'पर्याय' का द्योतक है। रसल पदार्थों को घटनाओं के समूह रूप मानते है; जैन दर्शन 'पर्याय-प्रवाह' के आधार को द्रव्य मानता है। रसल की 'घटनाएं' गत्यात्मक हैं और एक-दूसरे से संबंधित हैं, तो जैन दर्शन भी पर्यायों को सदा गतिमान और एक-दूसरे से संबंधित मानता है। घटनाएं और पर्याय दोनों हमारे अनुभव से परे नहीं हैं। रसल जहां घटनाओं के विविध सम्बन्धों से जड़ और चेतन से विभाजित करते हैं और जड़ पदार्थों की घटनाओं के पारस्परिक संबंधो को चेतन पदार्थों की घटनाओं के संबंध से भिन्न मानते हैं, वहां जैन दर्शन भी पुद्गल और जीव की पर्यायों को भिन्न-भिन्न मानता है। अन्तर केवल इतना ही है कि रसल प्रत्येक घटना को एक स्वतंत्र तत्त्व 'अनुभय' मानते हैं, जबकि जैन दर्शन पर्याय को एक स्वतंत्र तत्त्व के रूप में स्वीकार नहीं करता। यथार्थता की दृष्टि से देखने पर रसल का यह अनुभयवाद भी अन्तत: तो द्वैतवाद में ही परिणत हो जाता है; क्योंकि जहां पारस्परिक सम्बन्धों से वे घटनाओं को दो प्रकारों में विभाजित करते हैं, वहां मौलिक तत्त्व घटनाएं न रह कर जड़ और चेतन ही बन जाते हैं। १. वही, पृ० २८७ । २. दर्शन शास्त्र की रूपरेखा, पृ० १३१ । ३. गुणपर्यायाश्रयो द्रव्यम्। -श्री जैन सिद्धान्त दीपिका पृ० १-३ । गरपरित्यागादानं पर्याय: । . -वही, पृ० १-४४ ! Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान जड़-चेतन की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी सम्बन्धों की परीक्षा करते हुए डा. डब्ल्यु. टी. स्टेस ( W. T. Stace) इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ये संबंध अनुभयवाद को वस्तुतः द्वैतवाद बना डालते हैं। वे कहते हैं- "यदि जड़ और चेतन का अन्तर उनके तत्त्वों के संबंधों का अन्तर है, तो इसका तात्पर्य यह है कि चेतन पदार्थ के तत्त्वों में जो संबंध है, वह भौतिक पदार्थ के सम्बन्ध से बिलकुल भिन्न है, अर्थात् वह भौतिक नहीं है । यह भी निश्चित है कि यह अनुभय नहीं है, तो अवश्य ही मानसिक या चेतन होगा । अनुभय नहीं होने का मतलब है कि जड़ और चेतन; दोनों से भिन्न नहीं है, अर्थात् भौतिक या मानसिक है। यह भी मालूम है कि भौतिक नहीं है; इसलिए अवश्य ही मानसिक होगा। इसी तरह यह दिखाया जा सकता है कि भौतिक पदार्थों के तत्त्वों में विद्यमान सम्बन्ध भौतिक हैं । अतएव अनुभय तत्त्वों से चेतन पदार्थ को उत्पन्न करने वाले संबंध सिर्फ चेतन हैं और भौतिक पदार्थ को उत्पन्न करने वाले सिर्फ भौतिक । इसका मतलब है कि जड़ और चेतन की भिन्नता मौलिक या आधारिक है। किन्तु ऐसा होने से उनका वास्तविक द्वैत सिद्ध हो जाता है । इस द्वैत का परिहार नहीं हो सकता, क्योंकि यह द्वैत सम्बन्धों का है और सम्बन्ध ही जड़ को जड़ और चेतन को चेतन बनाने वाले हैं। “२ इस प्रकार, यद्यपि रसल ने घटनाओं को अनुभय तत्त्वों के रूप में बताया है, पर वस्तुतः तो उनके मूल में जड़ या चेतन कोई-न-कोई होता है । ३६ यह तो जैन दर्शन भी मानता है कि जितने भी चेतन तत्त्व हैं और परमाणु-पुद्गल हैं, वे सभी स्वतंत्र वास्तविकताएं हैं और इस दृष्टि से विश्व के मूल तावों की संख्या तो अनन्त ही है। जहां हम इन तत्त्वों को प्रकारों में बांटते हैं, वहां हमारे सामने केवल दो भेद रह जाते हैं- जीव और पुद्गल । अस्तु, रसल का दर्शन पाश्चात्य जगत् का एक ऐसा दर्शन है, जो सम्भवत: जैन दर्शन के सबसे निकट माना जा सकता है 1 समीक्षात्मक वास्तविकतावाद और जैन दर्शन आधुनिक पाश्चात्य दार्शनिकों में प्रो. हेनी मार्गेनौ की विचारधारा भी जैन दर्शन के साथ बहुत सादृश्य रखती है। प्रो. मार्गेनौ ने 'कन्स्ट्रक्ट्स' के सिद्धान्त का निरूपण करके यह बताया है कि ज्ञाता और ज्ञेय पदार्थ दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व १. देखें, दी फिलोसोफी ऑफ बर्ट्रेण्ड रसल, पी० ए० सिल्प द्वारा सम्पादित, पृ० ३५५-३८४ । २. दर्शन शास्त्र की रूपरेखा, पृ० १३३ । ३. रसल ने स्वयं अपने दर्शन को द्वैतवाद कहा है; देखें, दर्शन-दिग्दर्शन, पृ० ३७१ । ४. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय; ये तीन वास्तविक तत्त्व हैं, किन्तु इनकी संख्या एक-एक ही है । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ दर्शन और विज्ञान है। अभौतिक वास्तविकता को भी वे स्वीकार करते हैं। इस प्रकार जैन दर्शन के साथ इनकी विचारधारा का काफी सामंजस्य प्रतीत होता है। मार्गेनौ की विचारधारा में ज्ञान-मैमासिक विश्लेषण के द्वारा ज्ञाता और ज्ञेय पदार्थ की वास्तविकता के विषय में चिन्तन किया गया है और वह विचारधारा समीक्षात्मक वास्तविकतावाद के निकट चली जाती है। समीक्षात्मक वास्तविकतावाद के अनुसार ज्ञान-प्रक्रिया में तीन तत्त्व होते १. ज्ञाता २. ज्ञेय ३. ज्ञात पदार्थ 'ज्ञाता' ज्ञान प्राप्त करने वाला है। जिस वस्तु का ज्ञान प्राप्त होता है, उसी को ज्ञेय पदार्थ' कहते हैं। मन या ज्ञाता की चेतना के समक्ष जो पदार्थ विद्यमान रहता है, उसी को ज्ञात पदार्थ' कहते है। उसे प्रदत्त (डटम) भी कहते है; क्योंकि ज्ञाता को यह प्राप्त होता है, वास्तविक वस्तु नहीं मिलती। यह सिद्धांत वास्तविक वस्तु और ज्ञात वस्तु; दोनों में द्वैत या भिन्नता मानता है, इसलिए इस ज्ञान-शास्त्रीय द्वैतवाद (एपिस्टेमोलोजिकल ड्यअलिज़म) कहते हैं। इस प्रकार इसके अनुसार ज्ञेय पदार्थ और ज्ञात पदार्थ में संख्यात्मक भिन्नता तो होती है; किन्तु इन प्रदत्तों के द्वारा यथार्थ वस्तुओं का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। क्योंकि हम प्रदत्तों को नहीं देखते, बल्कि चश्मे की तरह उनके माध्यम से वस्तुओं को देखते हैं। जैन दर्शन ज्ञेय पदार्थ को स्वतन्त्र वास्तविकता के रूप में स्वीकार करता है तथा ज्ञाता का भी स्वतन्त्र वास्तविक अस्तित्व मानता है। ज्ञात पदार्थ ज्ञेय पदार्थ से संख्यात्मक भिन्नता रखता है। ज्ञान प्रक्रिया में दो प्रकार के साधनों का उपयोग होता है-ऐन्द्रिय और अतीन्द्रिय। ऐन्द्रिय साधनों द्वारा ज्ञात पदार्थ ज्ञेय पदार्थ से न केवल संख्यात्मक भिन्नता रखता है बल्कि इनमें स्वरूपात्मक भिन्नता भी होनी संभव है। हां, यह ज्ञात पदार्थ ज्ञेय पदार्थ और ऐन्द्रिय उपकरणों के पारस्परिक सम्बन्धों के अनुरूप ही होता है। गणित की भाषा में इसे कहें तो-यदि अ ज्ञेय पदार्थ है और ब ऐन्द्रिय साधनों द्वारा ज्ञात पदार्थ है, तो ब=फ (अ, ऐन्द्रिय सम्बन्ध) होता है। इस १. दी नेचर ऑफ फिजिकल रियलिटी, पृ० ४५८ । २. देखें, दर्शनशास्त्र की रूपरेखा, पृ० ३४५ । ३. फ ( ) फलन (फंक्शन) का चिह्न है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जैन दर्शन और विज्ञान प्रकार हमारे ज्ञान में आने वाले विश्व और वास्तविक विश्व में यह द्वैत' हो जाता है। जहां अतीन्द्रिय साधनों के द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है, वहां ज्ञात पदार्थ और ज्ञेय पदार्थ में संख्यात्मक द्वैत तो रहता है, किन्तु स्वरूपात्मक द्वैत नहीं रहता। अर्थात् यदि क अतीन्द्रिय साधनों के द्वारा ज्ञात पदार्थ है, तो क = अ होता है। इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन दर्शन और समीक्षात्मक वास्तविकतावाद में बहुत कुछ सादृश्य है, किन्तु थोड़ा अन्तर भी है। समीक्षात्मक वास्तविकतावाद जहां प्रदत्त और यथार्थ वस्तु में स्वरूपात्मक भिन्नता को स्वीकार नहीं करता, वहां जैन दर्शन उसकी सम्भवता को स्वीकार करता है। दसूरी बात यह है कि 'प्रदत्तों' को जैन दर्शन में कोई स्वतंत्र वास्तविकता के रूप में स्वीकार नहीं किया गया हैं, किन्तु वह वस्तुत: ज्ञाता का ही एक अंग बन जाता है। हां, उसका स्वरूप ज्ञेय पदार्थ' पर आधारित अवश्य होता है। ऐसा मानने से जो दोष समीक्षात्मक वास्तविकतावाद में आते हैं, जैन दर्शन की विचारधारा उनसे मुक्त रह जाती है। हाइजनबर्ग का दर्शन और जैन दर्शन वैज्ञानिकों में अनेक ऐसे हैं, जो अनेक तत्त्वात्मक वास्तविकतावाद को स्वीकार करते हैं। प्राचीन युग में न्यूटन ने स्पष्ट रूप से भूत और चेतन के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार किया था, आधुनिक युग में हाइजनबर्ग, व्हीट्टाकर आदि भी पदार्थ के वस्तु-सापेक्ष अस्तित्व को किस प्रकार स्वीकार करते हैं, इसकी चर्चा हम कर चुके हैं। हाइजनबर्ग का स्थान वर्तमान वैज्ञानिकों की प्रथम श्रेणी में है। उन्होंने अपने भौतिक विज्ञान और दर्शन नामक ग्रन्थ में आधुनिक विज्ञान के दर्शन की जो चर्चा की है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि उन्होंने भौतिक पदार्थों को वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता के रूप में माना है साथ ही चेतन तत्त्व की वास्तविकता को भी वे स्वीकार करते हैं। उन्होंने माना है कि चेतन तत्त्व' को भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र और विकासवाद के सिद्धान्तों पर नहीं समझाया जा सकता। हाइजनबर्ग यह भी मानते है कि वास्तविकता' को समझाने के लिए हमारी सामान्य धारणाओं की सूक्ष्म परिभाषाएं आवश्यक हैं। इनकी विचारधारा को हम आधुनिक प्रत्यक्षवाद के अन्तर्गत मान सकते हैं। उन्होंने स्वयं आधुनिक प्रत्यक्षवाद की चर्चा में यह कहा है कि 'पदार्थ', 'अनुभूति', 'अस्तित्व' आदि की समीक्षात्मक परिभाषाएं आवश्यक हैं। १. विवरण के लिए देखें, दर्शनशास्त्र की रूपरेखा, पृ० ३४७-३४८ २. फिजिक्स एण्ड फिलोसोफी, पृ० ९५ । ३. वही, पृ० ८४ ४. वही, पृ० ७८ । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन और विज्ञान जैन दर्शन के साथ यदि इसकी तुलना की जाये, तो कहा जा सकता है कि वैज्ञानिकों की दार्शनिक विचारधाराओं में हाइजनबर्ग की विचारधारा जैन दर्शन के साथ बहुत सादृश्य रखती है। दोनों ही भूत और चेतन के वास्तविक अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। ज्ञाता, ज्ञेय-सम्बन्धी हाइजनबर्ग की दार्शनिक विचारधारा का विस्तृत विवेचन उपलब्ध न होने से इतनी ही समीक्षा पर्याप्त मानी जा सकती है। हाईज़नबर्ग के अतिरिक्त अन्य कुछ वैज्ञानिक भी भौतिक पदार्थों और चेतन तत्त्व को भी वास्तविक मानते हैं। किन्तु उनकी विचारधाराएं दर्शन के रूप में उपलब्ध न होने से उनकी तुलनात्मक समीक्षा नहीं की जा सकती। उपसंहार 'विश्व क्या है?' इस प्रमुख प्रश्न के समाधान में दिये गये दार्शनिकों और वैज्ञानिकों के विचारों और सिद्धांतों को जैन दर्शन के साथ एक तुलनात्मक समीक्षा करने का हमने प्रयत्न किया । हमने देखा कि विश्व की वास्तविकता के विषय में उल्लिखित इन विविध दर्शनों में और जैन दर्शन में सादृश्य भी है और वैसदृश्य भी। किसी ने केवल 'ईश्वर' को वास्तविक माना है और सारे विश्व को अवास्तविक। किसी ने अनुभूत विश्व को अवास्तविक मानकर वास्तविकता को पारमार्थिक बताया है। किसी ने अनुभूति को ही वास्तविकता का मूल कारण माना है और अनुभूत विश्व को अवास्तविक कहा है। किसी ने केवल आत्मा या चेतन को ही वास्तविक माना है और भूत को अवास्तविक । किसी ने केवल भूत को वास्तविक माना है, तो चेतन को अवास्तविक अथवा भूत से ही उद्भूत । किसी ने चेतन, भूत सभी को अवास्तविक कहा है। किसी ने चेतन को भी वास्तविक कहा है और भूत को भी तथा किसी ने चेतन और भूत से भिन्न अनुभय को वास्तविक माना है। विज्ञान का दर्शन उक्त विषय में क्या दृष्टिकोण रखता है, यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। हम देख चुके हैं कि वैज्ञानिक इस विषय में पृथक-पृथक् विचार रखते हैं। विज्ञान का प्रायोगिक पक्ष बहुधा सर्वसम्मत दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है तो दार्शनिक पक्ष भी क्या ऐसा प्रतिपादन नहीं कर सकता? इस विचारणीय प्रश्न का हम उक्त सीमा के आलोक में हल करने का प्रयत्न करेंगे। हम देख चुके हैं कि वैज्ञानिकों के दार्शनिक विचार मुख्यत: ती भागों में विभाजित हो जाते हैं१. आदर्शवाद, २. भौतिकवाद, ३. अनेक तत्त्वात्मक वास्तविकवाद। इनमें प्रथम दो दृष्टिकोण एकतत्त्ववाद (मोनिज़म) का समर्थन करते हैं। किसी भी प्रकार के एकत्त्ववाद की यह त्रुटि है कि वह तर्क और अनुभव के आधार पर खरा नहीं उतरता। आदर्शवादी वैज्ञानिक भौतिक विश्व की वस्तु-निष्ठता को अस्वीकार कर केवल चैतन्य को ही विश्व की वास्तविकता मानने का आग्रह करते हैं, तो भौतिक Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जैन दर्शन और विज्ञान वादी वैज्ञानिक केवल भूत को ही विश्व की चरम वास्तविकता बताते हैं। दोनों पक्षों के वैज्ञानिक अपनी विचारधारा को विज्ञान-सम्मत सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। वैज्ञानिकों के इस दार्शनिक विवाद के पीछे राजनीति का भी प्रभाव, ऐसा लगता है। साम्यवादी नेताओं को जब पता चला कि कुछ वैज्ञानिक आधुनिक भौतिक विज्ञान के आदर्शवाद की विचारधारा के पक्ष में बताते हैं, तो उन्हें बड़ी चिंता हुई। वे इस प्रयत्न में लगे कि 'भौतिकवाद' को ही वैज्ञानिक दर्शन का स्थान प्राप्त हो। लेनिन ने ठेठ ई. १९०८ में लिखा था-“सामान्य विज्ञान के क्षेत्र में एवं भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में भी वैज्ञानिकों का विशाल बहुमत भौतिकवाद के पक्ष में है। बहुत ही अल्पसंख्या में कुछ एक आधुनिक भौतिक विज्ञानवेत्ता आदर्शवाद के चक्कर में पड़ गए हैं। यह नया आदर्शवादी भौतिक विज्ञान जो अभी-अभी प्रचारित हो रहा है, केवल प्रतिक्रियात्मक और अस्थाई है..............।''२ लेनिन के इस विचार की प्रतिक्रियारूप ही संभवत: एडिंग्टन, जीन्स आदि वैज्ञानिकों ने ईश्वर के अस्तित्व को ओर भौतिक पदार्थों के ज्ञाता-सापेक्ष अस्तित्व को वैज्ञानिक सिद्धांतों के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया। इस प्रकार एक और आदर्शवाद को तो दूसरी ओर भौतिकवाद को विज्ञान-सम्मत बताने के प्रयत्न वैज्ञानिकों के द्वारा हुए। यह सहज संभव है कि इस प्रकार के प्रयत्नों में विज्ञान की तर्क-संगतता और अनुभव-संगतता को गौण कर दिया गया हो। इन दोनों विचारधाराओं की समीक्षा के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये दोनों विचारधाराएं पूर्ण रूप से विज्ञान-सम्मत और तर्क-सम्मत नहीं है। प्रो. श्रीमती स्टेबिंग, जिन्होंने एडिंग्टन और जीन्स के आदर्शवादी विचारों की कट आलोचना की है और उनके विचारों में रही हई असंगतता को प्रकट किया है, 'भौतिकवाद' को भी विज्ञान-सम्मत दर्शन नहीं मानतीं। उन्होंने इस बात को स्पष्ट रूप से लिखा है कि "भौतिकवादी येन-केन प्रकारेण किसी प्रकार के तत्त्व-मैमासिक भौतिकवाद की स्थापना करना चाहते हैं। (वे चाहते है कि) वैज्ञानिक निष्कर्षों का जिस किसी भी प्रकार से ऐसा प्रतिपादन किया जाए, जिससे वह दार्शनिक विचार पुष्ट हों जिन पर उनका राजनैतिक दर्शन व्यवसायिक रूप से आधारित है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के पोषकों की उतनी ही निकृष्ट तत्त्व-मीमांसा और उतना ही अपूर्ण दर्शन है, जितना कि उन लोगों का है, जो दार्शनिक आदर्शवाद को मान्यता देते हैं । ......... मैं इस सम्भावित भ्रांति को दूर करना चाहती हूं। यदि १. देखें, फिलोसोफी एण्ड फिजिसिस्ट्स, भूमिका, पृ० ११ ।। २. मेटेरियलिज़म एण्ड एम्पिरियो-क्रिटिसिज़म, पृ० ३१० । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ दर्शन और विज्ञान मैं इस बात को सिद्ध करने में सफल होती हूं कि वर्तमान भौतिक विज्ञान के सिद्धांत आदर्शवाद के किसी भी प्रकार की पुष्टि नहीं करते तो ऐसा भी नहीं समझना चाहिए कि उन्हें (भौतिक विज्ञान के सिद्धांतों को) भौतिकवाद के किसी रूप की पष्टि करने वाले सिद्ध करती हूं।'' प्रो. स्टेबिंग के आदर्शवाद-विरोधी विचारों की चर्चा हम कर चुके हैं और देख चुके हैं कि उन्होंने सफलतापूर्वक एडिंग्टन और जीन्स दार्शनिक विचारों को विज्ञान और तर्क के साथ असंगत सिद्ध किया है। उक्त उद्धरण से कहा जा सकता है कि भौतिकवाद को भी व विज्ञान-सम्मत मानने को तैयार नहीं हैं। इस उद्धरण से विज्ञान के दर्शन पर राजनीति के प्रभाव को भी देखा जा सकता है। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि वैज्ञानिक दर्शन की संज्ञा न तो आदर्शवाद को दी जा सकती है और न भौतिकवाद को। तीसरा विकल्प रह जाता है-द्वैतवाद या अनेकतत्त्बाद का। हाइजनबर्ग आदि वैज्ञानिकों की मान्यता सम्भवत: विज्ञान के दर्शन को निष्पक्ष रूप से प्रतिपादित करती है। उनके अभिमत में आत्मा (चेतन) और भूत; दोनों को स्वतन्त्र मौलिक वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया गया है। इन वैज्ञानिकों के अनुसार यद्यपि इन वास्तविकताओं के तात्त्विक स्वरूप के विषय में वर्तमान विज्ञान का चिन्तन स्पष्ट नहीं हो पाया है, फिर भी इनके स्वतन्त्र अस्तित्व को तो स्वीकार कर ही लिया गया है। हाइजनबर्ग ने अपनी भौतिक विज्ञान और दर्शन नामक पुस्तक के उपसंहारात्मक अध्याय में लिखा है : “मन, आत्मा, जीवन या ईश्वर-सम्बन्धी उन्नीसवीं शताब्दी की हमारी धारणाओं से आज आधुनिक भौतिक विज्ञान के विकास के कारण इनके विषय में हमारी धारणाएं काफी भिन्न हो गई हैं। एतद् विषयक धारणाएं प्राकृतिक भाषा के साथ सम्बन्धित होने के कारण वास्तविकता को अधिक छूती हैं। यद्यपि यह सही है कि इनकी व्याख्याएं वैज्ञानिक अर्थ में इतनी सस्पष्ट नहीं हैं और सम्भवत: इनके परिणामस्वरूप अनेक असंगतियां भी उत्पन्न हो जाती हैं, फिर भी हमें वर्तमान में तो उनको वैसे ही अपनाना होगा। क्योंकि हम जानते है कि वे वास्तविकता को छूती हैं। इसके सम्बन्ध में यह स्मरण रखना होगा कि विज्ञान के अधिकतम समीचीन अंश-गणित में हमें बहुत सारी ऐसी धारणाओं को प्रयुक्त करना होता है, जो असंगतियों को जन्म देने वाली होती हैं। उदाहरणार्थ-'यह सर्व विदित है कि 'अनंत' संबंधी (गणित की) धारणा असंगतियों को उत्पन्न करती है, जिनका विश्लेषण भी किया गया है; परन्तु इस धारणा के बिना गणित १. फिलोसोफी एण्ड दी फिजिसिस्ट्स, भूमिका, पृ० १२ । २. १९ वीं शताब्दी के वैज्ञानिकों के दर्शन में प्रमुखतया भौतिकवाद को ही स्थान मिला था। ___ यांत्रिक भौतिकवाद' उन्नसवीं शताब्दी के भौतिक विज्ञान की देन है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैन दर्शन और विज्ञान के प्रमुख अंशों का निर्माण प्राय: अशक्य-सा बन जाता है।''१ हाइजनबर्ग के इस कथन का तात्पर्य यही होता है कि विज्ञान-सम्मत दार्शनिक विचारधारा आत्मा की वास्तविकता को स्वीकार करती है। इस प्रकार देखा जा सकता है कि विश्व क्या है?' की प्रहेलिका का विज्ञान-सम्मत हल निकालने में अब तक सभी वैज्ञानिक एकमत नहीं हो पाए हैं। जैन दर्शन की विचारधारा और उसके आलोक में की गई समीक्षा के आधार पर कहा जा सकता है कि जैन दर्शन के अनेकतत्त्वात्मक वास्तविकतावाद प्रस्तुत प्रहेलिका का विज्ञान-सम्मत हल निकालने में मार्ग-दर्शक बन सकता है। जैन दर्शन अध्यात्मवादी दर्शन है, फिर भी दार्शनिक आदर्शवाद से सहमत नहीं हैं। तत्त्व-मीमांसा के दृष्टिकोण में पुद्गल और जीव; दोनों के अस्तित्व का समान मूल्य है। अत: भौतिकवाद और आदर्शवाद के बीच की खाई को पाटने के लिए जैन दर्शन का तत्त्व-मैमासिक दृष्टिकोण बहुत उपयोगी हो सकता है। जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित सत् (वास्तविकता) की परिभाषा द्रव्य, गुण, पर्याय का निरूपण, पांच अस्तिकायों का स्वरूप आदि तथ्य अनेकतत्त्वात्मक वास्तविकतावाद के समक्ष उपस्थित होने वाली तर्कों का समाधान दे सकते हैं। अभ्यास १. दर्शन और विज्ञान के मूलभूत अन्तर को समझाते हुए इनकी निकटता को स्पष्ट करें। दर्शन और विज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन क्यों जरूरी है। आधुनिक विज्ञान के दर्शन को विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा किस प्रकार प्रस्तुत किया गया है? जैन दर्शन के साथ निम्नलिखित आधुनिक वैज्ञानिकों के दर्शन की तुलना करें(क) एडिंग्टन (ख) जेम्स जीन्स (ग) हाइजनबर्ग ५. जैन दर्शन द्वारा भौतिकवाद के वैज्ञानिक दर्शन का निराकरण किस प्रकार किया जा सकता है? ६. वैज्ञानिकों विभिन्न दर्शन के संदर्भ में जैन दर्शन का मूल्यांकन करें। १. फिजिक्स एण्ड फिलोसोफी, पृ० १७२ । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. अध्यात्म और विज्ञान (१) धर्म और विज्ञान धर्म और विज्ञान-ये दो नहीं, वस्तुत: एक ही विषय हैं। धर्म स्वर्य विज्ञान है। एक वैज्ञानिक यहां हिन्दुस्तान में बैठा हुआ किसी प्रकार का प्रयोग या अन्वेषण करता है और जो निष्कर्ष उसके प्रयोग का निकलेगा, वही निष्कर्ष अमेरिका में बैठा हुआ एक वैज्ञानिक उसी तरह का प्रयोग करके प्राप्त करेगा। हजार वर्ष पहले किसी वैज्ञानिक ने प्रयोग करके जो फल निकाला था, हजार वर्ष बाद भी आज का वैज्ञानिक वैसे ही प्रयोग से वही फल प्राप्त करेगा। अत: यह स्पष्ट है कि त्रिकालाबाधित सत्य ही विज्ञान है। देश या काल के कारण इसमें कोई अन्तर नहीं आ सकता। यही बात धर्म के लिए भी हम कह सकते हैं। अत: मानना पड़ेगा धर्म स्वयं विज्ञान है किसी वस्तु को जानने का जो माध्यम है, वह है विज्ञान, और उस माध्यम के द्वारा जो कुछ प्राप्त होता है, वह है धर्म। विज्ञान वस्तु को जानने की प्रक्रिया है और धर्म आत्मा को पाने की प्रक्रिया है, साधन है। मनुष्य में सत्य की जिज्ञासा और उसकी खोज का प्रयत्न चिरकाल से रहा है। उसका स्थूल रूप हमारे सामने है। मनुष्य केवल स्थूल से संतुष्ट नहीं होता। वह निरन्तर स्थूल से सूक्ष्म की ओर प्रस्थान करता है। धर्म की खोज सूक्ष्म तत्त्व की खोज है। आत्मा, परमात्मा, परमाणु, कर्म-ये सभी सूक्ष्म तत्त्व हैं। साधारण जीवन-यात्रा से इनका सीधा सम्बन्ध नहीं है। इस खोज का माध्यम रहा है-अन्तर्दृष्टि, अतीन्द्रिय चेतना और गंभीर एवं एकाग्र चिन्तन। विज्ञान ने भी सूक्ष्म सत्यों को खोजा है। उसकी खोज का माध्यम है-सूक्ष्मदर्शी उपकरण। वैज्ञानिक जगत् में ये उपकरण प्रचुर मात्रा में विकसित हुए हैं। इनके द्वारा एक सामान्य मनुष्य भी सूक्ष्म तत्त्वों को जान सकता है। किन्तु एक वैज्ञानिक के लिए ये उपकरण ही पर्याप्त नहीं हैं। उसके लिए अन्तर्दृष्टि, चिन्तन की एकाग्रता और निर्विचारता उतने ही आवश्यक हैं जितने एक धर्म की खोज करने वाले के लिए। धर्म भी सत्य की खोज है और विज्ञान भी सत्य की खोज है। जहां सत्य की खोज का प्रश्न है, दोनों एक बिंदु पर आ जाते हैं। पर उद्देश्य की दृष्टि से दोनों Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैन दर्शन और विज्ञान के अवस्थिति-बिंदु भिन्न हैं। धर्म के क्षेत्र में सत्य की खोज का उद्देश्य है-अस्तित्व और चेतना का विकास । विज्ञान के क्षेत्र में सत्य की खोज का उद्देश्य है-अस्तित्व और पदार्थ का विकास। विज्ञान ने जीवन-यात्रा के लिए उपयोगी अनेक तत्त्व खोजे हैं। खाद्य, चिकित्सा व सुविधा के क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति हुई है। धर्म ने सुविधा देने वाला कोई तत्त्व नहीं खोजा, पर उसने चेतना के उन आयामों की खोज की जो सुविधा के अभाव में होने वाली असुविधा को सह सकें। अध्यात्म और विज्ञान द्वारा नियमों की खोज भीतर की गहराइयों में गये बिना सच्चाई को जाना नहीं जा सकता। प्रत्येक देश और काल का अपना मूल्य होता है। आज का देश और काल विज्ञान से बहुत अधिक प्रभावित है। आज का प्रबुद्ध आदमी विज्ञान की भाषा समझता है। बहुत सहजता से समझ लेता है। वह पुरानी भाषा को इतनी सहजता से नहीं पकड़ पाता। अध्यात्म की भाषा पुरानी हो गई, इसलिए उसे पकड़ने में कठिनाई हो रही है। अध्यात्म स्वयं विज्ञान है। विज्ञान और अध्यात्म को बांटा नहीं जा सकता। उनके बीच में कोई भेदरेखा नहीं खींची जा सकती। किन्तु आज चलने वाली धरा हजार वर्षों के बाद अनबूझ पहेली बन जाती है। वर्तमान की धारा लोगों के लिए सुलभ होती है। आज यही हुआ है। आज अध्यात्म को हम भूल गए और विज्ञान हमारी पकड़ में आ गया। गहरे में उत्तर कर देखें तो अध्यात्म और विज्ञान में अन्तर नहीं लगता। दोनों की प्रकृति एक है। दोनों नियमों के आधार पर चलते हैं। अध्यात्म ने चेतना के नियम खोजे और विज्ञान पदार्थ के नियमों की खोज कर रहा है। दोनों ने नियमों की खोज की है। जहां नियम की खोज नहीं होती, वहां सच्चाई का पता नहीं चलता। यह सारा जगत् नियमों के आधार पर चल रहा है। हम नियमों को नहीं जानते, इसलिए वे हमारे लिए चमत्कार बन जाते हैं। इस दुनिया में चमत्कार जैसी कोई बात नहीं होती। जो चमत्कार माने जाते हैं, वे सारे के सारे इस जगत् के नियम हैं। जो नियम से अनभिज्ञ हैं, उसके लिए चमत्कार और जो नियम का ज्ञाता है उसके लिए चमत्कार समाप्त हो जाते हैं। जब पहली बार आग जली, तब बड़ा चमत्कार लगा। लोगों ने सोचा, यह क्या है? यह कहां से आ गई? उस समय कोई उसे समझ नहीं सका। जैसे-जैसे आग के नियम ज्ञात होते गए, आग जलना कोई चमत्कार नहीं रहा। एक दिन जब रेलें पटरियों पर दौड़ने लगी, तब लोगों को बड़ा चमत्कार लगा। अनेक ग्रामीणों ने उसे देवता मान पूजा की । अनेक लोग डर के मारे भाग Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और विज्ञान ४५ गए। जब लोग रेल के नियमों को समझ गए, तब रेल न चमत्कार रहा, न भय रहा और न आतंक रहा। ये जितने जादू के चमत्कार हैं, जितने तन्त्र-विद्या के चमत्कार हैं, वे सारे नियमों के चमत्कार हैं। नियम के प्रतिकुल कुछ भी नहीं है। अन्तर केवल इतना ही है कि जो नियमों को जानता है, उसके लिए कोई चमत्कार नहीं है और जो नियमों को नहीं जानता, उसके लिए सब चमत्कार है। चुम्बक लौह को खींचता है। ग्रामीण व्यक्ति के लिए वह चमत्कार है। जो चुम्बकीय नियम को जानता है, उसके लिए चमत्कार जैसा कुछ भी नहीं है। दोनों ने-अध्यात्म को विज्ञान ने-नियमों को खोजा। इसीलिए एक वैज्ञानिक व्यक्ति आगे चलते-चलते आध्यात्मिक बन जाता है और एक आध्यात्मिक व्यक्ति अपनी यात्रा करते-करते वैज्ञानिक बन जाता है। यह नहीं हो सकता कि वैज्ञानिक आध्यात्मिक न हो और यह भी नहीं हो सकता कि आध्यात्मिक वैज्ञानिक न हो। यह इसलिए होता है। कि दोनों का मार्ग एक है, दिशा एक है, पद्धति एक है और निष्पत्ति एक है। इतना होने पर ये दोनों अलग कैसे रह सकते हैं? भिन्न-भिन्न दिशाओं से आने वाली ये दो धाराएं एक महानदी में मिलकर एक हो जाती है। वैसे ही विज्ञान की धारा, अध्यात्म की धारा तथा भिन्न-भिन्न लगने वाली और भी अनेक धाराएं जब सत्य के महासमुद्र में विलीन होती हैं, तब वे सब एक बन जाती हैं। उनका भेद समाप्त हो जाता है। नियमों को जानना बहुत आवश्यक है। नियमों को जाने बिना कोई व्यक्ति आध्यात्मिक नहीं बन सकता। नियमों को जाने बिना कोई व्यक्ति वैज्ञानिक नहीं बन सकता। अध्यात्म के अपने नियम हैं और विज्ञान के अपने नियम हैं। अध्यात्मिक व्यक्ति को विज्ञान पढ़ना बहुत जरूरी है और वैज्ञानिक को अध्यात्म पढ़ना बहुत जरूरी है। अच्छा यह होगा कि अध्यात्म के प्रकाश में विज्ञान को पढ़ा जाए और विज्ञान के प्रकाश में अध्यात्म को पढ़ा जाए, तब नियमों की पूरी श्रृंखला हमारे समाने आ सकती है। धर्म और विज्ञान की महानता आज लोग विज्ञान को केवल दो शताब्दी पुराना ही मान बैठे हैं। इस काल में जो अन्वेषण और प्राप्ति विज्ञान ने की है सिर्फ वही विज्ञान है, ऐसी लोगों ने धारणा बना ली है। लेकिन जो उपलब्धियां सामने हैं, वे विज्ञान नहीं है। वे तो उपलब्धियों मात्र हैं। यथार्थ भाव से देखना ही विज्ञान है। आत्मा से भिन्न कोई विज्ञान है ही नहीं। अणुबम विज्ञान की देन है। लेकिन वह अपने कुछ नहीं कर सकता Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान क्योंकि वह जड़ है। चेतना की शक्ति ही उसका उपयोग करके विनाश ढहाती है। शक्तियों का विकास कोई दोष नहीं लेकिन उनका उपयोग सही ढंग से हो। जो विज्ञान को बुरा कहते हैं, उन्हें यह भी मानना पड़ेगा कि धर्म भी बुरा है क्योंकि उनको अलग करने का हमारे पास कोई साधन नहीं है। धर्म और विज्ञान त्रिकालाबाधित सत्य हैं, यही निष्कर्ष है। . अध्यात्म की तरह विज्ञान का क्षेत्र भी अत्यन्त प्राचीन है। विज्ञान के लिए हजारों ने अपने आपको खपाया है। भारत में हजारों वर्ष पहले भी विज्ञान के क्षेत्र में अध्यात्म की तरह ही ऐसे-ऐसे अनुसन्धान हुए हैं; आज यदि आपके सामने उनकी उपलब्धियां रखी जाएं तो आप आश्चर्यचकित हो जाएंगे। इसी तरह के अनुसंधान अध्यात्म-क्षेत्र में किए गए। अनेक ने गूढ साधनाएं की, तभी अध्यात्म की अनुभूतियां प्राप्त हुई। गुस्सा या आवेग जब आता है तो तत्काल दो क्षण के लिए श्वास रोक लें। गुस्सा स्वत: ठंडा पड़ जाएगा। इसी तरह के अनेक प्रयोग किए गए हैं। योगशास्त्र को जानने वाला खोज करके देखें कि प्राचीन आचार्यों ने कितने प्रयोग किए हैं। प्राचीन समय में हजारों कोस दूर बैठा साधु किसी अन्य साधु को सिर्फ याद करके उसका आसन डोला (हिला) सकता था और वह समझ जाता था कि उसे याद किया गया है। इस दृष्टि से धर्म और विज्ञान दो धाराएं और शाखाएं नहीं हैं, एक ही चेतना-प्रवाह की दो कड़ियां हैं। मूल एक है, टहनियां दो हैं। जिस तरह विज्ञान की उपलब्धियों का उपयोग विनाशकारी कार्यों में किया गया है, जो सर्वविदित है, उसी प्रकार धर्म का उपयोग भी अनुचित ढंग से किया गया है और कहीं-कहीं तो उसका अत्यधिक दुरुपयोग भी किया गया है। इस तरह हम देखते हैं कि विज्ञान और धर्म का क्षेत्र भिन्न-भिन्न होते हुए भी मूल एक है। और मैं तो कहता हूं यह विशाल नगरों के फ्लैट सिस्टम (Flat System) की तरह है; जहां एक मकान में कई फ्लैट होते हैं और उसमें रहने वाले वर्षों से वहां रहते हुए भी एक-दूसरे से अपरिचित-से बने रहते हैं। धर्म से प्रभावित लोग मानते हैं-विज्ञान ने मनुष्य-जाति को संहार के कगार पर पहुंचा दिया है। विज्ञान से प्रभावित लोग मानते हैं-धर्म ने मनुष्य को परंपरावादी या रूढ़िवादी बना दिया है। इस आरोप और प्रत्यारोप में सचाई नहीं है। सचाई यह है कि धर्म और विज्ञान सत्य को उपलब्ध करने की पद्धतियां है। धर्म का रूढ़िवादी से और विज्ञान का संहारक शस्त्रों से कोई संबंध नहीं है। जैस धर्म-स्थान धर्म नहीं है, वैसे ही प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) विज्ञान नहीं है। जिसका उपयोग होता है, उसका दुरुपयोग भी हो सकता है। उपयोग Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ अध्यात्म और विज्ञान दुरुपयोग के बीच में कभी भी लक्ष्मण रेखा नहीं खींची जा सकती। दुरुपयोग धर्म का भी हो सकता है और विज्ञान का भी हो सकता है। जो धर्मसत्ता और संपत्ति के साथ जुड़ जाता है, वह घातक बन जाता है। ठीक इसी प्रकार विज्ञान भी साम्राज्यवादी मनोवृति के साथ जुड़कर संहारक बन रहा है। संहार विज्ञान की प्रवृति नहीं है। उसका स्वरूप नहीं है। धर्म और विज्ञान की प्रकृति है-स्थूल से सूक्ष्म की दिशा में प्रस्थान-जागतिक नियमों की खोज, सामान्यीकरण, सत्य की परिक्रमा। कुछ धार्मिक नेता कहते हैं-विज्ञान के कारण जनता की धर्म के प्रति आस्था डगमगा गई है। किन्तु इसमें सचाई नहीं लगती। यदि धर्म से सत्य की खोज होती है, तो कोई दूसरी शक्ति उसके प्रति अनास्था पैदा नहीं कर सकती। उसे पदच्युत नहीं कर सकती। आइंस्टीन महान् वैज्ञानिक था। वह इतना आस्थावान था कि बड़े से बड़ा व्यक्ति भी उतना आस्थावान नहीं हो सकता। वैज्ञानिक और आत्मा परमात्मा के प्रति आस्थावान-यह एक समस्या है। इतना बड़ा वैज्ञानिक और फिर धार्मिक! यह कैसे? यह प्रश्न हमारी ही मूढ़ता के कारण उत्पन्न हुआ है। अपनी विसंगतियों के कारण उत्पन्न हुआ है। अपनी विसंगतियों के कारण हमने ऐसे मूल्य स्थापित कर दिए, ऐसे मानदंड स्थापित कर लिए कि यदि वैज्ञानिक धार्मिक होता है तो आश्चर्य होता है और नहीं होता है तो कोई आश्चर्य नहीं होता। बल्कि आइंस्टीन ने स्वयं लिखा है - "Religion without science is blind; science without religion is lame." इस वैज्ञानिक युग ने मनुष्य जाति का बहुत उपकार किया है। आज धर्म के प्रति जितना सम्यक् दृष्टिकोण है वह ५०-१०० वर्ष पूर्व नहीं हो सकता था। आज सूक्ष्म सत्य के प्रति जितनी गहरी जिज्ञासा है, उतनी पहली नहीं थी। उसे अन्धविश्वास कहा जाता था। एक ऐसा शब्द है अन्धविश्वास कि उसकी ओट में सब कुछ छिपाया जा सकता था। किन्तु विज्ञान ने जैसे-जैसे सूक्ष्म सत्य की प्रामाणिक जानकारी प्रस्तुत की, वैसे-वैसे अन्धविश्वास कहने का साहस टूटता गया। अब यदि कोई व्यक्ति किसी बात को अन्धविश्वास कह कर टालता है तो वह साहस ही करता है। आज विज्ञान जिन सूक्ष्म सत्यों का स्पर्श कर चुका है, दो शताब्दी पूर्व उनकी कल्पना भी असंभव था। यह कहा जा सकता है कि विज्ञान अतीन्द्रिय ज्ञान की सीमा के आस-पास पहुंच रहा है। प्राचीन काल में साधना द्वारा अतीन्द्रिय ज्ञान का विकास और सूक्ष्म सत्यों का साक्षात्कार किया जाता था। आज के आदमी ने अतीन्द्रिय ज्ञान की साधना भी खो Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैन दर्शन और विज्ञान दी और अतीन्द्रिय ज्ञान के विकास करने का अभ्यास भी खो दिया, पद्धति भी विस्मृत हो गई। अब सिवाय विज्ञान के कोई साधन नहीं है। वैज्ञानिकों ने कोई साधना नहीं की, अध्यात्म का गहरा अभ्यास नहीं किया, अतीन्द्रिय चेतना को जगाने का प्रयत्न नहीं किया, किन्तु इतने सूक्ष्म उपकरणों का निर्माण किया, जिनके माध्यम से अतीन्द्रिय सत्य खोजें जा सकते हैं, देखे जा सकते हैं। वे सारे सत्य इन सूक्ष्म उपकरणों से ज्ञात हो जाते हैं। इसका फलित यह हुआ है कि आज का विज्ञान अतीन्द्रिय तथ्यों को जानने-देखने और प्रतिपादन करने में सक्षम है। आइन्स्टीन ने एक बार कहा था-"हम लोग वैज्ञानिक दावे तो बहुत बड़े -बड़े करते हैं, लेकिन हमारे पास जानने के साधन इन्द्रियां और मन इतने दुर्बल हैं कि हमें अनेक बार भ्रांति में डाल देते हैं।" यह बिलकुल सत्य है लोग कहते हैं। आखों-देखी बात झूठी हो सकती है? लेकिन सत्य यह है कि ऐसा अनेक बार होता है। गाड़ी में बैठे हुए लोग अनुभव करते हैं कि पेड़ दौड़ रहे हैं, गाड़ी नहीं। क्या आंखें धोखा नहीं दे रही हैं? चलते समय मार्ग में हमने देखा लगभग एक मील सीधी सड़क जो कम से कम आठ फूट चौड़ी तो होगी ही, साफ दिखाई दे रही लेकिन अन्त में उसका किनारा एक लकीर-सा दिखाई देता है। फिर हमने देखा आकाश जमीन को छूता हुआ-सा लग रहा है, लेकिन ज्योंही हम चलते-चलते उस स्थान पर पहुंचे तो देखा उस स्थान पर नहीं, और आगे वह जमीन को छू रहा है। यह आंखों का धोखा नही तो क्या है? इन्द्रियों की शक्ति अत्यन्त सीमित है। आंख में देखने की शक्ति है, पर वह एक सीमित दूरी पर ही रही हुई वस्तु को ही देख पाती है। कान में सुनने की शक्ति है, पर वह निश्चित ही फ्रीक्वेन्सी वाली शब्द-तरंग ही पकड़ पाता है। हमारे चारों ओर न जाने कितनी ध्वनियां हो रही हैं। वे कानों से टकाराती हैं। पर कान उन सारी ध्वनियों को ग्रहण नहीं कर पाता। वे ही ध्वनियां कान में ग्राह्य होती हैं जो कि निश्चित आवृति में आती हैं । शेष ध्वनियां आती हैं, टकाराती हैं और चली जाती हैं। हमारे समाने दो प्रकार के जगत है-इन्द्रिय-जगत और इन्द्रियातीत-जगत। हमारा पूरा विश्वास इन्द्रिय-जगत् में है। क्योंकि वह हमारे प्रत्यक्ष है। उससे हमारा सीधा संबंध है। उसके प्रति हमारी इतनी गहरी आस्था बन गई है कि इन्द्रियातीत की कोई बात सामने आ जाती है तो भी उस पर विश्वास नहीं होता। वह समझ में नहीं आती। इन्द्रियों से परे का जगत् बहत विराट है। इसका पूरा साक्ष्य है आज का विज्ञान । विज्ञान ने सूक्ष्म उपकरणों के माध्यम से ऐसे जगत् को खोजा है जो इन इन्द्रियों द्वारा नहीं जाना जा सकता। जो चीज आंखों के द्वारा नहीं देखी जा सकती, वह माइक्रोस्कोप के द्वारा देखी जा सकती है। विज्ञान ने इतने सूक्ष्म जगत् का पता Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और विज्ञान ४९ लगा दिया है कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। एक सूई की नोंक पर अरबों-खरबों परमाणु समा जाते हैं । यह विज्ञान की बात है । दार्शनिक जगत् की बात तो और सूक्ष्म है। उनके अनुसार सूई की नोक पर अन्नत जीव समा सकते हैं । अनन्तकायिक वनस्पतियां इसका प्रमाण हैं । यह बहुत सूक्ष्म अन्वेषण है । वैज्ञानिक प्रयोगों के माध्यम से तथा सूक्ष्म उपकरणों के माध्यम से जो देखा गया वह यह है कि एक कण भूमि में बीस हजार कीटाणु समा जाते हैं। बहुत विराट् है सूक्ष्म जगत्, किन्तु इन्द्रिय-जगत के प्रति हमारे कुछ दार्शनिकों और तार्किकों की इतनी प्रगाढ़ आस्था हो गयी कि वे इन्द्रियातीत को अवास्तविक मानने लग गए। जैन आगम के सूक्ष्म सत्य जैन आगम-साहित्य में सूक्ष्म प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं । आधुनिक विज्ञान के सन्दर्भ में उन्हें समझने की सुविधा होती है । उदाहरणार्थ यहां कुछ एक महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं की चर्चा की जा रही है १. निगोद वनस्पति के सुई की नोक टिके उतने भाग में अनन्त जीव होते हैं - यह एक धार्मिक सिद्धान्त है । यह सहज बुद्धिगम्य नहीं है, इसलिए चिरकाल तक संदेह का विषय बना रहा । किन्तु अब इस सूक्ष्मता में संदेह नहीं किया जा सकता। शरीरशास्त्र के अनुसार शरीर के पिन की नोंक टिके उतने भाग में से दस लाख कोशिकाएं हैं। पांच फिट के मानव शरीर में छह सौ खरब कोशिकाएं हैं। यह विशाल संख्या वनस्पति-विषयक संख्या को संभव बना देती है । २. मनोविज्ञान के क्षेत्र में जिस दिन चेतन मन की सीमा को पा कर अवचेतन और अचेतन मन की अवधारणा निश्चित हुई, उस दिन चेतन जगत् की सूक्ष्मता की दिशा में एक अभिनव अभियान शुरू हो गया । ३. लेश्या या आभामंडल का सिद्धांत समझ से परे हो रहा था । प्रत्येक जीव के आस-पास एक आभामंडल होता है । भाव परिवर्तन के साथ-साथ वह परिवर्तित होता रहता है । मृत्यु के आस-पास वह क्षीण होने लगता है और मृत्यु के साथ वह समाप्त हो जाता है । अथवा इस प्रकार कहा जा सकता है कि उसके क्षीण होने पर प्राणी की मृत्यु हो जाती है । विज्ञान के क्षेत्र में आभामंडल का सिद्धांत प्रतिष्ठित हो चुका है । किर्लियन दंपति के इस विषय में किए गए प्रयोग बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।' उन्होंने पदार्थ और प्राणी दोनों को आभामंडल के फोटो लिये। उन दोनों में एक प्रकाशमय ढांचा बना हुआ था । सिक्के का आभामंडल नियत था, जबकि प्राणी का आभामंडल परिवर्तनशील था । १. देखें पृ० ५४ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान पहले मृत्यु की घोषणा हृदय की धड़कन और नाड़ी की गति बंद होने तथा मस्तिष्क की कोशिकाओं के निष्क्रिय होने पर की जाती थी । अब उसकी घोषणा आभामण्डल के आधार पर की जाती है। जब तक आभामंडल क्षीण नहीं होता है प्राणी की मृत्यु नहीं होती। इसलिए तथाकथित मृत्यु की घोषणा होने के बाद भी अनेक मनुष्य जी उठते हैं । ४. कर्म-परमाणुओं के प्रत्येक स्कन्ध में असंख्य संस्कारों के स्पंदन अंकित होते हैं। यह विषय बुद्धिगम्य नहीं है । किन्तु क्रोमोसोम ( गुणसूत्र ) और जीन ( संस्कार-सूत्र ) की वैज्ञानिक व्याख्या के पश्चात् वह विषय अस्पष्ट नहीं रहा । प्रत्येक जीन में छह लाख आदेश अंकित माने जाते हैं । जीन और कर्म का तुलनात्मक अध्ययन बहुत ही दिलचस्प विषय है । ५. कर्म के संक्रमण का सिद्धांत - पुण्य को पाप के रूप में और पाप को पुण्य के रूप में बदलने की प्रक्रिया में अब संदेह नहीं किया जा सकता । जेनेटिक इंजीनियरिंग के अनुसार जीन के परिवर्तन का सिद्धांत मान्य हो चुका है और उसके परिवर्तन के उपाय खोजे जा रहे हैं । ६. खनिज धातु में जीव का सिद्धान्त बहुत विवादास्पद रहा । किन्तु अब विज्ञान के चरण उस विवाद के समाधान की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं । कुछ भूवैज्ञानिक मानते हैं कि पत्थर और पहाड़ भी बढ़ते रहते हैं । धातु का प्रहार करने पर उसमें थकान आती है। कुछ समय बाद आराम के क्षणों में वह पूर्ववत् हो जाती है। थकान आना, आरम्भ के क्षणों में पूर्व स्थिति में चले जाना-ये जीव के लक्षण हैं, जो खनिज धातु में भी पाए जाते है । 1 ७. वनस्पति की चेतना और उसकी संवेदनशीलता चर्चा का विषय बनी हुई थी। उसमें क्रोध, अहंकार, कपट, लोभ, भय, और मैथुन की प्रवृत्ति होती है । इसे स्वीकारना सहज सरल नहीं था । किन्तु वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा वनस्पति में इन सबका अस्तित्व प्रमाणित हो जाने पर वह विषय संदेहास्पद नहीं रहा । इस विषय में 'सीक्रेट लाइफ ऑफ प्लान्ट्स' पुस्तक पठनीय है। ८. जैन आगमों की गणना की परम कोटि का उल्लेख है । उसकी संज्ञा है - शीर्ष प्रहेलिका । उसके समक्ष आज की संख्या बहुत छोटी होती है । एक अंक पर दो सौ चालीस शून्य लगाने से वह संख्या बनती है। वह उत्कृष्ट संख्या है। जब विज्ञान ने सूक्ष्म गणित की बातें प्रस्तुत कीं, तब शीर्ष प्रहेलिका की सत्यता स्वयं प्रस्थापित हो गई और उसे बहुत महत्त्वपूर्ण खोज माना गया। ९. जैन साहित्य में उल्लेख है कि एक घंटा है अवस्थित । वह एक स्थान पर बजता है। उसकी ध्वनि से प्रकंपित होकर दूर-दूर हजारों-लाखों घंटे बज उठते Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और विज्ञान ५१ हैं । असंख्य योजन तक यह घटना घटित होती है। लोगों ने इस उल्लेख को कपोल-कल्पित बताया। किन्तु जब विज्ञान ने ध्वनि तरंगों की द्रुतगातिमा के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, तब यह सत्य भी प्रमाणित हो गया । आज यह ध्वनि - विज्ञान महानतम उपलब्धि माना जाता है । जब तक व्यक्ति सूक्ष्म पर्यायों की ओर प्रस्थान नहीं करता तब तक सचाई को नहीं पा सकता। जब तक अनेकान्त की दृष्टि का विकास नहीं होता तब तक उस दिशा में प्रस्तान नहीं हो सकता । एस्ट्रल प्रोजेक्शन और समुद्घात एक हब्शी महिला है । उसका नाम है- लिलियन । वह अतीन्द्रिय प्रयोगों में दक्ष है। उससे पूछा गया- तुम अतीन्द्रिय घटनाएं कैसे बतलाती हो? उसने कहा, मैं एस्ट्रल प्रोजेक्शन के द्वारा उन घटनाओं का जान लेती हूं । प्रत्येक प्राणी में प्राण धारा होती है । उसे एस्ट्रला बॉडी भी कहा जाता है। एस्ट्रल प्रोजेक्शन के द्वारा मैं प्राण शरीर से बाहर निकल कर, जहां घटना घटित होती हैं, वहां जाती हूं और सारी बातें जानकर दूसरों को बता देती हूं।' विज्ञान द्वारा सम्मत यह एस्ट्रल प्रोजेक्शन की प्रक्रिया जैन परंपरा की समुद्घात प्रक्रिया है । समुद्घात का यही तात्पर्य है कि जब विशिष्ट घटना घटित होती है तब व्यक्ति स्थूल शरीर से प्राणशरीर को बाहर निकाल कर घटने वाली घटना तक पहुंचाता है और घटना का पूरा ज्ञान कर लेता है । यह प्राणशरीर बहुत दूर तक सकता है। इसमें अपूर्व क्षमताएं हैं । समुद्घात सात हैं - वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात, वैक्रिय समुद्घात, तैजस समुद्घात, आहारक समुद्घात, और केवली समुद्घात । ब व्यक्ति को क्रोध अधिक आता है तब उसका प्राण शरीर से बाहर निकल जाता है I यह कषाय समुद्घात है । जब आदमी के मन में अति लालच आता है तब भी प्राण-शरीर से बाहर निकल जाता है। इसी प्रकार भयंकर बीमारी में, मरने की अवस्था में भी प्राण शरीर बाहर निकल जाता है। आज के विज्ञान के सामने ऐसी अनेक घटनाएं घटित हुई हैं। एक रोगी ऑपरेशन थियेटर में टेबल पर लेटा हुआ है। उसका मेजर ऑपरेशन होना है। डॉक्टर ऑपरेशन कर रहा है। उस समय उस व्यक्ति में वेदना समुद्घात घटित हुई । उसका प्राण-शरीर स्थूल शरीर से निकलकर ऊपर की छत के आसपास स्थिर हो गया। ऑपरेशन चल रहा है और वह रोगी अपने प्राण शरीर से सारा ऑपरेशन देख रहा है। ऑपरेशन करते-करते एक बिन्दु पर डॉक्टर ने गलती Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैन दर्शन और विज्ञान की। तत्काल ऊपर से रोगी ने कहा, डॉक्टर ! यह भूल कर रहे हो। डॉक्टर को पता नहीं चला-कौन बोल रहा है। उसने भूल सुधारी। वेदना कम होते ही रोगी का प्राण शरीर पुन: स्थूल शरीर में आ जाता है। प्रोजेक्शन की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। होश आने पर रोगी ने डॉक्टर से कहा, छत पर लटकते हुए मैंने पूरा ऑपरेशन देखा है। ___ शरीर-प्रक्षेपण की अनेक प्रक्रियाएं हैं। इन प्रक्रियाओं में प्राण-शरीर बाहर चला जाता है। उस हब्शी महिला लिलियन ने कहा-'मैं एस्ट्रल प्रोजेक्शन के द्वारा यथार्थ बाल जान लेती हूं। मैं लोगों के आभामंडल में प्रविष्ट होकर उनके चरित्र का वर्णन कर सकती हूं। किन्तु शराबी आदमी के चरित्र को मैं नहीं जान सकती, क्योंकि शराबी आदमी का आभामंडल अस्त-व्यस्त हो जाता है। वह इतना धुंधला हो जाता है कि उसके रंगो का पता नहीं चलता।' हमारी भावनाएं, हमारे आचरण आभामंडल के निर्माता हैं। जब अच्छी भावनाएं, और पवित्र आचरण होता है तब आभामंडल बहुत सशक्त और निर्मल होता है। जब भावधारा मलिन होती है और चरित्र भी मलिन होता है तब आभामंडल धूमिल, विकृत और दूषित हो जाता है। सोवियत रूस के इलेक्ट्रॉनिक विशेषज्ञ सेमयोन किर्लियान तथा उनकी वैज्ञानिक पत्नी बेलेन्टिना ने फोटोग्राफी की एक विशेष विधि का आविष्कार किया। उस विधि द्वारा प्राणियों और पौधों के आस-पास होने वाले सूक्ष्म विद्युतीय गतिविधियों का छायांकन किया जा सकता है। जब एक पौधे से तत्काल तोड़ी गयी पत्ती की सूक्ष्म गतिविधियों की फिल्म खींची गयी तो आश्चर्यकारी दृश्य सामने आये। पहले चित्र में पत्ती के चारों और स्फुलिंगों, झिलमिलाहटों और स्पंदी ज्योतियों के मंडल दिखाई दिये। दस घंटे बाद लिए गए छाया-चित्रों में ये आलोक-मंडल क्षीण होते दिखाई दिये। अगले दस घंटो के छाया-चित्रों में पूरी तरह क्षीण हो चुके थे। इसका तात्पर्य है कि पत्ती की तब मौत हो चुकी थी। किर्लियान दम्पत्ति ने एक रूग्ण पत्ती की फिल्म उस विशेष विधि से खींची। उसमें आलोक-मंडल प्रारंभ से ही कम था। वह शीघ्र ही समाप्त हो गया। किर्लियान दम्पत्ति ने उस विशेष विधि द्वारा अत्यंत निकट के मानव शरीर के एक रोगी ऑपरेशन थियेटर में टेबल पर लेटा हुआ है। उसका मेजर ऑपरेशन होना है। डॉक्टर ऑपरेशन कर रहा है। उस समय उस व्यक्ति में वेदना समुद्घात घटित हुई। उसका प्राण-शरीर स्थूल शरीर से निकलकर ऊपर की छत के आसपास स्थिर हो गया है। ऑपरेशन चल रहा है और वह रोगी अपने प्राण शरीर से सारा ऑपरेशन देख Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और विज्ञान ५३ रहा है। ऑपरेशन करते-करते एक बिन्दु पर डॉक्टर ने गलती की। तत्काल ऊपर से रोगी ने कहा, डॉक्टर! यह भूल कर रहे हो । डॉक्टर को पता नहीं चला - 1-कौन बोल रहा है। उसने भूल सुधारी । वेदना कम होते ही रोगी का प्राण शरीर पुनः स्थूल शरीर में आ जाता है। प्रोजेक्शन की प्रक्रिया पूरी हो जाती है । होश आने पर रोगी ने डॉक्टर से कहा, छत पर लटकते हुए मैंने पूरा ऑपरेशन देखा है। शरीर - प्रक्षेपण की अनेक प्रक्रियाएं हैं। इन प्रक्रियाओं में प्राण-शरीर बाहर चला जाता है । उस हब्शी महिला लिलियन ने कहा- 'मैं एस्ट्रल प्रोजेक्शन के द्वारा यथार्थ बात जान लेती हूं। मैं लोगों के आभामंडल में प्रविष्ट होकर उनके चरित्र का वर्णन कर सकती हूं। किन्तु शराबी आदमी के चरित्र को मैं नहीं जान सकती, क्योंकि शराबी आदमी का आभामंडल अस्त-व्यस्त हो जाता है । वह इतना धुंधला हो जाता है कि उसके रंगों का पता नहीं चलता ।' हमारी भावनाएं, हमारे आचरण आभामंडल के निर्माता हैं । जब अच्छी भावनाएं, और पवित्र आचरण होता है तब आभामंडल बहुत सशक्त और निर्मल होता है, जब भावधारा मलिन होती है और चरित्र भी मलिन होता है तब आभामंडल धूमिल, विकृत और दूषित हो जाता हैं । सोवियत रूस के इलेक्ट्रॉनिक विशेषज्ञ सेमयोन किर्लियान तथा उनकी वैज्ञानिक पत्नी बेलेन्टिना ने फोटोग्राफी की एक विशेष विधि का आविष्कार किया । उस विधि द्वारा प्राणियों और पौधों के आस-पास होने वाले सूक्ष्म विद्युतीय गतिविधियों का छायांकन किया जा सकता है। जब एक पौधे से तत्काल तोड़ी गयी पत्ती की सूक्ष्म गतिविधियों की फिल्म खींची गयी तो आश्चर्यकारी दृश्य सामने आये । पहले चित्र में पत्ती के चारों ओर स्फुलिंगों, झिलमिलाहटों और स्पंदी ज्योतियों के मंडल दिखाई दिये । दस घंटे बाद लिए गए छाया चित्रों में ये आलोक-मंडल क्षीण होते दिखाई दिये। अगले दस घंटों के छाया - चित्रों में ये आलोक-मंडल पूरी तरह क्षीण हो चुके । इसका तात्पर्य है कि पत्ती की तब तक मौत हो चुकी थी । थे किर्तियान दम्पत्ति ने एक रूग्ण पत्ती की फिल्म उस विशेष विधि से खींचीं । उसमें आलोक-मंडल प्रारंभ से ही कम था । वह शीघ्र ही समाप्त हो गया । किर्लियान दम्पत्ति ने उस विशेष विधि द्वारा अत्यंत निकट के मानव शरीर के छाया चित्र खींचे। उन छाया-चित्रों में गर्दन, हृदय, उदर आदि अवयवों पर विभिन्न रंगों के सूक्ष्म धब्बे दिखाई दिये । वे उन अवयवों से विसर्जित होने वाली विद्युद् ऊर्जाओं के द्योतक थे । लेश्या वनस्पति के जीवों में भी होती है। पशु-पक्षी तथा मनुष्य में भी होती है । इसलिए आभामंडल भी प्राणीमात्र में होता है । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जैन दर्शन और विज्ञान __ओकल्ट साइन्स के वैज्ञानिकों ने यह तथ्य प्रगट किया कि आदमी जब तक अपने शरीर के विशिष्ट केन्द्रों को चुम्बकीय क्षेत्र नहीं बना लेता, एलेक्ट्रो-मेग्नेटिक फील्ड नहीं बना लेता तब तक उसमें पारदर्शन की क्षमता नहीं जाग सकती। चैतन्य-केन्द्रों और चक्रों की सारी कल्पना का मूल उद्देश्य है--शरीर को विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र बना लेना। सहिष्णुता और समभाव वृद्धि के प्रयोग उपवास, आसन, प्राणयाम, आतापना, सर्दी-गर्मी को सहने का अभ्यास-इन सारी प्रक्रियाओं से शरीर के परमाणु विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र में बदल जाते हैं और वह क्षेत्र इतना पारदर्शी बन जाता है कि उस क्षेत्र से भीतर की चेतना बाहर झांक सकती है। ___ आज के पेरासाइकोलॉजिस्ट टैलीपैथी का प्रयोग करते हैं। टैलीपैथी का अर्थ है-विचार-संप्रेषण। एक आदमी कोसों की दूरी पर है। उससे बात करनी है कैसे हो सकती है? आज तो टेलीफोन और वायरलेस का साधन है। घर बैठा आदमी हजारों कोसों पर रहने वाले अपने व्यक्तियों से बात कर लेता है। प्राचीन काल में ये साधन नहीं थे, तो दूर स्थित व्यक्तियों से बात कैसे करते थे? टैलीपैथी शब्द भी नहीं था। यह अंग्रेजी का शब्द है। उस समय विचारों को हजारों कोस दूर भेजना विचार-संप्रेषण की प्रक्रिया से होता था। जैसे एक योगी है। उसका शिष्य पांच हजार मील की दूरी पर है। योगी उसे कुछ बताना चाहता है, उससे बातचीत करता चाहता है। उस समय विचार-संप्रेषण की साधना की जाती थी। जिससे विचारों का आदान-प्रदान दो जाता था। अतीन्द्रिय ज्ञान अभी परामनोविज्ञान परिचित्त बोध, दूरदृष्टि, पूर्वाभास तथा भूताभास रूपों में अतीन्द्रिय ज्ञान की खोज कर रहा है। पर असल में यह सारा प्रामाण्य मन के आस-पास ही घूम रहा है। अतीन्द्रिय ज्ञान तो मन से भी ऊपर है। ज्ञान की पराकाष्ठा तो अनन्त का स्पर्श है। वह पढ़ने-लिखने, यंत्रों या मन:कल्पनाओं से प्राप्त नहीं होता। उस अनन्त ऊर्जा का उद्घाटन तो मनुष्य अपने साधना-बल से ही कर सकता है। अभी हम अनन्त की बात न भी करें तो भी विज्ञान ने इन्द्रिय-बोध की जो संभावनायें व्यक्त की हैं वे भी बहुत आश्चर्यकारी हैं । वैज्ञानिकों का मानना है कि मनुष्य के मस्तिष्क में इतने न्यूरोन-कनेक्शन हैं कि उन सारों की गणना की जाये तो एक के अंक पर ८०३ शून्य लगाने पड़ेंगे। इस गणना की गुरूता का बोध हम इस तथ्य से अच्छी तरह से कर सकते हैं कि पूरी पृथ्वी पर परमाणुओं की संख्या एक के अंक पर १०८ शून्य लगाने जितनी है। १०८ और ८०३ के अन्तर को सहज ही समझा जा सकता है। मनुष्य आज अपने मस्तिष्क में अधिक से अधिक आठ दस खरब न्यूरोन-कनेक्शनों का उपयोग कर रहा है। ऐसी स्थिति में खरबों-खरबों अपार Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ अध्यात्म और विज्ञान न्यूरोन-कनेक्शन निष्क्रिय पड़े है। यदि उनका ठीक से समायोजन किया जा सके तो मनुष्य कितनी क्षमता प्राप्त कर सकता है, उसकी कल्पना हमें सहज ही हो सकती है। (२) प्राण-शक्ति का आध्यात्मिक तथा वैज्ञानिक महत्त्व शरीर-शास्त्र शरीर-शास्त्री नाड़ियों को जानता है, नाड़ी-संस्थान को जानता है, ग्रंथियों को जानता है, शरीर के एक-एक अवयव को जानता है, छोटी-से-छोटी धमनी को जानता है, रक्त के प्रवाह को जानता है, रक्त संचार को जानता है और रक्त के द्वारा होने वाली क्रियाओं को जानता है। एक मशीन है--बहुत विलक्षण है। एक साथ २५० फोटो लेती है शरीर का। एक्स-रे के सामने आदमी खड़ा होता है, एक फोटो आता है। उस मशीन से २५० फोटो आते हैं। और छोटी-से-छोटी शिरा का फोटो उसमें अंकित हो जाता है। एक मशीन और है जो रक्त की जितनी क्रियाएं, जितने फंक्शन होते हैं, उन सारे कार्यों का विश्लेषण कर देती है। आज का डॉक्टर इतना विलक्षण काम करके दिखाता है कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इतना जान लेने पर भी, समूचे शरीर को चीर-फाड़कर एक-एक अवयव सामने रख देने पर भी क्या शरीर के पूरे रहस्यों को जान लिया गया? नहीं जाना जा सका। आज के एनोटॉमी और फिजिओलॉजी के बड़े-बड़े विद्वान् और मर्मवत्ता कहते हैं कि अभी तक मस्तिष्क के रहस्यों को नहीं जाना जा सका है। हजारवां भाग भी नहीं जाना जा सका है। लघु मस्तिष्क इतने रहस्यों से भरा है कि उसको हम पूर्ण रूप में अभी तक नहीं जान पाए हैं। पिनियल, पिच्यूटरी ग्लैण्ड के रहस्यों को पूरा नहीं जाना जा सका है। नाड़ी-तंत्र और ग्रंथि-तंत्र में इतने रहस्य हैं कि आज भी उनका कोई पता नहीं चलता। डॉक्टर लोग जानते हैं, शरीरशास्त्री जानते हैं कि एड्रीनल ग्रंथि का अधिक स्राव होने से उत्तेजना बढ़ जाएगी, गुस्सा बढ़ जाएगा, वासना बढ़ जाएगी और वृत्तियां उभर जाएंगी। इस बात का पता है उनको, किन्तु इनके स्राव को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है, पिनियल और पिच्यूटरी के स्राव को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है, थाइराइड के स्राव पर कैसे कंट्रोल किया जा सकता है, वे नहीं जानते। योग के आचार्यों ने शरीर के बारे में इतनी सूक्ष्म खोजें की थीं, अध्यात्म के आचार्यों ने इस शरीर को इतनी गहराई के साथ पढ़ा था कि उन्होंने जिन रहस्यों का उद्घाटन किया वे रहस्य आज भी शरीरशास्त्र के माध्यम से उद्घाटित नहीं हो पा रहे हैं। सूक्ष्म का साक्षात्कार हम व्यक्त अवस्थाओं को पकड़ते हैं, स्थूल रूपान्तरणों को जानते हैं। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जैन दर्शन और विज्ञान उनको हम स्थूल भाषा के माध्यम से स्थूल अभिव्यक्ति देते हैं । किन्तु जब सूक्ष्म जगत् को जानें तो वहां का लेखा-जोखा इतना विचित्र है कि वहां भाषा भी समाप्त हो जाती है और सभी शब्दकोशों के सारे शब्द अकर्मण्य बन जाते हैं । उनको अभिव्यक्ति देने वाला कोई शब्द प्राप्त नहीं होता । इतना होने पर भी हम सूक्ष्म जगत् की चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि हम सूक्ष्म परिवर्तनों को जान सकें और सूक्ष्म परिवर्तन की प्रक्रिया को पकड़ सकें । सबसे पहले हमें यह स्थूल शरीर दिखाई देता है । यह शरीर केवल स्थूल पदार्थों का ही पिण्ड नहीं है । इस शरीर के साथ सूक्ष्म जगत् का घना सम्बन्ध है I हम बाहर की चमड़ी को देखते हैं। हमारा उससे सम्बन्ध जुड़ जाता है और हम वहीं अटक जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति चमड़ी को या अन्य अवरोधकों को पार कर भीतर प्रवेश करें तो उसे ज्ञात होगा की भीतर में सूक्ष्म जगत् इतना विराट् है कि जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती । जितने पुराने ग्रन्थ हैं, उनमें सांकेतिक भाषा बहुत हैं, स्पष्ट कम हैं । हमने विज्ञान के माध्यम से जो कुछ बातें समझी हैं, वे बातें पुराने ग्रन्थों के आधार पर नहीं समझी जा सकतीं। फिर चाहें वह पातंजल योग दर्शन हो या अन्य कोई योग का ग्रन्थ हो । शरीर के विषय में ध्यानी योगियों ने बहुत चर्चाएं की हैं, पर वर्तमान शरीर - शास्त्रीय चर्चाओं के परिप्रेक्ष्य में वे चर्चाएं अपर्याप्त-सी लगती हैं । आज शरीर-शास्त्र ने शरीर के इतने तथ्य अनावृत किए हैं, जिनका अनावरण प्राचीन काल में नहीं हुआ था । जब से जीवाणु का सिद्धान्त, जीवन और क्रोमोसोम का सिद्धान्त, डी. एन. ए. आदि रसायनों का सिद्धान्त सामने आया है, उससे सूक्ष्म जगत् की अद्भुत परिकल्पनाएं प्रस्तुत हुई हैं । पचीस हजार जीवाणु ज्ञात कर लिए गए हैं। इन जीवाणुओं के 'जीन' के माध्यम से विलक्षण कार्य सम्पन्न किए जा सकते हैं । आज जीवन की ऐसी श्रृंखला ज्ञात कर ली गई है, जिससे आदमी को बदला जा सकता है, स्वभाव और जीवन को बदला जा सकता है, नस्ल को बदला जा सकता है । 'बायोटेकनोलॉजी' और 'जीन-इंजीनियरिंग' के माध्यम से नयी-नयी अवधाराएं सामने लगी हैं। ये जानकारियां प्राचीन ग्रन्थों में बहुत कम हैं। यह एक सर्वथा नया क्षेत्र उद्घाटित हुआ है । जीन के रूपान्तरण का अर्थ होता है पूरे व्यक्तित्व का रूपान्तरण । एक जीन बदलता है और उस आनुवंशिकी यांत्रिकी के द्वारा पूरी जाति का स्वभाव ही बदल जाता है। यह परिवर्तन की बात सर्वथा नयी नहीं है, किन्तु उसकी विशद व्याख्या और विशद जानकारी आज हमें उपलब्ध है। इससे हम अधिक लाभान्वित Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ अध्यात्म और विज्ञान हो सकते हैं। केवल दृष्टिकोण का अन्तर होता है। एक शरीरशास्त्री और मानव शास्त्री परिवर्तन की बात भौतिक सीमा के अन्तर्गत सोचता है और एक अध्यात्मशास्त्री उसे भाव-तरंगों की सीमा में ले जाता है। यह शरीर कुछेक रसायनों से निष्पन्न पिंड है। प्राचीन भाषा में इसे सप्तधातुमय माना जाता है। आज यह मान्यता बदल चुकी है। आज का शरीरशास्त्री शरीर के धातु, लवण, क्षार, और रसायनों से बना हुआ मानता है। इसकी प्रक्रिया बहुत जटिल है, गहरी है। इस शरीर में एन्जाइम्स, रसायन, हारमोन्स काम करते हैं, इनकी सक्रियता से आदमी के व्यक्तित्व का, भाव का और विचार का निर्माण होता है। इस परी प्रक्रिया समझन लेने के बाद साधना की बात ठीक समझ में आ जाती है। कहना यह चाहिए कि जिस व्यक्ति ने शरीर को समझने का प्रयत्न नहीं किया, वह न आत्मा को समझ सकता है और न परमात्मा को समझ सकता है। वह मनुष्य और प्राणी-जगत् के सम्बन्ध को भी नहीं समझ सकता। शरीर की शक्तियों का दोहन हम शरीर की शक्ति को दोहना नहीं जानते। हमारे शरीर के भीतर कितनी बड़ी शक्तियां हैं! एक आदमी को कहा जाए तुम एक आसन में तीन घंटे बैठ जाओ। अरे! कैसे बैठा जा सकता है, कभी नहीं बैठा जा सकता। शरीर के भीतर इतनी ताकत है कि तीन घंटे नही तीन महीने तक एक स्थान पर बैठा जा सकता है। हम अपनी शक्ति का उपयोग करना नहीं जानते। हमें अपनी शक्ति पर भरोसा नहीं है। हमें अपनी शक्ति का ज्ञान नहीं हैं। मैने देखा, दो वर्ष पहले एक शिविर था। एक भाई हैदराबाद से आया। वह युवक था, पढ़ा-लिखा था। उसने कहा-मैं ध्यान तो कर सकता हूं, पर मेरी कठिनाई यह है कि आधा घंटा भी एक आसन में नहीं बैठ सकता। मैंने कहा-चिंता मत करो। पांच-चार दिन बीते। शिविर का छठा दिन, चैतन्य केन्द्रों का ध्यान किया गया। दर्शन केन्द्र पर ध्यान टिका, गहराई आयी, आधा घंटा बीता, एक घंटा बीता, दो घंटे बीते गये, उसे पता ही नहीं कि कहां बैठा हूं, कब बैठा हूं। देशातीत, कालातीत और शरीरातीत बन गया। पता ही नहीं चला। ये दो घंटे बीत जाने के बाद एक भाई ने आकर मुझे कहा, वह तो वैसा-का-वैसा बैठा है। मैं गया और जाकर उसको संबोधित किया तब अकस्मात् जैसे वह कोई नींद से जागा हो, उठा और आकर पैर पकड़ लिए। उसने कहा-मैं तो आज इस स्थिति में चला गया कि दुनिया क्या है और मैं कौन हूं, कुछ भी भान नहीं रहा। अपूर्व स्थिति बनी। आनन्दमय, केवल आनन्दमय। हमारी शक्ति असीम है, यदि उसका उपयोग करना जानें। हमारे शरीर Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ जैन दर्शन और विज्ञान में शक्ति के तीन स्थान है-गुदा, नाभि और कंठ। एक नीचे, एक बीच में और एक ऊपर। नीचे का लोक, मध्य का लोक और ऊपर का लोक। ये तीन हमारे शक्ति के केन्द्र हैं। होता यह है कि शक्ति ऊपर से नीचे को आ रही है। जबकि होना यह चाहिए की शक्ति नीचे से ऊपर की ओर जाए। आचार्यों ने, तीर्थंकरों ने कहा कि इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्त मत बनो। क्या उन्हें कोई द्वेष था? क्या घृणा थी? क्या कोई बुरा लगता था? भला खाना किसको अच्छा नहीं लगता! इन्द्रियों के सारे विषय बहुत अच्छे लगते हैं, किसी को बुरे नहीं लगते। किन्तु उन्होंने देखा कि इन इन्द्रियों के माध्यम से हमारी बड़ी-से-बड़ी शक्ति नीचे के स्रोत से बाहर जा रही है और आदमी शक्ति से खाली हो रहा है और शक्ति-शून्य होकर एक प्रताड़ना का जीवन जी रहा है। इसलिए उन्होंने कहा कि संयम करो। आज संयम को शायद लोग मान बैठे है कि यह दमन है, नियंत्रण है। आज का मनोवैज्ञानिक कहता है कि दमन नहीं होना चाहिए। आज का प्रबुद्ध आदमी कहता है कि नियंत्रण की कोई जरूरत नहीं। अच्छी बात है, दमन की कोई जरूरत नहीं है। नियंत्रण की कोई जरूरत नहीं है। कुछ भी आवश्यक नहीं तो क्या हम एक ऐसे दरवाजे को खोल दें, ऐसी खिड़की खोल दें, जिसमें से भीतर में सिमटी हुई सारी शक्ति बाहर चली जाए? मुझे लगता है, यदि हम भीतर के महत्त्व को समझ पाते, शरीर का मूल्य कर पाते तो यह नहीं होता कि नीचे का नाला तो खुला रहे और ऊपर का नाला बन्द हो जाए। दो स्रोत हैं हमारे शरीर में । शक्ति और आकर्षण के ये दो केन्द्र हैं। एक है काम की शक्ति और दूसरी है ज्ञान की शक्ति । ज्ञान की शक्ति ऊपर रहती है काम की शक्ति नीचे रहती है। नीचे के स्रोत में कामनाएं, वासनाएं, इच्छाएं, हिंसा, असत्य, चोरी की भावना-ये सारी वृत्तियां पैदा होती हैं। एक है ज्ञान का केन्द्र हमारे सिर में, जहां सारी निम्न वृत्तियां समाप्त हो जाती हैं। चेतना का विकास; ज्ञान का विकास, बुद्धि का विकास, उदारता, परमार्थ-यह महान् चेतना जहां पैदा होती है, वह है ऊपर का केन्द्र-सिर। आवश्यकता इस बात की थी कि हम शरीर का मूल्यांकन करते और नीचे की शक्ति को ऊपर की शक्ति के साथ मिलाकर महान् बना देते। किंतु ऐसा नही हुआ। हमारे शरीर में बिजली है। बिजली नहीं होती है तो आदमी शून्य-सा हो जाता है। शरीर निकम्मा, इन्द्रियां निकम्मी, बुद्धि निकम्मी, सब कुछ निकम्मा-सा बन जाता है। बिजली थोड़ी होती है तब टिमटिमाता है दीप। और जब बिजली शरीर मे पूरी होती है तो आदमी जगमगाने लग जाता है। हमारे शरीर की विद्युत्, हमारी प्राण-ऊर्जा जितनी शक्तिशाली बनती है, उतना शक्तिशाली बनता है हमारा जीवन। शरीर का आध्यात्मिक मूल्यांकन है उस Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ अध्यात्म और विज्ञान ऊर्जा का सुरक्षा करना, ऊर्जा का विकसित करना और ऊर्जा के स्रोत को मोड़कर नीचे से ऊपर की ओर ले जाना। साधना की समूची पद्धति, अध्यात्म का समूचा मार्ग ऊर्जा के ऊर्वीकरण का मार्ग है। __ शरीर बहुत मूल्यावान् है। मांसपेशियों का भी आध्यात्मिक मूल्य है। रक्त, नाड़ी-संस्थान और ग्रन्थियों का भी आध्यात्मिक मूल्य है। ऊपर का स्रोत खुलता है तो प्राणशक्ति का प्रवेश होता है और नीचे का स्रोत खुला रहता है तो प्राणशक्ति का निर्गमन होता है, बिजली बाहर जाती है और आदमी शक्तिशून्य हो जाता है। अध्यात्म-विज्ञान में शरीर का महत्त्व जो इस स्थूल शरीर से परे है, वह इन्द्रियों का विषय नहीं है। वह इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता। किन्तु हमारे शरीर में कुछ ऐसे तत्त्व हैं, जिनके विषय में चिंतन और अनुभव करते-करते हम अपनी बुद्धि और चिदशक्ति के द्वारा इन्द्रियों की सीमा से परे जाकर सूक्ष्म शरीर की सीमा में प्रविष्ट हो सकते हैं। उनमें एक तत्त्व है प्राण-विद्युत् । अग्निदीपन, पाचन, शरीर का सौष्ठव और लावण्य, ओज-ये जितनी आग्नेय क्रियाएं हैं, ये सारी सप्त धातुमय इस शरीर की क्रियाएं नहीं है। इस स्थूल शरीर के भीतर तेज का एक शरीर और है, वह है विद्युत् शरीर तैजस् शरीर। वह सूक्ष्म शरीर है। वही इस स्थूल शरीर की सारी क्रियाओं का संचालन करता है। उस सूक्ष्म शरीर में से विद्युत् का प्रवाह आ रहा है और उस विद्युत् प्रवाह से सब कुछ संचालित हो रहा है। उस सूक्ष्म शरीर को प्राण शरीर भी कहा जाता है। यह शरीर का प्राण का विकिरण करता है और उसी प्राण-शक्ति से क्रियाशीलता आती है। श्वास, मन, इन्द्रियां, भाषा, आहार और विचार-ये सब प्राण-शक्ति के ऋणी हैं। उससे ही ये सब संचलित होते हैं, क्रियाशील होते हैं। प्राणशक्ति तैजस शरीर से नि:सृत है। __इसी संदर्भ में एक प्रश्न और होता है कि वह तैजस शरीर किसके द्वारा संचालित है? वह प्राणधारा को प्रवाहित अपने आप कर रहा है या किसी के द्वारा प्रेरित होकर कर रहा है? यदि अपने आप कर रहा है तो तैजस शरीर जैसा मनुष्य में है वैसा पशु में भी है, पक्षियों में भी है और छोटे-से-छोटे प्राणी में भी है। एक भी प्राणी ऐसा नहीं है, जिसमें तैजस शरीर, सूक्ष्म शरीर न हो। वनस्पति में भी तैजस शरीर है, प्राण-विद्युत् है। वनस्पति में भी ओरा होता है। आभामंडल होता है। वह आभामंडल इस स्थूल शरीर से निष्पन्न नहीं है। आभामंडल (ओरा) उस सूक्ष्म शरीर-तैजस शरीर का विकिरण है। प्रश्न होता है, यह रश्मियों का विकिरण क्यों होता है? यदि तैजस शरीर का कार्य केवल विकिरण करना ही हो तो मनुष्य इतना ज्ञानी, इतना Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० जैन दर्शन और विज्ञान शक्तिशाली और इतना विकसित तथा एक अन्य प्राणी इतना अविकसित क्यों? यह सब तैजस शरीर का कार्य नहीं है। तैजस शरीर के पीछे भी एक प्रेरणा है सुक्ष्मतर शरीर की। वह सूक्ष्मतर शरीर है कर्म-शरीर। जिस प्रकार के हमारे अर्जित कर्म और संस्कार होते हैं, उनका जैस-स्पंदन होता है, उन स्पंदनों से स्पंदित होकर तैजस शरीर अपना विकिरण करता है। तैजस शरीर जिस प्रकार की प्राणधारा प्रवाहित करता है, वैसी प्रवृति स्थूल शरीर में हो जाती है। तीन शरीरों की एक श्रृंखला है-स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्मतर शरीर । स्थूल शरीर यह दृश्य शरीर है। सूक्ष्म शरीर है तैजस शरीर और सूक्ष्मतर शरीर है। कर्म-शरीर, कार्मण शरीर। प्राणी की मूलभूत उपलब्धियां तीन हैं-चेतना (ज्ञान), शक्ति और आनन्द । चेतना का तारतम्य-अविकास और विकास, शक्ति का तारतम्य- अविकास और विकास, आनन्द का तारतम्य-अविकास और विकास-यह सारा इन शरीरों के माध्यम से होता है। कुंडलिनी: स्वरूप और जागरण कुंडलिनी-जागरण का प्रश्न शरीरों के साथ जुड़ा हुआ है। तीन शरीरों से जो मध्य का शरीर है, तैजस शरीर (सूक्ष्म शरीर), उसकी एक क्रिया का नाम है तिजालब्धि' । हठयोग तंत्र में इसे 'कुंडलिनी' कहा गया है। कहीं-कहीं इसे 'चित्शक्ति' कहा जाता है। जैन साधना-पद्धति में इसे तिजोलब्धि' कहा जाता है। नाम का अन्तर है। कुंडलिनी के अनेक नाम हैं। हठयोग में इसके पर्यायवाची नाम तीस गिनाए गए हैं। उनमें एक नाम है 'महापथ' । जैन साहित्य में 'महपथ' का प्रयोग मिलता है। कुंडलिनी के अनेक नाम हैं। भिन्न-भिन्न साधना-पद्धतियों में यह भिन्न-भिन्न नाम से पहचानी गयी है। यदि इसके स्वरूप-वर्णन में की गयी अतिशयोक्तियों को हटाकर इसका वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो इतना ही फलित निकलेगा कि यह हमारी विशिष्ट प्राणशक्ति है। प्राणशक्ति का विशेष विकास ही कुंडलिनी का जागरण है। प्राणशक्ति के अतिरिक्त, तैजस शरीर के विकिरणों के अतिरिक्त कुंडलिनी का अस्तित्व वैज्ञानिक ढंग से सिद्ध नहीं हो सकता। उनके प्रयास में कुंडलिनी का अस्तित्व प्रमाणित होता है, पर होता है वह सामान्य शक्ति के विस्फोट के रूप में। वह कुछ ऐसा आश्चर्यकारी तथ्य नहीं है जिसे अमुक योगी ही प्राप्त कर सकते हैं या जिसे अमुक-अमुक योगियों ने ही प्राप्त किया है। यह साधारण है। कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है, जिसकी कुंडलिनी जागृत न हो। वनस्पति के जीवों की भी कुंडलिनी जागृत है। हर प्राणी की कुंडलिनी जागृत होती है। यदि वह जागृत न हो तो वह चेतन प्राणी नहीं हो सकता। वह अचेतन होता है। जैन आगम ग्रन्थों में कहा गया--चैतन्य (कुंडलिनी) का अनन्तवां भाग सदा जागृत रहता है। यदि यह भाग भी ___ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और विज्ञान आवृत्त हो जाए तो जीव अजीव बन जाए, चेतन अचेतन हो जाए। चेतन और अचेतन के बीच यही तो एक भेद-रेखा है। प्रत्येक प्राणी की कुंडलिनी यानी तैजस शक्ति जागृत रहती है। अंतर होता है मात्रा का। कोई व्यक्ति विशिष्ट साधना के द्वारा अपनी इस तैजस शक्ति को विकसित कर लेता है और किसी व्यक्ति को अनायास ही गुरु का आशीर्वाद मिल जाता है तो साधना में तीव्रता आती है और कुंडलिनी का अधिक विकास हो जाता है। वह अनुभव आगामी यात्रा में सहयोगी बन सकता है। बनता है यह जरूरी नहीं है। गुरु की कृपा ही क्यों, मैं मानता हूं कि जिस व्यक्ति का तैजस शरीर जागृत है, उस व्यक्ति के सानिध्य में जाने से भी दूसरे व्यक्ति की कुंडलिनी को (तैजस शरीर को) उत्तेजना मिल जाती है और वह अर्द्धजागृत कुंडलिनी पूर्ण जागृत हो जाती है। प्रश्न है विद्युत्-प्रवाहों का। 'क' और 'ख' दो व्यक्ति हैं। 'क' के विद्युत-प्रवाह बहुत सक्रिय है। 'ख' के विद्युत प्रवाह कमजोर हैं। यदि 'ख' 'क' के पास जाता है तो 'क' के विद्युत प्रवाह 'ख' को प्रभावित करेंगे उसमें एक प्रकार के विद्युत स्पंदन पैदा हो जाएंगे। गुरु-कृपा का तात्पर्य है उस व्यक्ति का सान्निध्य जिसका तैजस जागृत है। गुरु का अर्थ परम्परागत गुरु से नहीं है। जिस व्यक्ति की तैजस शक्ति विकसित है, उसके पास जाने से, उसके आशीर्वाद प्राप्त करने से, उसके हाथों का मस्तिष्क पर स्पर्श प्राप्त होने से या पृष्ठरज्जु पर उसका स्पर्श मिलने से कुंडलिनी-शक्ति को जगाने में सहयोग मिलता है। उसको अनुभव होने लग जाता है। वह क्षणिक अनुभव विद्युत-जागरण जैसा होता है। गुरु-कृपा से मिलने वाला यह क्षणिक अनुभव या जागरण क्षणिक ही होता है, स्थायी नहीं होता। एक क्षण में अपूर्व अनुभव हुआ और दूसरे क्षण में वह समाप्त हो गया। इलैक्ट्रोड लगाने से क्षणिक अनुभव होता है और से हटा देने से वह अनुभव भी समाप्त हो जाता है। वैसा ही यह अनुभव होता है। अन्तत: कुंडलिनी का जागरण साधक को स्वयं ही करना पड़ता है। उसे प्रयास करना होता है। गुरु-कृपा का इतना-सा लाभ होता है कि एक बार जब अनुभव हो जाता है, फिर चाहे वह अनुभव क्षणिक ही क्यों न हो, वह आगे के अनुभव को जगाने के लिए प्रेरक बन जाता हैं। कुंडलिनी-जागरण के मार्ग प्रेक्षाध्यान से कुंडलिनी जाग सकती है। उसको जगाने के और भी अनेक मार्ग हैं, अनेक उपाय हैं। संगीत के माध्यम से भी उसे जगाया जा सकता है। संगीत एक सशक्त माध्यम है कुंडलिनी के जागरण का। व्यायाम और तपस्या से भी वह जाग जाती है। भक्ति, प्राणायम, व्यायाम, उपवास, संगीत, ध्यान आदि अनेक साधन For D Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान हैं, जिनके माध्यम से कुंडलिनी जागती है। ऐसा भी होता है कि पूर्व संस्कारों की प्रबलता से भी कुंडलिनी जागृत हो जाती है और यह अकास्मिक होता है। व्यक्ति कुछ भी प्रयत्न या साधना नहीं कर रहा है, पर एक दिन उसे लगता है कि उसकी प्राणाशक्ति जाग गयी। इसलिए कोई नियम नहीं बनाया जा सकता कि अमुक के द्वारा ही कुंडलिनी जागती है और अमुक के द्वारा नहीं जागती। कभी-कभी ऐसा होता है कि व्यक्ति गिरा, मस्तिष्क पर गहरा आघात लगा और कुंडलिनी जाग गयी। उसकी अतीन्द्रिय चेतना जाग गयी। कुंडलिनी के जगाने के अनेक कारण है। औषधियों के द्वारा भी कुंडलिनी जागृत होती है। अमुक-अमुक वनस्पतियों के प्रयोग से कुंडलिनी के जागरण में सहयोग मिलता है। तिब्बत में तीसरे नेत्र का उद्घाटन में वनस्पतियों का प्रयोग भी किया जाता था। पहले शल्यक्रिया करते, फिर वनौषधियों का प्रयोग करते थे। औषधियों का महत्त्व सभी परम्पराओं मे मान्य रहा है। प्रसिद्ध सूक्त है-अचिन्त्यो मणिमंत्रौषधीनां प्रभाव:- मणियों, मंत्रों और औषधियों का प्रभाव अचिन्त्य होता है। मंत्रों के द्वारा भी कुंडलिनी को जगाया जा सकता है। विविध मणियों, रत्नों के विकिरणों के द्वारा और औषधियों के द्वारा भी उसे जागृत किया जा सकता है। प्राण-शक्ति की विद्युत का चमत्कार एक अंगली हिलती है। कितना बड़ा चमत्कार है एक अंगुली का हिलना, किंतु इसे चमत्कार मानते ही नहीं हैं। क्योंकि यह बेचारी रोज हिलती है। अगर कभी-कभी हिलती तो यह भी बड़ा चमत्कार होता। इसे कोई चमत्कार नहीं मानते, किंतु जानने वाले जानते है कि एक अंगुली को हिलाने के लिए कितने बड़े तंत्र का सहारा लेना पड़ता है। इतना बड़ा तंत्र शायद सरकार का भी नहीं है। पहले सोचते हैं, मस्तिष्क के ज्ञानतंतु सक्रिय होते हैं, और फिर वे क्रियावाही तंतुओं को निर्देश देते हैं। वह निर्देश वहां तक पहुंचता है तो अंगुली हिलती है। बहुत छोटी-सी बात है, मैंने थोड़े में, एक मिनट में कह दी। पर प्रक्रिया इतनी बड़ी है कि करने बैठे तो हजारों हजारों कर्मचारी भी जीवन में पूरी नहीं कर सकते। मस्तिष्क की रचना बहुत विचित्र है। कोई वैज्ञानिक हमारे मस्तिष्क जैसे सूक्ष्म अवयवों का कम्प्यूटर बनाना चाहे तो आज की पूरी पृथ्वी भर जाए-इससे भी शायद ज्यादा बड़ा होगा। एक अंगुली के हिलने में कितनी क्रिया होती है, हम समझ ही नहीं पाते। कायोत्सर्ग का मूल्य समझ में नहीं आता किन्तु जो शरीर की क्रिया जो जानता है, वह व्यक्ति समझ सकता है कि कायोत्सर्ग कितना मूल्यवान् है? कायगुप्ति का कितना मूल्य है? शरीर को स्थिर करने का कितना मूल्य है? हम इसको इस संदर्भ में समझें कि एक अंगली हिलती है, इसका मतलब है मन की शक्ति खर्च होती है, चित्त की शक्ति खर्च होती है और पूरे शरीर में जो काम करने वाली विद्युत् Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और विज्ञान है, ऊर्जा है, प्राणशक्ति है, वह खर्च होती है। कायोत्सर्ग करने का अर्थ होता है कि बिजली खर्च नहीं होती, मन की शक्ति खर्च नहीं होती, शरीर की शक्ति एवं मस्तिष्क की शक्ति खर्च नहीं होती सब भंडार में रिजर्व रह जाती है। बहुत बार ऐसा होता है कि बल्ब लगे रहते हैं किन्तु प्रकाश गायब हो जाता है। हम शरीर को देखते हैं, शरीर की भी यही हालत है। शरीर पड़ा है, आखें, कान नाक पूरे के पूरे अवयव हैं, किन्तु बिजली गायब हो गई। पढ़ा होगा आपने, कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं कि चित्ता में जलाने के लिए शव को लिटा दिया, वह बीच में ही खड़ा हो गया। पोस्टमार्टम के लिए रोगी को सुलाया गया और डॉक्टर पोस्टमार्टम करने बैठा। अस्त्र लगा, वह खड़ा हो गया। आपको आश्चर्य होगा कि यह कैसे हो सकता है? बिलली गायब हो गई थी, फिर कोई ऐसा बटन दबा, बिजली आ गई और वह जी गया। लोगों ने समझ लिया कि यह तो भूत हो गया। यह बहुत बड़ा चमत्कार है हमारे प्राण शक्ति का। आंख में देखने की ताकत नहीं, कान में सुनने की शक्ति नहीं, जीभ में रसास्वाद की अनुभूति नहीं यह सब जो करता है, भरता है शक्ति को, वह है प्राण । एक प्राण का प्रकाश आता है, सब अपना-अपना काम करने लग जाते हैं। मूल प्रश्न है प्राण का। प्राण सबसे बड़ा चमत्कार है। दुनिया में जितने चमत्कार होते हैं वे सब प्राण के द्वारा होते हैं। यदि प्राण की शक्ति न हो तो दुनिया में कोई चमत्कार नहीं। आज विद्युत् का युग है, वैज्ञानिक युग है। कहना चाहिए विद्युत् है इसलिए विज्ञान है। सब कुछ चल रहा है बिजली के आधार पर । वास्तव में विद्युत् का युग है। इतने बड़े चमत्कार आज की दुनिया में चलते हैं कि कमरा बन्द है, आदमी आया। जैसी ही कमरे में पैर रखा, दरवाजा अपने आप खुल जाता है। जैसे ही भीतर गया, कुर्सी पर बैठा, पंखा अपने आप चलने लग गया। कोई बटन दबाने की जरूरत नहीं। बल्ब जल उठा। यह तो आज की बात है। ईसवी सन् २००० के बाद ऐसा होगा कि आदमी भोजन की टेबल पर जाकर बैठेगा, अपने आप भोजन आ जाएगा। खा लिया, हाथ अपने आप धुल जाएंगे, रूमाल आ जाएगा, कुछ भी करने की जरूरत नहीं। बस पचाना पड़ेगा। बाकी सारा होगा बिजली के द्वारा। हम इतने निकट हैं और हमारी प्राणशक्ति, प्राण-विद्युत इतनी निकट है कि हम सही मूल्यांकन नहीं कर पाते। एक अवयव में से बिजली चली जाए, प्राण सिकुड़ जाए, तब पता चलता है कि क्या होता है? यह लकवा क्या है? प्राण शक्ति सिकड़ गई, प्राणशक्ति चली गई तो लकवा हो गया। बिजली चली गई, बस! लकवा जब पूरे शरीर पर हो जाता है, व्यक्ति सारा नियंत्रण खो बैठता है। व्यक्ति बिना मतलब रो देता है, बिना मतलब हंसता है, शरीर काम नहीं करता। एक प्रकार से मृत के भांति Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जैन दर्शन और विज्ञान बन जाता है। इतना ही नहीं यह तो केवल बाह्य व्यक्तित्व की चर्चा है। भीतर के व्यक्तित्व की चर्चा करें तो लगता है कि प्राणशक्ति और विद्युत् एक बहुत बड़ा चमत्कार है। एक व्यक्ति बहुत अच्छा है और एक व्यक्ति बहुत बड़ा गुस्सैल है। एक व्यक्ति इतना सहनशील है कि हर बात सहन कर लेता है। एक व्यक्ति ईमानदार है तो दूसरा बड़ा बेईमान है। यह सारा क्यों होता है? यह प्राणशक्ति का खेल है। प्राणशक्ति के इतने दांव-पेच हैं कि वह सारे अनुभव कराती है। हमें सुख का अनुभव भी बिजली से होता है और दु:ख का अनुभव बिजली से होता है। मनुष्य राजी भी बिजली से होता है और नाराज भी बिजली से होता है। वासना से लिप्त भी बिजली से होता है और वासना से मुक्त भी बिजली से होता है। यदि हमारी भीतर की सारी विद्यत् की गतिविधियों को, प्रवृतियों को हम जान लें और उनका ठीक नियोजन करना जान जाएं तो बहुत सारी समस्याएं हल हो जाती है। साधना का अर्थ है-अपनी प्राण-विद्युत् को जान लेना और उसका सही उपयोग करना। विज्ञान की भाषा में एड्रीनल ग्रन्थि विकृत हो गई, आदमी चोर बन गया, अपराधी बन गया। आवश्यकता इस बात की है कि ज्ञान और विद्युत् दोनों साथ-साथ रहें। ज्ञान ऊपर रहता है और बिजली नीचे रहती है तो ज्ञान भी लज्जित होता है और आदमी अपराधी बन जाता है। ज्ञान का मूल्य तभी है कि ज्ञान और प्राण-दोनों साथ रहें, ज्ञान और प्राण का योग बराबर बना रहे। प्रश्न है इस विद्युत् को कैसे बदला जाए? धर्म की पूरी प्रक्रिया, साधना की पूरी प्रक्रिया, अध्यात्मवाद, रहस्यवाद-सारे उस बिजली के बदलने की पद्धति बतलाते है। कैसे बदला जाए? किस प्रकार बदला जाए? किस प्रकार का आचार, किस प्रकार का व्यवहार, किस प्रकार का चिन्तन, किस प्रकार का दर्शन हो, जिससे वह बिजली, प्राण-धारा बदले और प्राण-धारा चेतना के जागरण में सहयोगी बने-ये सब ज्ञातव्य हैं। ___पांचों इन्द्रियों की शक्तियां, बोलने की शक्ति, सोचने की शक्ति, चलने-फिरने की शक्ति, श्वास लेने की शक्ति और जीने की शक्ति-ये सारी शक्तियां एक ही शक्ति के विभिन्न रूप हैं। मूलत: एक है-प्राणशक्ति। यदि शक्ति नहीं है तो चेतना का उपयोग नहीं होता। सुख-दुख का अनुभव तो वास्तव में शक्ति का अनुभव है, बिजली का ही अनुभव है। हमारी प्राणशक्ति, जो निरन्तर हमारे जीवन को संचालित करती है, वह पैदा होती है और खपती रहती है। हर कोशिका बिजली को पैदा करती है और काम चलाती है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और विज्ञान ज्ञानी, जिसे परिभाषा में चतुर्दशपूर्वी कहा जाता है, वह ४८ मिनट के भीतर इतनी बड़ी ज्ञान राशि का अर्जन कर लेता है, जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। वे इतनी बड़ी ज्ञान-राशि का केवल कुछ मिनटों में पुनरावर्तन कर लेते हैं। प्राणशक्ति की विशिष्टता के कारण ऐसा संभव हो सकता है। प्राण की शक्ति जैसे-जैसे सूक्ष्म होती है, उसकी शक्ति बढ़ती जाती है। जो गणित एक आदमी अपने पूरे जीवन में कर सकता वह गणित कम्प्यूटर कुछ क्षणों में कर लेता है। चतुर्दशपूर्वी तो बड़ा कम्प्यूटर है। सबको इतना जल्दी दोहरा लेता है कि हर आदमी तो कर ही नहीं सकता। वह प्राणशक्ति को इतना विकसित कर लेता है कि उसमें अपूर्व शक्ति पैदा हो जाती है। प्राण-शक्ति जैसे-जैसे सूक्ष्म होती चली जाती है वैसे-वैसे उसकी क्षमता और कार्यशक्ति भी बढ़ती चली जाती है। ध्यान की साधना प्राणशक्ति को सूक्ष्म करने की साधना है। श्वास की संख्या जितनी बढ़ती है. शक्ति उतनी ही खर्च होती चली जाती है। श्वास की संख्या जितनी कम होती है। उतनी ही शक्ति बढ़ती चली जाती है। ध्यान करने वाला व्यक्ति, महाप्राण की साधना करने वाला व्यक्ति श्वास को सूक्ष्म करता चला जाता है। एक मिनट में १२, १०, ८, ६, ४, २, १। एक मिनट में एक श्वास और दो मिनट में एक श्वास चलता चले। चलते-चलते यह स्थिति आएगी कि पन्द्रह दिनों में एक श्वास, एक महिने में एक श्वास। मूल बात है शक्ति का भंडार होना चाहिए, शक्ति का संचय होना चाहिए। जो प्राण की साधना को नहीं जानता, वह शक्ति का संग्रह नहीं कर सकता। शक्ति आती है और चुक जाती है, संचय कभी होता ही नहीं। शक्ति-संचय की बात को अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में भी सोचें। अहिंसा प्राणशक्ति का आध्यात्मिकीकरण है। अगर अहिंसा नहीं है तो व्यक्ति शक्तिशाली कैसे बनेगा? अहिंसा नहीं है तो जो शक्ति आयी वह हिंसा के द्वारा खर्च हो जाएगी। हिंसक व्यक्ति सोचता है कि दूसरे की शक्ति को खर्च कर दूं, किन्तु उसकी अपनी शक्ति चुक जाती है। दूसरे की निंदा करने वाला, चुगली करने वाला, ईर्ष्या करने वाला, जलने वाला, मन में दाह रखने वाला व्यक्ति अपनी शक्ति के भंडार को विकसित नहीं कर सकता। दूसरों के प्रति बुरे विचार रखने वाला कोई भी अपनी अपनी शक्ति के संग्रह को बढ़ा नहीं सकता। ये सारे शक्ति के चुकने के कारण हैं, न होने के कारण हैं। अहिंसा इसलिए जरूरी है कि उससे हमारे व्यक्तित्व का विकास होता है। अब्रह्मचर्य के द्वारा समाप्त होती है। ब्रह्मचर्य का उपदेश इसलिए दिया गया कि व्यक्ति की शक्ति खर्च न हो। शक्ति का अर्जन और शक्ति का विसर्जन Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान भी चलता रहे। यह कैसे हो? अर्जन और विसर्जन के बीच तीसरी बात होती है सुरक्षा की, रक्षण की, संरक्षण की। ब्रह्मचर्य का सिद्धांत इसीलिए प्रतिपादित किया कि व्यक्ति शक्ति को खर्च न करे। कुछ लोग बहुत उलझ जाते हैं। आज के डॉक्टर भी उलझ जाते हैं। वे कहते हैं-वीर्य का कोई मूल्य नहीं हमारी दृष्टि में। वीर्य का मूल्य नहीं होगा उनकी दृष्टि में, उन्होंने उसका रासायनिक विश्लेषण किया होगा। किन्तु इस बात का तो मूल्य है कि प्रत्येक अब्रह्मचर्य की घटना के साथ बिजली भी खर्च होती है। बिजली बाहर जाती है, बिजली खर्च होती है और आदमी बिजली से शून्य होता ____ सबसे बड़ी सुरक्षा करनी है-प्राण-विद्युत् की। हमारी बिजली कम खर्च हो, उसका संग्रह कर सकें, उसका सही दिशाओं में प्रयोग कर सकें। विद्युत् के बिना चेतना के केन्द्रों को सक्रिय नहीं किया जा सकता और चेतना के केन्द्रों को सक्रिय किए बिना कोई भी विशिष्टता प्राप्त नहीं की जा सकती। प्राण की ऊर्जा को संग्रहीत करना और उस ऊर्जा का आध्यात्मिकीकरण करना, यह अपेक्षित है। आध्यात्मिकीकरण का अर्थ है-नीचे के केन्द्रों में ऊर्जा का न रखना, उस ऊर्जा को ऊपर के केन्द्रों में ले जाना। यह आध्यात्मिकीकरण की प्रक्रिया है। ऊर्जा के ऊ:करण के दो मुख्य साधन है : १. श्वास लेने की समुचित प्रक्रिया का अभ्यास। २. चित्त को लम्बे समय तक एक बिन्दु पर टिकाए रखने का अभ्यास। जो सांस लेना ठीक ढंग से नहीं जानता, वह प्राण को विकसित नहीं कर सकता। प्राण की शक्ति सांस के साथ नथुनों के द्वारा ही बाहर आती है। जो सांस को ठीक लेना नहीं जानता, वह प्राण का संग्रह कर नहीं सकता। जिस व्यक्ति ने मन को एकाग्र करना सीख लिया, श्वास का संयम करना सीख लिया, वह फिर जहां चाहे वहां प्राण-ऊर्जा का उपयोग कर सकता है। कोई साधक चाहे कि भृकुटि के बीच प्राण-ऊर्जा को टिकाना है तो उसका मन भी टिक जाएगा, प्राण-ऊर्जा भी टिक जाएगी और वहां पूरी प्रक्रिया शुरू हो जाएगी, अपने आप वहां का चैतन्य-केन्द्र सक्रिय हो जाएगा। प्राण की प्रक्रिया, प्राण-ऊर्जा के विकास की प्रक्रिया, प्राण का आध्यात्मिकीकरण, बिजली को आध्यात्मिक बना देना, यह साधना का रहस्य है। जिस दिन प्राण को आध्यात्मिक बनाने की प्रक्रिया हमारी समझ में आ जाएगी, हम उसका अभ्यास शुरू करेंगे, प्राणशक्ति का संग्रह शुरू करेंगे और उसका जीवन उर्ध्वगमन में, Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और विज्ञान ऊंचे-ऊंचे स्थानों के विकास में उपयोग करेंगे, नाभि से ऊपर के केन्द्रों को विकसित करने में उस शक्ति को लगाएंगे तो एक अनुपम आनन्द, निर्मल चेतना, शक्तिशाली प्रज्ञा हमारे व्यक्तित्व में जागेगी और ऐसे व्यक्तित्व तैयार होंगे जिनकी आज के इस कलह-प्रधान, क्रोध-प्रधान, अधैर्य-प्रधान मानवीय सभ्यता में सबसे ज्यादा अपेक्षा __आज के युग में निरन्तर हिंसा, मार-काट, हत्याएं, आत्महत्याएं और नाना अपराधों का विकास हो रहा है, नींद कम होती जा रही है, स्मरण-शक्ति कम होती जा रही है, आंतरिक शक्तियां और सहिष्णुता की शक्ति कम होती जा रही है, धैर्य का लोप होता रहा है। इस प्रकार के युग में यदि समस्याओं का समाधान पाना है तो प्राणशक्ति का विकास और उसका आध्यात्मिकीकरण हमारे लिए नितांत अनिवार्य है। (३) आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण श्रद्धा और तर्क, नया और पुराना, अध्यात्म और विज्ञान, पूर्व और पश्चिम-ये बहत सारे द्वन्द्व हैं। जीवन के लिए दोनों की ही उपयोगिता है। कहीं यदि श्रद्धा होती है और इतनी प्रगाढ़ होती है कि तर्क बेचारा विवश हो जाता है। 'नया' जीवन पर हावी होता है तो इस तरह से होता है कि आदमी पुराने' से बिलकुल टूट जाता है। 'विज्ञान' आदमी के नजदीक होता है तो 'अध्यात्म' आदमी से बहुत दूर हो जाता है। 'पूर्व' एक छोर पर होता है तो 'पश्चिम' दूसरे छोर पर होता है। दोनों में एक अलंध्य फासला दिखाई देता है। अध्यात्म स्वयं एक विज्ञान इसमें कोई सन्देह नहीं कि अध्यात्म एक अनुत्तर विज्ञान है और वह जीवन को आनन्द प्रदान करता है। पर इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि विज्ञान भी सत्य की खोज का एक मार्ग है और ढेर सारी सुविधाएं प्रदान करता है। पूर्ण रूप से अध्यात्म में जीने वाले व्यक्ति के लिए अपने आपमें ही वह मिल जाता है। उसे विज्ञान के सामने अपना भिक्षा-पात्र फैलाने की आवश्यकता नहीं रहती। विज्ञान के ताने-बाने में बुने जाने वाले वस्त्र में जीवन को अमाप्य ऊंचाइयां देने की क्षमता है। पर आज कठिनाई यही है कि अध्यात्म जहां ऊपरी क्रियाकांडों से उलझ गया है, वहां विज्ञान केवल भौतिक प्रवृतियों से प्रतिबद्ध हो गया है। ___वैज्ञानिक युग में वैज्ञानिक दृष्टि अपेक्षित है। शांतिपूर्ण जीवन के लिए आध्यात्मिकता भी अनिवार्य है। आध्यात्मिकता + वैज्ञानिकता - आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान विज्ञान से मनुष्य ने इतना सामर्थ्य अर्जित किया है कि उससे पूरी धरती पर सुख की फसल उगाई जा सकती है। पर आज तो वही दुनिया का सबसे बड़ा सिरदर्द बन रहा है। भले ही शस्त्रास्त्रों का युद्ध स्तर पर उपयोग करने में राजनैतिक स्वार्थ मुख्य मोहरे बनते हों, पर विज्ञान यदि राजनीति के हाथों में नहीं खेलता तो वह विनाश का सर्जन-हार नहीं बनता। अब भी समय है कि आदमी संभले। अध्यात्म के संभलने का अर्थ है लिखे-लिखाए शब्दों की लीक पर चलने से पूर्व उन पर प्रायोगिक परीक्षा करें। प्रेक्षाध्यान विज्ञान के प्रकाश में योग को प्रायोगिक स्वरूप प्रदान कर रहा है जो आज के चिकित्सा-शास्त्र को भी मान्य हो रहा है। सामान्यतया जनभावना में अध्यात्म के प्रति जो एक उदासीनता दीख रही थी, उसमें जो ठहराव आ गया था वह टूटता हुआ प्रतीत हो रहा है। युवकों के प्रेक्षाध्यान के प्रति बढ़ता हुआ उत्साह इस तथ्य का प्रकट निदर्शन है। आध्यात्मिकवैज्ञानिक व्यक्तित्व के निर्माण का तात्पर्य केवल इन दोनों विषयों का तुलनात्मक अध्ययन ही नहीं है अपितु उस चेतना का जागरण है जो शाश्वत सत्यों और प्रयोग-दोनों की सत्ता को एक स्वीकार करें। तुलनात्मक अध्ययन तो इसका सतही स्तर है। वैज्ञानिक विकास: वरदान या अभिशाप आज मनुष्य के पास बोझ ढोने के अनेक साधन हैं। टूकें, ट्रालियां, ट्रेन आदि ऐसे अनेक भीमकाय भारवाही वाहन निकल गए हैं। उसके पास इतने तीव्र गति वाले यान-वाहन आ गए हैं कि सन् १९३८ में प्रतिघण्टा बीस मील चलने वाला आदमी आज ४०,००० मील प्रतिघण्टा की यात्रा आराम से कर सकता है। कोलम्बिया शटल के कार्यरत हो जाने से न केवल धरती पर ही अपितु अन्तरिक्ष में भी मनुष्य का बेरोक-टोक आवागमन शुरू हो गया है। यन्त्रों, कम्प्यूटरों तथा रोबोटों का आविष्कार हो जाने से न केवल मनुष्य का श्रम ही बच गया है अपितु उसे बहुत सारी चीजें उपलब्ध होने लगी है। आज दत्सून जैसे औद्योगिक इकाई में केवल अठारह आदमी ही प्रतिदिन दो हजार कारों का उत्पादन करने लगे हैं। टेक्सास इंस्ट्रमेंट्स तथा हेलविट एण्ड मैकार्ड जैसे प्रतिष्ठानों में तो आदमी का कोई बच्चा भी काम नहीं कर रहा है। आभियांत्रिकी के संबोध से आज हर चीज मनुष्य को घर बैठे उपलब्ध होने लगी है। वह अपने कमरे में बैठा हमारी दुनिया ही नहीं अपितु अन्य ग्रहों के लोगों से भी न केवल बातचीत ही कर सकता है अपितु उनसे साक्षात्कार भी कर सकता है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और विज्ञान ___ आज टेलीफोन करने मात्र से ही मनपसन्द के माडल रूपाकार की नवनिर्मित कार उसके दरवाजे के आगे आकर खड़ी हो जाएगी। भविष्य में विज्ञान की यह गति और भी अधिक बढ़ जाने वाली है तथा मनुष्य के पास सुख-सुविधाओं का अम्बार लग जाने वाला है। शक्ति-स्रोतों के विविध उपादानों के साथ-साथ अणु-शक्ति ने भी मनुष्य को अकल्प्य रूप में विस्तृत कर दिया है। फिर भी तनाव बढ़े हैं पर बड़े-बड़े रिएक्टर, हाईड्रोइलेक्ट्रिक पावर हाउस तथा अणुबिजली घरों का खतरा भी कम गहरा नहीं हुआ। औद्योगिक प्रदूषण से पूरी दुनिया के संतुलन को खतरा पैदा हो गया है। आदमी आज मशीन का इतना दास बन गया है कि उसके तनावों का भी कोई पार नहीं है। यद्यपि तनाव हमेशा मनुष्य का पीछा करते हैं पर आज मनुष्य जिस रूप से तनावग्रस्त है, उससे उपरोक्त सारी प्रगति पर एक प्रश्नचिन्ह लग गया है। श्रम को हेय न मानें श्रम की मनोवृत्ति के साथ-साथ आज श्रम को हेय समझने की मनोवृत्ति का भी इतना विकास हो गया है कि अपने आपको सभ्य मानने वाला मनुष्य जरा-सा श्रम करते हुए भी हिचकिचाता है। ऐसी स्थिति में हमें फिर से मुड़कर देखना होगा। ऐसी नहीं है कि आदमी विज्ञान की उपलब्धियों की अनदेखी कर दें पर उसे यदि आनन्दपूर्ण जीवन जीना है तथा दूसरों के आनन्द को नहीं छीनना है, तो यह आवश्यक है कि न केवल वह स्वय ही श्रम से जी न चुराएं अपितु अन्य लोगों के श्रम को छीनकर उन्हें दर-दर भटकने देने का भागीदार भी न बने। आज बहुत सारे विकसित देशों ने अपने उद्योगों के द्वारा बहुत सारे अविकसित देशों के सामने समस्याएं खड़ी कर दी है, जिनसे निपटना बड़ा कठिन हो गया है। सबसे बड़ी समस्या आवश्यकता यह है कि मनुष्य श्रम को हेय न समझे। सचमुच में मानव-मात्र की हित-चिन्ता तथा अपने तनावों से मुक्त होने की यह टेक्नीक आदमी को विज्ञान से नहीं अध्यात्म से सीखनी होगी। वैसे विज्ञान ने भी अध्यात्म के इस सत्य पर अपनी मुहर लगाना शुरू कर दिया है कि श्रम के बिना आदमी का अपना जीवन भी आनन्दमय नहीं बन सकेगा। वैज्ञानिक उपलब्धियों के प्रकाश में आज अध्यात्म की पुस्तक पढ़ना आवश्यक हो गया है। मन की शांति आज इस वैज्ञानिक युग में मन की शांति का प्रश्न अहं प्रश्न है। मन की समस्याओं पर चर्चाएं चलती हैं। हमें इस संदर्भ में यह जानना चाहिए कि हमारा Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जैन दर्शन और विज्ञान मन किन-किन प्रभावों से कितना प्रभावित होता है। मन क्षेत्र से भी प्रभावित होता है और काल से भी प्रभावित होता है ज्योतिर्विज्ञान का विकास प्रभावों के विश्लेषण के लिए हुआ था। किन्तु आज उसका रूप बदल गया है। वह केवल फलित में उलझ गया है। उसका विषय तो था हमारी इस पृथ्वी पर, पूरे वातावरण पर और वायुमंडल पर तथा मनुष्य के स्वभाव और व्यवहार पर सौरमंडल का क्या प्रभाव होता है, इसका अध्ययन और विश्लेषण करना, पर वह उससे दूर चला गया। यह स्पष्ट है कि हमारा सारा वातावरण अंतरिक्ष से प्रभावित है। पृथ्वी और अंतरिक्ष को सर्वथा विभक्त नहीं किया जा सकता। मनुष्य के लिए जितनी संपदा पृथ्वी पर है, उससे कम अन्तरिक्ष में नहीं है। मनुष्य पर पृथ्वी का जितना प्रभाव पड़ता है, अंतरिक्ष का प्रभाव उससे कम नहीं पड़ता। आदमी अंतरिक्ष से अधिक प्रभावित होता है। अंतरिक्ष में जैसा सौरमंडल है, वैसा सौरमंडल प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में है। ग्रहों और अंतर्ग्रहों का बहुत गहरा सम्बन्ध है। हमारे अंतर्ग्रह आकाश के ग्रहों के विकिरणों से बहुत प्रभावित होते हैं। मनुष्य जीता है। ऋतुचक्र के साथ-साथ । ऋतु का एक चक्र है। भारत में छह ऋतुओं का विकास हुआ। हो सकता है कि भौगोलिक कारणों से कुछ स्थानों में ऋतुएं छह न होती हों, कम होती हों। किन्तु भारत में छह ऋतुएं होती हैं और उन ऋतुओं से मनुष्य का जीवन जुड़ा हुआ है। जैसे ऋतुचक्र बदलता है, हमारा शरीर भी बदलता है और स्वास्थ्य में भी परिवर्तन आता है। आयुर्वेद ने ऋतुचक्र के परिवर्तन के साथ-साथ स्वास्थ्य परिवर्तन और शरीर-परिवर्तन की विशद चर्चा की है। इसमें केवल स्वास्थ्य और शरीर ही नहीं बदलता. भाव भी बदलते हैं। भाव बदलता है तो मन बदलता है। भाव और मन दोनों बदलते हैं। यह आयुर्वेद और अध्यात्म का मिला-जुला योग है। यह आवश्यक है कि ऋतु-परिवर्तन के साथ मनुष्य में होने वाले परिवर्तनों का संयुक्त अध्ययन किया जाए और यह जाना जाए कि क्या-क्या परिवर्तन घटित होते हैं। आयुर्वेद की मान्यता है कि ऋतु के साथ-साथ भोजन का परिवर्तन भी हो जाना चाहिए। आयुर्वेद में किस ऋतु का भोजन क्या है, इसकी उन्मुक्त चर्चा है। शरीर के लिए कब कैसा भोजन अपेक्षित होता है, इस विषय में बहुत सुन्दर प्रतिपादन वहां प्राप्त होता है। ज्योतिष के ग्रन्थों ने इस विषय को आगे बढ़ाते हुए प्रतिपादन किया कि किस ऋतु में किस प्रकार के भाव पैदा होते हैं और उनका क्या-क्या असर होता है। वर्ष के दो अयन हैं-उत्तरायन और दक्षिणायन। हमारे मन के भी दो अयन होते हैं-उत्तरायन और दक्षिणायन । तपस्या, तेजस्विता, उग्रता-यह हमारे Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और विज्ञान ७१ मन का उत्तरायण है। जड़ता और नींद की शांति - यह हमारे मन का दक्षिणयान है । ऑकल्ट साइंस में दो ध्रुवों की चर्चा है- एक है उत्तरी ध्रुव और दूसरा है दक्षिण ध्रुव । दोनों ध्रुवों का मन के साथ गहरा सम्बन्ध है । रीढ़ की हड्डी के ऊपर का भाग- ज्ञानकेन्द्र - उत्तरी ध्रुव है और रीढ़ की हड्डी का निचला भाग- - शक्तिकेन्द्र और कामकेन्द्र - दक्षिणध्रुव है। इस प्रकार ऋतुओं और अयनों के साथ मन का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है । उपाध्याय मेघविजयी ने एक ग्रन्थ लिखा है । उसका नाम है- अर्हत् गीता। उसमें ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से मानसिक स्थितियों का सूक्ष्म विचार प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने पूरे वर्ष, बारह मास, बारह राशियां दो अयन, छह ऋतु और सात वार- प्रत्येक के साथ मन के सम्बन्ध की चर्चा की है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है और इसका सूक्ष्म विवेचन वहां प्रस्तुत है । यह सारी चर्चा इसलिए कि मानसिक शांति के प्रश्न पर सोचने वाले लोगों को एक ही कोण से नहीं सोचना चाहिए । अनेक कोणों से सोचना चाहिए। मन की अशांति हजार व्यक्तियों में मिलती है तो हजार व्यक्तियों के लिए अशांति का कारण एक ही नहीं होता, अनेक कारण होते हैं और उन अनेक कारणों के लिए एक ही समाधान देंगे तो वह पर्याप्त नहीं हो । भिन्न-भिन्न समाधान भी चाहिए। किसकी किस प्रकार की समस्या है और किस प्रकार का हेतु मन की अशांति को उत्पन्न कर रहा है, जब तक इसका विश्लेषण नहीं कर लिया जाएगा और इसका सम्यक् बोध नहीं होगा, तब तक दिया हुआ समाधान असमाधान ही बना रहेगा । चिकित्सा की एक शाखा 'मनश्चिकित्सा' विस्तार पार रही है । आज बड़े अस्पतालों के साथ एक मनश्चिकित्सक भी रहता है । वह मन की चिकित्सा करता है। यह एक शाखा तो बन गई है । किन्तु मन की बीमारियों की एक शाखा तो नहीं है । बुद्धि की प्रखरता ने इतनी कल्पनाएं दे दीं, इतनी महत्त्वाकांक्षाएं जगा दीं, इतने बड़े-बड़े मूल्य सामने रख दिए कि पूर्ति नहीं हो रही है और मन की अशांति के लिए बहुत अच्छी सामग्री है । महत्त्वाकांक्षा तो बहुत बढ़ जाए और पूर्ति हो न सके, इससे विकट और कोई समस्या हो नहीं सकती। जब तक आदमी की महत्त्वाकांक्षा न जागे, शायद वह शान्ति का जीवन जी सकता है। हो सकता है कि विकास का जीवन न हो, पर शान्ति का जीवन जी सकता है । महत्त्वाकांक्षा जाग जाए और उसकी संपूर्ति न हो, उस स्थिति में क्या बीतता है, वही जानता है या भगवान् जानता है, कल्पना नहीं की जा सकती। इतनी बैचेनी, इतनी कठिनाई और परेशानी होती है कि उस परेशानी को कोई बता नहीं सकता । मानसिक समस्याओं के अनेक कारण हैं। उन सबका सम्यक् विश्लेषण Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान किए बिना हम मन की समस्या को समधान नहीं दे सकते। हर व्यक्ति जाने या न जाने. पर कम से कम जो मानसिक शान्ति के क्षेत्र में काम करने वाले हैं, मानसिक चिकित्सा के क्षेत्र में काम करने वाले हैं, अहिंसा के क्षेत्र में काम करने वाले हैं और जो विश्व-शान्ति की चर्चा और परिक्रमा करने वाले हैं, उन लोगों के लिए तो यह बहुत जरूरी है कि वे उन सारे हेतुओं को जानें और फिर समाधान की बात करें। एक बहुत बड़ा हेतु है कालचक्र, जो मनुष्य के साथ-साथ चलता है। काल से जब स्थूल शरीर में परिवर्तन होता है, तो बहुत स्वाभाविक है कि हमारे भावचक्र में भी परिवर्तन होगा। भाव में परिवर्तन होता है, यह अब केवल पौराणिक मान्यता ही नहीं है, वैचारिक मान्यता भी बन गई। पुराने ग्रन्थों में कुछ तिथियों का विशेष चुनाव किया गया- पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा । इन तिथियों के चयन के बारे में हमारे सामाने बहुत प्रश्न आते हैं। अष्टमी को विशेष धर्म करना चाहिए, सप्तमी को नहीं, ऐसा क्यों? अब ज्योतिर्विज्ञान और वैज्ञानिक अध्ययनों और विश्लेषणों के बाद इसका बहुत अच्छा उत्तर दिया जा सकता है। चन्द्रमा का हमारे मन के साथ में बहुत गहरा सम्बन्ध है। ज्योतिर्विज्ञान में भी है। किसी आदमी की कुंडली देखी जाती है तो मन का स्थान चन्द्रमा से देखा जाता है। चन्द्र कैसा है? चन्द्रमा अच्छा है कुण्डली में तो इसका मन बहुत शांत रहेगा, स्वच्छ रहेगा। चन्द्रमा अच्छा नहीं है तो पागल बनेगा, यह भविष्यवाणी करने में कोई कठिनाई नहीं है। चन्द्रमा के स्थान के आधार पर मन की यह मीमांसा की जा सकती है। मन का और चन्द्रमा का बहुत गहरा संबंध है। हमारे शरीर में जल का हिस्सा बहुत बड़ा है। आपको तो यह शरीर ठोस लग रहा है, पर ठोस कहां है? पानी ही पानी है, सत्तर-अस्सी प्रतिशत तो हमारे शरीर में पानी है और भाग तो बहुत थोड़ा है। पानी का चन्द्रमा के साथ संबंध है। समुद्र के ज्वार-भाटे के साथ चन्द्रमा का संबंध है। हमारे मन और शरीर का भी चन्द्रमा के साथ संबंध है। मन का ज्वार-भाटा भी चन्द्रमा के साथ आता है। केवल समुद्र में ही ज्वार-भाटा नहीं आता, मन में भी आता रहता है। अमावस्या और पूर्णिमा ज्वार-भाटे के दिन हैं। बहुत अन्वेषणों के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया कि हत्याएं, अपराध, हिंसा, उपद्रव, आत्महत्या-ये सारे पूर्णिमा और अमावस्या के दिन ज्यादा होते हैं। एक्सीडेण्ट भी पूर्णिमा के दिन ज्यादा होते हैं। इस विषय पर काफी लिखा गया है। काफी सर्वे किए गए हैं और खोजें भी की गई हैं। चन्द्रमा के साथ हमारे मन का बहुत गहरा सम्बन्ध है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और विज्ञान कालचक्र और सौरमंडल से हमारा भाव और मन जुड़ा हुआ है। इनसे हम प्रभावित होते हैं। इसीलिए इन दिनों में विशेष अनुष्ठानों का विधान किया गया कि अष्टमी, चतुर्दशी को विशेष अनुष्ठन किए जायें जिससे कि मानसिक विक्षिप्तता के प्रभावों से बचा जा सके। यह एक मुख्य हेतु था। चन्द्रमा की भांति ही दूसरे ग्रहों का भी प्रभाव पड़ता है। सूर्य का भी प्रभाव होता है, मंगल का भी प्रभाव होता है और गुरु का भी प्रभाव होता है। हम इतने प्रभावों से प्रभावित हैं कि अप्रभावित अवस्था हमें प्राप्त नहीं है। इस स्थिति में मानसिक शान्ति की समस्या और जटिल बन जाती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जो व्यक्ति सामाजिक वातावरण को जैसा ग्रहण करता है वैसा ही उसका व्यक्तित्व बनता है। किन्तु कोई भी बात यदि एकांगी दृष्टिकोण से स्वीकृत होगी तो उसमें सचाई नहीं होगी। सचाई होगी तो अधूरी सचाई होगी। पूरी सचाई नहीं होगी और समस्या के समाधान तक ले जानेवाली सचाई नहीं होगी। एकांगी दृष्टिकोण से कोई भी बात पकड़ ली जाती है तो उलझन बहुत बढ़ जाती है। व्यक्ति समाज का हिस्सा है, यह बात ठीक है। किन्तु व्यक्ति की अपनी वैयक्तिकता भी है। यदि सामाजिकता को समाप्त नहीं किया जा सकता तो वैयक्तिकता को भी समाप्त नहीं किया जा सकता। व्यक्ति की अपनी विशेषताएं होती हैं और यदि वे विशेषताएं न हों तो इन रोग के कीटाणुओं का इतना भयंकर आक्रमण हो सकता है कि कोई बच ही नहीं सकता। किन्तु प्रत्येक व्यक्ति के पास अपनी अवरोधक शक्ति होती है। हर व्यक्ति अपनी क्षमता और शक्ति के आधार पर कीटाणुओं से लड़ता है, अपनी शक्ति का उपयोग करता है। व्यक्तिगत विशेषताओं पर भी हमें विचार करना होगा। एक ओर हम वातावरण से, परिस्थितियों से, हेतुओं से, निमित्तों से प्राप्त होने वाली समस्याओं पर विचार करें तो दूसरी ओर व्यक्ति के आन्तरिक स्रोतों पर भी विचार करें। यही अध्यात्म का और इस भौतिक विज्ञान का एक केन्द्र-बिन्दु बनता है। हम व्यक्ति के आन्तरिक स्रोतों पर विचार करें। एक बहुत सुन्दर पुस्तक निकली है-Man the Unknown | उसमें वैज्ञानिक दृष्टि से इतना विश्लेषण किया गया है कि मनुष्य' अभी तक अज्ञात है। मनुष्य का थोड़ा-सा हिस्सा, उसके मस्तिष्क का पांच-सात प्रतिशत हिस्सा ही ज्ञात हुआ है। नब्बे प्रतिशत से अधिक हिस्सा अज्ञात ही है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जैन दर्शन और विज्ञान ज्ञात के आधार पर इतने बड़े अज्ञात को अस्वीकार करना कैसे संभव होगा? अध्यात्म के आचार्यों ने अज्ञात पर भी बहुत अनुसंधान किया है। उन्होंने अपनी अन्त:दृष्टि और अन्त:प्रेरणा से अज्ञात को समझने का बहुत बड़ा प्रयत्न किया है। अध्यात्म का यह बिन्दु हमें उपलब्ध है। आज से नहीं, किसी वैज्ञानिक की पुस्तक से नहीं , किन्तु हजारों-हजारों वर्ष पहले उन घोषणाओं से हम परिचित हैं कि प्रत्येक प्राणी में, न केवल मनुष्य में, किन्तु प्रत्येक प्राणी में अनन्त शक्ति विद्यमान है। अनन्त चतुष्टयी जैन दर्शन में बहुत प्रसिद्ध है। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त शक्ति और अनन्त आनन्द-यह अनन्त चतुष्टयी है। वैदिक साहित्य मे सत्, चित् और आनन्द बहुत प्रसिद्ध है। __अध्यात्म के आचार्यों ने मनुष्य के भीतर की गहराइयों में जाकर झांका, उस अनन्त चतुष्टयी में कुछ डुबकियां लेकर जिन मूल्यों की प्रतिष्ठा की, जिन तथ्यों का प्रतिपादन किया और मनुष्य के व्यक्तित्व का चित्र उभारा, यदि वह हमारे सामने होता तो शायद मन की शान्ति का प्रश्न, शन्ति की समस्या जटिल नहीं होती। उन्होंने व्यक्ति को समझा, उस आलोक में देखा और परखा कि भाव-शुद्ध के बिना मन की शंति का प्रश्न कभी समाहित नहीं हो सकता। हमारे विकास का, जीवन के विकास का सबसे बड़ा आधार है भाव-शुद्धि । एक धारा हमारे भीतर है भाव-अशुद्धि की और दूसरी धारा प्रवहमान है भाव-शुद्धि की। दोनों धाराएं निरन्तर प्रवहमान हैं हमारे व्यक्तित्व में। जब-जब हम भाव की अशुद्धि की धारा से जुड़ते हैं, मन की समस्याएं उलझ जाती हैं। मानसिक पागलपन, मानसिक विक्षिप्तता उभरकर सामने आ जाती है। जब-जब हम अपनी भाव-शुद्धि की धारा से जुड़ते हैं, सब कुछ ठीक हो जाता to आज के शरीर-शास्त्री बतलाते हैं कि हमारे मस्तिष्क में दो ऐसी ग्रन्थियां हैं, एक है हर्ष की और एक है शोक की। दोनों सटी हुई हैं। हर्ष की ग्रन्थि उद्घाटित हो जाए तो हर घटना में व्यक्ति सुख का अनुभव करे । उसे दुःख नहीं होगा। यदि शोक वाली ग्रन्थि खुल जाए तो फिर चाहे जितना ही सुख हो, करोड़पति बन जाए, दु:ख का अन्त होने वाला नहीं है। पर खतरा यही है कि एक को खोलते समय दूसरी खुल जाए तो फिर सारा चौपट हो जाए। सुख और दुःख की धाराएं सटी हुई चल रही हैं। जो व्यक्ति निरन्तर भाव को शुद्ध रखता है, उस पर आक्रमण नहीं हो सकते। और होते भी हैं तो बहुत मंद होते हैं। वह बच जाता है। भाव-शुद्धि एक शक्तिशाली उपाय है। यदि उसके प्रति हमारी जागरूकता बढ़ जाए तो इन खतरों से बचा जा सकता है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ अध्यात्म और विज्ञान संयम हम विज्ञान के संदर्भ में तथा नृवंश विद्या (anthropology) की दृष्टि से संयम पर विचार करें-प्रश्न होगा कि मनुष्य जाति का विकास कैसे हुआ? इसके उत्तर में अनेक उत्तर दिए जा सकते हैं। किन्तु नृवंश विद्या के आधार पर इसका जो उत्तर दिया गया, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। उसमें कहा गया है कि मनुष्य जाति के विकास का मूल आधार है-वाणी। पशु पक्षियों का विकास नहीं हुआ। गाय, भैंस और घोडा-ये हजारों वर्षों से समानरूप से रह रहे हैं। इनमे कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। गधे, घोड़े, खच्चर कभी हड़ताल नहीं करते। वे सदा ही भार ढो रहे हैं और ढोते रहेंगे। क्यों? इसलिए कि उनका विकास नहीं हुआ। उनमें भाषा नहीं है। बन्दर ने कभी घर नहीं बनाया। आज भी वह वृक्षवासी है। मनुष्य ने घर बनाया। घर बनाने में उसने बहुत विकास किया। इसका कारण बताया गया है कि मनुष्य अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा रखता है। रीढ़ की हड्डी को सीधा रखने के कारण ही मनुष्य के विकास का प्रथम चरण प्रारम्भ हुआ। विकास का दूसरा मुख्य तत्त्व है कि मनुष्य की अंगुलियां और अंगूठा विपरीत दिशा में हैं। अंगुलियों की सीध में यदि अगूंठा होता तो आदमी न लिख पाता और न अन्य काम ही कर पाता। मनुष्य पशु जैसा ही होता। पशुओं के अंगुलियां और अंगूठा विपरीत दिशा में नहीं होते । यह बहुत बड़ा अंतर है। इसी अंतर के कारण आदमी प्रगति कर रहा है, विकास कर रहा है। दूसरी दृष्टि-योग की दृष्टि से देखें तो मुद्रा के आधार पर विश्लेषण करना होगा। योग ने मुद्रा की दृष्टि से बहत विकास किया है। दो अंगलियों को मिलाने से एक प्रकार की मुद्रा बन जाती है। तीन अंगुलियों को मिलाने से दूसरी मुद्रा बन जाती है। अनामिका और अंगूठे को मिलाने से अन्य मुद्रा बन जाती है। इस प्रकार सैकड़ों-सैकड़ों मुद्राएं हैं। इन मुद्राओं के परिणाम भी भिन्न-भिन्न होते हैं। मंत्रशास्त्र में मुद्राओं पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। देवता का आह्वान करना हो तो कौन-सी मुद्रा होनी चाहिए। हठयोग में मुद्राओं का काफी विवेचन है। प्राणायाम करना है, दीर्घश्वास की क्रिया करनी है तो अमुक मुद्रा में करने से फेफड़ों में पूरा प्राण वायु पहुंचेगा, अन्यत्र नहीं। मुद्राओं के आधार पर परिणाम में अन्तर आ जाता ‘एक्यूप्रेशर' और 'एक्यूपंक्चर'-ये दो प्राचीन चिकित्सा पद्धतियां हैं। शरीर के अमुक भाग को दबाने से या शरीर के अमुक केन्द्र पर सुई चुभाने से अमुक बीमारी शांत हो जाती है। श्वास की बीमारी है या हार्ट की बीमारी है तो अमूक पॉइन्ट को दबाने या उस पर सुई चुभाने से वह बीमारी शांत हो जाती है। आज भी यह पद्धति चीन और जापान में चलती है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जैन दर्शन और विज्ञान भारत में भी यंत्र-तंत्र इसके विशेषज्ञ मिलते हैआयुर्वेद का एक प्रसिद्ध श्लोक है-- दन्तानामञ्जनं श्रेष्ठ, कर्णानां दन्तधावनम् । शिरोभ्यंगश्च पादानां, पादाभ्यंगश्च चक्षुषोः ।। आंखों को आंजने से दांत स्वस्थ रहते हैं। दांतों को धोने से कान स्वस्थ रहते हैं। सिर पर मालिश करने से पैरों को लाभ होता है और पैरों पर मालिश करने से आंखो की ज्योति बढ़ती है। इस प्रकार शरीर में सैकड़ों केन्द्र हैं, जिनको जानना बहुत लाभप्रद होता है। उनमें हाथ-पैर बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। हम विद्युत्-विज्ञान की दुष्टि से भी देखें। आज का शरीरशास्त्री मानता है कि शरीर की विद्युत् का बहि:निष्क्रमण मुख्यत: तीन स्थानों से होता है-हाथ की अंगुलियों से, पैरों की अंगुलियों से और आंखो से। जब शरीर रोग-ग्रस्त होता है तब रोग-ग्रस्त भाग पर अंगुलियां घुमाई जाती हैं। उससे विद्युत् मिलती है और रोग शांत भी होता है। गुरु लाभ के चरणों में मस्तक रखने से उनके पैरों से निकलने वाली विद्युत् का लाभ मिलता है। जब वे अपना हाथ भक्त के सिर पर रखते हैं तब अंगुलियों से निकलने वाली विद्युत् भी मिलती है और जब वे शांत आंखों से भक्त को देखते हैं तब आंखों से निकलने वाली विद्युत् भी प्राप्त होती है। मन तीनों ओर से लाभान्वित होता है। यह भी एक विज्ञान है। जो चैतन्य-केन्द्र मस्तिष्क में हैं, वे हाथ में भी हैं। भावना के सभी केन्द्र हाथ में हैं। जिन व्यक्तियों का ध्यान नहीं टिकता उनके लिए बताया गया है कि वे दाहिने पैर के अंगूठे पर ध्यान करें। ध्यान सधने लगेगा। यह है पैर का संयम । यह आचार-शास्त्र का बहुत बड़ा अंग है। यह तो नहीं कहा कि पूरे शरीर का संयम करो। हाथ-पैर के संयम की बात कही, इसका हमें आचारशास्त्रीय दृष्टि से भी महत्त्व आंकना चाहिए। आचारशास्त्रीय दृष्टि से संयम तब होता है, जब हम हाथ-पैर को स्थिर रख सकें, लंबे समय तक रख सके। जो व्यक्ति उकडू आसन में बैठता है, वह पैरों का संयम साधता है। सकी आध्यात्मिक शक्तियां जागती हैं। उसमें ब्रह्मचर्य की शक्ति का विकास होता है। यह है आचारशास्त्रीय दृष्टिकोण। तीसरा है गणितशास्त्रीय दृष्टिकोण। हाथ और पैर का गणित करना होगा। दोनों हाथों की दस अंगुलियां। दोनों पैरों की दस अंगुलियां। उन पर बनी रेखाओं का गणित, हाथ और पैरों की रेखाओं का गणित और मूल्यांकन । पुराने जमाने में तर्कशास्त्र पढ़ा जाता था सूत्रों के आधार पर और आज Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और विज्ञान पढ़ा जाता है गणित के आधार पर। यह सही विज्ञान है । आचार शास्त्र भी गणित के आधार पर पढ़ाया जाता है। विनोबा कहा करते थे कि जैन दर्शन को 'अंक दर्शन' (गणित दर्शन) कहना चाहिए। जैन साहित्य का लगभग आधा भाग गणित से भरा पड़ा है। जैन आचार्यों ने गणित का बहुत उपयोग किया। गणितशास्त्र की दृष्टि से भी तत्त्व का विश्लेषण होना चाहिए । सत्यनिष्ठा गुडो हि कफहेतुः स्याद्, नागरं पित्तकारणम् । द्वयात्मनि न दोषोऽस्ति, गुडनागरभेषजे । । - गुड़ कफ पैदा करता है और सूंठ पित्त पैदा करती है। दोनों को मिलाने पर न कफ होता है और न पित्त । उनके मूल दोष मिट जाते हैं और तीसरा गुण पैदा हो जाता है। दोनों यदि अलग-अलग होंगे तो दोनों की दूरी बनी रहेगी । वे एक दृष्टि से दोषकारक ही होंगे, गुणकारक नहीं। दोनों का योग होने पर गुणवत्ता आ जाती है 1 चेतना दो प्रकार की है- सूक्ष्म चेतना और स्थूल चेतना । मनोविज्ञान की भाषा में सूक्ष्म चेतना को अवचेतन मन कहा जाता है और दर्शन की भाषा में वह सूक्ष्म चेतना है या कर्मशरीर के साथ काम करने वाली चेतना है । मनोविज्ञान के चेतन मन का अर्थ है स्थूल शरीर के साथ, मस्तिष्क के साथ काम करने वाली चेतना, स्थूल चेतना । दोनों के बीच दूरी है; इसे दूर करना जरूरी है । तभी सत्य प्रगट होगा । अन्यथा माया प्रगट होगी । सत्य का अर्थ है - नियम की खोज । सत्य का बोध है - नियम का बोध । सत्य का आचरण है- नियम का आचरण । सत्य की यह व्याख्या बहुत ही व्यावहारिक और व्यापक है । यथार्थ में सत्य का अर्थ है-नियम | ७७ I यह संसार नियमों से बंधा हुआ है। प्रत्येक वस्तु और मनुष्य नियम के आधार पर चल रहा है। नियम को वह जाने न जाने, यह दूसरी बात है, किन्तु नियम अपना काम कर रहा है। नियम एक नहीं है, हजारों-हजारों नियम हैं। अनेकान्त का सिद्धान्त नियमों को जानने का साधन है । अनेकान्त ने नियमों की व्याख्या की है, फिर चाहे वह वाणीगत नियम हो या वस्तुगत नियम हो । जो व्यक्ति नियमों को जानता है, वह सत्य को पकड़ लेता है । आज के Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जैन दर्शन और विज्ञान विज्ञान ने अनेक सूक्ष्म नियमों की खोज की है। वैज्ञानिक जगत् में यंत्रों का जितना निर्माण हुआ है, यह सारा नियमों के अवबोध के आधार पर हुआ है। वैज्ञानिक वह होता है, जिसमें नियम को पकड़ने की, समझने की क्षमता होती हो । नियम को बनाने वाला कोई नहीं होता। नियम अनादि है, यूनिवर्सल है। जो इन नियमों को पकड़ता है, वह होता है ऋषि, वह होता है मुनि और वह होता है वैज्ञानिक । मुनि और वैज्ञानिक—दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। मुनि का अर्थ है - ज्ञानी, नियमों का जानने वाला। मुनि शब्द 'मुणे ज्ञाने' धातु से निष्पन्न होता है । इसलिए मुनि का अर्थ ज्ञानी ही होना चाहिए। मुनि कहो या वैज्ञानिक कहो, कोई अन्तर नहीं पड़ता। मुनि होता है, जो नियमों को जानता है । वैज्ञानिक वह होता है, जो नियमों को जानता है । मुनि का अर्थ संयमी क्यों चल पड़ा, यह अन्वेषणीय है । संयम मुनि की क्रिया है, वह मुनि का अर्थ नहीं है । विज्ञान प्रत्येक नियम की खोज करता है । उसने प्रत्येक क्षेत्र के नियमों को जानने का प्रयास किया है । 1 आज के वैज्ञानिक ने अनेक सूक्ष्म नियमों की खोज की है। अपराधों को पकड़ने के लिए उन्होंने अनेक साधन अविष्कृत किए हैं। अपराधी को एक यंत्र के सामने खड़ा किया जाता है । अपराधी को, अपराध के विषय में पूछा जाता है । यदि वह झूठ बोलता है, तो यंत्र की (Lie detector ) की सुई घूमती है और भिन्न प्रकार का ग्राफ उभर आता है। यदि वह अपराध को स्वीकृति देता है तो भिन्न प्रकार का ग्राफ उभर आता है। यंत्र के माध्यम से यथार्थ जान लिया जाता है । इसका भी ठोस आधार है। यदि कोई व्यक्ति झूठ बोलता है, यथार्थ को छिपाता है तो उसके भीतर एक प्रकार की प्रक्रिया होती है, एक प्रकार के प्रकंपन होते हैं और जो सत्य बोलता है उसके भीतर भिन्न प्रकार की प्रक्रिया होती है, भिन्न प्रकार के प्रकंपन होते हैं । यंत्र का काम है प्रकंपनों को पकड़ना और उन्हें ग्राफ पर अंकित करना । उस अंकन के आधार पर निर्णय कर लिया जाता है कि अमुक अपराधी है और अमुक अपराधी नहीं है । अपराध की खोज केवल यंत्र ही नहीं, कुत्ते भी करते हैं । आज पुलिस अपराधियों को पकड़ने के लिए कुत्तों का उपयोग कर रही है और यह प्रमाणित हो चुका है कि कुत्ते इसमें शत-प्रतिशत सफल रहे हैं । कुत्ते को हत्या के स्थान पर या चोरी के स्थान पर ले जाया जाता है । कुत्ता वहां सूंघता है और उस गंध के आधार पर हजार मील पर जाकर भी अपराधी को पकड़ लेता है । आश्चर्य होता है कि कुत्ते को इतना ज्ञान कैसे हो जाता है ? हजार मील पर गये चोर को पकड़ पाना पुलिस के लिए भी कम संभव है तो भला कुत्ता उसे कैसे पकड़ लेता है I Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और विज्ञान ७९ इसका अर्थ यह होता है कि कुत्ता आदमी से अधिक ज्ञानी है। आश्चर्य होता है। पर नियम को समझ लेने पर इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। कुत्ते की घ्राणशक्ति बहुत तीव्र होती है। गंध के आधार पर वह अपराधी को पकड़ने में समर्थ हो जाता हैं। सत्य का अर्थ है-नियम-प्राकृतिक नियम और चेतना के नियम । वस्तु-जगत् के नियम, चेतना-जगत् के नियम-ये दो प्रकार के नियम हैं। वस्तु-जगत् के नियमों को जानना अस्तित्वादी सत्य है और चेतना-जगत् के नियमों को जानना उपयोगितावादी सत्य है, साधना का सत्य है। ___कर्मशास्त्र पूरा का पूरा नियमशास्त्र है। जो कर्म किया जाता है, वह अमुक-अमुक समय तक अपरिपाक, अनुदय की स्थिति में रहता है। उसे अबाधाकाल कहा जाता है। जब वह उदय में आता है तब फल देना प्रारम्भ करता है। इस प्रकार कर्म का शास्त्र चेतना के नियमों का शास्त्र है। ___ अनेक शारीरिक और मानसिक बीमारियां ऐसी होती हैं, जिनको डॉक्टर भी नहीं पकड़ पाते और यंत्र भी उन्हें नहीं पकड़ पाते। सब व्यर्थ हो जाते हैं। इसका कारण है कि वे बीमारियां शारीरिक नहीं, मानसिक नहीं किन्तु कर्म से निष्पादित हैं। इस तथ्य को आयुर्वेद के आचार्यों ने बहुत ही सूक्ष्मता से पकड़ा। उन्होंने कहा-बीमारी केवल शरीर के दोषों से ही नहीं होती। सारी बीमारियां वात, पित्त और कफ के दोषों से ही नहीं होती। बीमारी केवल बाहरी वातावरण से ही पैदा नहीं होती। बीमारी का एक कारण कर्म भी है। जो संस्कार किया है, वह भी बीमारी का कारण बनता है। जिस बीमारी का कारण कर्म होता है, वह बीमारी दवाइयों से ठीक नहीं होती। कोई भी वैद्य या डॉक्टर उसे नहीं मिटा सकता। उसकी सही दवाई है प्रायश्चित्त । यह सूक्ष्म चेतना का नियम है। आज सर्वत्र द्वन्द्व है। भीतर के प्रकंपन और प्रकार के हैं, बाहर भिन्न प्रकार का प्रदर्शन हो रहा है। भीतर और बाहर में जो दूरी है, वह मिटनी चाहिए। यह दूरी तब मिट सकती है, जब दृष्टिकोण परिष्कृत हो। एक प्रकार से यह सत्य गणित का सत्य है। आज के व्यावहारिक जगत् में गणित का सत्य सबसे बड़ा सत्य है। गणित में कोई भूल नहीं होती । ज्योतिष विज्ञान, गणित विज्ञान-ये सारे नियमों की व्याख्या करने वाले विज्ञान हैं। विज्ञान की बहत सारी बातें आश्चर्यजनक लगती हैं। एक रेशमी कपड़ा है। उस पर अंगारा रखा और उस अंगारे पर मूंगा रख दिया। अब वह अंगारा रेशमी कपड़े को कैसे नहीं जलाएगा? आश्चर्य उसी को होगा जो नियम को नहीं जानता। यह सामान्य बात है कि मूंगे में ताप-अवशोषण की क्षमता है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० जैन दर्शन और विज्ञान वह अंगारे के ताप का शोषण कर लेता है, कपड़ा जलता नहीं। प्राचीन काल में रत्न-कंबल बनते थे। उनकी धुलाई अग्नि से होती थी। वे अग्नि में नहीं जलते थे, क्योंकि उनमें ताप-अवशोषण की क्षमता होती है। ईंटें भी ऐसी होती हैं जिन पर अग्नि का कोई प्रभाव नहीं होता। नियमों को जान लेने पर आश्चर्य जैसा कुछ नहीं रहता। हम स्थूल चेतना के नियमों को जानें, सूक्ष्म चेतना के नियमों को जानें । इसका तात्पर्य है कि हम स्थूल शरीर के नियमों को जानें और कर्म-शरीर के नियमों को भी जानें। इन नियमों के ज्ञात होने पर ही सत्य की चेतना बहुत स्पष्ट हो जाती है। सत्य तब उपलब्ध होता है या भीतर और बाहर की दूरी तब मिटती है जब हम भीतर के विकारों का शोषण करना सीख जाते हैं। कोरा सत्य का ज्ञान, कोरा सत्य को बोध, कोरा सत्य का संगान करने से कुछ नहीं होता। प्राप्त होता है विकार या मोह के उपशमन से। भीतर के उपद्रव, विकार, बुराइयां और भीतर की बीमारियां जितनी कम होती जाएंगी, उतना ही जीवन में सत्य प्रज्वलित होता जाएगा। हमारे मस्तिष्क में अरबों-खरबों सेल्स हैं। सब अपना-अपना कार्य करते हैं। जिस व्यक्ति में सत्य का प्रकोष्ठ (सेल्स) जागृत हो जाता है, सक्रिय हो जाता है, उसमें गहरी सत्यनिष्ठा जाग जाती है। वह अपने नियम या प्रण से बंध जाता है। उसमें प्रामाणिकता आ जाती है। प्रामाणिकता भी नियम के कारण आती है। वह जाने-अनजाने अप्रामाणिक कार्य नहीं करता। यह सत्यनिष्ठा विकार-शमन से प्राप्त होती है। जब आन्तरिक दोष न्यून होते जाते हैं, तब ये सेल्स जागृत होते जाते हैं। किसी-किसी व्यक्ति की पवित्र आत्मा में सत्यनिष्ठा का प्रकोष्ठ जाग जाता है। जो साधना का जीवन जीते हैं, उन्हें इस सत्यनिष्ठा का अभ्यास ही नहीं, इसे जीवनगत करना जरूरी है। सत्य में बाधा डालने वाले विकारों और वासनाओं का अतिक्रमण करना आवश्यक है। यह होने पर ही सत्यनिष्ठा प्रज्वलित हो सकती है। अभ्यास १. धर्म एवं अध्यात्म जैसी प्राचीन विद्याओं का विज्ञान जैसी आधुनिक विद्या के साथ तुलना कहां तक सम्भव है? २. क्या विज्ञान ने धर्म का कोई उपकार किया है? ३. जैन आगमों के सुक्ष्म सत्यों को सरल भाषा में समझाएं तथा विज्ञान के सन्दर्भ में उनकी व्याख्या प्रस्तुत करें। ४. आधुनिक विज्ञान के सन्दर्भ में समुद्घात को समझाएं। ५. शरीर के सूक्ष्म रहस्यों पर वैज्ञानिक दृष्टि से प्रकाश डालें। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और विज्ञान ६. अध्यात्म-विज्ञान में शरीर के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कुंडलिनी का विवेचन करे। ७. प्राण-शक्ति की विद्युत् के चमत्कारों को विज्ञान के सन्दर्भ में प्रस्तुत करें। ८. आध्यात्मिकवैज्ञानिक व्यक्तित्व का क्या तात्पर्य है? निम्नलिखित विषयों की अध्यात्म और विज्ञान के सन्दर्भ में व्याख्या करें(क) मन की शांति (ख) संयम (ग) सत्यनिष्ठा Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. जैन दर्शन और परामनोविज्ञान (१) आत्मवाद एवं पुनर्जन्मवाद जैन दर्शन का दृष्टिकोण जैन दर्शन आत्मवादी कर्मवादी एवं पुनर्जन्मवादी दर्शन है। जैन दर्शन के अनुसार संसार का प्रत्येक प्राणी अपने आप में एक आत्मा है और कर्मों से बद्ध है, आवृत है। कर्म पुनर्जन्म का मूल कारण है। तत्त्व-मीमांसा की दृष्टि से आत्मा का अस्तित्व अनादिकालीन है, स्वतन्त्र है, वास्तविक है और एक द्रव्य या वस्तु के रूप में है। आत्मा या जीव अस्तिकाय है। प्रत्येक आत्मा असंख्य “प्रदेश" का पिण्ड है। प्रदेश यानी अविभाज्य अंश- जिसके दो विभाग न हो सके। जैसे पुद्गल द्रव्य परमाणुओं के संघात से बनता है, वैसे जीव असंख्य प्रदेशों के संघात से नहीं बनता; किन्तु आत्मा के असंख्य प्रदेश सदा संघात रूप में रहते हैं, कभी पृथक नहीं होते। जितने स्थान का अवगाहन एक परमाणु करता है, उतने ही स्थान का अवगाहन एक प्रदेश करता है। आत्मा सावयवी या सप्रदेशी होते हुए भी ये आत्मा से कभी अलग नहीं होते, कभी टूटते नहीं। प्रत्येक आत्म-प्रदेश के साथ कर्म-पुद्गलों का संयोग होता है और कर्म के द्वारा उत्पन्न प्रभाव से आत्मा एक जन्म से दूसरे जन्म में गमन करती रहती है। कर्म अपने आप में जड़ है, फिर भी आत्मा के साथ बद्ध होने से उनमें आत्मा को प्रभावित करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। कर्म को हम "चैतसिक-भौतिक बल" (Psycho-physical force) के रूप में मान सकते हैं। यही बल आत्मा को पुनर्जन्म लेने के लिए बाध्य करता है। अनादिकाल से प्रत्येक जीव (आत्मा) जन्म-मृत्यु की श्रृंखला से गुजरता हुआ अपना अस्तित्व बनाए रखता है। यही जैन दर्शन का आत्मवाद और पुनर्जन्मवाद का सिद्धांत है। अध्यात्मवाद बनाम भौतिकवाद आस्तिक या अध्यात्मवादी एवं नास्तिक या भौतिकवादी दर्शन पुनर्जन्म के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत करते हैं। सभी अस्तित्ववादी या आस्तिक दर्शन आत्मा को चैतन्यशील, जड़ पदार्थ से सर्वथा स्वतंत्र एवं अनश्वर अर्थात् मृत्यु के पश्चात् भी अपने अस्तित्व को बनाए रखने वाला, स्वीकार करते हैं, जबकि भौतिकवादी या नास्तिक दर्शन आत्मा की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार नहीं करते तथा मृत्यु के पश्चात् उसके अस्तित्व को अस्वीकार करते हैं। न्यायशास्त्र एक दर्शनशास्त्र के ग्रन्थों में इन Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान दोनों मतों के प्रतिपादकों के पारस्परिक वाद-विवाद की विस्तृत चर्चाएं उपलब्ध होती हैं। ये चर्चाएं तर्क, अनुमान आदि प्रमाण के आधार पर की गई हैं। दोनों पक्षों की ओर से अपने-अपने मत को स्थापित कर विपक्ष को खण्डित करने की चेष्टा की गई है। पुनर्जन्म की अवहेलना करने वाले व्यक्तियों की प्राय: दो प्रधान शंकाएं सामने आती हैं : १. यदि हमारा पूर्वभव होता, तो हम उसकी कुछ-न-कुछ स्मृतियां होतीं। २. यदि दूसरा जन्म होता, तो आत्मा की गति एवं आगति हम क्यों नहीं देख पाते? पहली शंका का हम बाल्य-जीवन की तुलना से ही समाधान कर सकते हैं। बचपन की घटनावलियां हमें स्मरण नहीं आतीं, तो क्या इसका अर्थ होगा कि हमारी शैशव-अवस्था हुई नहीं थी? एक-दो वर्ष के नव-शैशव की घटनाएं स्मरण नहीं होतीं, तो भी अपने बचपन में किसी को संदेह नहीं होता। वर्तमान जीवन की यह बात है, तब फिर पूर्वजन्म को हम इस युक्ति से कैसे हवा में उड़ा सकते हैं? पूर्वजन्म की भी स्मृति हो सकती है, यदि उतनी शक्ति जाग्रत हो जाए। जिसे 'जाति-स्मृति ज्ञान' (पूर्वजन्म-स्मरण) हो जाता है वह अनेक जन्मों की घटनाओं का साक्षात्कार कर सकता है। दूसरी शंका एक प्रकार से नहीं के समान है। आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता है। उसके दो कारण है : १. वह अमूर्त है; इसलिए दृष्टिगोचर नहीं होता। २. वह सूक्ष्म है; इसलिए शरीर में प्रवेश करता हुआ या निकलता हुआ उपलब्ध नहीं होता। नहीं दीखने मात्र से किसी वस्तु का अभाव नहीं होता। सूर्य के प्रकाश में नक्षत्र-गुण नहीं देखा जाता। इससे इसका अभाव थोड़े ही माना जा सकता है? अंधकार में कुछ नहीं दीखता, क्या यह मान लिया जाए कि यहां कुछ भी नहीं है? ज्ञान-शक्ति की एकदेशीयता से किसी भी सत्-पदार्थ का अस्तित्व स्वीकार न करना उचित नहीं होता। अब हमें पुनर्जन्म की सामान्य स्थिति पर भी कुछ दृष्टिपात कर लेना चाहिए। दुनिया में कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है, जो अत्यन्त असत् से सत् बन जाए-जिसका कोई भी अस्त्तिव नहीं, वह अपना अस्तित्व बना ले । अभाव से भाव एवं भाव से अभाव नहीं होता, तब फिर जन्म और मृत्यु, नाश और उत्पाद, यह क्या है? परिवर्तन । प्रत्येक पदार्थ में परिवर्तन होता है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ जैन दर्शन और विज्ञान परिवर्तन से पदार्थ एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था में चला जाता है, किन्तु न तो यह सर्वथा नष्ट होता है और न सर्वथा उत्पन्न भी। दूसरे-दूसरे पदार्थों में भी परिवर्तन होता है, वह हमारे सामने है। प्राणियों में भी परिवर्तन होता है। वे जन्मते हैं, मरते हैं। जन्म का अर्थ अत्यन्त नयी वस्तु की उत्पत्ति नहीं और मृत्यु से जीव का उत्यन्त उच्छेद नहीं होता। केवल वैसा ही परिर्वतन है, जैसे यात्री एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान में चले जाते हैं। यह एक ध्रुव सत्य है कि सत्ता से असत्ता एवं असत्ता से सत्ता कभी नहीं होती। परिवर्तन को जोड़ने वाली कड़ी आत्मा है। वह अन्वयी है। पूर्वजन्म और उत्तर-जन्म दोनों उसकी अवस्थाएं हैं। वह दोनों में एकरूप रहती है। अतएव अतीत और भविष्य की घटनावलियो की श्रृंखला जुड़ती है। शरीरशास्त्र के अनुसार सात वर्ष के बाद शरीर के पूर्व परमाणु च्युत हो जाते हैं, सब अवयव नये बन जाते हैं। इसका सर्वांगीण परिवर्तन में आत्मा का लोप नहीं होता। तब फिर मृत्यु के बाद उसका अस्तित्व कैसे मिट जाएगा? जाति-स्मृति ज्ञान जैन दर्शन की ज्ञान-मीमांसा में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान-ये दोनों इन्द्रिय-ज्ञान के भेद हैं। जाति-स्मृति का अर्थ है-पूर्वजन्म की स्मृति। पूर्वजन्म की स्मृति (जाति-स्मृति) 'मति ज्ञान' का ही एक विशेष प्रकार है। इससे पिछले अनेक समनस्क जीवनों की घटनावालियां जानी जा सकती हैं। पूर्वजन्म में घटित घटना के समान घटना घटने पर वह पूर्वपरिचित-सी लगती है। ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करने से चित्त की एकाग्रता और शुद्धि होने पर पूर्वजन्म की स्मृति उत्पन्न होती है। सब समनस्क जीवों को पूर्वजन्म की स्मृति नहीं होती, इसकी कारण-मीमांसा करते हुए आचार्य ने लिखा है “जायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स वा पुणो। तेण दुक्खेण संमूढो, जाई सरइ न अप्पणो।।" -व्यक्ति 'मृत्यु' और 'जन्म' की वेदना से सम्मूढ हो जाता है; इसलिए साधारणतया उसे जाति की स्मृति नहीं होती। एक ही जीवन में दुःख-व्यग्रदता (सम्मोह-दशा) में स्मृति-भ्रंश हो जाता है, तब वैसी स्थिति में पूर्वजन्म की स्मृति लुप्त हो जाए, उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। पूर्वजन्म की स्मृति-साधन मस्तिष्क आदि नहीं होते, फिर भी आत्मा के दृढ-संस्कार और ज्ञान-बल से उसकी स्मृति हो आती है। इसलिए ज्ञान दो प्रकार का बतलाया है-इस जन्म का ज्ञान और अगले जन्म का ज्ञान । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान ८५ जाति-स्मरण ज्ञान की अगणित घटनाएं जैन साहित्य में उपलब्ध है । इसमें विशेषतः मेघकुमार (जो मगध- नरेश श्रेणिक बिम्बिसार का पुत्र था) को भगवान महावीर द्वारा जाति - स्मरण ज्ञान कराने की घटना उल्लेखनीय है । मेघकुमार को अपने पिछले जन्म में हाथी के जन्म की स्मृति हुई। उससे प्रेरित हो मेघकुमार प्रतिबुद्ध हुए । ' विभिन्न धर्म-दर्शनों में पुनर्जन्मवाद प्रागैतिहासिक मानव सम्बन्धी खोजों से ज्ञात हुआ है कि आज से लगभग पचास हजार वर्ष पूर्व भी निअडंरथाल- मानव के मस्तिष्क में आत्मा की अमरता के बारे में कुछ अस्पष्ट से विचार अवश्य थे। मृतक को आदर पूर्वक खाने-पीने की अनेकानेक वस्तुओं सहित दफनाया जाता था । कुछ पाश्चात्य विद्वानों जैसे - वेबर, मैकडोनल व विंटरनिट्स आदि का मत है कि जन्म-जन्मांतर का ॠग्वेद में कहीं उल्लेख नहीं किया गया है व इस विचार का प्रवेश हिंदू-धर्म दर्शन में परवर्ती युग में हुआ है । किन्तु ऋग्वेद के अधिक गहन अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि आत्मा की अमरता व जन्मांतर आदि के बारे में मंत्रभाग में बीज रूप में जो विचार हैं वे ही ब्राह्मण आरण्यक व उपनिषदों में जाकर विकसित रूप में प्रस्फुटित हुए हैं। पुराणों, स्मृतियों, रामायण व महाभारत आदि ग्रंथों में तो पुनर्जन्म-संबंधी अनेकानेक विस्तृत उल्लेख मिलते ही हैं । बौद्ध धर्म में भी पुनर्जन्म के विषय में 'जातक' साहित्य उपलब्ध है । विश्व के अन्य दो प्रमुख धर्मों - ईसाई व इस्लाम के अनुयायी प्राय: पुनर्जन्म में आस्था नहीं रखते, किंतु यह उल्लेखनीय है कि बाइबिल व कुरान आदि ग्रन्थों में पुनर्जन्म-समर्थक विचारों की ओर अनेक आधुनिक विद्वानों ने ध्यान आकर्षित करते हुए यह दर्शाने का प्रयत्न किया है कि वास्तव में ये धर्म भी पुनर्जन्म के विचार के विरोधी नहीं है । अपनी एक पुस्तिका 'टू केस फार रिइंकारनेशन' में लेखक श्री लेस्ली डी वेदरहेड ने ईसाई मत के सन्दर्भ में इसी बात के स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ईसा ने यद्यपि पुनर्जन्म का प्रत्यक्ष रूप से प्रतिपादन नहीं किया है, किन्तु साथ ही उन्होंने कभी इसका विरोध भी नहीं किया । वस्तुतः उनके समय में यहूदी धर्म में यह विचारधारा पहले से ही प्रचलित थी । प्राचीन चर्च पुनर्जन्म का समर्थक था - ईसा से ५५३ वर्ष बाद 'कांस्टनटिपोल' की सभा के बाद ही २ के विरोध में ३ मतों से १. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, अध्ययन १ युवाचार्य महाप्रज्ञ कृत सम्बोधि । २. वैदरहेढ, लेस्ली डी०, द् केस फॉर रीइंकारनेशन', बेलमॉन्ट, १९६३ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ जैन दर्शन और विज्ञान इसको अस्वीकार किया गया। ओरिजेन, संत आगस्तीन व असीसी के संत फ्रान्सिस ने फिर भी अपने ग्रंथो में इस विचार का समर्थन ही किया है। इसी तरह, कुरान की निम्न आयों में भी पुनर्जन्म के विचार का समर्थन देखा गया है: “क्यों कुफ करते हो साथ अल्लाह के और थे तुम। मुर्दे पस जिलाया तुमको, फिर मुर्दा करेगा तुमको, फिर जिलाएगा तुमको, फिर उसके फिर जाओगे।" (सू. रू. ३, आयत ७) “अल्लाह वह है जिसने पैदा किया तुमाको, रिज्क दिया तुमको फिर जिलायेगा तुमको।" (सू. ३०, रू. ४ आयत १३) श्री ई. डी. वाकर ने अपनी पुस्तक 'रिइंकारनेशन' में लिखा है, "अरब दार्शनिकों का यह एक प्रिय सिद्धांत था और अनेक मुसलमान लेखकों की पुस्तकों में इसका उल्लेख अभी भी देखा जा सकता है।''२ प्राचीन यूनानी विचारक-विद्वान पाइथागोरस, सुकरात, प्लेटो, प्लूटार्क, प्लाटीनस आदि के विचारों में भी हमें "पुर्नजन्म की आस्था की स्पष्ट झलक मिलती है। पाश्चात्य विद्वानों ने पुनर्जन्म के लिए रिबर्थ, मैटमसाइकोसिस, ट्रांसमाइग्रेशन, पोलिजेनिसिस व रिएम्बाडीमेंट आदि विभिन्न शब्दों का कभी-कभी एक ही-कभी कुछ भिन्न-से अर्थों में प्रयोग किया है। पुनर्जन्म में विश्वास प्रकट करने वाले अन्य अनेक दार्शनिकों, लेखकों व कवियों मे स्पिनोजा, रूसो, शैनिंग, इमर्सन, ड्राडडन, वर्ड्सवर्थ, शैली व बाऊनिंग आदि की गणना की जा सकती है। जोसेफहीड व केंसटन ने सवा तीन सौ पृष्ठ की एक पुस्तक रिइंकारनेशन' में विश्व के विभिन्न धर्मों में व्याप्त दार्शनिकों, कवियों व वैज्ञानिकों आदि के पुनर्जन्म संबंधी विचारों का संकलन प्रस्तुत किया है। वस्तुत: इतिहास के प्रत्येक युग में विश्व-भर के सभी दर्शनों-धर्मों में व जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में शीर्षस्थ स्थान रखने वाले व्यक्तियों के विचारों में पुनर्जन्म को महत्त्व दिया गया है। तार्किक आधारों पर खण्डन-मण्डन का क्रम प्राचीन काल में ही नहीं, आधुनिक दार्शनिकों में भी चला है। आधुनिक पाश्चात्य दार्शनिक डॉ. मेकटेगार्ट जहां पुनर्जन्म के पक्षधर हैं, वहां पिंगल-पेटिसन आदि उनके विपक्षी हैं। डॉ. टी. जी. १. वैदरहेड, लेस्ली डी०, द् केस फॉर रीइंकारनेशन, बेलमॉन्ट, १९६३, पृ. ४ । २. वॉकर ई० डी०, रीइंकारनेशन-ए स्टडी ऑव फॉरगैटन टुथ', युनिवर्सिटी बुक्स, न्यूयार्क, १९६५ । ३. हैड जॉसेफ. व क्रेन्सटन, एस. एल., 'रीइंकारनेशन-एन ईस्ट-वेस्ट एन्थोलॉजी द् जूलियन प्रेस, न्यूयार्क, १९६१ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान ८७ कलघटगी ने तो इसके तार्किक प्रामाण्य को असंभव और अनपेक्षित माना है। उनके अनुसार यह विशिष्ट द्रष्टाओं के परम ज्ञान और अनुभूति के द्वारा व्यक्ति सिद्धांत है। पर डॉ. मेकटेगार्ट ने पुनर्जन्म की वास्तविकता को तार्किक आधारों पर प्रमाणित करने की चेष्टा की है। उनके अनुसार यदि यह सिद्ध हो जाता है कि वर्तमान जीवन के पूर्व और पश्चात् भी जीवन है, तो पूर्वजन्म के साथ अनश्वरता का सिद्धांत भी अपने आप सिद्ध हो जाता है। पुनर्जन्म के विपक्षियों द्वारा सबसे प्रबल तर्क यही दिया गया है कि पूर्वजन्म की कोई स्मृति हमें नही है। पिंगल-पेटिसन ने डॉ. मेकटेगार्ट की इस मान्यता को कि-"आत्मा एक शाश्वत द्रव्य है जिसमें त्रैकालिक अस्तित्व सदा अमर बना रहता है,'' समर्थ तर्काधारित मानने से इसलिए इनकार किया है कि पूर्वजन्म की स्मृति के अभाव में आत्मा की सततता की अतुभूति नहीं होती। यदि पूर्वजन्म की स्मृति वास्तविक तथ्य के रूप में प्रमाणित हो जाती है, तो र्जिन्म का सिद्धांत स्वत: सिद्ध हो जाता है। डॉ. कलघटगी ने पूर्वजन्म की स्मृति के प्रमाण को पुनर्जन्म की मान्यता को सिद्ध करने के लिए यथार्थ माना है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि पूर्वजन्म स्मृति वास्तविक अस्तित्ववादी (आस्तिक) दर्शन के लिए एक ऐसा सबल एवं प्रत्यक्ष प्रमाण बन जाता है जिसके लिए फिर तर्क या अनुमान की आवश्यकता नहीं रह जाती। वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करने पर 'पुनर्जन्मवाद' का प्रामाण्य दो बातों, पर आधारित हो जाता है (१) पूर्वजन्म-स्मृति की घटनाएं वास्तविक हैं या नहीं, इसे प्रमाणित करना। (२) यदि ये घटनाएं वस्तुत: ही घटित हैं, तो इन घटनाओं की व्याख्या करने में पुनर्जन्मवाद की परिकल्पना ही केवल सक्षम है, इसे प्रमाणित करना। यदि इन दोनों बातों को सिद्ध कर दिया जाता है, तो आत्मा का स्वतंत्र एवं शाश्वत अस्तित्व एक वैज्ञानिक तथ्य के रूप में स्थित हो जाता है। परामनोविज्ञान पुनर्जन्म के विषय में वैज्ञानिक अनुसंधान का कार्य परामनोविज्ञान के क्षेत्र में किया गया है। इससे पूर्व कि परामनोविज्ञान के क्षेत्र में इस सम्बन्ध में क्या कार्य हुआ उसकी चर्चा करें, हम परामनोविज्ञान के इतिहास के विषय में पहले संक्षिप्त चर्चा कर लें ताकि वैज्ञानिक क्षेत्र में पुनर्जन्म, अतीन्द्रिय ज्ञान अतीन्द्रिय शक्ति आदि परासामान्य विषयों के अनुसंधान के क्रमिक विकास से हम परिचित हो सकें। परासामान्य घटनाओं के वैज्ञानिक अनुसंधान का प्रारम्भ "प्रजात्मा या "भूतावेश'' सम्बन्धी घटनाओं के अध्ययन से होता है । सन् १९५७ में The Book of the Spirits का प्रकाशन हुआ। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान प्रेतात्माओं के अस्तित्व, उनसे वार्तालाप करने की संभावना आदि आस्थाओं के आधार पर अनेक नैतिक मान्यताओं व आचारों का प्रतिपादन करते हुए एक नये आंदोलन - प्रतिकवाद (स्पिरिच्युअलिज्म) का प्रादुर्भाव हुआ और शनै: शनै: इसके अनुयायियों की संख्या बढ़ती गई । प्रेतत्व संबंधी प्रघटनाओं के विस्तार, प्रभाव व उनके प्रति जागृत अभिरुचियों ने अनेक दार्शनिकों, विद्वानों व वैज्ञानिकों को झकझोर डाला । इन सभी घटनाओं के पीछे वास्तव में सत्य क्या है व उसे कैसे जाना जा सकता है? क्या कोई ऐसा प्रयास किया जा सकता है जिसके परिणामस्वरूप इन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के विवाद - रहित, सुनिश्चित उत्तर सर्व - सुलभ हो सकें? ८८ लगभग इसी समय विद्वानों, विचारकों व वैज्ञानिकों को कुछ अन्य मिलतीजुलती सी घटनाओं की अव्याख्येयता की चुनौती का सामना करना पड़ रहा था । इन प्रघटनाओं का सम्बन्ध मूलतः मन की एक विशिष्ट अवस्था से था जिसे आज 'सम्मोहन' (हिप्नोटिज्म) कहा जाता है । वैसे तो १७७९ में मैस्मर द्वारा रोगियों के उपचार के लिए इस पर आधारित एक नई पद्धति का आविष्कार कर लिया गया था । उसके अनुसार “ब्राह्मण्डीय मण्डल, पृथ्वी व जीवित प्राणी परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं ।" यह प्रभाव एक सर्वव्यापी द्रव के माध्यम से पड़ता है। यह द्रव मनुष्य के शरीर में स्नायु तत्त्वों द्वारा प्रसारित रहता है जो मनुष्य के शरीर को चुम्बकीय विशेषताएं प्रदान करता है । मैस्मर का विचार था कि यदि इस द्रव को निश्चित प्रकार से निर्दिष्ट किया जाए, तो उससे सभी प्रकार के रोगियों का उपचार संभव है । इस समय मैस्मर के उपचार की धूम मची हुई थी। पर इस बात पर विवाद उत्पन्न हो गया कि उपचारों की प्रभावोत्पादकता किसी जैविक चुम्बकत्व (एनीमल मैगनेटिज्म) के कारण है अथवा मानसिक कल्पनाशक्ति के कारण । दोनों मतों के बीच विवाद आज तक पूर्णत: सुलझा नहीं है। मैस्मर के रोगी यद्यपि हिस्टीरिया के लक्षण यथा, संज्ञाशून्यता, ऐंठन व अतिउत्साह आदि प्रदर्शित करते रहे थे, लेकिन उनमें अभी तक कोई परासामान्य लक्षण नहीं उभरा था। १८७४ के करीब मैस्मर का एक शिष्य मारक्विस डी. प्यूसेगर एक बार कुछ किसानों का उपचार कर रहा था । उपचार के दौरान उसने देखा कि उसका एक २३ वर्षीय किसान एक विचित्र प्रकार की निद्रा में लीन होकर हंसने, बोलने व अन्य दैनन्दिनी क्रियाओं को पूर्व की अपेक्षा और भी अधिक बुद्धिमत्ता से सम्पन्न करने लगा है। और, सबसे विचित्र बात तो यह थी कि उसने स्वयं ही अपने रोग का पूरा विवरण और उपचार बताया। धीरे-धीरे अन्य रोगी Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान ८९ रोगी भी ऐसा करने लगे । अब वे स्वयं अपने चिकित्सक ही नहीं हो गये, वे उपचारकर्ता के विचारों को भी पढ़ने लगे । छुपाई हुई वस्तुओं को ढूंढ निकालने लगे- यहां तक कि सही-सही भविष्यवाणियां भी करने लगे । अन्य कई और व्यक्ति प्यूसेगर की विधि से रोगियों को इसी तरह की स्थिति में, जिसे बाद में 'सोमनाम्ब्यूल्ज्मि' (निद्राचार ) कहा गया, लाने लगे। एक व्यक्ति ने इस अवस्था में पेट से सुनने व अंगुलियों के पोरों से देखने की शक्ति प्रदर्शित की। जागृत 'सोमनाम्ब्यूलिज्म' की खोज बड़ी आकर्षक रही शीघ्र ही स्थान-स्थान पर इस तरह के प्रयोग किये जाने लगे । कुछ चिकित्सों ने ‘चुम्बकीय-निद्रा' के दौरान रोगियों पर वेदनारहित शल्य- चिकित्सा भी की । आज तो यह आम बात है किन्तु उस समय इन बातों से वैज्ञानिक क्षेत्रों में बड़ी उथल-पुथल हुई। १८४९ के लगभग मैनचेस्टर के एक डॉ. जेम्स ब्रेड ने बहुतत-प्रयोग करके यह विचार रखा कि मैगनेटिज्म, सोमनाम्ब्यूलिज्म व सुझाव - ग्रहण - शीलता तीनों में मन की एक समान विशिष्ट अवस्था विद्यमान रहती है । ब्रेड ने ही सर्वप्रथम 'हिप्नोटिज्म' शब्द का प्रयोग प्रारम्भ किया । उनीसवीं शताब्दी की ही तीसरी प्रमुख विचारात्मक शक्ति जिसे हम 'परासामान्य' के अध्ययन की मुख्य प्रेरक शक्तियों में से एक मान सकते हैं वह है भौतिक विद्वानों द्वारा विकसित विश्व-संदर्भ (वर्ल्ड परस्पेक्टिव) । न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त व गति के तीन नियमों के आधार पर भौतिक शास्त्रियों व गणितज्ञों को शीघ्र ही यह लगने लगा कि सृष्टि का हर रहस्य उन्होंने उद्घाटित कर लिया है । सम्पूर्ण सृष्टि एक विशाल यन्त्र या मशीन की भांति है। उसके मूल तत्त्व हैं छोटे-छोटे अणु, विलियर्ड गेंद की भांति एकदम ठोस । ये अणु एक सर्वव्यापी ईथर में चक्राकार गति से घूमते रहते हैं । अणुओं की सभी गतियां पूर्णत: कार्य कारण के नियमों से नियमित रहती हैं। भौतिक- गणितीय संदर्भ में कुछ भी विसंगत, अव्यक्त, अव्यवस्थित या अतार्किक नहीं था । जगत् में सभी कुछ व्याख्येय था । प्रकृति के सभी नियम स्पष्ट व अटूट हैं। सभी कुछ एन्द्रियानुभविक (इम्पीरिकल ) था । बिना इन्द्रियों के किसी अन्य भविष्यबोध आदि की बातें केवल मूर्खतापूर्ण बकवास ही हो सकती थीं। परासामान्य को विज्ञान के क्षेत्र में कोई स्थान नहीं था । इस तरह उन्नीसवीं शताब्दी तक विज्ञान के विविध अन्वेषकों ने यह लगभग सिद्ध ही कर दिया था कि सारी सृष्टि सम्पूर्ण प्रकृति मात्र कुछ भौतिक शक्तियों की ही एक व्यवस्था है । अस्तु, एक ओर प्रैतिकवाद के उदय के साथ ही आत्मा, प्रेतात्मा, अतिजीवन, मृतात्मा - आवाहन व उनसे संदेश - प्राप्ति आदि से संबंधित घटनाओं की बाढ़ और उसके साथ-ही-साथ जैविक चुम्बकत्व, सम्मोहन, सुझावग्रहणशीलता Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० जैन दर्शन और विज्ञान आदि के प्रयोग में अभिव्यक्त अतीन्द्रिय बोध के लगभग अकाट्य प्रमाणों का अभ्युदय, इन दोनों का विज्ञान की भौतिकवादी मूल स्थापनाओं से सीधा टकराव: परिणाम-स्वरूप जगह-जगह संवेदनशील विचारकों को यह सोचने को बाध्य होना कि यथार्थ को निश्चित रूप से कैसे जाना जाए। मान्यताओं में विवाद चाहे जितना भीषण रहा हो, इस बारे में अब लगभग मतैक्य था कि विवाद का निपटारा किस मार्ग से संभव है। यह मार्ग है-प्राक्कल्पनाओं (हाइपोथीसिस), प्रेक्षणों (आवजर्वेशन) व प्रयोगों (एक्सपेरीमेन्ट्स) का यानी विज्ञान का। परिणामस्वरूप हुआ-एक नवीन विज्ञान का उद्भव-सभी प्रकार की परासामान्य प्रघटनाओं का पूर्वाग्रह-मुक्त दृष्टि से वैज्ञानिक विधियों द्वारा अध्ययन करने वाले विज्ञान-परामनोविज्ञान का। - १९३४ में ही कुछ ऐसे प्रयोग किए गए, जिनसे कि 'मन:प्रभाव' (साइकोकाइनेसिस) यानी मन द्वारा पदार्थ को प्रमाणित करने की क्षमता की जांच की जा सके। अनेक वर्षों तक किए गए प्रयोगों के आधार पर यह भी लगभग सिद्ध कर दिया गया कि व्यक्तियों में मन:प्रभाव की शक्ति भी होती है। १९४८ में जब डॉ. राइन ने रिच आफ द् माइंड' नामक पुस्तक प्रकाशित की तब तक परामनोविज्ञान स्पष्टत: एक विज्ञान के रूप में उभर कर आने लगा था। इसका अपना ही एक विशिष्ट अध्ययन क्षेत्र उभरा जिस पर अन्य किसी विज्ञान का दावा नहीं था। इस क्षेत्र की स्पष्ट सीमाएं भी थीं और इसकी अध्ययन-वस्तु को वर्गीकृत भी किया जा सकता था। विभिन्न प्रकार की वर्गीकृत श्रेणियों के अध्ययन हेत उपयुक्त पद्धति-विज्ञान (मेथडोलॉजी) भी विकसित कर लिया गया है। १९३२ में डॉ. राइन ने ड्यूक विश्वविद्यालय से अलग एक प्रतिष्ठान की स्थापना करके उसके तत्वावधान में कार्य करना प्रारम्भ किया। इस प्रतिष्ठान को नाम दिया गया फाउंडेशन फॉर रिसर्च इन्टू द् नेचर ऑव मैन'। इस शताब्दी के छठे दशक में अमेरिका में व्यावसायिक परामनावैज्ञानिक शोधकर्ताओं के एक संगठन 'पैरासाइकोलॉजीशन एसोसिएशन' की स्थापना की गई। इस संगठन के तीन बार यह प्रयत्न किया कि अमेरिका में विज्ञान की सबसे बड़ी संस्था 'अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द् एडवान्समेंट ऑव साइंस' द्वारा परामनोविज्ञान को एक विज्ञान के रूप में मान्यता प्रदान की जाए, लेकिन इस दावे को सदा अस्वीकार किया गया। १९६९ में पैरासाइकोलॉजिकल एसोसिएशन ने मान्यता प्राप्ति हेतु पुन: प्रयत्न किया। अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एउवांसमेंट ऑव साइंस जो अमेरिका का सर्वोच्च वैज्ञानिक प्रतिष्ठान है के द्वारा परामनोविज्ञान को मान्यता मिल गई । आज विश्व के लगभग सभी देशों में सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान परामनोवैज्ञानिक शोध-कार्य किया जा रहा है। पुनर्जन्म पर परामनोविज्ञान में अनुसन्धान : इतिहास पिछली शताब्दी के अन्तिम दशक में भी श्री फील्डिंग हाल ने उनके द्वारा बर्मा में अध्ययन किये गये ६ पुनर्जन्म वृत्तांतो को प्रकाशित किया था, किन्तु गंभीर एवं व्यवस्थित ढंग से पुनर्जन्म की साक्षियों की जांच प्रारम्भ करने का श्रेय भारत के रायबहादुर श्यामसुंदरलाल को, जो कि किशनगढ़ (राजस्थान) के दीवान रहे, दिया जा सकता है। सन् १९२२-२३ में आपने अपने एक साथी श्री रामगोपाल मिश्र के सहयोग से पुनर्जनम के वृत्तान्तों की खोजबीन हेतु एक ‘फार्मर लाइफ रिसर्च एसोसिएशन' का गठन किया। ___पाश्चात्य देशे में भी यदा-कदा उभर आने वाली पूर्वजन्म की स्मृतियों के वृत्तांतों की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट होने लगा। श्री गेब्रियल डिलेनी ने १९२४ में अपने परिचित व स्वयं के अध्ययन किये हुए कुछ पुनर्जन्म की स्मृत्तियों के वृत्तांत एक पुस्तक में प्रकाशित किये। कुछ वर्ष पश्चात् एक अन्य विद्वान श्री रॉल्फ शिर्ले ने कुछ डिलेनी द्वारा वर्णित व कुछ स्वयं अध्ययन किये हुए पूर्वजन्म की स्मृतियों के विवरण द् प्राब्लम आफ रिबर्थ' नामक पुस्तक में प्रकाशित किये। भारत में केकयी नन्दन सहाय, एस. सी. बोस, हेमेन्द्र नाथ बनर्जी, कीर्ति स्वरूप रावत आदि द्वारा इस दिशा में विशेष प्रयत्न किए गए। सौभाग्य से पिछले १५ वर्षों से इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया है। विश्व के वैज्ञानिकों का ध्यान काफी अर्से से इन घटनाओं की ओर खींच चुका था। विश्व में अनेक स्थानों पर परामनोविज्ञान के क्षेत्र में वैज्ञानिक पद्धति से शोध कार्य करने के लिए जो शोध-संस्थान स्थापित हुए हैं, उनमें इन पूर्व-जन्म-स्मृति घटनाओं का वैज्ञानिक रूप से अध्ययन किया जा रहा है। पैंसिलवेनिया विश्वविद्यालय, क्लार्क विश्वविद्यालय (बोरसेस्टर मेसेच्यूसट्स), स्टेण्डफोर्ड विश्वविद्यालय, हारवार्ड विश्वविद्यालय, ड्यूक विश्वविद्यालय, लिंडन विश्वविद्यालय, उट्रेस्ट विश्वविद्यालय (हॉलेण्ड), केम्ब्रीज विश्वविद्यालय, फ्राईबर्ग विश्वविद्यालय (प० जर्मनी), पिट्सवर्ग विश्वविद्यालय, सेंट लोसेफ्ज कॉलेज (फिलाडेलफिया), वेलेण्ड कॉलेज (प्लेन्व्यू, टैक्सास), नेशनल लिटोरल विश्वविद्यालय (रोजादियो आर्जेन्टीना), लेनिनग्राड स्टेट विश्वविद्यालय (यू. एस. एस. आर.) किंग्स कॉलेज विश्वविद्यालय (हलिफैक्स) तथा विर्जिनिया विश्वविद्यालय के अन्तर्गत के बीसों चोटी के वैज्ञानिक, मनश्चिकित्सक एवं मनोविज्ञानविद् परामनोविज्ञान के क्षेत्र में शुद्ध वैज्ञानिक दृष्टि से कार्य कर रहे हैं। पूर्व-जन्म-स्मृति या ऐसी अन्य परा-सामान्य घटनाओं का सर्वेक्षण सत्यता की जांच, तथ्यों का विश्लेषण संबंधित शाक्षियों का परीक्षण आदि का निष्पक्ष एवं Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ वस्तु - सापेक्ष (ऑब्जेक्टिव) अध्ययन किया जा रहा है । उदाहरणस्वरूप हम विर्जिनिया विश्वविद्यालय के अन्तर्गत चल रहे कार्य की चर्चा यहां कर रहे हैं। विर्जिनिया विश्वविद्यालय के अन्तर्गत "स्कूल ऑफ मेडिसिन' में सायक्याट्री विभाग का " परामनोविज्ञान संभाग " व्यवस्थित रूप से इस शोध कार्य में लगा हुआ है। डॉ. ईयान स्टीवनसन, एम. डी. स्वयं एक सुप्रसिद्ध मनश्चिकित्सक हैं, तथा "कार्लसन प्रोफेसर ऑफ सायक्याट्री" के रूप में विभाग का निदेशन कर रहे हैं। डॉ. स्टीवनसन एवं उनके निदेशन में शोधरत दल विश्व के विभिन्न देशों में घटित पूर्व-जन्म-‍ -स्मृति की घटनाओं के सर्वांगीण अध्ययन एवं शोध मे संलग्न हैं । भारत के अतिरिक्त सिलोन, बर्मा, थाईलैण्ड, लेबनान, ब्राजील, अलास्का आदि देशों से उक्त प्रकार की घटनाओं की जानकारी उन्हें प्राप्त हुई हैं तथा इस सिलसिले में अनेक बार इन देशों की यात्राएं की हैं। डॉ. स्टीवनसन मनोविज्ञान (सायकोलोजी) के अभिनव विश्लेषणों और सिद्धान्तों के प्रकाण्ड विद्वान हैं। उनका समग्र अध्ययन एक गहरी और पैनी दृष्टि लिए हुए है । घटनाओं के जांच कार्य में उनमें वकील का चातुर्य और तर्क की प्रबलता स्पष्ट परिलक्षित होती है । विभिन्न देशों की संस्कृति, धर्म, दर्शन, इतिहास, भूगोल आदि से संबंधित अपेक्षित ज्ञान की मौलिक एवं पूर्ण जानकारी भी वे रखते हैं । जैन दर्शन और विज्ञान डॉ. स्टीवनसन द्वारा लिखित " दी एविडेंस फार सरवाइवल फोम क्लेइम्ड मेमोरिज ऑफ फोर्मर इनकारनेशनस" सन् १९६० में जर्नल ऑफ अमेरिकन सोसायटी ऑफ सायकिकल रिसर्च में प्रकाशित होकर १९६१ में पुस्तक रूप में इंग्लैण्ड से प्रकाशित हुआ। इसके बाद सन् १९६६ में बीस घटनाओं के सम्पूर्ण एवं समीक्षात्मक अध्ययन पर आधारित उनका सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ " ट्वेण्टी केसेज सेजस्टीव ऑफ रिइनकारनेशन'' प्रकाशित हुआ । इसके पश्चात् भी समय-समय पर इस विषय में उनके लेख एवं पुस्तकें प्रकाशित होती रही हैं। इस दिशा में निरतंर कार्य हो रहा है। घटनाओं में भी काफी वृद्धि हुई है । सन् १९६९-७० में दो वर्षो के अन्दर ही भारत में १०८ एवं बर्मा में ८० घटनाएं प्रकाश में आई । उदाहरण-स्वरूप ब्राजील की एक घटना का उल्लेख किया जा रहा है: ब्राजील में अढ़ाई वर्ष की बालिका को पूर्व-जन्म की स्मृति - सन् १९१८ अगस्त की १४ तारीख को ब्राजील देश में डोम फेलिसियानो नामक एक छोटे गांव में रहने वाले एक परिवार में एक बालिका का जन्म हुआ । पिता एफ. व्ही. लौरेंज तथा माता ईदा लौरेंज ने उसका नाम मार्टा रखा। मार्टा जब अढ़ाई वर्ष की हुई थी- एक दिन वह अपनी बहिन लीला के साथ घर से थोड़ी दूर आए हुए एक नाले पर गई थी। यहां से वापिस घर लौटते समय उसने लीला से Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान ९३ कहा - "मुझे गोद में उठाकर ले चलो । जब पहले तूं छोटी थी और मैं बड़ी थी तब मैं तुझे गोद में उठाकर घुमाती थी । " छोटी बहिन के मुंह से इस प्रकार की बात सुनकर बड़ी बहिन को हंसी आ गई। उसने पूछा- तुम बड़ी कब थी ? मार्टा ने कहा- उस समय मैं इस घर में नहीं रहती थी । मेरा घर यहां से काफी दूर था। वहां अनेक गाय, बैल आदि हमारे घर पाले हुए थे तथा नारंगी के पेड़ थे। वहां कुछ बकरे जैसे पशु भी पाले हुए थे पर वे बकरे नहीं थे । इस प्रकार बातचीत करते हुए मार्टा और लीला जब घर पहुंची, लीला ने सारी बात अपने माता - पिता से कही । पिता ने मार्टा से कहा- जिस घर की तुम चर्चा कर रही हो वहां हम कभी नहीं रहे । मार्टा ने तुरन्त उत्तर दिया- उस समय आप हमारे माता-पिता नहीं थे, वे दूसरे थे। छोटी बच्ची की पागल की-सी बातें सुनकर उसकी एक अन्य बहिन ने मजाक में ही मार्टा से पूछा तब फिर तुम्हारे घर एक छोटी हब्सी नौकरानी (लड़की) भी थी, जैसे अपने घर में अभी है ! इस मजाक से बिल्कुल भी बैचेन नहीं हुई उसने कहा - ना, हमारे घर में जो हब्शी नौकरानी थी, काफी बड़ी थी। एक रसोईयन भी हब्शी थी तथा वहां दूसरे एक हब्शी लड़का भी काम करता था। एक बार वह लड़का बेचारा पानी लाना भूल गया था, तब मेरे पिता ने उसे बहुत पीटा था । पिता (एफ. व्ही. लौरेंज) बोले- मेरी प्यारी बेटी, मैंने तो कभी हब्शी बच्चे को नहीं पीटा है। मार्टा बोली- - पर वह तो मेरे दूसरे पिता थे । ज्योही उस लड़के को पिताजी पीटना शुरू किया वह लड़का मुझे बुलाता हुआ चिल्लाने लगा - अरे सिह्ना ! मुझे बचाओ। मैंने तुरन्त पिताजी से निवेदन किया- उसे छोड़ दो और फिर वह पानी भरने चला गया । एफ. व्ही. लौरेंज ने पूछा- तो क्या वह नाले पर पानी भरने चला गया ? मार्टा ने कहा- ना पिताजी ! वहां आस पास में कहीं नाला नहीं था, वह कुए से पानी लाता था । पिता ने पूछा, बेटी सिह्ना जिह्ना कौन थी । मार्टा ने कहा-वह तो मैं ही थी। मेरा दूसरा नाम भी था। मुझे मारिया भी कहते थे और एक नाम और भी था जो कि मुझे याद नहीं है । इसके पश्चात् तो मार्टा ने और भी अनेक बातें अपने पूर्व जन्म के संबंध में बताई। उसने यह बताया कि 'मेरी इस जन्म की माता ईदा लौरेंज पूर्व जन्म Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ जैन दर्शन और विज्ञान में मेरी सखी थी। मैं (सिना-जिह्ना) अपनी सखी के घर आती-जाती रहती थी और इस दौरान मैं लीला को खिलाती थी तथा उसे गोद में उठाकर घुमाती थी। एफ. व्ही. लौरेंज के पुत्र कार्लोस की मैं (सिना-जिह्ना) धर्म-माता बनी थी। जब ईदा मेरे घर आती तो मैं उसके लिए काफी बनाती और फोनोग्राफ बजाती। मेरे पूर्वजन्म के पिता आयु में एफ. व्ही. लौरेंज से बड़े थे। लम्बी दाढ़ी रखते थे तथा बड़े कर्कश आवाज में बोलते थे। मेरी शादी नहीं हुई थी। पर मैं जिस पुरुष से प्रेम करती थी, मेरे पिताजी उसे पसन्द नहीं करते थे। उस पुरुष ने आत्म-हत्या कर ली। इसके बाद एक दूसरे व्यक्ति से मेरा प्रेम हो गया। उसे भी मेरे पिताजी पसन्द नहीं करते थे। इससे मैं बहुत दु:खी और निराश हो गई। मेरे पिता ने मुझे खुश करने के लिए समुद्रतटीय प्रदेश में घूमने-फिरने का कार्यक्रम बनाया जहां मैने अपने शरीर के प्रति लापरवाह होकर ठण्डी और नम हवा में अपर्याप्त वस्त्रों के साथ घूमना शुरू किया और उसके परिणाम स्वरूप मुझे टी. बी. की बीमारी हो गई । इस बीमारी के कुछ ही महीनों मेरी मृत्यु हो गई। जब मैं मृत्यु-शैय्या पर थी, मेरी प्यारी सखी ईदा मेरे पास थी। उस समय मैंने ईदा से बताया कि मैं जान-बूझकर बीमार हुई थी, मैं मरना चाहती थी। मरने के बाद मै तुम्हारी पुत्री के रूप में पुन: जन्म लूंगी और बोलने जितनी उम्र होने पर पूर्व जन्म की बातें तुम्हें बताऊंगी, जिससे तुम्हें विश्वास हो जाएगा कि मैं (सिला-जिह्वा) ही तुम्हारी पुत्री बनी हूं।" सिना-जिह्ना की मृत्यु सन् १९१७ के अक्टूबर में हुई थी, जिसके लगभग दस महीने पश्चात् अर्थात् १४ अगस्त १९१८ को मार्टा का जन्म हुआ था। मार्टा ने लगभग १२० बातें अपने पूर्व जन्म के संबंध में बताई जिनमें से कुछ बातें तो ईदा (मार्टा की माता) और एफ. व्ही. लौरेंज जानते थे। कुछ बातें ऐसी भी थी जिनका इनको पता नहीं था पर उसकी पुष्टि सिना-जिह्ना के अन्य पारिवारिक सदस्यों ने की। सन् १९६२ में जब डॉ. ईयान स्टीवनसन ने मार्टा से भेंट की उस समय भी उसे अपने पूर्व जन्म की अनेक बातें याद थीं। ऐसी एक दो या दस बीस नहीं, बारह सौ से भी अधिक घटनाएं विश्व भर में विभिन्न देशों में प्रकाश में आई हैं। ___ डॉ. कलघटगी ने भी एक सन्त सद्गुरू केशवदासजी के द्वारा बताई गई दो घटनाओं का उल्लेख किया है। एक में एक इटली के डेन्टिस्ट डॉ. गेस्टोन द्वारा अपना पूर्व जन्म भारत में कांचीपुरम स्थित किसी मंदिर के पुजारी के रूप में बताया तथा मंदिर की सम्पूर्ण पूजा-विधि का ज्ञान होने का दावा किया तथा दूसरी घटना में न्यूयार्क के एक नीग्रो व्यक्ति ने स्वामी केशवदासजी की सभा में अपनी पूर्व जन्म की स्मृति के आधार पर “ललित सहस्त्रनाम'' कण्ठस्थ रूप से सुनाना प्रारंभ किया Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान तथा उसने भी अपना पूर्व जन्म भारत में बताया । अहमदाबाद में एक बालक मनोज द्वारा अपने पूर्व जन्म के समग्र परिवार को पहिचानने की बात सामने आई । मनोज ने, जो कि सातेक वर्ष का बालक था, अपने पूर्व जन्म की पत्नी तथा दो बच्चों के विषय में जानकारी दी तथा उन्हें इस जन्म में पहिचान लिया । मनोज के शरीर पर गोली के चिह्न भी थे, जो उसके बयान के 'अनुसार उसके पिछले जन्म में लगी थी। मनोज का एक हाथ बड़े आदमी की तरह पूरी तरह मोटा और विकसित था तथा दूसरा हाथ साधारण बच्चे की तरह था । जयपुर की एक लड़की अमिता (उम्र लगभग १० वर्ष) अपनी छोटी उम्र से ही अपने को महारानी गायत्रीदेवी कॉलेज की एम. ए. की पोलिटिकल साइन्स विषय की छात्रा बताती थी। उसने अपने पुराने घर और परिवार को खोज निकाला तथा छत पर से गिरने के कारण अपनी मृत्यु का बयान दिया, जो जांच करने पर सही पाया गया। पूर्वजन्म संबंधी अनेक ऐसे वृत्तांत पाये गये हैं जिनमें लिंग परिवर्तन वर्णित किया गया है। ब्राजील के पोलो लारेंज का यह वृत्तांत इसी तरह के वृत्तांतो में से है: "मां अब तुम मुझे अपने पुत्र के रूप में लो, अब मैं तुम्हारा पुत्र बनकर जन्म लूंगी।'' श्री मति इडा लोरेंज नामक एक महिला को तीन बार मृतात्मा आह्वन संबंधी बैठकों (सियान्स) में यह संदेश मिला । संदेश देने वाली, कोई और नहीं, उन्हीं की पुत्री इमिलिया की कथित मृतात्मा थी । इमिलिया लोरेंज एफ. बी. लोरेंज व इडा लोरेंज की दूसरी संतान व सबसे बड़ी पुत्री थी। उसका जन्म ४ फरवरी १९०२ को हुआ था। उसका नाम 'इमिलिया' उससे पूर्व उत्पन्न एक पुत्र - जिसकी कुछ वर्ष पूर्व शैशवास्था में ही मृत्यु हो गई थी - 'इमोलियो' पर रखा गया था । ९५ सभी प्राप्त सूचनाओं से ज्ञान हुआ कि अपने छोटे-से जीवन में इमिलिया सदा अत्यन्त दुःखी रही। वह हमेशा स्वयं को इस बात के लिए ही कोसती रही कि वह लड़की क्यों है, लड़का क्यों नहीं । अनेक बार उसने अपने भाई-बहिनों से कहा भी कि यदि वास्तव में पुनर्जन्म होता है तो वह अगले जन्म में पुरुष ही होगी । उसके विवाह हेतु अनेक प्रस्ताव आये, लेकिन उसने सभी को ठुकरा दिया । हीन व निराशापूर्ण भावनाओं से ग्रसित उसने अनेक बार आत्महत्या करने का प्रयास किया । एक बार विष खा भी लिया, लेकिन उसे बहुत-सा दूध पिलाकर बचा लिया गया । किन्तु अन्त में १२ अक्टूबर, १९२१ को उसने एक बहुत तेज जहर लेकर आखिर अपने जीवन का अन्त कर ही दिया । इमिलिया की मृत्यु से लगभग डेढ़ वर्ष बाद ३ फरवरी, १९२३ को श्रीमति Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ जैन दर्शन और विज्ञान लोरेंज ने एक पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम भी उन्होंने इमिलिया ही रखा, लेकिन बाद में सब से 'पोलो' कहकर ही पुकारने लगे। मृत इमिलिया व पोलो की अनेक प्रवृतियों व रुचियों में समानताएं पाई गई। इमिलिया को यात्रा करने का बड़ा शौक था। वह अक्सर ही कहा करती थी कि यदि वह पुरुष होती तो खूब नये-नये स्थानों की सैर करती। (उस जमाने में वहां स्त्रियों को घूमने-फिरने की सुविधाएं नहीं थीं।) पोलो को भी भ्रमण का बहुत शौक है-अपनी छुट्टियां वह प्राय: फिरने में ही व्यतीत करता है। इमिलिया सिलाई में बहुत निपुण थी और पोलो में, जब वह चार वर्ष के लगभग का ही था-बिना सीखे सिलाई में निपुणता पाई गई। इमिलिया वायलिन सीखने की इच्छुक थी, किन्तु प्रयत्न करने पर भी सीख नहीं पाई। पोलो ने भी बहुत प्रयास किया किन्तु असफल ही रहा। इमिलिया में डबलरोटी के कोने तोड़ने की एक विचित्र-सी आदत थी-ठीक यही आदत पोलो में भी पाई गई। पोलो के वृत्तांत में पुनर्जन्म में लिंग-परिवर्तन की विशेषता के अनेक प्रभाव स्पष्टत: देखे गये हैं। पोलो की बहिनों ने बताया कि जब वह छोटा था, तो उसकी बातें प्राय: लड़कियों जैसी ही हुआ करती थीं। एक दिन वह बोला: "क्या मैं सुंददर नहीं हूं? अब मैं लड़कियों की तरह ही रहा करूंगा। मैं लड़की जो हूं।' लड़का होते हुए भी उसे लड़कियों के साथ गुड़ियों से खेलना बहुत प्रिय था। प्रथम चार-पांच वर्षों तक तो उसने लड़कों के वस्त्र पहने ही नहीं-सदा तीव्र प्रतिरोध करता रहा। जब वह पांच वर्ष का था तो इमिलिया की एक पुरानी स्कर्ट को कांट-छांटकर उसके लिए एक पैंट बना दी गई। इसे पहनकर वह बहुत प्रसन्न हुआ और उसके बाद से लड़कों के वस्त्र पहनने के विरुद्ध उसका प्रतिरोध समाप्त हो गया। १३-१४ वर्ष की आयु तक उसमें यदा-कदा स्त्रीत्व के लक्षण दृष्टि-गोचर हो जाते थे। १९६२ में, जब पोलो ३९ वर्ष का हो चुका था, उसके व्यक्तित्व में इस उम्र के अन्य पुरुषों की अपेक्षा नारी-तत्त्वों की अधिक प्रमुखता पाई गई। और अपनी बहिनों के अतिरिक्त उसका किसी अन्य स्त्री से कोई लगाव नहीं था। उसने विवाह तक नहीं किया। पोलो के व्यक्तित्व की और गहरी जांच हेतु मानव शरीर के चित्र बनाने संबंधी उसका एक परीक्षण किया गया। इस परीक्षण में परीक्षार्थी को मानव शरीर का तीन बार चित्र बनाने को कहा जाता है। पहला चित्र वह किस लिंग का-स्त्री या पुरुष का-बनाये, इसके लिए उसे छूट होती है। दूसरा चित्र उसे विपरीत लिंग का बनाने को कहा जाता है और तीसरे चित्र के बारे में पुन: छुट होती है। परीक्षा का परिणाम इस बात से आंका जाता है कि परीक्षार्थी पहला व तीसरा चित्र किस Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान ९७ लिंग का बनाता है और इस बात से कि उसने वे तीनों चित्र कैसे बनाये हैं। पोलो ने पहली और तीसरी दोनों 'छूटों' में स्त्री के चित्र बनाये। उक्त घटना के एकदम विपरीत ऐसे भी अनेक दृष्टांत प्राप्त हुए हैं जिनमें वर्तमान जन्म की लड़की ने अपना पूर्वजन्म लड़के के रूप में वर्णित किया है। पूर्वजन्म के वृत्तातों में कभी-कभी ऐसा वृत्तांत भी मिल जाते हैं, जिनमें मात्र पिछले एक ही नहीं उससे भी पहले के और जन्मों की स्मृतियों का विवरण प्राप्त होता है। गवेषणा-पद्धति परामनोवैज्ञानिक या तो स्वयं घटना-स्थल पर जाता है या अपने किसी सहायक अन्वेषक को वहां भेजकर और विश्वसनीय सूचनाएं प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। सभी प्रकार की सूचनाएं एकत्रित कर लेने के बाद परामनोवैज्ञानिक निम्न बातों को ध्यान में रखकर सारे केस का मूल्यांकन करता है : १. सभी प्राप्त सूचनाएं कहां तक विश्वसनीय हैं? । २. क्या तथाकथित पूर्वजन्म की स्मृतियों में निहित तथ्यों की जानकारी सम्बन्धित व्यक्ति के लिए सामान्यत: प्राप्त कर पाना संभव था? ३. सम्बन्धित व्यक्ति द्वारा परासामान्य ज्ञान शक्तियों से यह सूचनाएं प्राप्त करना कहां तक सम्भव था? ४. क्या सम्बन्धित व्यक्ति ने इन स्मृतियों का वर्णन किसी विशेष अवस्था जैसे तन्द्रा या अचेतनावस्था में ही वर्णित किया था, आदि? ___सामान्य रूप से पूर्व जन्म की स्मृति छोटे बच्चों में होती है। अढ़ाई-तीन वर्ष की अवस्था से लेकर आठ-दस वर्ष की अवस्था के बच्चे ही आम तौर पर इस क्षमता के धनी पाये गये हैं। कहीं-कहीं तो दस महीने की आयु में भी बच्चा यत्किचिंत अभिव्यक्ति देना शुरू कर देता है। आयु बढ़ने के साथ साधारणतया यह क्षमता क्षीण होती जाती है। अपवाद रूप में बड़ी आयु वालों में भी पूर्व-जन्म-स्मृति उपलब्ध होती हुई पायी जाती है। आम-तौर से पूर्व-जन्म-स्मृति वाला बच्चा जब बोलना सीख जाता है, तब वह अपने पूर्वजन्म के विषय में कुछ-कुछ बातें बताना शुरू कर देता है। प्राय: तो माता-पिता ऐसी बातों पर ध्यान ही नहीं देते या उसे केवल प्रलाप या बकवास समझ लेते हैं। पर, जब वह अपनी बात को दोहराता ही रहता है या बल देता रहता Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ जैन दर्शन और विज्ञान है, तब माता-पिता या पारिवारिक लोगों का ध्यान उस ओर केन्द्रित होता है। बहुत बार तो वे स्वयं ही पूर्व-जन्म के घटना स्थल पर पहुंच जाते हैं तथा बालक द्वारा बताई गई बातों की सत्यता जांच करते हैं। कभी-कभी ऐसा नहीं हो पाता। गवेषक लोगों तक जब ऐसी बात पहुंचती है, तब वे जांच हेतु बालक के घर पहुंच जाते हैं। वहां वे उसका पूरा बयान ले लेते हैं तथा माता-पिता, पारिवारिक-जन अड़ौसी-पड़ौसी आदि के भी बयान लेते है। इसके अतिरिक्त भी जिन व्यक्तियों का सम्बन्ध घटना से होता है, उन सबके बयान ले लिये जाते हैं। फिर जिस स्थान में बालक अपना पूर्व जन्म आदि बताता है, वहां जाकर उन परिवारवालों के बयान लिये जाते हैं। बयानों के साथ-साथ गवेषक लोग प्रश्नों और प्रतिपादनों के द्वारा भी तथ्य एकत्रित करते हैं। बयानों और साक्षियों के परीक्षण के पश्चात् जो तथ्य उभरते हैं, उन पर चिन्तन किया जाता है। चिंतन के लिए कई सम्भावनायें की जाती हैं। सबसे पहले तो धोखाधड़ी या पूर्व नियोजित होने की सम्भावना को लेकर तथ्यों पर चिन्तन किया जाता है-सारे बयान, साक्षियों के उत्तर, घटनास्थलों की भौगोलिक परिस्थिति आदि के आधार पर यह निश्चित करना कठिन नहीं होता कि घटना वास्तविक है या धोखा देने के लिए घड़ी हुई है। अब तक जिन घटनाओं की जांच की गई है, उसमें धोखा-धड़ी की घटनाएं नगण्य संख्या में पाई गई है। उन अनेक वृत्तांतो जिनमें कि दोनों व्यक्तियों के निवासों में सैकड़ों या हजारों मील की दूरी रही हो, किसी प्रकार आर्थिक लाभ होना सम्भव न रहा हो, और पूर्वजन्म की स्मृतियां वर्णित करने वाला कोई अबोध बालक ही रहा हो-जैसा कि प्राय: होता है, यह मानना उचित नहीं लगता कि वे सभी वृत्तांत मनघड़त किस्से ही हैं। जिन वृत्तांतों में दोनों के जन्म के व्यक्तियों में कुछ समान योगयाताएं या शारीरिक निशान आदि पाये गये हैं, उनकी भी व्याख्या इस उपकल्पना द्वारा सम्भव नहीं है। दूसरी संभावना यह की जाती है कि दोनों परिवारों के बीच प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी प्रकार का सम्बन्ध है या नहीं । जहां इस प्रकार की संभावना होती है, वहां पूर्व-जन्म सम्बन्धी बातों को इस कसौटी पर कसा जाता है कि ये बातें वस्तुत: पूर्व-जन्म-स्मृति पर आधारित है या वर्तमान जन्म में ही किसी माध्यम से ज्ञात की गई है। जहां दोनों परिवारों में समान्य मित्र, सम्बन्धी आदि होते है, वहां इस बात को बहुत सूक्ष्मता से तोला जाता है। विस्मृति ऐसे वृत्तांतों में यह सम्भावना भी की जाती है कि वास्तविक स्रोत की विस्मृति के कारण बालक अपने पूर्वजन्म के अनुभव के रूप में उसे मानने लगा हो। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान यह सम्भावना भी ऐसे वृत्तांतों के लिए ही अधिक महत्त्वपूर्ण है जिनमें कि बालक या उसके परिवार वालों के लिए वर्णित मृतक के बारे में बहुत-सी जानकारी प्राप्त करना सम्भव रहा हो। (कुछ ऐसे वृत्तांतों जिनमें कि दोनों व्यक्ति एक ही परिवार के थे या निकट ही रहने वाले थे ऐसा होना सहज ही सम्भव है किंतु सुदूर स्थित एक अत्यन्त सामान्य-सा जीवन व्यतीत किये हुए व्यक्ति के बारे में बहुत-सी जानकारी(व्यक्तिगत व अन्य प्रकार की) प्राय: किसी को नहीं होती। जिनमें जानकारी संभव रही हो उन वृत्तांतों के भी व्यवहार सम्बन्धी तथ्यों की व्याख्या इस उपकल्पना द्वारा नहीं की जा सकती । इस तरह के वृत्तांत ही अधिक हैं जिनमें यह कहा गया है कि पूर्वजन्म वाले परिवार से इस जन्म के परिवार वालों का किसी भी तरह का परिचय था ही नहीं। ___ कई बार ऐसा हुआ है कि बालक ने अकस्मात् ही किसी पूर्वजन्म सम्बन्धी व्यकित को भीड़ में से पहचान लिया, और उसे नाम लेकर पुकार लिया, या कि जब किसी ने बालक से पूछा-अच्छा बतलाओ मैं कौन हूं? उसने सही उत्तर दे दिया। ऐसे दृष्टांतों के लिए भी विस्मृति की उपकल्पना उपयुक्त नहीं बैठती। आनुवंशिक स्मृति इस उपकल्पना द्वारा भी दो प्रकार के वृत्तांतों की व्याख्या ही संभव है-एक तो वे वृत्तांत जिनमें कि वर्तमान व पूर्वजन्म के दोनों व्यक्ति एक ही परिवार के व भिन्न-भिन्न पीढ़ी के हों। ऐसे वृत्तांतों वास्तव में हैं ही बहुत कम। दूसरे वे वृत्तांत जिनमें कि दोनों जन्मों के बीच समय का बहुत लम्बा अन्तराल सदियों तक का रहा हो। इस प्रकार के वृत्तांत और भी कम-बिरले ही होते हैं। फिर भी यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि आनुवंशिक रूप में स्मृतियों का हस्तांतरण इस सीमा तक तो वैज्ञानिकों द्वारा नहीं खोजा जा सका है। __ जिन घटनाओं में उक्त संभावना का भी कोई स्थान नहीं रह जाता, वहां यह भी एक संभावना की जाती है कि अतीन्द्रिय ज्ञान या टेलीपेथी (विचार-संप्रेषण या दूरज्ञान) की सहायता से कोई दूसरे व्यक्ति के जीवन की बात बताता हो। अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण शक्ति किसी व्यक्ति के अतीन्द्रिय ज्ञान की शक्ति के द्वारा किसी मृत व्यक्ति सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करके उसे पूर्वजन्म की स्मृति के रूप में वर्णित करने की सम्भावना महत्त्वपूर्ण तो है और कदाचित् कुछ वृत्तांतों की व्याख्या इस उपकल्पना द्वारा भी की जा सके-किन्तु निस्सन्देह बहुत से ऐसे वृत्तांत हैं, जिनकी पूर्णत: व्याख्या इस उपकल्पना द्वारा नहीं की जा सकती। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैन दर्शन और विज्ञान बालक द्वारा वर्णित सचनाओं का आधार अतीन्द्रिय ज्ञान-शक्ति द्वारा माना जा सकता है, किन्तु उसके द्वारा किया जाने वाला भावपूर्ण व्यवहार का आधार अतीन्द्रिय ज्ञान-शक्ति से प्राप्त सूचनाओं को नहीं माना जा सकता। एक प्रश्न यह भी उठता है कि यदि ये सूचनाएं अतीन्द्रिय ज्ञान-शक्ति द्वारा ही प्राप्त की गई हैं, तो बालक इनका वर्णन पूर्वजन्म की स्मृतियों के रूप में क्यों करता है? अतीन्द्रिय ज्ञान-शक्ति से प्राप्त सूचनाओं का सभी व्यक्ति पूर्वजन्म की स्मृतियों के रूप में तो वर्णन नहीं करते। अर्थात् कुछ व्यक्ति तो अतीन्द्रिय ज्ञान-शक्ति से प्राप्त सूचनाओं का वर्णन पूर्वजन्म की स्मृतियों से देते हैं और कुछ व्यक्ति इस रूप में नहीं, ऐसा क्यों? इस प्रश्न के उत्तर में कभी-कभी यह कहा जाता है कि ऐसा सांस्कृतिक प्रभावों के कारण होता है अर्थात् वे समाज जिनकी संस्कृति पुनर्जन्म की मान्यता में आस्था रखती है अतीन्द्रिय शक्ति से प्राप्त ये सूचनाएं पूर्वजन्म की स्मृतियों का रूप लेती है और जिन समाजों में इस तरह की आस्था नहीं है, वहां ऐसा रूप नहीं लेती। यह सत्य है कि पूर्वजन्म की स्मृतियों के दृष्टांत व सांस्कृतिक आस्था में काफी महत्त्वपूर्ण सहसम्बन्ध पाया गया है फिर भी हम यह देखते हैं कि उन समाजों में जिनकी संस्कृति में पुनर्जन्म में किंचित् भी आस्था नहीं पाई जाती पुनर्जन्म के कई दृष्टांत पाये गये हैं। अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड व अनेक अन्य ऐसे देश हैं जिनमें पुनर्जन्म-विरोधी संस्कृति प्रचलित है और जहां कि बहुत से व्यक्ति पुनर्जन्म के बारे में कुछ जानते ही नहीं हैं या जो थोड़े-बहुत लोग जानते हैं वे इसे एशियावासियों का मूर्खतापूर्ण अन्धविश्वास मानते हैं, उनमें भी पुनर्जन्म के दृष्टांत मिलते हैं। मुसलमानों तक में इस तरह के दृष्टांत पाये गये हैं। कभी-कभी तो ऐसा भी हुआ है कि जब इस तरह की सूचनाएं मस्तिष्क में इस तरह उभरने लगीं कि मानो वे पहले की कोई स्मृतियां हो तो व्यक्ति ने उन पर अविश्वास करके इन्हें स्मृतियों के रूप में स्वीकार न करने की चेष्टा भी की, किंतु उन्होंने उन्हें बार-बार उसी रूप में पाया, जिसमें कि अतीत के अनुभवों के बिम्ब मस्तिष्क में उभरते हैं। ____ अध्ययन करने पर यह भी ज्ञात हुआ है कि ऐसे कुछ ही बालकों में जिन्होंने कि पुनर्जन्म की स्मृतियों का वर्णन किया, अतीन्द्रिय ज्ञान की शक्ति थी। अधिकांशत: बालकों में यह शक्ति बिल्कुल नहीं पाई गई। भूतावेश किसी व्यक्ति में यदि कोई मृतात्मा प्रवेश कर जाये, तो वह व्यक्ति भी मृत व्यक्ति से सम्बन्धित सही-सही जानकारी प्रस्तुत कर सकता है और उसके व्यवहार Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान में भी मृत व्यक्ति के अनुरूप परिवर्तन परिलक्षित हो सकते हैं; लेकिन कुछ कठिनाइयां इस उपकल्पना के साथी भी हैं। पहली बात तो यह है कि पूर्वजन्म की स्मृतियों का वर्णन करने वाले व्यक्तियों में प्राय: ही यह पाया गया है कि जब उन्हें मृतक के गांव, मकान या स्कूल आदि स्थानों पर ले जाया गया, जो उनको पूर्वजन्म की और नई-नई बातें याद आने लगीं। शुक्ला, प्रकाश, स्वर्णलता, प्रमोद आदि अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिनमें कि, जब उन्हें पूर्वजन्म के स्थानों पर ले जाया गया, तो उन्होंने बहुत से लोगों व स्थलों को पहचाना और ऐसी घटनाएं बतलाई जिनके बारे में उन्होंने पहले कुछ नहीं कहा था। स्मृति का भी यह एक सामान्य नियम है कि पूर्व परिचित स्थानों को देखने से हम में उनसे संबंधित अनेक स्मृतियां और उभरने लगती हैं। अस्तु, बालक द्वारा वर्णित बातों को स्मृति के रूप में मानने पर तो इस तरह की घटनाओं का समाधान भी सहज ही है लेकिन यदि हम यह मानें कि बालक ने सूचनाएं उसमें प्रविष्ट किसी मृतात्मा के प्रभाव से दी हैं, तो स्पटष्त: कठिनाई आती है। मृतात्मा के प्रभाव से ही जब बालक सूचनाएं देता है तो स्थान बदलने से क्यों अन्तर आना चाहिए? मृतात्मा को क्या फर्क पड़ता है, इसमें कि बालक किसी अन्य स्थान पर है अथवा मृतक के गांव में? इसी तरह अनेक वृत्तांतो में ऐसा पाया गया है कि व्यक्ति ने मृतक के जीवन-काल में कोई स्थान या भवन कैसा था इसी का वर्णन किया-न कि उसकी मृत्यु के बाद में हो जाने वाले उसके परिवर्तित रूप का। ऐसा कई बार हुआ है कि बालक को जब उसके पूर्वजन्म के गांव या घर ले जाया गया, तो वह वहां हो जाने वाले परिवर्तनों से चौंक गया। यदि मृतात्मा जो कि व्यक्ति के मृत्यु के बाद भी रही, उसी ने प्रवेश किया, तो उसे तो परिवर्तनों की भी जानकारी रहनी चाहिए। एक प्रश्न यह भी उपस्थित होता है कि इन वृत्तांतों में वर्णित मृतकों की आत्माओं ने आखिर इन्हीं व्यक्तियों में प्रवेश क्यों किया? इनका ऐसा करने में क्या प्रयोजन रहा होगा? मृतात्मा प्रवेश के जो अन्य दृष्टांत मिलते है उनमें प्राय: कोई न कोई प्रयोजन भी दृष्टिगोचर होता है, जैसे अपने किसी अपूर्ण कार्य या इच्छा की पूर्ति, किसी से बदला लेना आदि। इन वृत्तांतों में ऐसा कोई प्रयोजन नजर नहीं आता। इस प्रकार जो भी अन्य सामान्य सम्भावना की जा सकती है, उसे पहले ध्यान में रखा जाता है, और उसके आधार पर ही अन्तिम निष्कर्ष निकाला जाता है। ___अब तक जांच की गई अधिकांश में उक्त प्रकार की कोई भी सम्भावना सही नहीं पाई गई। इस आधार पर ही ऐसी घटनाओं को परासामान्य (paranormal) की कोटि में माना गया है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैन दर्शन और विज्ञान पूर्व जन्म की अद्भुत बातें अढाई, तीन या पांच साल के बच्चे, जो पूर्व-जन्म की स्मृति के आधार पर बातें बताते हैं, उनमें बहुत-सी बातें काफी अद्भुत और आश्चर्यकारक होती है। सामान्यतया ऐसे बच्चे अपने पूर्व-जन्म का नाम, गांव का नाम, माता-पिता या निकट पारिवारिक लोगों के नाम, अपने निवास-स्थान संबंधी जानकारी आदि देते ही हैं। पर उसके साथ-साथ ऐसी गुप्त बातों का भी वे रहस्योद्घाटन करते हैं, जिसके विषय में उस मृतात्मा के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को कुछ भी ज्ञात नहीं होता। जैसे-एक घटना में बालक (बिशनचंद) ने अपने पूर्व-जन्म में पिता की ऐसी छिपी सम्पत्ति का पता बताया जिसके विषय में किसी को पता ही नहीं था। कुछ घटनाओं में ऐसी बातें भी बालक द्वारा बता दी जाती हैं, जिनकी जानकारी केवल एक ही अन्य व्यक्ति को होती हैं। जैसे अलास्का में घटित एक घटना में अपने पूर्व जन्म में उसने पुत्रवधु को एक घड़ी दी थी जिसके विषय में और किसी को पता नहीं था। वर्तमान जन्म में उस घड़ी को बालक ने पहिचान लिया। पूर्व-जन्म की स्मृति वाले व्यक्तियों में सामान्यतया असामान्य व्यवहार पाया जाता है। ऐसे अधिकांश व्यक्ति वर्तमान जन्म के वातावरण, और पैत्रिक गुण-धर्मों के विपरीत वृत्तियों का प्रदर्शन करते हैं। जैसे-पूर्व-जन्म में धनसम्पन्न वर्तमपान में गरीब होने पर धनसम्पन्न व्यक्तियों की तरह व्यवहार करता है। पूर्व-जन्म में मांसाहारी वर्तमान जन्म में निरामिष परिवार में जन्म लेने पर भी मांसाहर की रूचि रखता है। धार्मिकता की पूर्व-जन्म की वृत्ति प्राय: वर्तमान जन्म में भी असाधारण रूप से प्रकट होती हुई दिखाई देती हैं। शौकीनता और रुचि की विलक्षणता भी सामान्य रूप से वर्तमान जीवन में देखी जाती है। इन सब असामान्य व्यवहारों का सामान्य एवं ज्ञात तत्त्वों के आधार पर व्याख्यात्मक विश्लेषण नहीं किया जा सकता। कभी-कभी भारत जैसे देश में जहां जातिवाद का प्रबल प्रभाव है, बालक द्वारा अपनी पूर्व-जन्म की जाति के संस्कार एवं तदनुरूप व्यवहार व आचरण प्रस्तुत होता हुआ दिखाई देता है। जैसे-जसवीर नामक एक बालक जो वर्तमान जीवन में “जाट" है, अपने को पूर्व-जन्म में ब्राह्मण बताता है और ब्राह्मण की तरह खाने-पीने, शुद्धि आदि के लिए आग्रह रखता है। यहां तक कि अपने जाट माता-पिता के हाथों बनाया हुआ खाना खाने से भी वह इन्कार करने लगा। कुछ बालकों में बचपन से ही ऐसे कला-कौशल, शैक्षिक ज्ञान एवं भाषा-ज्ञान पाये जाते हैं, जो स्पष्टतया उनके पूर्व-जन्म में अर्जित गुणों के साथ सम्बन्धित होते हैं। बिशनचंद की घटना में तबला बजाने की निपुणता तथा उर्दू का ज्ञान इसी बात Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान १०३ द्योतक है। इसी प्रकार ब्राजील की एक अन्य घटना में पोलो नामक बच्चा तीन चार वर्ष की आयु में सिलाई कला में असामान्य दक्षता रखता था, जिसका सम्बन्ध उसके पूर्व-जन्म के व्यक्तित्व के साथ जोड़ा जा सकता है, जिसमें वह एमिलिया नामक लड़की के रूप में था तथा इस कला में दक्ष था । ' इन सब बातों के अतिरिक्त धार्मिक श्रद्धा या विश्वास, भय, सेक्सुअल ज्ञान, वैर-विरोध आदि भावनाओं की असामान्य प्रबलता भी ऐसे बालकों में पाई जाती है । जिनका वर्तमान जीवन के किसी असामान्य घटना-प्रसंग, वातावरण या जानकारी से कोई सम्बन्ध नहीं है । जैसे रविशंकर नामक बालक अपने वर्तमान जन्म में अपने पूर्व - जन्म के हत्यारों से भय भी रखता है और उनके प्रति क्रोध भी करता है । आधुनिक मनोविज्ञान जिन सिद्धांतों के आधार पर मनुष्य की मानसिक वृत्तियों और भावनाओं की व्याख्या प्रस्तुत करता है, वे उक्त सामान्य मनोवैज्ञानिक तथ्यों का कोई समाधान नहीं देता । प्रत्युत इन असामान्य मनोवृत्तियों और विलक्षणताओं के लिए पूर्व- - जन्म के संस्कारों की परिकल्पना अपने आप में पूर्ण और बुद्धिगम्य समाधान प्रस्तुत करती हैं । यद्यपि सामान्य रूप से पूर्व जन्म और वर्तमान जन्म में लैंगिक समानता पाई जाती है, फिर भी कुछ घटनायें (लगभग १० प्रतिशत ) ऐसी भी सामने आई हैं, जिनमें जातक पूर्व-ज - जन्म में स्त्री होता है और वर्तमान जन्म में पुरुष बन जाता है या पूर्व जन्म में पुरुष होता है और वर्तमान जन्म में स्त्री बन जाता है । जैसे सिलोन में घटित एक घटना में ज्ञानतिलका नामक लड़की अपने को पूर्व जन्म में तिलकरत्न नामक लड़के के रूप में बताती है। ब्राजील में घटित पोलो की घटना की चर्चा हम कर चुके हैं । ऐसे लैंगिक परिवर्तनों में व्यक्ति में वर्तमान जीवन में अपने पूर्व- जन्म की लैंगिक विलक्षणता भी पाई गई है, जो मनोवैज्ञानिक के लिए अवश्य ही प्रश्नचिह्न है । सबसे अधिक आश्चर्यजनक एवं अव्यारव्येय बात ऐसी घटनाओं में पाई जाती है, वह है- वर्तमान जीवन में बालक के शरीर पर पाये जाने वाले विचित्र चिह्न या शारीरिक अपूर्णता जो जन्म से ही जातक के शरीर में पाई जाती है और जिनका सम्बन्ध उनके अपने पूर्व जन्म में घटित घटनाओं के साथ बताया जाता 1 जैसे - रविशंकर नामक बालक के शरीर में गर्दन पर एक दो इंच लम्बा तथा १/४ या १/८ इंच चौड़ा घाव का चिह्न डॉ. स्टीवनसन ने स्वयं सन् १९६४ में देखा था, जिस समय रविशंकर की आयु १३ वर्ष की थी। डॉ. स्टीवनसन को बताया गया कि १. देखें, पृष्ठ ९६-९८ । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैन दर्शन और विज्ञान यह घाव जन्म से ही रविशंकर के शरीर पर है तथा जन्म के समय वह इससे भी अधिक लम्बा था। घाव वाली जगह पर चमड़ी का रंग आसपास की चमड़ी से और अधिक गहरा था तथा छूरी से किये हुए घाव की तरह स्पष्ट दिखाई देता था। रविशंकर के कथनानुसार पूर्व-जन्म में उसकी शस्त्र द्वारा गर्दन काटकर हत्या की गई थी। पूर्वजन्म में शरीर पर हुए चिन्ह वर्तमान-जन्म में शरीर पर उसी प्रकार और उसी स्थान में पाये जाये-यह एक बहुत ही अद्भुत एवं विचित्र बात है। ऐसे वृत्तान्तों की व्याख्या मृतात्मा-प्रवेश की उपकल्पना द्वारा नहीं की जा सकती। ऐसे चिह्नों की शरीर-शास्त्र सम्बन्धी सामान्य वैज्ञानिक जानकारी के आधार पर भी कोई व्याख्या संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में पूर्व-जन्म के साथ ही उसका सम्बन्ध जुड़ता है। यह अवश्य शोध का विषय है कि किस प्रकार आत्मा अपने एक जन्म के शारीरिक चिह्नों को भी दूसरे जन्म में ले जाती है। जैन दर्शन द्वारा प्रदत्त कर्म-सिद्धांत के आधार पर इस तथ्य की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है जैन दर्शन में शरीर-सम्बन्धी समस्त निर्माण का मूल कारण नाम कर्म है। नाम कर्म की प्रकृतियों में संघातननाम कर्म, निर्माणनाम कर्म तथा आनुपूर्वी नाम कर्म के द्वारा उक्त तथ्य की व्याख्या हो सकती है। औदारिक आदि शरीर नाम कर्म के उदय से औदारिक आदि वर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण होता है, बन्धननाम कर्म के उदय से गृहीत पुद्गल के साथ गृह्यमान पुद्गल का संमीलन होता है, तथा संघातन नाम कर्म के उदय से औदारिक आदि वर्गणा के पुद्गलों की औदारिक आदि शरीर के रूप में विशेष रचना होती है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार-बद्ध पुद्गलों के परस्पर जतुकाष्ठ न्याय से रचना विशेष का संघात कहते हैं। यह पुद्गलविपाकी कर्म हैं, क्योंकि पुद्गल-रचना के आधार-विशेष के द्वारा इसका परिपाक होता है। आनुपूर्वी नाम कर्म के विषय में दो परम्पराएं प्रचलित हैं। एक के अनुसार विग्रहगति में आत्म प्रदेशों के रचनाक्रम को, जो कि पूर्व शरीर के अनुसार होता है, करने वाले कर्म को आनुपूर्वी नाम कर्म कहा है। दूसरी परम्परा के अनुसार-जिसके उदय से निर्माण कर्म के द्वारा निर्मापित बाहु आदि अंग तथा अंगुली आदि उपांगों की रचना की परिपाटी को आनुपूर्वी नाम कर्म कहा जाता है। पूर्व जन्म के शरीर के अनुसार विग्रहगति में आत्म-प्रदेशों की आकर-रचना तो आनुपूर्वी नाम कर्म के द्वारा होती ही है, पर उसके पश्चात् भी वर्तमान शरीर के निर्माण में पूर्व शरीराकार का प्रभाव भी आनुपूर्वी नाम कर्म के माध्यम से कार्य करता है। उपाघात नाम कर्म शरीर के अंगोपांगों के उपघात का कारण है, उसकी भी पुनरावृत्ति दूसरे जन्म में यथावत् हो Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान १०५ सकती है। इस प्रकार विग्रह गति के पश्चात् भी यदि आनुपूर्वी नाम कर्म के द्वारा वर्तमान शरीर के निर्माण में योगदान मिलता है, तो पूर्व शरीर के चिह्नों की पुनर्जन्म में भी विद्यमानता संभव हो जाती है । मृत शरीर का अधिग्रहण पूर्व जन्म की घटनाओं में कुछ ऐसी घटनाएं भी सामने आई हैं, जिनमें एक मृत व्यक्ति के शरीर में दूसरे मृत व्यक्ति की आत्मा प्रवेश कर जाती है और वह मृत व्यक्ति पुनः जीवित हो जाता है, पर अब वह अपने आप को दूसरी आत्मा के रूप में बताता है। जैसे—जसवीर नामक बालक की घटना में घटित हुआ । रसुलपुर नामक गांव में गिरधारीलाल जाट का पुत्र जसवीर लगभग साढ़े तीन वर्ष की आयु में चेचक की बीमारी में सन् १९५४ के गर्मी के मौसम (अप्रेल-मई) में मृत्यु को प्राप्त हुआ । मृत बच्चे की अन्तक्रिया रात्रि का समय होने से प्रातः काल तक स्थागित रखी गई। मृत्यु के पश्चात कुछ घण्टों बाद ही शव में थोड़ी-सी हलचल नजर आई । कुछ क्षणों पश्चात् लड़का पुनः जीवित हो गया । पर अब तक बोलने की स्थिति में नहीं था। कुछ दिनों बाद जब वह बोलने की शक्ति को प्राप्त कर चुका था, . उसने बताया“मैं वेहेदी ग्राम के निवासी शंकर नामक ब्राह्मण का पुत्र हूं और इसलिए मैं जाटों के हाथ का खाना नहीं खाऊंगा। जसवीर ने यह भी बताया कि पिछले जन्म में उसकी मृत्यु तब हुई थी जब वह दो बैलों के रथ पर किसी बरात में जा रहा था जहां से उसे विषैली मिठाई दे दी गई थी। वह मिठाई उसे उस व्यक्ति ने खिलाई थी जिसको उसने कुछ धन ऋण में दिया था। जब वह रथ में बैठकर जा रहा था, अचानक उसे चक्कर आए, वह रथ से गिरा और उसके सिर में चोट आई जिससे कुछ घण्टों बाद उसकी मृत्यु हुई। जसवीर द्वारा बताई गई इन बातों को गिरधारीलाल ने छिपाने की कोशिश की, पर उसके द्वारा ब्राह्मण के हाथों बनाया हुआ खाना खाने के आग्रह के कारण वह बात ब्राह्मणों में फैल गई । लगभग तीन वर्ष पश्चात् यह बात किसी माध्यम से वेदी गांव तक पहुंची। बालक जसवीर द्वारा बताई गई बातें वेहेदी गांव के शंकरलाल त्यागी नामक ब्राह्मण के पुत्र शोभाराम के जीवन से हूबहू मिलती थी। शोभाराम की मृत्यु सन् १९५४ के मई महीने में ठीक उसी प्रकार रथ में से गिर जाने कारण सिर में चोट आने से हुई थी, जैसे बालक जसवीर ने बताया । हालांकि विषैली मिठाई और ऋण की बात का उसके परिवार वालों को कोई पता नहीं था । डॉ. स्टीवनसन ने इस सारी घटना की बहुत ही सूक्ष्मता से जांच की है तथा सारी घटना की यथार्थता को असंदिग्ध माना है । शोभाराम और जसवीर की Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैन दर्शन और विज्ञान लगभग एक ही समय में मृत्यु होना, और शोभाराम की आत्मा के द्वारा जसवीर के मृत शरीर में पुनर्जन्म लेना तथा शोभाराम के रूप में अपने पूर्व जन्म की स्मृति को बनाए रखना-पूर्वजन्म सम्बन्धी घटनाओं में एक विलक्षण घटना है। मृत्यु के पश्चात् नए जन्म के लिए सामान्य रूप से आत्मा स्वयं अपने नए देह का निर्माण करता है और निश्चित समय तक गर्भस्थ रहने के पश्चात् ही माता के उदर से बाहर आकर अपने नए जीवन का प्रारम्भ करता है। उक्त घटना में शोभाराम द्वारा सीधे ही जसवीर के मृत शरीर में जन्म लेना-इस सामान्य क्रम से नितांत भिन्न एवं विलक्षण क्रम है। यद्यपि पुनर्जन्मवाद को स्वीकार करने वाले धर्म-दर्शनों में भी ऐसे क्रम के विषय में संभवत: कोई व्याख्या नहीं मिलती, फिर भी जैन आगम भगवती सूत्र में आए हुए प्रवृत्त परिहार (या पोट्ट परिहार) नामक सिद्धांत में इसकी चर्चा मिलती है। आजीवक सम्प्रदाय के अधिनायक गोशालक द्वारा इसका प्रतिपादन किया गया है। गोशालक भगवान् महावीर के प्रवचनों का प्रतिवाद करता हुआ यह प्रतिपादित करता है कि वह गोशालकं नहीं है, जिसने महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की थी, वरन् वह गोशालक के मृत शरीर में जन्म लेनेवाला गोमायुपुत्र अर्जुन है। भगवान् महावीर गोशालक के इस कथन को असत्य घोषित करते हैं। यद्यपि गोशालक की अपनी बात असत्य थी, फिर भी इससे इस प्रकार की जन्म-प्रक्रिया की संभावना को सर्वथा निषिद्ध तो नहीं माना जा सकता। यह अवश्य गवेषणा का विषय है कि जैन दर्शन इस प्रकार के जन्म की व्याख्या किस प्रकार प्रस्तुत करता है। वनस्पतिकाय में पोट्ट परिहार होता है, यह सिद्धांत तो स्वयं भगवान महावीर द्वारा माना गया है। गोशालक और तिल के पौधे की घटना के सन्दर्भ में स्वयं भगवान् महावीर कहते हैं- “ गौशालक ! यह तिल का पौधा फलित होगा, तथा ये सात तिलपुष्प के जीव मरकर इसी पौधे की एक तिलफली में सात तिल होंगे..........''........... वे सात तिलपुष्प के जीव मरकर उसी पौधे की एक तिलफली में सात तिल हो गए हैं। इस प्रकार हे गोशालक ! वनस्पतिकाय के जीव “ प्रवृत परिहार'' (पोट्ट परिहार) का उपभोग करते है-मरकर पुन: उसी शरीर में उत्पन्न हो सकते हैं। भगवती सूत्र के उक्त प्रसंग के सन्दर्भ में आगे भगवान् महावीर कहते हैं-'तत्पश्चात् गोशालक ने मेरी बात पर विश्वास नहीं किया। वह तिल के पौधे के पास गया और उस फली को तोड़कर तथा हथेली में मसलकर तिल गिनने लगा। गिनने पर सात ही तिल निकले। इससे उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ-“यह निश्चित बात है कि सर्व प्राणी मरकर पुन: उसी शरीर में ही उत्पन्न होते हैं। गोशालक का यही 'प्रवृत्य परिहार वाद' या परिवर्तनवाद है।'' Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान १०७ भगवती सूत्र में केवल यही बताया गया है कि गोशालक ने सभी जीवों में पोट्ट परिहार का सिद्धांत बना लिया था जिसके अनुसार सभी जीवों के लिए निर्वाण से पूर्व सात जन्मों में पोट्ट परिहार करना अनिवार्य माना गया। पर इससे यह अर्थ तो नहीं निकलता कि भगवान् महावीर वनस्पतिकाय के अतिरिक्त अन्य जीवों मे पोट परिहार के सिद्धांत को गलत मानते थे। भगवती के आधार पर ये बातें स्पष्ट होती हैं १. गोशालक ने अपने आप को जो गोमायुपुत्र अर्जुन के जीव का गोशालक के शरीर में पोट्ट परिहार बताया था, वह असत्य था। २. गोशालक ने सभी जीवों में पोट्ट परिहार की अनिवार्यता बताई थी, वह असत्य था। ३. वनस्पतिकाय में पोट्ट परिहार की संभाव्यता को महावीर ने स्वीकार किया था। ४. अन्य जीवों में भी पोट्ट परिहार संभव हो सकता है, इसका खण्डन महावीर ने कहीं नहीं दिया। उक्त तथ्यों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वनस्पतिकाय की तरह अन्य जीवयोनियों में भी पोट्ट परिहार संभव है। इस बात की पुष्टि भगवती सूत्र के एक अन्य पाठ से इस प्रकार होती है भगवान् महावीर ने मनुष्यणी के गर्भ-काल को जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट. १२ वर्ष बताया है। कायभवस्थ का काल जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट चौबीस वर्ष बताया है। वृत्तिकार इसकी व्याख्या में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि एक जीव गर्भ में १२ वर्ष तक रहकर मृत्यु को प्राप्त होकर पुन: उसी शरीर में उत्पन्न हो सकता है और दूसरी बार फिर १२ वर्ष की और रह सकता है। इस प्रकार मनुष्य शरीर में भी पोट्ट परिहार को स्वीकार किया गया है। सिद्धांत की दृष्टि से यदि वनस्पतिकाय में पोट्ट परिहार हो सकता है, तो मनुष्य-शरीर में भी हो सकता है। अस्तु, यहां तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ऐसी घटना में भी सामान्य मनोविज्ञान के सिद्धांत या अन्यान्य परिकल्पनाएं व्याख्या करने में अक्षम ही रह जाते हैं। केवल पुनर्जन्मवाद ही इसकी व्याख्या न्यूनतम स्वयं-तथ्यों (axioms) के आधार पर कर सकता है। उपसंहार डॉ. स्टीवनसन ने अपने विशाल ग्रन्थ के उपसंहार में लिखा है " I belive, however, that the evidence favouring reincarnation as a hypothesis for the cases of this type has increased since I Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैन दर्शन और विज्ञान published my review in 1960. This increase has com frome several different kinds of observation and cases, but chiefly from the observation of the behavior of the childern claiming the memories and the study of cases with specific or idisyncratic skills and congenital birthmarks and deformities. .......... In the cases of the present collection, we have evidence of the occurence of patterns which the present personality is not known to have inherited or aquired after birth in the present life. And in some instances these patterns match corresponding and specific features of an identified deceased personality. In such cases we have then in principle, I believe, some evidence for human survival of physical death." डॉ. स्टीवनसन के उक्त अभिमत के समर्थन में उनकी उक्त पुस्तक के भूमिका-लेखक सी. जे. ड्यूकास ने और भी अधिक स्पष्ट एवं तर्क-संगत शब्दों मे लिखा : " If, them one, asks what would constitute genuine evidence of reincarnation, the only answer in sight seems to be the same as to the question how any one of us now knows that he was living some days, months, or years before. The answer is that he now remembers having lived at that earlier times, in such a place and circumstances, and having done certain things then and had certain experience. "But does anybody how claim similarly to remember having lived on earth a life earlier than his present one? "Although reports os such a claim are rare, there are some The person making them is almost always a young child, from whose mind these memories fade after some years. And when he is able to mention detailed facts of the earlier life he asserts he remembers, which eventual investigation verifies but which he had no opportunity to learn in a normal manner in his present life, then the question with which this confronts us is how to account for the veridicality of his memories, if not by supposing that he really did live the earlier life he remembers." Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान १०९ (२) अतीन्द्रिय ज्ञान: दूरबोध एवं परचित्तबोध जैन दर्शन का दृष्टिकोण जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का लक्षण है-उपयोग । ज्ञान और दर्शन के रूप में जो चैतन्य की प्रवृत्तियां हैं, उन्हें उपयोग' कहा जाता है। ज्ञान द्वारा वस्तु का विशेष बोध होता है, दर्शन द्वारा सामान्य बोध होता है। यही अन्तर है ज्ञान और दर्शन में। मूलत: दोनों चैतन्य की प्रवृत्तियां है। आत्मा स्वभावत: जानने-देखने की क्षमता से युक्त है। कर्मों के आवरण के कारण यह क्षमता सीमित हो जाती है। फिर भी इस क्षमता का कुछ अंश तो प्रत्येक जीव में विद्यमान रहता ही है। अविकसित अवस्था में इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान किया जाता है, पर जब चेतना का विशेष विकास होता है, तो बिना इन्द्रियों की सहायता से भी आत्मा जान सकती है, देख सकती है। इसी अतीन्द्रिय ज्ञान की कोटि में अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान की गणना की जाती है। प्रत्यक्ष ज्ञान के दो प्रकार है-इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मन की सीमा में जो जाना जाता है वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। जो इन्द्रियों की सीमा से परे है, जहां इन्द्रियों की कोई अपेक्षा नहीं होती, वह अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष है। आकाश में ध्वनि के अनन्त प्रकम्पन बिखरे पड़े है किंतु व्यक्ति को उनका पता नहीं चलता, वह उन्हें पकड़ नहीं पाता। व्यक्ति के आसपास जो ध्वनि के प्रकंपन होते हैं उनका पता चलता हैं, उन्हें पकड़ा जा सकता है। इसका कारण है इन्द्रिय की सीमा। एक निश्चित आवृत्ति में ध्वनि के प्रकम्पन होते हैं, तो व्यक्ति उन्हें पकड़ पाता है। कान के लिए एक आवृत्ति का निर्धारण है। आंख के लिए भी एक आवृत्ति का निर्धारण है। निश्चित आवृत्ति में जो सामने आता है। व्यक्ति उसे देखता है, सुनता है। इन्द्रियों में भी बहुत तारतम्य है। आगमों में इन्द्रिय-पाटव शब्द का प्रयोग मिलता है। एक है इन्द्रिय का सामान्य ज्ञान और एक है इन्द्रिय का पाटव या इन्द्रिय-लाघव। जिसमें इन्द्रिय की पटुता बढ़ जाती है, वह दूर की बात देख लेता है, दूर की बात सुन लेता है, जान लेता है। यदि इन्द्रिय का पाटव नहीं होता है तो व्यक्ति स्वल्प सीमा में ही जानता है, देखता है। आज के वैज्ञानिक युग में एक प्रश्न जरूर सामने आ गया है और बड़ा चिन्तनीय प्रश्न है। दर्शन में इन्द्रिय-ज्ञान और अतीन्द्रिय ज्ञान के बीच जो भेद-रेखा खींची गई, उसका अर्थ है इन्द्रिय-ज्ञान स्थूल को जानता है, सन्निकृष्ट को जानता है और अव्यवहित को जानता है। अतीन्द्रिय ज्ञान सूक्ष्म, विप्रकृप्ट और व्यवहित को भी जान सकता है। दीवार से परे क्या है, आंख नहीं देख सकती किन्तु अतीन्द्रिय ज्ञानी देख सकता है। एक सूक्ष्म कण Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैन दर्शन और विज्ञान को अतीन्द्रिय ज्ञानी देख सकता, इन्द्रिय ज्ञानी नहीं देख सकता । एक वस्तु या पुस्तक पड़ी है और उस पर कोई ढक्कन दे दिया गया । उसे एक इन्द्रियज्ञानी नहीं जान सकता किन्तु एक अतीन्द्रिय ज्ञानी जान सकता है । इन्द्रिय-ज्ञान और अतीन्द्रियज्ञान में यह एक भेद-रेखा है । आज विज्ञान के टेलीस्कोप और माइक्रोस्कोप जैसे सूक्ष्म उपकरण विकसित कर लिए हैं। आधुनिक वैज्ञानिक माईक्रोस्कोप जैसे सूक्ष्म से सूक्ष्म कणों को देखने में सफल हुए हैं, इलेक्ट्रोन और प्रोटोन को देखने में सफल हुए हैं। टेलीस्कोप के द्वारा सैकड़ों-हजारों प्रकाश वर्ष दूर की नीहारिकाओं को देखने में सफल हुए है । विद्युत् की गति एक सैकेंड में १,८३,००० माईल की है। गति से एक वर्ष में जितनी दूर प्रकाश जा सके उसे एक प्रकाश-वर्ष कहते है। ऐसे हजारों प्रकाशवर्ष की दूरी पर जो नीहारिकाएं हैं, सौर मंडल है, तारागृह हैं, उन्हें टेलीस्कोप के द्वारा देखा गया है । क्या यह इन्द्रिय-ज्ञान है ? क्या यह अतीन्द्रिय ज्ञान नहीं है? विज्ञान ने ऐसे यन्त्र और उपकरण विकसित कर लिए हैं, जिनसे शरीर के भीतर क्या हो रहा है, सारा दिखाई देने लग जाता है। वे उपकरण चमड़ी के भीतर विद्यमान समस्त तत्त्वों को देख लेते हैं। क्या इसे अतीन्द्रिय-ज्ञान नहीं कहा जा सकता ? इन्द्रियों से शरीर के भीतर नहीं देखा जा सकता। भीतर क्या हो रहा है, यह आंख से नहीं देखा जा सकता । सौर मंडल या एक सूक्ष्म कण को आंख से नहीं देखा जा सकता । पर इन्हें वैज्ञानिक उपकरणों के द्वारा देखा जा सकता है। यह क्यों नहीं मान लिया जाए - वैज्ञानिक उपकरण भी अतीन्द्रिय- - ज्ञान के साधन बन गए हैं? समाधान : अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के सन्दर्भ में जैन दर्शन के सामने यह एक अहं प्रश्न है। इससे इंद्रिय - ज्ञान और अतीन्द्रिय- ज्ञान की भेद-रेखा समाप्त हो जाएगी। इस समस्या का समाधान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के सन्दर्भ में ही खोजा जा सकता है । अवधिज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान है, किन्तु उसमें भी पुद्गलों का सहयोग आवश्यक होता है । अवधिज्ञान से व्यक्ति अपने ज्ञान को इतना विकसित और निर्मल बना ले, जिससे वह सूक्ष्म, दूरवर्ती और व्यवहित वस्तु को जान सके और चाहे वह ऐसे उपकरणों का विकास कर लें, जिनके द्वारा उन्हें वह जान सके। केवलज्ञान से नीचे की सीमा में जितने क्षायोपशमिक ज्ञान हैं, उनमें पुद्गल सहायक बनता है । अवधिज्ञान और मनः पर्यव ज्ञान में भी किसी न किसी रूप में पुद्गल का योग रहता ही है । इसका अर्थ है- नाड़ीतंत्र को इतना विकसित बना लिया जाए, जिससे व्यक्ति सूक्ष्म और व्यवहित तत्त्वों का ज्ञान कर सके । नाड़ीतंत्र को विकसित करें या बाहर के उपकरणों को विकसित करें, इन दोनों में बहुत अन्तर नहीं लगता। आन्तरिक निर्मलता बढ़ने से जो ज्ञान हुआ, वही बाह्य साधनों का योग मिलने से भी हो सकता है । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान प्रस्तुत प्रकरण से अवधि-ज्ञान और मन:पर्यवज्ञान की मीमांसा करते हुए परामनोविज्ञान द्वारा प्रस्तुत दूरबोध और परिचित्त बोध के साथ उनका तुलनात्मक अध्ययन हमें करना है। __अवधिज्ञान- इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना चेतना दर्पण पर मूर्त पदार्थों के जो बिम्ब उभरते हैं, उन्हें पकड़ने वाला उपयोग अवधिज्ञानोपयोग है। यह ज्ञान अतीन्द्रिय है, फिर भी इसमें तीव्र एकाग्रता की अपेक्षा रहती है। इस दृष्टि से ही इसका निरूक्त किया गया है-'अवधानम् अवधि:' अवधान अर्थात् एकाग्रता। ध्यान की गहराइयों से उतरे बिना अवधिज्ञानोपयोग हो ही नहीं सकता। अवधि का दूसरा अर्थ भी किया जाता है-अवधिज्ञान मूर्त द्रव्यों को साक्षात् करने वाला ज्ञान है। मूर्तिमान द्रव्य की इसके ज्ञेय विषय की मर्यादा है। इसलिए यह 'अवधि' कहलाता है अथवा द्रव्य, क्षेत्र, और भाव की अपेक्षा इसकी अनेक इयत्ताएं बनती हैं। जैसे--इतने क्षेत्र काल और काल में इतने द्रव्य और इतने पर्यायों का ज्ञान करता है, इसलिए इसे अवधि कहा जाता है। अवधि-ज्ञान के छह प्रकार हैं १. अनुगामी-जिस क्षेत्र में अवधि-ज्ञान उत्पन्न होता है, उसके अतिरिक्त क्षेत्र में भी बना रहे, वह अनुगामी है। २. अननुगामी-उत्पत्ति-क्षेत्र के अतिरिक्त क्षेत्र में बना न रहे, वह अननुगामी है। ३. वर्धमान-उत्पत्ति-काल में कम प्रकाशवान् हो और बाद में क्रमश: बढ़े वह वर्धमान है। ४. हीयमाण-उत्पत्ति काल में अधिक प्रकाशवान् हो और बाद में क्रमश: घटे, वह हीयमान है। ५. अप्रतिपाती-आजीवन रहने वाला अथवा केवल-ज्ञान उत्पन्न होने तक रहने वाला अप्रतिपाती है। ६. प्रतिपाती-उत्पन्न होकर जो वापिस चला जाए, वह प्रतिपाती है। मन:पर्यवज्ञान-इन्द्रियों और मन की सहायता बिना किसी व्यक्ति की मानसिक अवस्थाओं-आकृतियों को जानना मन:पर्यवज्ञानोपयोग है। यह ज्ञान मन के प्रवर्तक या उत्तेजक पुद्गलों-द्रव्यों को साक्षात् जानने वाला है। चिन्तक जो सोचता है, उसी के अनुरूप चिन्तन-प्रवर्तक पुद्गल द्रव्यों की आकृतियां-पर्याय बन जाती हैं। वे मन: पर्याय के द्वारा जानी जाती हैं इसीलिए इसका नाम है-मन की पर्यायों को साक्षात् करने वाला ज्ञान । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान मनोवर्गणा के पुद्गलों का ज्ञान विशिष्ट अवधिज्ञान से भी हो सकता है । पर मन: पर्यवज्ञान से जो बोध होता है, वह अधिक स्पष्ट और विशद होता है । जिस प्रकार एक फिजिशियन आंख, नाक, गला आदि शरीर के सभी अवयवों की जांच करता है, उसी प्रकार आंख, नाक आदि का विशेष डॉक्टर भी करता है । किन्तु दोनों की जांच और चिकित्सा में अन्तर रहता है। एक ही कार्य-क्षेत्र होने पर भी विशेषज्ञ के ज्ञान की तुलना में वह डॉक्टर नहीं आ सकता। इसी प्रकार मनः पर्यवज्ञान की तुलना में साधारण अवधिज्ञान नहीं आ सकता । ११२ मनः पर्यवज्ञान के दो प्रकार हैं १. ऋजुमति २. विपुलमति । सामान्य रूप से मानसिक पुद्गलों को ग्रहण करने वाला मनः पर्यवज्ञान ऋजुमति कहलाता है। उसके विशेष पर्यायों का बोध करने वाला मनः पर्यवज्ञान विपुलमति कहलाता है । उदाहरणार्थ- व्यक्ति ने मन में घट का चिन्तन किया । ऋजुमति वाला जानेगा कि इसने 'घट' का चिन्तन किया है । विपुलमति वाला जानेगा कि इसने घट का चिन्तन किया है; वह घट सोने का है, पाटलिपुत्र में बना हुआ है, आज बना हुआ है, आकृति में बड़ा है, आदि। इस प्रकार विशेष विवरण का बोध भी उसे हो जाएगा। अतीन्द्रिय ज्ञान की उपलब्धि चैतन्य- केन्द्रों के निर्मलीकरण से होती है । चैतन्य - केन्द्र क्या है? जो दृश्य है वह स्थूल शरीर है। इसके भीतर तैजस और कर्म - ये दो सूक्ष्म शरीर है। उनके भीतर आत्मा है । वह चैतन्यमय है । जैसे सूर्य और हमारे बीच में बादल आ जाते हैं वैसे ही आत्मा के चैतन्य और बाह्य जगत् के बीच में कर्म - शरीर में बादल छाए हुए हैं। इसीलिए चैतन्य - सूर्य का पूर्ण प्रकाश बाह्य जगत् पर नहीं पड़ता। बादलों के होने पर भी सूर्य का प्रकाश पूरा ढक नहीं जाता। वैसे ही कर्म - शरीर का आवरण होने पर भी चैतन्य पूरा आवृत नहीं होता। उसकी कुछ रश्मियां बाह्य जगत् को प्रकाशित करती रहती हैं। मनुष्य अपने प्रयत्न से कम शरीरगत ज्ञानावरण को जैसे-जैसे विलीन करता है वैसे-वैसे चैतन्य की रश्मियां अधिक प्रस्फुटित होने लगती है। कर्म-शरीरगत ज्ञानावरण की क्षमता जितनी विलीन होती हैं, उतने ही स्थूल शरीर में प्रज्ञान की अभिव्यक्ति के केन्द्र निर्मित हो जाते हैं । ये ही हमारे चैतन्य - केन्द्र हैं । समूचा शरीर ज्ञान का साधन आत्मा के असंख्य प्रदेश ( अविभागी अवयव ) हैं । ज्ञानावरण उन सबको Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान ११३ आवृत किए हुए है। इस आवरण का विलय भी सब प्रदेशों में होता है। शरीरशास्त्र के अनुसार ज्ञान का स्रोत नाड़ी - संस्थान है । मस्तिष्क और सुषुम्ना के द्वारा ही सब ज्ञान होता है । कर्म-शास्त्र की भाषा में नाड़ी संस्थान को ज्ञान की अभिव्यक्ति का I माध्यम कहा जा सकता है | शरीरशास्त्र के अनुसार शरीर के सारे कोष एक जैसे है । कुछ कोशों को विशेषज्ञता प्राप्त हो गई है। इसलिए वे ज्ञान के स्रोत बन गए हैं। शरीर के कुछ भाग ज्ञान और संवेदन के साधन बने हुए हैं। वे भाग 'करण' कहलाते है। आंख एक 'करण' है। उसके माध्यम से रूप को जाना जा सकता है किन्तु मनुष्य के पूरे शरीर में 'करण' बनते की क्षमता है। यदि संकल्प के विशेष प्रयोगों के द्वारा पूरे शरीर को 'करण' किया जा सके तो कपोलों से भी देखा जा सकता है, हाथ और पैर की अंगुलियों से भी देखा जा सकता है। यह इन्द्रिय-चेतना का ही विकास है। इसे अतीन्द्रिय चेतना का विकास नहीं कहा जा सकता। पूरे शरीर से सुना जा सकता है, चखा जा सकता है, गंध का अनुभव किया जा सकता है । संभिन्न स्रोतोलब्धि आज का विज्ञान कहता है कि कानों की अपेक्षा दांतों से अच्छा सुना जा सकता है। दांत सुनने के शक्तिशाली साधन हैं । यदि थोड़ा-सा यांत्रिक परिवर्तन किया जाए तो जितना अच्छा दांत से सुना जा सकता है, उतना अच्छा कान से नहीं सुना जा सकता। एक लब्धि का नाम है - संभिन्न- श्रोतो - लब्धि । जो व्यक्ति इस लब्धि से सम्पन्न होता है, उसकी चेतना का इतना विकास हो जाता है कि उसका समूचा शरीर कान, आंख, नाक, जीभ और स्पर्श का काम कर सकता है । उसके लिए कान से सुनना या आंख से देखना आवश्यक नहीं होता। वह शरीर के किसी हिस्से से सुन सकता है, देख सकता है वह पांचों इन्द्रियों का काम समूचे शरीर से ले सकता है । उसके ज्ञान का स्रोत संभिन्न हो जाता है, व्यापक बन जाता हैं । मन की क्षमता I इन्द्रिय- चेतना की भांति मानसिक चेतना का विकास किया जा सकता है स्मृति मन का एक कार्य है। उसे विकसित करते-करते पूर्वजन्म की स्मृति ( जातिस्मृति) हो जाती है। यह भी अतीन्द्रिय चेतना (Extrasensory Percep tion- ई. एस. पी.) नहीं है। दूर-दर्शन, दूर- श्रवण, दूर-आस्वादन और दूरर - स्पर्शन का विकास भी इन्द्रिय चेतना का ही विकास है। ये सब विशिष्ट क्षमताएं है फिर भी इन्हें अतीन्द्रिय चेतना (ई. एस. पी.) नहीं कहा जा सकता । पूर्वाभास अतीन्द्रिय ज्ञान है ? परामनोविज्ञान के अनुसार पूर्वाभास (precognition) अतीन्द्रिय ज्ञान है Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैन दर्शन और विज्ञान पर वास्तव में वह संधिकालीन ज्ञान है। उसे न इन्द्रिय-ज्ञान कहा जा सकता है और न अतीन्द्रिय-ज्ञान । वह इन्द्रिय और मन से उत्पन्न नहीं है; इसलिए उसे इन्द्रियज्ञान नहीं कहा जा सकता। अतीन्द्रियज्ञान की क्षमता उत्पन्न होने पर भविष्य में घटित होने वाली घटना अथवा अतीत-कालीन घटना को प्रत्येक अवधान के साथ जाना जा सकता है किन्तु पूर्वाभास में ऐसा नहीं होता। उसमें भविष्य की घटना का आकस्मिक आभास होता है। अवधान के साथ उसके ज्ञान का निश्चित संबंध नहीं होता; इसलिए उसे अतीन्द्रिय-ज्ञान भी नहीं कहा जा सकता। वह दिन और रात की संधि की भांति इन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियज्ञान का संधिज्ञान है। मानसिक ज्ञान चैतन्य-केन्द्र मस्तिष्क है। मन की सारी वृत्तियां उसके विभिन्न कोष्ठों के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं। हम इन्द्रिय और मन के ज्ञान से ही परिचित हैं और उनके चैतन्य केन्द्र ही हमारी शरीर-संरचना में स्पष्ट हैं। इन्द्रिय और मन ज्ञान की सीमा नहीं है। वे ज्ञान के आदि-बिंद हैं। यदि कोई व्यक्ति अपने शरीरस्थ चैतन्य-केन्द्रों को विकसित कर सके तो वह इंद्रिय और मन से अतीत विषयों को जान सकता है। वे चैतन्य-केन्द्र ध्यान के द्वारा विकसित किए जा सकते हैं। अतीन्द्रिय चेतना का प्रकटीकरण मनुष्य का स्थूल शरीर सूक्ष्मतर शरीर का संवादी होता है। सूक्ष्मतर शरीर में जिन क्षमताओं के स्पंदन होते है, उन सबकी अभिव्यक्ति के लिए स्थूल शरीर में केन्द्र बन जाते है। उसमें शक्ति और चैतन्य की अभिव्यजंना के अनेक केन्द्र हैं। वे सुप्त अवस्था में रहते हैं। अभ्यास के द्वारा उन्हें जागृत किया जाता है। अपनी जागृत अवस्था में वे 'करण' बन जाते है। 'करण' को विज्ञान की भाषा में विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र (Electro-magnetic Field) कहा जा सकता है। हठयोग और तंत्रशास्त्र में चैतन्य-केन्द्रों को चक्र कहा जाता है। जैन योग में चैतन्य-केन्द्रों के अनेक आकारों का उल्लेख मिलता है, जैसे-शंख, कमल, स्वास्तिक, श्रीवत्स, नंद्यावर्त, ध्वज, कलश, हल आदि। ये नाना आकार वाले चैतन्य-केन्द्र इंद्रियातीत ज्ञान के माध्यम बनते हैं। इनके माध्यम से चैतन्य का प्रकाश बाहर फैलता है। अतीन्द्रियज्ञान का एक प्रकार है अवधिज्ञान । जैसे जालीदार ढक्कन में रखे हुए दीप का प्रकाश जाली में से छनकर बाहर आता है, वैसे ही अवधि-ज्ञान की प्रकाश-रश्मियां इन चैतन्य-केन्द्रों के माध्यम से बाहर आती है। आनुगमिक अवधिज्ञान के दो प्रकार होते हैं-अंतगत और मध्यगत। जैसे कोई मनुष्य टार्च को आगे की ओर करता है तब उसका प्रकाश आगे की ओर फैलता है। एक दिशा में फैलने वाले प्रकाश की भांति अंतगत अवधिज्ञान होता है। उसका प्रकाश आगे-पीछे या दाएं -बाएं फैलता है। वह जिस दिशा में फैलता है उस दिशा में स्पष्ट होता है। किंतु उसका Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान ११५ प्रकाश सब दिशाओं में नहीं फैलता । यह अवधिज्ञान संपूर्ण शरीर के माध्यम से नहीं होता किंतु जितने चैतन्य-केंद्र विकसित होते हैं उतने चैतन्य - केन्द्रों के माध्यम से होता है । एक मनुष्य में एक चैतन्य - केन्द्र भी विकसित हो सकता है और अनेक चैतन्य - केन्द्र भी विकसित हो सकते हैं । इनके विकास का हेतु ध्यान है । जिन चैतन्य - केन्द्रों पर अवधान नियोजित किया जाता है वे विकसित हो जाते हैं। ध्यान की धारा आगे-पीछे, दाएं-बाएं-जिस दिशा में प्रवाहित होती है उस दिशा के चैतन्य - केन्द्र जागृत हो जाते है और वे चैतन्य - रश्मियों के बहिर्निर्गमन के माध्यम बन जाते हैं । जैसे दीवट पर रखे हुए दीप का प्रकाश चारों दिशाओं में फैलता है वैसे ही मध्यगत अवधिज्ञान की प्रकाश- रश्मियां समूचे शरीर से बाहर आती हैं । तंत्रशास्त्र और हठयोग में छह या सात चक्रों का सिद्धांत प्रतिपादित हुआ है। प्रतिपादन की प्राचीन शैली रूपकमय है अतः चक्रों के विषय में स्पष्ट कल्पना करना कठिन है। बहुत लोगों ने उन्हें किसी विशिष्ट अवयव के रूप में स्थूल शरीर में खोजने का प्रयत्न किया पर उन्हें अपनी खोज में कभी सफलता नहीं मिली स्थूल शरीर में ग्रन्थियां हैं। शरीर शास्त्र के अनुसार उनका कार्य बहुत महत्त्वपूर्ण है। उन्हें चक्र माना जा सकता है । चक्रों और ग्रन्थियों के स्थान भी प्राय: एक ही हैं। मूलाधार चक्र का किसी ग्रन्थि से सीधा संबंध नहीं है। स्वाधिष्ठान चक्र का काम ग्रन्थि (गोनाड्स) से संबंध है। मणिपूर चक्र का एड्रीनल से, अनाहत चक्र का थाइमस से, विशुद्धि चक्र थाइराइड से, का पिच्यूटरी से और सहस्रार चक्र का पिनियल से संबंध स्थापित किया जा सकता है । विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र जैन पराविद्या के अनुसार शक्ति और चैतन्य के केन्द्र अनगिन हैं । वे पूरे शरीर में फैले हुए हैं। उन्हें ग्रन्थियों तक सीमित नहीं किया जा सकता । ग्रन्थियों का काम सूक्ष्मतर या कर्मशरीर से आने वाले कर्म-रसायनों और भावों का प्रभाव प्रदर्शित करना है । अतीन्द्रिय चेतना को प्रकट करना उनका मुख्य कार्य नहीं है । वे अतीन्द्रिय चेतना की अभिव्यक्ति के लिए विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र बन सकते हैं अथवा उनसे आसपास का क्षेत्र विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र बन सकता है । उनके अतिरिक्त शरीर के और भी अनेक भाग विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र बन सकते है; इसलिए शक्ति केन्द्रों और चैतन्य-केन्द्रों की संख्या बहुत अधिक हो जाती है । हमारी कोख के नीचे बहुत शक्तिशाली चैतन्य-केन्द्र है । हमारे कंधे बहुत बड़े शक्ति केन्द्र हैं । फलित की भाषा में कहा जा सकता है कि शक्ति केन्द्र और चैतन्य - केन्द्र शरीर के अवयव नहीं है किन्तु शरीर के वे भाग हैं, जिनमें विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र बनने की क्षमता है। वे भाग नभ से नीचे पैर की एड़ी तक तथा नाभि से ऊपर सिर की चोटी तक आगे भी हैं, पीछे 1 " Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैन दर्शन और विज्ञान भी हैं, दाएं भी हैं, और बाएं भी हैं। जब समस्त ऋजुता आदि विशिष्ट गुणों की साधना के द्वारा वे केन्द्र सक्रिय हो जाते हैं, 'करण' बन जाते हैं, तब उनमें अतीन्द्रिय चेतना प्रकट होने लग जाती है। यह कोई आकस्मिक संयोग नहीं है। यह एक स्थाई विकास है। एक बार चैतन्य-केन्द्र के सक्रिय हो जाने पर जीवन भर उसकी सक्रियता बनी रहती है। अतीन्द्रिय-ज्ञानी जब चाहे तब अपनी अतीन्द्रिय चेतना का करणभूत चैतन्य-केन्द्र के द्वारा उपयोग कर सकता है। वह सूक्ष्म, व्यवहित और दूरस्थ पदार्थ का साक्षात् कर सकता है। अतीन्द्रिय ज्ञान की जागृति का एक माध्यम है-प्रेक्षाध्यान। प्रेक्षाध्यान की प्रक्रिया प्रेक्षाध्यान की दो पद्धतियां है१. संपूर्ण शरीर-प्रेक्षा। २. चैतन्य-केंद्र प्रेक्षा। संपूर्ण शरीर की प्रेक्षा करने से पूरा शरीर करण' बन जाता है, अतीन्द्रिय-ज्ञान का साधन बन जाता है। इसमें दीर्घकाल, गहन अध्यवसाय, सघन श्रद्धा और धृति की अपेक्षा होती है कुछ महीनों और वर्षों की प्रेक्षासाधना से पूरा शरीर 'करण' नहीं बन जाता। उसके लिए बहुत बड़ा अभ्यास जरूरी होता है। इसकी अपेक्षा किसी एक चैतन्य-केन्द्र की प्रेक्षा का अभ्यास कुछ सरल होता है। पूरे शरीर की प्रेक्षा का परिपाक होने पर पूरे शरीर से अतीन्द्रियज्ञान की प्रकाश-रश्मियां बाहर फैलती हैं। चैतन्य-केन्द्र की प्रेक्षा से जो चैतन्य-केन्द्र जागृत होता है, उसी से अतीन्द्रियज्ञान की प्रकाश-रश्मियां बाहर फैलती हैं। अतीन्द्रियज्ञान की दोनों प्रकार की उपलब्धियां ध्यान के दो भिन्न कोटिक-अभ्यासों पर निर्भर हैं। जिस व्यक्ति की जैसी श्रद्धा, रुचि, शक्ति और धृति होती है वह उसी पद्धति का चुनाव कर लेता है कोई संपूर्ण शरीर प्रेक्षा का और कोई चैतन्य-केन्द्र प्रेक्षा का। प्रेक्षाध्यान की निष्पत्ति प्रेक्षाध्यान से दो कार्य निष्पन्न होते हैं१. करण-निष्पत्ति २. आवरण-विवि जहां अवधान नियोजित होता है वह शरीर-भाग अवधिज्ञान के लिए 'करण' या माध्यम बन जाता है। प्रेक्षाध्यान का अवधान राग द्वेष-रहित, समभावपूर्ण होता है, उससे ज्ञान और दर्शन का आवरण विशुद्ध होता है। आवरण के विशुद्ध होने पर जानने की क्षमता बढ़ती है और शरीर-भाग के विशुद्ध होने पर उस विकसित ज्ञान Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान ११७ को शरीर से बाहर फैलने का अवसर मिलता है। आवरण की विशुद्धि संपूर्ण चैतन्य में होती है, किंतु उसका प्रकाश शरीर-प्रदेशों को करण बनाए बिना नहीं जा सकता। विद्युत्-प्रवाह होने पर भी यदि बल्ब न होता उसका प्रकाश नहीं होता। ठीक यही बात ज्ञान पर लागू होती है । आवरण की विशुद्धि होने पर चैतन्य का प्रवाह उपलब्ध हो जाता है फिर भी शरीर-प्रदेश की विशुद्धि हुए बिना वह बाह्य अर्थ को नहीं जान सकता, प्रकाशित नहीं कर सकता। इसलिए ज्ञान के क्षेत्र में आवरण-विशुद्धि और करण-विशुद्धि-ये दोनों आवश्यक होती है। केन्द्र और संवादी केन्द्र चैतन्य-केन्द्र हमारे स्थूल शरीर में होते हैं। नाभि, हृदय, कंठ, नासाग्र, भृकुटि, तालु, सिर-ये चैतन्य-केन्द्र हैं। आवरण की विशुद्धि होने पर ये जागृत हो जाते हैं, निर्मल हो जाते हैं और अतींद्रिय ज्ञान की अभिव्यक्ति के माध्यम बन जाते हैं। ज्ञात चैतन्य-केन्द्रों के अतिरिक्त स्थल- शरीर के ऐसे अन्य परमाणस्कंध भी हैं जो अतींद्रिय ज्ञान के माध्यम बनते हैं। परिष्कृत या निर्मल बने हुए परमाणु-स्कंधों को स्थूल शरीर में देखा नहीं जा सकता। इसीलिए इन चैतन्य-केन्द्रों के विषय में विचार-भिन्नता मिलती है। कुछ लोग इनकी उपस्थिति प्राण-शरीर में मानते हैं और कुछ वासना-शरीर में । ये उन दोनों में हो सकते हैं, किंतु प्राण और वासना-शरीर में होने वाले केन्द्रों के संवादी केन्द्र यदि स्थूल शरीर में न हों, तो ज्ञान को अभिव्यक्ति नहीं मिल सकती। इंद्रियज्ञान के केंद्र सूक्ष्म शरीर में होते हैं और उनके संवादी केन्द्र हमारे स्थूल में होते हैं, तभी भीतर की ज्ञान-रश्मियां बाह्य जगत् में आती हैं। इन चैतन्य-केन्द्रों पर भी यही नियम लागू होता है। जो चैतन्य-केंद्र नाभि से ऊपर के भाग में होते हैं, वे विशद होते हैं। कुछ चैतन्य-केंद्र नीचे भी होते हैं, वे अविशद होते है; इसलिए आध्यात्मिक उत्क्रमण करने वालों के वे नहीं होते। परामनोविज्ञान में अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण (एक्स्ट्रा-सैन्सरी परसैप्शन) सामान्यत: बाह्य जगत् का बोध हमें अपनी ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही होता है। किन्तु जब किसी भी मन: प्रभाव अथवा भौतिक वस्तु या घटना का बोध हमें बिना किसी इन्द्रिय संवेद अथवा तार्किक अनुमान से हो तो उसे अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण (एक्स्ट्रा -सैंसरी परंसैप्शन) कहा जा सकता है। और, क्योंकि अभी तक इस प्रकार के बोध की कोई सामान्य व्याख्या किसी भी विज्ञान द्वारा सम्भव नहीं हो पाई है -अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण को 'परासामान्य' की श्रेणी में रखकर इसका परामनोविज्ञान में विस्तृत व गहन अध्ययन करने का प्रयास किया जा रहा है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैन दर्शन और विज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण सम्बन्धी शोध अनेक कारणों से महत्त्वपूर्ण है: प्रथम तो अनेक अन्य परासामान्य प्रघटनाओं को समझने में यह शोध सहायक सिद्ध हो सकता है, यथामाध्यमों द्वारा कथित प्रेतात्माओं के संदेश, कथित पूर्वजन्म की स्मृतियां व भूत-प्रेतों सम्बन्धी अनेक घटनाओं की वैकल्पिक व्याख्या अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण शक्ति के आधार पर करने का प्रयास किये हैं। दूसरे, अंतरिक्ष में संचार-संप्रेषण की जो कठिनाइयां दूरी के अनुपात में बढ़ती जाती हैं, उन्हें हल करने में इनका सहयोग हो सकता है । इनके अतिरिक्त जीवन के अनेक विविध क्षेत्रों जैसे लापता व्यक्तियों व अपराधियों की खोज तथा जासूसी आदि में भी संभवत: इन शोधकार्यों से महत्त्वपूर्ण योगदान मिल सके। वैसे यदि किसी दिन अतीन्द्रिय बोध क्षमता को पूर्णत: नियंत्रण में लाया जा सका, तो कदाचित् विश्व में ऐसी क्रांति आ जायेगी, जो पहले कभी किसी खोज द्वारा नहीं आ सकी है। अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण के चार स्वरूप होते हैं : परचित्तबोध (टैलीपैथी), दूरदृष्टि (क्लेयरवायेन्स), पूर्वाभास (प्रीकॉग्नीशन) व भूता-भास रिट्रोकॉग्नीशन)। कभी-कभी प्राप्त बोध का स्वरूप निश्चित करता कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति में उसे सामान्य अतीन्द्रिय बोध (जनरल एक्स्ट्रा-सैंसरी परसैप्शन) कहा जाता है। अतीन्द्रिय बोध की घटनाएं स्वत: स्फूर्त भी हो सकती हैं और प्रयोगों अथवा अन्य प्रकार से सप्रयास उत्पन्न भी की जा सकती हैं। दोनों ही प्रकारों का परामनोवैज्ञानिकों द्वारा अध्ययन किया गया है। विश्वभर की विभिन्न परामनोवैज्ञानिक शोध-संस्थाओं ने हजारों ही स्वत: स्फूर्त प्रकरणों के, खूब अच्छी तरह छानबीन करके, विवरण अपने प्रकाशनों में प्रस्तुत किये हैं। . अतीन्द्रिय बोध के अनुभव प्राय: किसी संकट (मृत्यु, बीमारी, आर्थिक हानि आदि) से संबंधित होते हैं, लेकिन कई बार बहुत मामूली बातों से सम्बन्धित भी पाये गये है। ये अनुभव पूर्ण जाग्रत अवस्था, अर्द्ध-जागृत, अर्द्ध-निद्रित अवस्था में व पूर्ण निद्रा अवस्था, सभी प्रकार की अवस्थाओं में होते हैं। कभी ये मात्र आंतरिक हल्के से अहसास के रूप में तो कभी तीव्र संवेदना के रूप में अभिव्यक्त होते है। कई बार जागृत व्यक्ति को ये मतिविभ्रम के रूप में भी अनुभूत होते हैं। स्वप्नों में तो ये प्राय: प्रकट होते ही हैं। १. अपोलो १४ में गए अंतरिक्ष यात्री मिशेल ने अंतरिक्ष से पृथ्वी के बीच अतीन्द्रिय बोध सम्बन्धी कुछ प्रयोग किए थे। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान १९६० के लगभग एक चैकोस्लोवाकी भौतिकशास्त्री, जीव-रसायन-शास्त्री व परामनोविज्ञानी डॉ. मिलान रिज्ल ने कुछ व्यक्तियों को सम्मोहित करके उनमें अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण की क्षमता विकसित करने का प्रयास किया। अपनी एक विशिष्ट विधि द्वारा आप एक युवक पावेल स्टैपनेक के साथ ऐसा करने में सफल भी हुए। पावेल की क्षमता की जांच करने अनेक देशों से परामनोविज्ञानी प्राग पहुंचे व उसे अनेक देशों की प्रयोगशालाओं में ले जाकर परीक्षण किया गया। पावेल सभी प्रयोगों में सफल रहा। किंतु एक विचित्र बात यह देखी गई कि पावेल कुछ विशेष प्रकार के प्रयोगों में व अपने प्रिय पत्तों का उपयोग में लिए जाने पर अवश्य सफल होता था। कुछ पत्तों को वह उन्हें चाहे जितने और चाहे जैसे लिफाफों में बन्द किये जाने पर भी सही-सही पहचान लेता था। ऐसा स्पष्ट संकेत मिलता है कि सम्मोहन द्वारा कुछ व्यक्तियों में अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण की क्षमता उत्पन्न की जा सकती है।) १९६८ में डॉ. थेलमा मॉस ने अपने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया कि भावात्मक (इमोशनल) सामग्री का संप्रेषण भावहीन की अपेक्षा अधिक मात्रा व अधिक स्पष्ट रूप में होता है। १९६२ में माइमोनीडिस डॉ. मोन्टेग्यू उलमान ने डॉ. गार्डनर मर्फी के सहयोग से एक 'ड्रीम लेबोरेटरी'-स्वप्न प्रयोगशाला मात्र परामनोवैज्ञानिक शोधकार्य हेतु स्थापित की। १९६४ में डॉ. स्टेनले क्रिपनेर के साथ यहां पर बहुत-से ऐसे प्रयोग किए गए जिनमें कि सोते हुए व्यक्ति के स्वप्नों को अन्य कमरे में किन्हीं कलाकृतियों पर ध्यान केन्द्रित करके प्रभावित करने की चेष्टा की गई। प्रयोगों से सफलतापूर्ण परिणाम प्राप्त हुए। अब यहां अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण के अन्य पहलुओं पर शोध चल रहा है। उधर रूस में लेनिनग्रेड विश्वविद्यालय में शरीरविज्ञान विभाग के अध्यक्ष व लेनिन पुरस्कार विजेता लियोनिड एल. वासिलियेव ने १९६० में एक सभा में उपस्थित रूस के वैज्ञानिकों को इस घोषणा से चौंका दिया कि वे लम्बे अरसे से परचित्त बोध शक्ति द्वारा सम्मोहन-सुझाव के प्रयोग करते रहे हैं। उन्होंने कहा कि “अमरीकी नौसेना आज अपनी आणविक पनडुब्बियों से परचित्त बोध शक्ति द्वारा संदेश भेजने का प्रयोग कर रही है, लेकिन सोवियत विज्ञानियों ने २५ वर्षे पूर्व ही इस तरह के अनेक सफल परीक्षण कर डाले हैं। ___सोवियत विज्ञानियों द्वारा जलमग्न पनडुब्बी व भूमि के बीच जो परीक्षण किया गया था वह मानव पर नहीं किया गया था। यह प्रयोग एक मादा खरगोश व उसके नवजात छौनों पर किया गया था। 'वैज्ञानिकों ने पनडुब्बी के छौनों को रखा और उनकी मां को तट पर Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैन दर्शन और विज्ञान स्थित एक प्रयोगशाला में रखा। यहां उनके मस्तिष्क में उन्होंने इलैक्ट्रोड्स लगा दिए। जब पनडुब्बी सागर में काफी नीचे चली गई तब उसमें मौजूद सहायकों ने एक-एक करके उन छौनों को मारना शुरू किया । मादा खरगोश को कुछ पता नहीं था कि क्या हो रहा है। बच्चों की मृत्यु कब हुई यह सब जानने का उसके पास कोई उपाय न था। फिर भी प्रत्येक छौने की मृत्यु के क्षण उसकी मां के मस्तिष्क में अजीब-सी प्रतिक्रिया हुई ।” • १९६६ में सुविख्यात 'द् ग्रेण्ड मोस्को - साइबेरिया टैलीपेथी टेस्ट' संपन्न किया गया था। इसका एक रोचक विवरण 'साइकिक डिस्कवरीज बिहाइंड द् आइरन कर्टेन' प्रस्तुत किया गया है : १९ अप्रैल, १९६६ की बात है । परिचित्त - बोध के परीक्षण के लिए कार्ल निकोलायेव को मास्को से साइबेरिया जाना पड़ा । साइबेरिया के विज्ञान - नगर के नाम से विख्यात नोवोसिब्रिस्क हवाई अड्डे पर जैसे ही कार्ल अपने विमान से उतरा उसे लगा जैसे बीसियों जोड़ी आंखें आकर उससे चिपक गई हैं। हर जोड़ी आंख में एक अलग किस्म का भाव है-किसी में जिज्ञासा, किसी में उपहास । कार्ल को यह सब स्वाभाविक लगा। वह जानता था कि बिना प्रत्यक्ष अनुभव किए लोग विश्वास ही नहीं करेंगे कि वह मास्को से भेजे गए परचित्त संदेशों को सूदूर साइबेरिया में ग्रहण कर सकता है । वह पूरे विश्वास से परीक्षण के लिए तैयार हो गया । साइबेरिया की ठण्डी सन्नाटे भरी आधी रात कार्ल 'गोल्डन वैली होटल' के एक कमरे में कुछ सोवियत वैज्ञानिकों के साथ बैठा था। कमरे में मौन छाया हुआ था। उधर सैकड़ों मील दूर मास्को के पूर्णतः पृथक् और 'इन्सुलेटेड' कक्ष में यूरी कास्की कुछ वैज्ञानिकों के साथ बैठा हुआ था । यूरी को यह कतई नहीं मालूम था कि उसे कार्ल को किस आशय का परचित संदेश भेजना है । कुछ ही क्षण बाद क्रेमलिन की घड़ी ने आठ बजाये और कक्ष में मौजूद एक विज्ञानी ने कास्की को एक सील बन्द पैकेट दिया । पैकेट में धातु की बनी एक मानी थी जिसमें सात घेरे थे । कास्की के शब्दों में- "मैंने कमानी को उठाया व उसके घेरे पर अंगुलियां फिराने लगा। मैंने कोशिश की कि कमानी के चित्र को पूरी तरह अपने में जज्ब कर लूं । साथ ही मैंने निकोलायेव के चेहरे को भी याद किया । मैंने कल्पना की कि जैसे निकोलायेव मेरे सामने बैठा है। इसके बाद मैंने कल्पना की की मैंने कार्ल निकोलायेव के एक कन्धे के पीछे से कमानी को देख रहा हूं। फिर मैंने कल्पना की कि मैं उसी (कार्ल निकोलायेव की ) आंखो से कमानी को देख रहा हूं।" “इसी क्षण उधर एक हजार आठ सौ साठ मील दूर कार्ल तनाव से भर गया । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान १२१ एक प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार उसकी अंगुलियां जैसे किसी ऐसी वस्तु पर, जो केवल कार्ल को दिखाई देती थी, फिरने लगीं। इसी क्षण उसने लिखा-गोल. धात निर्मित, चमकती हई, घेरे जैसी लगती है।'' इसके बाद जब कामेंस्की ने एक पेचकस का बिंब भेजना चाहा तो कार्ल निकोलायेव ने तत्क्षण लिखा-“लंबा, पतला. ..धातु.....प्लास्टिक..... काला प्लास्टिक।" मास्को-साइबेरिया के बीच हुए इस परचित्त बोध के परीक्षण की सोवियत सघ में व्यापक प्रतिक्रिया हुई और अतीन्द्रिय बोध सम्बन्धी और अनेक परीक्षण विभिन्न विज्ञानियों द्वारा किए गए। १९७१ में, अपोलो १४ के एक अन्तरिक्ष यात्री एडगर मिशेल पहले ऐसे व्यक्ति हुए, जिन्होंने कि अन्तरिक्ष व पृथ्वी के बीच अतीन्द्रिय बोध संबंधी परीक्षण किए। ___ चन्द्रमा पर कदम रखने वाले व्यक्ति मिशेल अन्तरिक्ष विज्ञानों में तीन 'डाक्टरेट' की उपाधियां अर्जित कर चुके थे। अनेक वर्षों से आपकी परामनोविज्ञान में विशेष रुचि रही है। जब आपका चन्द्रमा पर जाना निश्चित हुआ तो आपने इस परचित्तबोध की दूरी से जांच करने के लिए एक सुअवसर भी पाया। आपने जैनर कार्ड्स का उपयोग करते हुए पृथ्वी पर चार व्यक्तियों को उनके चिह्न संप्रेषित करने का प्रयास किया। डॉ. राइन व अमेरिकन सोसाइटी फॉर साइकिकल रिसर्च के डॉ. कार्लिस ओसिस ने इन प्रयोगों के परिणामों का विश्लेषण करके यह बताया कि इनसे पूर्वाभास का साक्ष्य मिलता है। अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण संबंधी इन अनेक प्रयोगों से यह तो सिद्ध हो गया कि 'अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण' एक वास्तविकता है, मात्र कपोल-कल्पना नहीं। किन्तु इसकी प्रकृति के सम्बन्ध में अभी भी अनेक प्रश्न है जिनके या तो आधे-अधूरे उत्तर ही मिल पाये हैं या जो अभी सर्वथा अनुत्तरित ही हैं। अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण की क्षमता कब-किन परिस्थितियों में उत्पन्न की जा सकती है? क्या इस पर किसी प्रकार से नियंत्रण किया जा सकता है? यह धीरे-धीरे कम क्यों हो जाती हैं? किस प्रकार के व्यक्तियों में यह क्षमता अधिक या कम पाई जाती है? आदि-आदि अनेक प्रश्न हैं, जिनका समुचित समाधान खोजना अभी बाकी है। १९५० से १९८२ के बीच इस तरह के प्रश्नों की कतार और लंबी हो गई है। नये प्रयोगों से जितने उत्तर मिले हैं कदाचित् उनसे अधिक अचिन्हे क्षेत्र उजागर हुए हैं। विचार-संप्रेषण ओकल्ट साइन्स के वैज्ञानिकों ने यह तथ्य प्रगट किया कि आदमी जब तक Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैन दर्शन और विज्ञान अपने शरीर के विशिष्ट केन्द्रों को चुम्बकीय क्षेत्र नहीं बना लेता, एलेक्ट्रो-मेग्नेटिक फिल्ड नहीं बना लेता, तब तक उसमें पारदर्शन की क्षमता नहीं जाग सकती । आज के पैरासाईकोलॉजिस्ट टेलीपैथी का प्रयोग करते हैं। टैलीपैथी का अर्थ है- विचार - संप्रेषण । एक आदमी कोसों की दूरी पर है। उससे बात करनी है, कैसे हो सकती है? आज तो टेलीफोन और वायरलेस का साधन है । घर बैठा आदमी हजारों कोसों पर रहने वाले अनके व्यक्तियों से बात कर लेता हैं प्राचीन काल में ये साधन नही थे, टेलीपैथी शब्द भी नहीं था । यह अंग्रेजी का शब्द है । उस समय विचारों को हजारों कोस दूर भेजना विचार संप्रेषण की प्रक्रिया से होता था । जैसे एक योगी है उसका शिष्य पांच हजार मील दूरी पर बैठे अपने शिष्य को कुछ बताना चाहता है, उससे बातचीत करना चाहता है तो विचार संप्रेषण की साधना की जाती जिससे विचारों का आदान-प्रदान हो जाता था । अतीन्द्रिय चेतना: विकास की प्रक्रिया विकास के क्रम के अनुसार प्रत्येक प्राणी में चेतना अनावृत होती है। इन्द्रिय, मानसिक और बौद्धिक चेतना के साथ-साथ कुछ अस्पष्ट या धुंधली - सी अतीन्द्रिय चेतना भी अनावृत होती है । पूर्वाभास विचार - संप्रेषण आदि उसी कोटि के हैं । अतीन्द्रिय चेतना की प्रारम्भिक अवस्था - - पूर्वाभास, अतीतबोध और उसकी विकसित अवस्था की सीमा को समझा जा सकता है । मनः पर्यवज्ञान या परचित्तज्ञान भी अतीन्द्रिज्ञान है । विचार-संप्रेषण विकसित इन्द्रिय-चेतना का ही एक स्तर है । उसे अतीन्द्रिय ज्ञान कहना सहज-सरल नहीं है । विचार - संप्रेषण की प्रक्रिया में अपने मस्तिष्क में उभरने वाले विचार - प्रतिबिम्बों के आधार पर दूसरे के विचार जाने जाते हैं। प्रत्येक विचार अपनी आकृति का निर्माण करता है । विचार का सिलसिला चलता है तब नई-नई आकृतियां निर्मित होती जाती हैं और प्राचीन आकृतियां विसर्जित हो, आकाशिक रेकार्ड में जमा होती जाती हैं। मनः पर्यवज्ञानी उन आकृतियों का साक्षात्कार कर संबद्ध व्यक्ति की विचारधारा को जान लेता है । उसमें अतीत, वर्तमान और भविष्य के विचारों को जानने की क्षमता होती है । मानसिक चिन्तन के लिए उपयुक्त परमाणुओं की एक राशि होती है । वह परमाणु राशि हमारे चिन्तन में सहयोग करती - है । उसके ग्रहण किए बिना हम कोई भी चिंतन नहीं कर सकते। उस राशि के परमाणुओं के भावी परिवर्तन के आधार पर मनः पर्यवज्ञानी भविष्य में होने वाले विचार को भी जान सकता है 1 मनुष्य का व्यक्तित्व दो आयामों में विकसित होता है । उसका बाहरी आयाम विस्तृत और निरंतर गतिशील होता है । उसका आन्तरिक आयाम संकुचित और निष्क्रिय होता है। उसके बाहरी आयाम की व्याख्या स्थूल शरीर, वाणी, मन और बुद्धि Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान १२३ के आधार पर की जाती है। उसके आन्तरिक आयाम की व्याख्या सूक्ष्म और सूक्ष्मतर शरीर, प्राण-शक्ति, प्रज्ञा (अतीन्द्रिय चेतना) और अमूर्छा के आधार पर की जा सकती है। बाहरी व्यक्तित्व से हमारा घनिष्ट सम्बन्ध है। उसमें बुद्धि का स्थान सर्वोपरि है, इसलिए वह हमारे चितंन की सीमा बन गयी। उससे परे पराविद्या की भूमिका है। पराविद्या का पहला चरण है बुद्धि की सीमा का अतिक्रमण। जैसे ही प्रज्ञा का जागरण होता है, बुद्धि की सीमा अतिक्रांत हो जाती है। इन्द्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है। बाहरी व्यक्तित्व इस सीमा से आगे नहीं जा सकता। इस सीमा को पार करते ही मनुष्य का आन्तरिक व्यक्तित्व उजागर हो जाता है। वहां प्राण-शक्ति प्रखर होती है और चेतना सूक्ष्म । बुद्धि की सीमा में पदार्थ के प्रति मूर्छा का न होना सम्भव नहीं माना जाता किन्तु प्रज्ञा की सीमा में समता का भाव निर्मित होता है और अमूर्छा संभव बन जाती है। पराविद्या के क्षेत्र में प्राण-ऊर्जा और अतीन्द्रिय चेतना का अध्ययन किया गया है किन्तु अमूर्छा या वीतरागता उसके अध्ययन का विषय अभी नहीं बन पाया है। यह परामनोविज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण शाखा हो सकती है। अमर्जा का विधायक अर्थ है-समता। उसका विकास होने पर अतीन्द्रिय चेतना अपने आप विकसित होती है। परामनोविज्ञान के क्षेत्र में काम करने वाले लोग केवल अतीन्द्रिय चेतना के विकास की खोज में लगे हुए हैं। यह खोज बहुत लम्बी हो सकती है और अनास्था भी उत्पन्न कर सकती है। अतीन्द्रिय चेतना की स्पष्टता के लिए शरीरगत चैतन्य-केन्द्रों को निर्मल बनाना होता है। संयम और चरित्र की साधना जितनी पुष्ट होती है, उतनी ही उनकी निर्मलता बढ़ती जाती है.। चैतन्य-केन्द्रों को निर्मल बनाने का सबसे सशक्त साधन है ध्यान । अतीन्द्रियज्ञान के धुंधले रूप चरित्र के विकास के बिना भी संभव हो सकते हैं किन्तु अतीन्द्रिय चेतना के विकास के साथ चरित्र के विकास का गहरा सम्बन्ध है। यहां चरित्र का अर्थ समता है, राग-द्वेष या प्रियता-अप्रियता के भाव से मुक्त होना है। उसकी अभ्यास पद्धति प्रेक्षा-ध्यान हैं। भावतंत्र का परिष्कार अग्रमस्तिष्क (फ्रंटल लॉब) कषय या विषमता के केन्द्र है। अतीन्द्रिय चेतना का केन्द्र भी वही है। जैसे-जैसे विषमता समता में रूपान्तरित होती है वैसे-वैसे अतीन्द्रिय चेतना विकसित होती चली जाती है। उसका सामान्य बिन्दु प्रत्येक प्राणी में विकसित होता है। उसका विशिष्ट विकास समता के विकास के साथ ही होता है। मनुष्य के आवेगों और आवेशों पर हाइपोथेलेमस का नियंत्रण है। उससे पिनियल और पिच्यूटरी ग्लैण्ड्स प्रभावित होते है। उनका स्राव एड्रीनल ग्लैण्ड को प्रभावित करता Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैन दर्शन और विज्ञान है। वहां आवेश प्रकट होते है। ये आवेग अतीन्द्रिय चेतना को निष्क्रिय बना देते हैं। उसी सक्रियता के लिए हाइपोथेलेमस और पूरे ग्रन्थितंत्र को प्रभावित करना आवश्यक होता है। ग्रन्थितंत्र का सम्बन्ध मनुष्य के भावपक्ष से है। भावपक्ष का सृजन इस स्थूल-शरीर से नहीं होता। उसका सृजन सूक्ष्म और सूक्ष्मतर शरीर से होता है। सूक्ष्म शरीर से आगे वाले प्रतिबिम्ब और प्रकंपन हाइपोथेलेमस के द्वारा ग्रन्थितंत्र में उतरते है। जैसा भाव होता है, वैसा ही ग्रन्थियां का स्राव होता है और स्राव के अनुरूप ही मनुष्य का व्यवहार और आचरण बनता है। यह कहने में कोई जटिलता नहीं लगती कि मनुष्य के व्यवहार और आचरण का नियंत्रण ग्रन्थितंत्र करता है और ग्रंथितंत्र का नियंत्रण हाइपोथेलेमस के माध्यम से भावतंत्र करता है और भावतंत्र सूक्ष्म-शरीर के स्तर पर सूक्ष्म-चेतना के साथ जन्म लेता है। स्मृति, कल्पना और चिन्तन की पवित्रता से भावतंत्र प्रभावित होता है और उससे ग्रन्थितंत्र का स्राव बदल जाता है। उस रासायनिक परिवर्तन के साथ मनुष्य का व्यवहार और आचरण भी बदल जाता है। यह परिवर्तन मनुष्य की अतीन्द्रिय चेतना को सक्रिय में बहुत उपयोग करता है। (३) अतीन्द्रियं शक्ति-योगज उपलब्धियां एवं मन:प्रभाव जैन दर्शन का दृष्टिकोण ऋद्धि और लब्धि ध्यान, तप और भावना ये तीनों शक्ति के स्रोत हैं। इनके द्वारा वीतरागता उपलब्ध होती है, चैतन्य का शुद्ध स्वरूप उपलब्ध होता है, मोक्ष उपलब्ध होता है। इनकी धारा जिस दिशा में प्रवाहित होती है वही दिशा उदघाटित हो जाती है। इनसे साधक को अनेक प्रकार की ऋद्धियों या लब्धियां भी प्राप्त होती हैं। ये सामान्य व्यक्ति में नहीं होती , इसलिए इन्हें अलौकिक या लोकोत्तर कहा जाता है। कुछ लोग इन्हें चमत्कार मानते हैं। पूर्वाभास, दूरबोध, वस्तुओं का इच्छाशक्ति से निर्माण और परिचालन, स्पर्श से भयानक बीमारियों को मिटाना-ये सब चमत्कार जैसे लगते हैं। चमत्कार का खंडन करने वालों का कहना है कि ये बातें नहीं हो सकतीं। ये प्राकृतिक नियमों के विरूद्ध हैं। जिन लोगों ने ध्यान के क्षेत्र में अभ्यास किया है वे लोग इस चमत्कारवाद को स्वीकार नहीं करते । उनका अभिमत है कि ये सब चमत्कार नहीं है। ये सारी घटनाएं प्राकृतिक नियमों के आधार पर ही घटित होती है। जिन लोगों ने इन विषयों में प्राकृतिक नियमों का ज्ञान नहीं है वे ही इन्हें चमत्कार कह सकते है। ध्यान की परंपरा हजारों वर्ष पुरानी है। ध्यान के आचार्यों ने अनेक प्राकृतिक नियमों की खोज की है। जो कुछ घाटेत होता है वह प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन नहीं है, किन्तु प्रकृति के सूक्ष्म नियमों का अवबोध है। रेडियो-तरंगों के संचार-क्रम Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान १२५ के नियमों को नही जानने वाला दूर-श्रवण को चमत्कार मान सकता है। उसकी दृष्टि में दूर-दर्शन भी एक चमत्कार ही है। किंतु एक वैज्ञानिक के लिए वह कोई चमत्कार नहीं हैं। 'क्ष' किरणों के द्वारा ठोस वस्तु के पार देखा जा सकता है। तब पार-दर्शन की शक्ति को चमत्कार कैसे माना जाए? हम इस तथ्य को अस्वीकार नहीं करेंगे कि मनुष्य के शरीर में अनेक रासायनिक द्रव्य हैं। वे विविध संयोगों में बदलते रहते हैं। भावना के द्वारा शारीरिक विद्युत् और रासायनिक द्रव्यों में परिवर्तन होता है। ध्यान और तपस्या के द्वारा भी ऐसा घटित होता है। इन आंतरिक परिवर्तनों की रसायनशास्त्र के नियमों द्वारा व्याख्या की जा सकती है। रसायनशास्त्र के सब नियम ज्ञात हो चुके हैं-यह नहीं कहा जा सकता। ऐसे अनेक नियम हो सकते हैं जो आज भी ज्ञात नहीं है। सब नियम ज्ञात हो जाएंगे, यह गर्वोक्ति सुदूर भविष्य में भी नहीं जा सकती। इस स्थिति में जिन आंतरिक ऋद्धियों को हम चमत्कार की संज्ञा देते हैं, इसकी अपेक्षा उचित यह होगा कि उन्हें हम प्रकृति के सूक्ष्म नियमों की जानकारी के फलित की संज्ञा दें। इन ऋद्धियों को आध्यात्मिक कहना भी बहुत संगत नहीं लगता। कुछेक ऋद्धियां आध्यात्मिक हो सकती हैं, जैसे-केवलज्ञान । किंतु सभी ऋद्धियां आध्यात्मिक नहीं हैं। बहुत सारी पौद्गलिक या भौतिक हैं। वे अंतर्जगत् में या आंतरिक साधनों से उपलब्ध होती हैं, इसलिए उन्हें अलौकिक कहा जा सकता है किंतु अपौद्गलिक या आध्यात्मिक नहीं कहा जा सकता। सही दिशा दो साधक एक बार मिले। एक को जल पर बैठने की सिद्धि प्राप्त थी। उसने कहा-'आओ, जल पर बैठे।' दूसरे को आकाश में बैठने की सिद्धि प्राप्त थी। उसने कहा-'आओ, आकाश में ही बैठे।' अपनी बात को मोड़ देते हए उसने फिर कहा-'जल पर बैठने में क्या बड़ी बात होगी? मछलियां उसी में रहती है। आकाश में बैठने का क्या महत्त्व होगा? पक्षी आकाश में ही रहते हैं। महत्त्व की बात यह होगी कि हम अध्यात्म का और अधिक विकास करें, समभाव को बढ़ाएं और वीतरागता की दिशा में गतिशील बनें।' ध्यान से मनुष्य दो दिशाओं में गतिशील होता है। एक दिशा है वीतरागता की और दूसरी दिशा है ऋद्धियों की। वीतरागता आध्यात्मिक उपलब्धि है और ऋद्धि चैतन्य और पुद्गल के संयोग से होने वाली उपलब्धि है। वह ध्यान-साधना के प्रासंगिक फलस्वरूप में भी होती है और ध्यान, भावना आदि को विशेष दिशा में प्रवाहित करने पर भी होती है। वह पौद्गलिक इसलिए है कि वनौषधि से भी उपलब्ध होती है। सभी ऋद्धियां वनौषधि से प्राप्त नहीं होतीं, कुछेक होती हैं, फिर भी वनौषधि से वे प्राप्त होती हैं इस लिए वे पौद्गलिक हैं। वचन-सिद्धि ध्यान-भावना Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैन दर्शन और विज्ञान आदि से भी प्राप्त होती है और वनौषधि के प्रयोग से भी प्राप्त होती है। दूरदर्शन, पूर्वजन्म की स्मृति आदि ऋद्धियां वनौषधि से भी उपलब्ध होती हैं। इसलिए वे पौद्गलिक हैं । वे मंत्र-साधना के द्वारा भी प्राप्त होती हैं। ध्वनि के स्पंदन और उसमें उत्पन्न होने वाली विद्युत् से शरीर और मन में अनेक परिवर्तन होते हैं। मंत्र, औषधि आदि से जो ऋद्धियां उपलब्ध होती हैं, वे आध्यात्मिक प्रक्रिया नहीं हैं। लब्धियों की विचित्र शक्ति तीन शब्द हैं-मनोबली, वचनबली, और कायबली। जिस साधक को मनोबल लब्धि प्राप्त होती है वह अंतर्महर्त में चौदह पूर्वो का परावर्तन कर सकता है। 'पूर्व' अथाह ज्ञान के भंडार हैं। उनका परावर्तन ४८ मिनिट में करना विशिष्ट शक्ति का द्योतक है। जिसे वचन लब्धि प्राप्त है वह पूर्व की ज्ञानराशि का उच्चारण अंतर्मुहूर्त में कर सकता है। यह बात बुद्धिगम्य नहीं होती, किंतु कम्प्यूटर के आविष्कार ने इस बात को बुद्धिगम्य बना डाला, समस्या का हल कर डाला। कम्प्यूटर एक सेकण्ड में एक लाख छियासी हजार गणित के भागों (विकल्पों) का गणित कर लेता है। विद्युत् की जितनी गति है, उसके अनुसार वह कार्य कर लेता है। विद्युत् की गति एक सेकण्डं में १,८६,००० मील की है। इतनी ही तीव्र गति से कम्प्यूटर गणित के विकल्पों का गणित कर लेता है। विद्युत् की गति से चलने वाला कम्प्यूटर एक सेकण्ड में इतना काम कर सकता है तो चतुर्दशपूर्वी एक अंतर्मुहूर्त में सारे ज्ञान का पारायण या उच्चारण क्यों नहीं कर सकता? कम्प्यूटर के पास विद्युत् की शक्ति है तो चतुर्दशपूर्वी के पास तैजस शक्ति है। उसक तैजस शरीर इतना विकसित हो जाता है, उसकी दैहिक विद्युत् इतनी तीव्रगामी हो जाती है कि वह यह काम सहजता से कर सकता है। तैजस की विद्युत् इस विद्युत् से अधिक शक्तिशाली होती है। इतना होने पर भी हम अपौद्गलिकता की सीमा में नही जा सकते। चाहे कम्प्यूटर की त्वरित शक्ति हो, चाहे चतुर्दशपूर्वी की त्वरित शक्ति हो, यह है सारी पौद्गलिक सीमा में। कम्प्यूटर विद्युत् की धारा के सहारे अपना कार्य करता है और चतुर्दशपूर्वी तैजस शरीर की विद्युत-धारा के सहारे अपना कार्य करता है। विद्युत्-धारा भी पौद्गलिक है और तैजस शरीर भी पौद्गलिक है वे अ-पौद्गलिक नहीं है। __ लब्धि, ऋद्धि, योगज उपलब्धि, प्रातिहार्य, अतिशय, वचनातिशय आदि का जितना विशद विवेचन जैन साहित्य में उपलब्ध है, उतना अन्यत्र दुर्लभ है। इस वर्णन का सार यह है कि चेतना की आंतरिक शक्तियों को विकसित कर समस्त पौद्गलिक जगत् को प्रभावित किया जा सकता है। चेतना-जनित भौतिक बल जिसे "Psycho-physical Force'' कहा जा सकता है के विभिन्न प्रभाव उक्त लब्धि १. जैन आगमों के ग्रन्थ-विशेष Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान आदि शक्तियों में प्रतिलक्षित होते हैं । ऋद्धियां: प्राप्ति और परिणाम ऋद्धि की उपलब्धि के अनेक साधन हैं- विद्या, मंत्र, तंत्र, तपस्या भावना और ध्यान। इनकी प्रायोगिक पद्धति प्रायः लुप्त हो चुकी है। फिर भी उसके कुछ बीज आज भी सुरक्षित हैं । कुछ प्रमुख ऋद्धियां इस प्रकार है- १. केवलज्ञान - पूर्ण अतीन्द्रिय ज्ञान । २. अवधिज्ञान - आंशिक अतीन्द्रिय ज्ञान । ३. मनः पर्यवज्ञान - मानसिक अवस्थाओं का ज्ञान । ४. बीजबुद्धि - एक बीज - पद को प्राप्त कर उसके सहारे अनेक पदों और अर्थों को जानने की क्षमता । क्षमता ! ५. कोष्ठबुद्धि - गृहीत पद और अर्थ की ध्रुव स्मृति । ६. पदानुसारित्व - एक पद के आधार पर पूरे श्लोक या सूत्र को जानने की १२७ ७. संभिन्नस्रोत-(१) किसी भी एक इंद्रिय के द्वारा सभी इंद्रियों के विषयों को जानने की क्षमता । ८. दूर - आस्वादन -दूर से आस्वाद लेने की क्षमता । ९. दूर-दर्शन- दूरस्थ विषयों को देखने की क्षमता । १०. दूर - स्पर्शन- दूरस्थ विषयों का स्पर्श करने की क्षमता । ११. दूर-घ्राण- दूरस्थ गंध को सूंघने की क्षमता । १२. दूर-श्रवण- दूरस्थ शब्द को सुनने की क्षमता । १३. चारण और आकाशगामित्व (२) सब अंगों से सुनने की क्षमता । (३) अनेक शब्दों को एक साथ सुनने और उनका अर्थ -- बोध करने की क्षमता । ० जंघा - चारण-सूर्य की रश्मियों का आलंबन ले आकाश में उड़ने की क्षमता । एक ही उड़ान में लाखों योजन दूर तथा हजारों योजन ऊंचा चला जाना । धरती से चार अंगुल ऊपर पैरों को उठाकर चलना । ० व्योम - चारण- पद्मासन की मुद्रा में आकाश में उड़ने की क्षमता । ० जल- चारण- जल के जीवों को कष्ट दिए बिना समुद्र आदि जलाशयों पर चलने की क्षमता । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैन दर्शन और विज्ञान 0 पुष्प-चारण-वनस्पति को कष्ट दिए बिना फूलों के सहारे चलने की क्षमता। ० श्रेणी-चारण- पर्वतों के शिखरों पर चलने की क्षमता। 0 अग्निशिखा-चारण-अग्नि की शिखा का आलंबन ले चलने की क्षमता। .0 धूम-चारण-धूम की पंक्ति के सहारे उड़ने की क्षमता। ० मर्कटतंतु-चारण-मकड़ी के जाल के सहारा ले चलने की क्षमता। ० ज्योतिरश्मि-चारण-सूर्य, चांद या अन्य किसी ग्रह-नक्षत्र की रश्मियों को पकड़कर ऊपर जाने की क्षमता। ० वायु-चरण-हवा के सहारे ऊपर उड़ने की क्षमता। ० जलद-चारण-मेघ के सहारे चलने की क्षमता। ० अवश्याय-चारण-ओस के सहारे उड़ने की क्षमता। १४. आमर्ष-औषधि-हस्त, पाद आदि के स्पर्श से व्याधि के अपनयन की क्षमता। १५. क्ष्वेलौषधि-थूक से व्याधि के अपनयन की क्षमता। १६. जल्लौषधि-मेल से व्याधि के अपनयन की क्षमता। १७. मलौषधि-कान, दांत आदि के मल से व्याधि के अपनयन की क्षमता। १८. विपुडौषधि-मल-मूत्र से व्याधि के अपनयन की क्षमता। १९. सर्वौषधि-शरीर के सभी अंग, प्रत्यंग, नख, दंत आदि से व्याधि के अपनयन की क्षमता। जिसे ये औषधि-ऋद्धियां (१४-१९) प्राप्त होती हैं, उसके अवयवों में रोग. को दूर करने की क्षमता विकसित हो जाती है और उसके थूक, मेल, मल, मुत्र आदि सुरभित हो जाते हैं। २०. आस्यविष-वाणी के द्वारा दूसरे में विष व्याप्त करने की क्षमता। २१. दृष्टिविष-दृष्टि के द्वारा दूसरे में विष व्याप्त करने की क्षमता। २२. क्षीरामवी- ११. हाथ के स्पर्श मात्र से विरस भोजन को दूघ, मधु, २३. मध्वास्रवी- घी और अमूत की भांति सरस करने की क्षमता। २४. सर्पिरालवी- | २. दूध, मधु, घी और अमृत की भांति मन को २५. अमृतास्रवी-- आह्लादित और शरीर को रोमांचित करने की वाचिक क्षमता। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान १२९ २६. अक्षीणमहानस-हाथ के स्पर्श मात्र से भोजन को अखूट करने की क्षमता। २७. मनोबली-क्षणभर में विपुल श्रुत और अर्थ के चिंतन की मानसिक क्षमता। २८. वागबली-ऊंचे स्वर से सतत श्रुत का उच्चारण करने पर भी अश्रांत रहने की क्षमता। २९. कायबली-महीनों तक एक ही आसन बैठे या खड़े रहने की क्षमता। ३०. वैक्रिय-इनके अनेक प्रकार हैं(१) अणिमा-शरीर को छोटा बनाने की क्षमता। (२) महिमा-शरीर को बड़ा बनाने की क्षमता। (३) लघिमा-शरीर को वायु से भी हल्का बनाने की क्षमता। (४) गरिमा-शरीर को भारी बनाने की क्षमता। (५) अप्रतिघात-ठोस पदार्थों से भी अस्खलित गति करने की क्षमता। (६) कामरूपित्व-एक साथ अनेक रूपों के निर्माण की क्षमता।. ३१. आहारक-एक पुतले का निर्माण कर यथेष्ट स्थान पर भेजने की क्षमता। ३२. तेजस्–शारीरिक विद्युत् के द्वारा अनुग्रह और निग्रह करने की क्षमता। यह हठयोग और तंत्रशास्त्र में प्रसिद्ध कुंडलिनी शक्ति है। तेजालेश्या (कुंडलिनी) तैजस शरीर: अनुग्रह-निग्रह का साधन हम शरीरधारी है। शरीर दो प्रकार के हैं--स्थूल और सूक्ष्म । अस्थिचर्ममय शरीर स्थूल है। तैजस शरीर सूक्ष्म और कर्म-शरीर अतिसूक्ष्म है। हमारे पाचन, सक्रियता और तेजस्विता का मूल तैजस शरीर है। वह पूरे स्थूल शरीर में व्याप्त रहता है तथा दीप्ति और तेजस्विनी उत्पन्न करता है। विद्युत, प्रकाश और ताप-ये तीनों शक्तियां उसमें विद्यमान है। शरीर में दो प्रकार की विद्युत् है-घार्षणिक और धारावाही या मानसिक । घाणिक विद्युत् का उत्पादन शरीर करता है और धारावाही विद्युत् का उत्पादन मस्तिष्क करता है। मस्तिष्कीय विद्युत्-धारा स्नायु-मंडल में संचरित रहती है। वह ज्ञान-तंतुओं के द्वारा मस्तिष्क तक पहुंचाती है और उससे मिले निर्देशों का शारीरिक अवयवों के द्वारा क्रियान्वयन कराती है। इसका मूल हेतु तैजस शरीर है। यह शरीर प्राणिमात्र के साथ निरन्तर रहता है। एक प्राणी मृत्यु के उपरान्त दूसरे जन्म में जाता है। उसे अन्तराल गति में भी तैजस शरीर उसके साथ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैन दर्शन और विज्ञान रहता है। कर्म-शरीर सब शरीरों का मूल है। उसके बाद दूसरा स्थान तैजस शरीर का है। यह सूक्ष्म पुद्गलों से निर्मित होता है, इसलिए चर्म-चक्षु से दृश्य नही होता। यह स्वाभाविक भी होता है और तपस्या द्वारा उपलब्ध भी होता है। यह तप द्वारा उपलब्ध तैजस शरीर से ही तेजोलेश्या है। इसे तेजोलब्धि भी कहा जाता है। स्वाभाविक तैजस शरीर सब प्राणियों में होता है। तपस्या से उपलब्ध होने वाला तैजस शरीर सबमें नही होता। वह तपस्या से उपलब्ध होता है। इसका तात्पर्य यह है कि तपस्या से तैजस शरीर की क्षमता बढ़ जाती है। स्वाभाविक तैजस शरीर स्थूल शरीर से बाहर नहीं निकलता। तपोजनित तैजस शरीर शरीर के बाहर निकल सकता है। उसमें अनुग्रह और निग्रह की शक्ति होती है। उसके बाहर निकलने की प्रक्रिया का नाम तैजस समुद्घात हैं। जब वह किसी पर अनुग्रह करने के लिए बाहर निकलता है तब उसका वर्ण हंस की भांति सफेद होता है। वह तपस्वी के दाएं कंधे से निकलता है। उसकी आकृति सौम्य होती है। वह लक्ष्य हित-साधन कर (रोग आदि का उपशमन कर) फिर अपने मूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। जब वह किसी का निग्रह करने के लिए बाहर निकलता है तब उसका वर्ण सिन्दूर जैसा लाल होता हैं। वह तपस्वी के बाएं कंधे से निकलता है। उसकी आकृति रौद्र होती है। वह लक्ष्य का विनाश, दाह कर फिर अपने मूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। ___ अनुग्रह करने वाली तेजोलेश्या को 'शीत' और निग्रह करने वाली तेजोलेश्या को उष्ण कहा जाता है। शीतल तेजोलेश्या उष्ण तेजोलेश्या के प्रहार को निष्फल बना देती है। तेजालेश्या अनुपयोग काल में संक्षिप्त और उपयोग काल में विपुल हो जाती है। विपुल अवस्था में वह सूर्यबिम्ब के समान दुर्दर्श होती है। वह इतनी चकाचौंध पैदा करती है कि मनुष्य उसे खुली आंखों से देख नहीं सकता। तेजोलेश्या का प्रयोग करने वाला अपनी तैजस्-शक्ति को बाहर निकालता है तब वह महाज्वाला के रूप में विकराल हो जाती है। तेजोलेश्या का स्थान तैजस शरीर हमारे समूचे स्थूल शरीर में रहता है। फिर भी उसके दो विशेष केन्द्र हैं-मस्तिष्क और नाभि का पृष्ठभाग। मन और शरीर के बीच सबसे बड़ा संबंध-सेतु मस्तिष्क है। नाभि के पृष्ठभाग में खाए हुए आहार का प्राण के रूप में परिवर्तन होता है। अत: शारीरिक दृष्टि से मस्तिष्क और नाभि का पृष्ठभाग--ये दोनों तेजोलेश्या के महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन जाते हैं। यह तेजोलेश्या एक शक्ति है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान तेजालेश्या के विकास-स्रोत तेजोलेश्या के विकास कोई एक ही स्रोत नहीं है। उसका विकास अनेक स्रोतों से किया जा सकता है। संयम, ध्यान, वैराग्य, भक्ति, उपासना, तपस्या आदि आदि उसके विकास के स्रोत है। इन विकास-स्रोतों की पूरी जानकारी लिखित रूप में कहीं भी उपलब्ध नहीं होती। यह जानकारी मौलिक रूप में आचार्य शिष्य को स्वयं देते थे। गोशालक ने महावीर से पूछा--भंते ! तेजोलेश्या का विकास कैसे हो सकता है?' महावीर ने इसके उत्तर में उसे तेजोलेश्या के एक विकास-स्रोत का ज्ञान कराया। उन्होंने कहा- 'जो साधक निरन्तर दो-दो उपवास करता है, पारणा के दिन मुठ्ठीभर उड़द या मूंग खाता है और एक चूल्लू पानी पीता है, भुजाओं को ऊंचीकर सूर्य की आतापना लेता है, वह छह महीनों के भीतर ही तेजोलेश्या को विकसित कर लेता है।' तेजोलेश्या के तीन विकास-स्रोत हैं१. आतापना-सूर्य के ताप को सहना। २. क्षांति-क्षमा-समर्थ हुए भी क्रोध-निग्रहपूर्वक अप्रिय व्यवहार को सहन करना। ३. जल-रहित तपस्या करना। परामनोविज्ञान में मन:प्रभाव (साइकोकाइनेसिस) मन द्वारा पदार्थ के सीधे प्रभावित करने की क्रिया को मन:प्रभाव (साइकोकाइनेसिस) कहा गया है। बाह्य जगत् में मानवीय कार्यों के प्रति सामान्य मान्यता यही है कि प्रत्येक पदार्थ कार्य के लिए दैहिक अवयवों, यथा मस्तिष्क, स्नायुओं, मांसपेशियों व कर्मेन्द्रियों का होना अनिवार्य है। किन्तु जब कोई क्रिया बिना दैहिक माध्यम के, मन द्वारा सीधे पदार्थ को प्रभावित करके सम्पन्न होती हो, तो उसे 'परामनोविज्ञान' की श्रेणी में ही रखना होगा। बिना दैहिक (एंद्रियिक) माध्यम के मन द्वारा सीधे ही प्रत्यक्षण कर सकने की क्षमता का विवेचन कर चुके हैं। अब यह देखें कि मन के द्वारा सीधे पदार्थ को प्रभावित करने की क्षमता के बारे में परामनोविज्ञानी दृष्टि से क्या कहा जा सकता है। ___ एक सुबह की बात है। आइरीन नामक एक युवती अपने कमरे में अभी नींद में ही थी कि उसके साथ उसी कमरे में रहने वाली उसकी सहेली कुछ खरीददारी के लिए बाजार चली गई। जब वह बहुत सारा समान लेकर लौटी, तो उसने सोचा कि वह नीचे से ही घंटी बजा दे, ताकि जब वह ऊपर पहुंचे, तो उसे कमरे का दरवाजा खुला मिले। यह सोचते-सोचते वह नीचे के दरवाजे को पार कर Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जैन दर्शन और विज्ञान गई। फिर एक क्षण तो उसने मुड़कर देखा और सोचा भी “मैं घंटी बजाऊं तो ठीक ही रहेगा।'' लेकिन उसने घंटी बजाई नहीं। नीचे जब वह यह सोच ही रही थी कि ऊपर आइरीन को घंटी की इतनी जोर की आवाज सुनाई दी कि वह एकदम कूदकर बिस्तर से बाहर निकली और दरवाजे की ओर लपक गई। ___ यदि निश्चित रूप से यह कहा जा सके कि आइरीन की सहेली ने वास्तव में अनजाने में, घंटी नहीं बजाई थी तो यह तो स्वीकार करना होगा कि परा-सामान्य अन्तर्निहित है: किन्तु वह अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण है या मन:-प्रभाव यह निश्चित करना स्वयं परामनोविज्ञानियों के लिए कठिन है। __ और सोवियत संघ के विज्ञानियों द्वारा खूब अच्छी तरह अध्ययन की हुई मादाम नेल्या मिखाइलोवा के जीवन की यह घटना (असली नाम नाइनेल कुलागिना) तो निस्संदेह परीकथाओं की तरह अविश्वसनीय है। “एक बार मादाम मिखाइलेवा एक भोज पार्टी में गयी। वहां एक टेबुल पर डबलरोटी उससे कुछ दूर रखी हुई थी। उसने उसकी ओर एकटक लगातार देखना शुरू किया। कुछ ही मिनटों बाद डबलरोटी उसकी ओर सरकने लगी। जैसे ही वह टेबुल के छोर पर आई, मादाम मिखाइलेवा ने थोड़ा झुककर मुंह खोला और अगले ही क्षण परीकथाओं के अद्भुत अविश्वसनीय दृश्य की तरह वह डबलरोटी उसके मुंह में पहुंच गई। मादाम मिखाइलेवा स्पष्टत: मन:प्रभाव अभिव्यक्त कर रही थीं। ____ कुशाग्रबुद्धि एवं आकर्षक व्यक्तित्व वाली महिला मादाम मिखाइलेवा ने सोवियत संघ के सर्वोच्च वैज्ञानिकों की देखरेख में अनेक बार विभिन्न प्रकार की वस्तुओं जैसे, कम्पास, धातु का बेलन, फाउन्टेन पैन, माचिस की डिबिया, कांच के कवर के नीचे रखी पांच सिगरेटों आदि को बिना उन्हें स्पर्श किये, हिलाने-डुलाने अथवा खिसकाने की क्षमता का प्रदर्शन किया है। __१९६८ में 'मास्को प्रावदा' में मास्को विश्वविद्यालय के सैद्धान्तिक भौतिकशास्त्र विभाग के अध्यक्ष डॉ. याटरलेस्टकी ने स्पष्ट कहा : "श्रीमति मिखाइलोवा ऊर्जा के एक नये व अज्ञात रूप का प्रदर्शन करती हैं और अनेक प्रकार के संशयों व आलोचनाओं के बावजूद हर वैज्ञानिक को, जिसने भी मादाम मिखाइलोवा का गम्भीर रूप से अध्ययन किया, इस मत से सहमत होना पड़ा। मादाम मिखाइलोवा पर कोई साठ फिल्में तैयार हुईं जिनमें कि वे एक टेबुल पर पड़ी विभिन्न प्रकार की वस्तुओं को मात्र उन पर अपनी दृष्टि केंद्रित १. ऑस्ट्रेन्डर रोला व स्क्रोडर लिन, 'साइकिक डिस्कवरीज बिहाइन्ड द आइरन कर्टेज,' प्रिस्टस हॉल, न्यूयॉर्क १९७० । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान १३३ करके अथवा उनके ऊपर (दूरी से ) अपने हाथ चक्राकार रूप में घुमाकर, उन वस्तुओं को इधर-उधर हिला-डुला रही है । अनेक बार उन्होंने ये करतब टेलीविजन के कैमरे के समक्ष, अनेक वैज्ञानिकों, परामनोवैज्ञानिकों, रिपोर्टरों व अन्य दर्शकों की उपस्थिति में करके दिखाये । प्रदर्शनों से पूर्व मादाम मिखाइलोवा की पूरी अच्छी तरह जांच-पड़ताल कर ली जाती थी कि उन्होंने कहीं कोई धागे या अन्य ऐसी चीज छुपा तो नहीं रखी है, जिससे कि वे वस्तुओं में गति उत्पन्न कर देती हैं । कोई चुम्बक छुपाया हुआ नहीं है, इस उद्देश्य से उनका 'एक्स-रे' भी किया जाता था, यद्यपि अचुम्बकीय वस्तुओं जैसे लकड़ी, कांच व अण्डों को भी गति प्रदान करती रही हैं। दर्शकों के सम्मोहित हो जाने सम्भावना पर भी विचार किया गया लेकिन इसे सही नहीं पाया गया । इन प्रयोगों में, जैसे एक बार जब उन्होंने पहले एक कम्पास की सुई को घुमा दिया फिर पूरे कम्पास को उसके केस सहित अपने हाथ को और बाद में अपने शरीर को घुमाते हुए घुमाया, तो यह स्पष्ट देखा गया कि उन्हें कितना अधिक परिश्रम करना पड़ रहा है-उनका सारा मुंह सिकुड़-सा गया - माथे पर अनेक लकीरें उभर आईं। 'करतब' दिखाने हेतु स्वयं को उपयुक्त स्थिति में लाने के लिए कभी-कभी उन्हें दो से चार घण्टे तक लग जाते थे। डॉ. गेनाडे सुर्गेव का कहना है कि इनकी नाड़ी की गति २४० तक हो जाती थी और कोई आधे घंटे के भीतर ही उनके शरीर का भार ४ पौंड तक कम हो जाया करता था । करतब कर चुकने के बाद वे एकदम निढाल भी हो जाती थीं, उनके पैरों में दर्द होने लगता और कभी-कभी तो कुछ देर तक उन्हें दिखाई भी नहीं देता था। डॉ. सुर्गेव ने अपने विशिष्ट उपकरणों की सहायता से मादाम मिखाइलोवा के शरीर को घेरनेवाले 'शक्तिपूर्ण क्षेत्र' की जांच की, तो पता चला कि उनकी विद्युत् चुम्बकीय शक्ति का क्षेत्र औसत व्यक्ति की अपेक्षा कहीं ज्यादा था । उन्होंने यह भी पता लगाया कि आम तौर पर व्यक्ति अपने मस्तिष्क के अग्रभाग के बजाय पृष्ठभाग से तीन या चार गुना अधिक विद्युत् वाल्टेज प्रवाहित करता है जबकि मादाम मिखाइलोवा अपने मस्तिष्क के पृष्ठभाग से कोई ५० गुना अधिक वोल्टेज प्रवाहित करती थी । १९७२ में एक आंग्ल भौतिक-शास्त्री व डाऊन टाउन में परामनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला के निदेशक, बेन्सन हर्बर्ट, मादाम मिखाइलोवा का अध्ययन करने मास्को गये। आपने पाया कि वे वस्तुओं को दूर तक सरका ही नहीं देती हैं वरन् इच्छानुसार अपने दायें या बायें हाथ में गर्मी भी उत्पन्न कर सकती है । अपने गर्म हाथ से यदि वे किसी की बांह पकड़ लेतीं तो उसे बहुत दर्द होने लगता व वहां जलने का निशान भी बन जाता था जो कई दिनों तक बना रहता । कोई तीन Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैन दर्शन और विज्ञान टेबुलें पूरी भर जायें-परीक्षण हेतु इतने उपकरण लेकर १९७३ में बेन्सन हर्बर्ट पुन: लौटकर आये। मादाम मिखाइलोवा ने उनके सभी प्रयोगों में पूरा सहयोग दिया। बेन्सन हर्बर्ट ने हर तरह से इस बात की अच्छी तरह छानबीन की कि कहीं कोई सामान्य कारण मिल जाये। मादा मिखाइलोवा के शरीर के एक-एक इंच की जांच की गई। कमरे का पूरा फर्श, हर कुर्सी, टेबुल, यहां तक कि कम्पास की भी विस्तारक लेन्स द्वारा जांच की गई। अन्तत: सभी तरह के परीक्षण करने के बाद बेन्सन हर्बर्ट को भी कहना पड़ा कि मादाम मिखाइलोवा में “वस्तुओं में बिना किसी भी ज्ञात शक्ति का उपयोग किये, इच्छानुसार गति उत्पन्न करने की क्षमता है।" ___ मादाम मिखाइलोवा ने हर वैज्ञानिक के साथ, उसके सभी प्रकार के यन्त्रों से, उसके द्वारा निर्धारित सभी प्रकार की दिशाओं में, उन पर हर तरह से परीक्षण करने में पूरा सहयोग दिया है और कोई भी वैज्ञानिक न तो यह कह सका है कि मादाम मिखाइलोवा धोखाधड़ी करती है और न ही यह बतला सका कि वे किस भौतिक शक्ति का उपयोग करती हैं। १९७० में डॉ. लुइसा राइन ने मन:प्रभाव पर एक पुस्तक लिखी है : ‘माइंड ओवर मैटर'। डॉ. जे. बी. राइन का उनके सहयोगियों ने ड्युक विश्वविद्यालय मै अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण के साथ-साथ अनेक वर्षों तक मन:प्रभाव संबंधी सैकड़ों परीक्षण करके मन:प्रभाव के सांख्यिकीय साक्ष्य एकत्रित किये हैं। एक अन्य व्यक्तित्व, जो कि वैज्ञानिकों के लिए उलझन बना हुआ है, वह एक इजरायली युवक ऊरी गैलर। गैलर का जन्म अबीब में २० दिसम्बर १९४६ को हुआ था। उसकी माता विख्यात मनोवैज्ञानिक सिगमण्ड फायड की रिश्तेदार थीं। गैलर का कहना है कि उसमें बचपन से ही कुछ परासामान्य क्षमताएं थीं। जब वह बच्चा ही था, ताश खेलकर लौटी अपनी मां को बता दिया करता था कि वे जुएं में कितना हारी या कितना जीती थीं। जब वह सात वर्ष का था तो उसकी उपस्थिति में घडड़ी की सुइयां अपने-आप इधर-उधर हो जाया करती थीं। धीरे-धीरे उसमें ये शक्तियां बढ़ती गईं। १९६७ के अरब-इजरायली युद्ध के बाद तो वह सार्वजनिक रूप से इनका प्रदर्शन करने लगा। कहते हैं कि उसने एक पार्टी में दूसरे कमरे में खींचे गये चित्र की वैसी की वैसी अनुकृति बना कर दिखा दी और एक चाबी को बिना छुए मोड़ दिया। धीरे-धीरे वह • पूरे इजराइल में जाना जाने लगा। अब होटलों,क्लबों आदि में अपने करतब दिखाना ही उसका काम हो गया था। १९६९ में जब उसने एक स्कूल में अपनी शक्तियों का · प्रदर्शन करते हुए अनेक धातुओं की वस्तु को तोड़-मरोड़ दिया तो वैज्ञानिकों का भी Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान १३५ उसकी ओर ध्यान गया। १९७१ में न्यूयार्क विश्वविद्यालय के एक विज्ञानी डॉ. एड्रिजा पुहारिख यह जानने के लिए कि गैलर में ये क्षमताएं वास्तव में हैं अथवा वह एक बहुत ही चतुर तमाशेबाज है, उसका अध्ययन करने इजरायल गये। यहां आपने जो कुछ देखा, उसमें ऊरी गैलर द्वारा चम्मचों के सिरे उड़ा देना, कांटों एवं छरियों को मोड़ देना, सोने की अंगूठियों और चैनों को तोड़ देना व चालू या बंद कर देना आदि अनेक करतब सम्मिलित थे। यही नहीं, डॉ. पुहारिख का दावा तो यहां तक है कि उन्होंने गैलर द्वारा वस्तु के विसर्जन व पुन:निर्माण आदि के प्रदर्शन भी देखे हैं। इसी वर्ष दिसम्बर में जब वे गैलर के साथ सिनाई रेगिस्तान में थे तो अपने मूबी कैमरे के धूल से बार-बार मैले होने से परेशान हो रहे थे। पुहारिख अपने कैमरे का केस न्यूयार्क में ही भूल आये थे। अगले दिन सुबह साढ़े पांच बजे गैलर ने उनको फोन किया और कहा कि उसके बिस्तर पर एक कैमरे का केस पड़ा है, कहीं वह उन्हीं का ही तो नहीं है। पहारिख ने गैलर को अपने केस का विवरण देते हुए बतलाया कि उसके अन्दर का कुछ हिस्सा फटा हुआ है। गैलर ने उत्तर दिया कि वह केस भी ऐसा ही है। छ: हजार मील दूर से इतनी जल्दी केस मंगवाने का कोई तरीका पुहारिख की समझ में नही आया और उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि गैलर में ‘दूर-परिवहन' (टैली-ट्रान्सपोर्टेशन) की क्षमता है। १९७२ में गैलर ने म्यूनिख की सड़कों पर एक रात आंखों को पूरी तरह ढक कर कार चलाई और अनेक शंकाल व्यक्तियों के आभूषणों को बिना छए तोड़-मोड़ कर उन्हें आश्चर्यचकित कर दिया। गैलर ने म्यूनिख में चार दिन तक अपने करतब दिखाए। इनके बारे में मैक्सप्लेन्क इंस्टीट्यूट फॉर प्लाज्मा फिजिक्स के डाक्टर फ्रिडबर्ट कारगर ने कहा : “इस व्यक्ति की शक्तियां अत्यंत विलक्षण हैं। इनकी सैद्धांतिक भौतिकी द्वारा अभी कोई व्याख्या नहीं की जा सकती है।" १९७२ में ही बाद में गैलर ने अमेरिका के राष्ट्रीय दूरदर्शन पर कुछ चुने हुए व्यक्तियों, जिनमें कई विज्ञानी भी थे, के समक्ष अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन किया। दर्शकों में तीव्र एवं मिश्रित प्रतिक्रियाएं हुई। कुछ लोग पूर्णत: विश्वासी बन गये, तो कुछ लोग अविश्वास के साथ अड़े रहे। आलोचकों ने कहा कि जो कुछ ऊरी गैलर कर सकता है वह कोई अच्छा तमाशेबाज भी कर सकता है। कहते हैं कि जेम्सरेंडी नामक एक विख्यात जादूगर ने कुछ करतब दोहरा दिये थे किन्तु गेलर के सभी करिश्मे वह भी नहीं दोहरा सका था। गैलर पूरे अमेरिका के विभिन्न विश्वविद्यालयों में अपने प्रदर्शन दिखलाता रहा। न्यूयार्क में एक प्रदर्शन में इंग्लैण्ड के डॉ. बास्टिन भी उपस्थित थे। आपकी जेब में जौहरियों द्वारा उपयोग में लाये जाने वाले छोटे-छोटे पेचकसों का एक डिब्बा रखा हुआ था, ऊरी गैलर ने बिना यह जानते हुए कि डॉ. बास्टिन की Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैन दर्शन और विज्ञान जेब में क्या हैं, एक पेचकस का चित्र बना दिया। डॉ. बास्टिन यह देखकर आश्चर्य में पड़ गये और दुविधा में भी कि गैलर ने पेचकस का जो चित्र बनाया है, उसमें उसका ऊपरी सिरा मुड़ा हुआ है। जेब से जब डिब्बा निकालकर डॉ. बास्टिन ने देखा, तो पाया कि सभी पेचकस या तो मुड़े हुए हैं या टूटे हुए। डाक्टर बास्टिन का कहना है कि भौतिक वस्तुएं गैलर के प्रभाव से इस तरह परिवर्तित होती है “माने कोई नियम नहीं व्यक्तित्व क्रियाशील है।" कैलीफोर्निया की स्टैंफोर्ड रिसर्च इंस्टीट्यूट में भौतिक विज्ञानी डॉ. हैराल्ड पुथोंक व रसल टार्ग ने अपनी प्रयोगशालाओं में गैलर पर नियंत्रित परीक्षण किये। इनमें से कुछ की फिल्में भी बनाई गई। एक प्रयोग, १९७२ में, छ: सप्ताह तक चला। गैलर ने प्रथम आठ में से आठों बार एक धातु के डिब्बे के अन्दर पड़े पासे के ऊपरी भाग का सही 'अनुमान' लगाया। वैसे यह प्रयोग दो बार और किया गया था लेकिन इनमें गैलर को कुछ करने की आन्तरिक प्रेरणा नहीं मिली। और उसने उनके बारे में कुछ नहीं कहा। उसने अनेक रेखाचित्रों की अनुकृतियां (बिना उन्हें देखे) बना दी। चुम्बकीय क्षेत्र को नापने वाले यंत्र गॉस मीटर के निकट हाथ ले जाकर उसने उसकी सुई को पूरा घुमा दिया। १९७३ में उस पर तेरह प्रयोग किये गये, और इनमें और भी अधिक सावधानियां बरती गई। गैलर को विद्युतीय रूप से पृथक् किये हुए कमरे में रखा गया, ताकि सामान्य संचार के किसी भी साधन द्वारा वह कोई भी सूचना प्राप्त न कर सके। एक प्रयोग में शब्दकोश में से दैवयोग से चयनित किसी एक भी संज्ञा का चित्र गैलर के कमरे से बाहर (प्रषक) बनाता था व गैलर कमरे के अन्दर बैठा उसकी अनुकृति बनाता। कभी प्रेषक व गैलर की स्थितियां उल्टी भी कर दी गई यानी प्रेषक कमरे के अन्दर व गैलर बाहर। इस प्रकार १५ चित्र प्रेषित किए गए। इनमें ४ बार गैलर ने कोई चित्र नहीं बनाया (उसका कहना था कि सफलता से पूर्व जो आत्मविश्वास उसमें उभरता है, वह उस समय नहीं उभरा था) चार बार वह मूल चित्र से मिलती-जुलती अनुकृतियां बना पाया, शेष सातों बार उसे स्पष्टत: सफलता प्राप्त हुई। इनमें से एक जिसमें उड़ती हुई एक समुद्री चिड़ियां का चित्र था और एक जिसमें कि अंगूर के गुच्छे का चित्र प्रेषित किया गया था गैलर ने लगभग हुबहू वैसा का वैसा चित्र बना दिया था। अंगूर के गुच्छे में विभिन्न कतारो में चौबीस अंगूर-गैलर ने चौबीस गोले ऊपर-नीचे प्रत्येक कतार मे मूल चित्र के अनुरूप बनाए। यही नहीं इनमें निकलती हुई रेखा भी उसी स्थान व दिशा की ओर जाती हुई बनाई जैसी की मूलचित्र में अंगूर के गुच्छे की टहनी बाहर निकलती हुई चित्रित की गई थी। इन अन्वेषकों के परीक्षणों में ग्रेलर धातुओं को मोड़ने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन नहीं कर सका। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान १३७ नवम्बर १९७२ मे गैलर ने इंग्लैण्ड में डेविड डिम्बलबाई दूरदर्शन पर कार्यक्रम प्रस्तुत किया। यहां भी गैलर ने अनेक वैज्ञानिकों व आलोचकों के समक्ष एक कांटे को मोड़ दिया, घड़ियों की सुइयां आगे-पीछे कर दी और स्वयं डेविड डिम्बलाई के कमरे के दरवाजे की चाबी उनको देखते-देखते मोड़ दी। इस प्रदर्शन से प्रभावित होकर, किंग्ज कॉलेज लंदन में अनुप्रयुक्त गणित के प्रोफेसर जॉनटेलन ने गेलर पर परीक्षा करने का निश्चय किया। फरवरी १९७४ में गेलर इनके साथ वहां के धातुकर्म-विभाग (मटलैर्जिकल डिपार्टमेंट) द्वारा तैयार की गई वस्तुओं पर प्रयोग करने को तैयार हो गया। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में गैलर सभी प्रयोगों में सफल रहा। उसने धातुओं की वस्तुओं को पीट कर इस तरह मोड़ दिया कि वैसा उस वस्तु के पिघलने, टूटने व पुन: कड़ापन ग्रहण कर लेने से ही संभव था। उसने पोटाशियम ब्रोमाइड के दो सेंटीमीटर लम्बे एक रवे के कोई दस सैकिंड तक प्रहार करके टुकड़े कर दिये। कांच की नलियों के अन्दर बन्द धातुओं की पत्तियों व दोनों सिरों पर बन्द तार की जालीदार नली के अन्दर एक अल्मुनियम की पत्ती आदि को बिना उन्हें छए मोड़ दिया। लकड़ी या प्लास्टिक पर वह कोई प्रभाव नहीं डाल सका। गैलर ने रेडियो-सक्रियता नापने के एक यन्त्र 'गीगर काउन्टर' में भी काफी विक्षेपन उत्पन्न कर दिया। ऊरी का दावा यह भी है कि वह अपने शरीर से बाहर निकल कर हजारों मील दूर की यात्राएं करने की क्षमता रखता है। अंद्रीजा पहारिख ने एक दिन उससे यह दावा सिद्ध करके दिखाने को कहा। अंद्रीजा ने कहा, तुम यहीं बैठे-बैठे ब्राजील की सैर कर आओ। गैलर का कहना है कि उसने आंख बन्द करके ब्राजील की कल्पना की। कुछ देर बाद उसने अपने आपको एक भीड़ भरे शहर में पाया। गैलर ने अपने शब्दों में “ब्राजील पहुंचने पर मैंने एक राहगीर से पूछा, मैं कहां पर हूं? उसका उत्तर था-रियोडि जेनेरो में। तब तक एक मनुष्य भीड़ से बाहर निकला और मुझे १०,००० क्रूजों का नोट थमा गया। जब जागा तो मेरे हाथ में वह नोट था।" विभिन्न परीक्षणों-प्रयोगों, अनेक प्रदर्शनों, कार्यक्रमों व छुटपुट कई व्यक्तियों को व्यक्तिगत रूप से दिखाए करतबों-करिश्मों के बावजूद भी गेलर का व्यक्तित्व अभी संशय-मुक्त सिद्ध नहीं हुआ है। जनसाधारण से लेकर विज्ञानियों तक में वह एक अत्यन्त विवादास्पद व्यक्ति बना हुआ है। ऊरी संबंधी यह संशयात्मक आलोचनात्मक पक्ष भी निस्संदेह विचारणीय है। अनेक विवरण हमें ऐसे भी मिलते हैं जिनमें वस्तुओं का स्वत: हिलना-डुलना, आवाजों का होना, पत्थरों आदि का फेंका जाना बिना किसी की उपस्थिति के अथवा Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जैन दर्शन और विज्ञान उन व्यक्तियों के बीच होने का वर्णन होता है जिनका कोई सीधा सम्बन्ध इस तरह की घटनाओं से नहीं जोड़ा जाता। प्राय: इन घटनाओं का कारण भूत-प्रेत अथवा शैतान' आदि को समझा जाता है। जर्मन भाषा में इस कारण' का नाम है 'पोल्टर गाइस्ट' (पाल्टर्न यानी शोरगुल करने वाली व गाइस्ट यानी रूह या आत्मा)। अभ्यास १. विभिन्न धर्मों में पुनर्जन्मवाद की अवधारणा का उल्लेख करते हुए जैन दर्शन के आत्मवाद एवं पुनर्जन्मवाद का विश्लेषण करें। २. परामनोविज्ञान के क्षेत्र में पुनर्जन्म के साक्ष्यों पर चल रहे शोधकार्य की समीक्षा करें। ३. जैन दर्शन के सन्दर्भ में आधुनिक परामनोविज्ञान की पुनर्जन्म सम्बन्धी घटनाओं की व्याख्या की संभावनाओं को स्पष्ट करें। ४. जैन दर्शन में वर्णित अतीन्द्रिय ज्ञान के स्वरूप को स्पष्ट करें। ५. परामनोविज्ञान में अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण, दूरबोध या परचित्तबोध की घटनाओं को अपने शब्द में प्रस्तुत करें तथा जैन दर्शन के संदर्भ में उनकी समीक्षा करें। ६. जैन दर्शन में वर्णित योगज उपलब्धियों की आधुनिक मन:प्रभाव की घटनाओं के सन्दर्भ में मीमांसा करें। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली जैन जीवन-शैली जैन धर्म की अपनी एक अलग जीवन-शैली है। जैन परम्परा में जिस तरह श्रावक की चर्या विकसित हुई है, उसकी अपनी अनेक विशेषताएं हैं। भगवान् महावीर ने अणुव्रतों के रूप में श्रावक-चर्या का जो प्रारूप प्रस्तुत किया था, वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं वैज्ञानिक है। अनेक आचार्यों के गुरुत्तर प्रयत्नों से जैन लोग खान-पान की दृष्टि से बहुत ऊंची भूमिका पर हैं। मद्यमांस का परिहार जैनत्व की अपनी एक अलग पहचान बन गई है। शैली क्यों? साधु का जीवन एक-आयामी होता है। वह केवल साधना का जीवन जीता है। एक गृहस्थ को न जाने कितने घोड़ों की सवारी करनी पड़ती है। उसे अनेक आचार्यों का जीवन जीना होता है। उसके चारों ओर खिंचाव का वातावरण बना रहता है, उसे परिवार का जीवन जीना होता है, समाज का जीवन जीना होता है, राज्य का जीवन जीना होता है, आर्थिक जीवन जीना होता है, इसके साथ-साथ धार्मिक जीवन भी जीना होता है। उसके सामने समस्या है कि वह अनेक आयामों को कैसे जिये? उसके लिए जीवन की एक शैली चाहिए। जीवन-शैली शैली शब्द 'शील' शब्द से बना है। शील का अर्थ है-स्वभाव। शैली का अर्थ है-व्यवहार। संस्कृत-अंग्रेजी कोश में शैली के अनेक अर्थ किये गये हैं। उनमें पहला है-behaviour व्यवहार। दूसरा है-जीवन का व्यवहार अथवा जीवन की कार्य-प्रणाली (life-style)। जैन गृहस्थ के जीवन का व्यवहार कैसा होना चाहिए? जीवन का तरीका कैसा होना चाहिए? साधना-पद्धति कैसी होनी चाहिए? प्राचीन समय से जैन गृहस्थ में कुछ संस्कार चल रहे हैं। जैन गृहस्थ मांस नहीं खाता। जैन शराब नहीं पीता। पुराने आचार्यों ने जैन गृहस्थ के लिए सप्त व्यसन के परिहार का अभियान चलाया १. शराब नहीं पीना २. मांस नहीं खाना ३. जूआ नहीं खेलना Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैन दर्शन और विज्ञान ४. शिकार नहीं करना ५. चोरी नहीं करना ६. वेश्यागमन नहीं करना ७. परस्त्रीगमन नहीं करना एक जीवन की शैली बन गई; जीवन का स्वभाव और व्यवहार बन गया; एक संस्कार बन गया; जो जैन श्रावक है, वह इस आधार पर चलेगा। वही शैली आज तक चली आ रही है। आहार-शुद्धि और व्यसन-मुक्त जीवन __जैन जीवन शैली का एक प्रमुख घटक है-आहार-शुद्धि और व्यसन-मुक्ति। उपवास आदि तप, मांसाहार-वर्जन, तम्बाकू-वर्जन, मद्यपान-वर्जन आदि विषयों का सम्बन्ध जीवन-शैली के इस घटक से है। इन विषयों का वैज्ञानिक सिद्धान्तों और प्रयोगों के सन्दर्भ में चिन्तन व्यक्ति को नई दृष्टि देता है। आहार-विवेक और आहार-विज्ञान के आधार पर इसे चरितार्थ किया जा सकता है। आहार-विवेक और आध्यात्मिक साधना में समानताएं हैं। ये दोनों हमें स्वसंयम, स्वज्ञान और स्वावलम्बन सिखाते हैं। साधना-मार्ग में भी गुरु केवल मार्गदर्शक होता है, पर साधक का अपना पुरुषार्थ या विवेक ही मुख्यत: उसे आगे बढ़ाते हैं। उसी तरह स्वयं का आहार-विवेक ही व्यक्ति को स्वस्थ रख सकता है, डाक्टर या वैद्य केवल मार्गदर्शक बन सकते हैं। दूषित आहार का परिणाम-रोग रोग क्या है? हमारे शरीर में जमा होने वाले विषद्रव्यों का परिणाम रोग है। इन विषद्रव्यों के शरीर में जमा होने के कई कारण हैं। जैसे-अयोग्य भोजन, विषैली दवाइयां, अतिशय श्रम, अति कामसेवन, अति भय, अति चिंता, मानसिक तनाव, अनिद्रा आदि। इन सबका परिणाम यह होता है कि शरीर से विष-द्रव्यों का बाहर होने वाला निष्कासन श्लथ हो जाता है और यह विष-द्रव्य रक्त में और शरीर के ऊतकों में जमा हो जाता है जिससे बीमारी पैदा होती है। उपरोक्त कारणों में से अयोग्य भोजन एक मुख्य कारण है। ___ यदि हमारा आहार, नीहार आदि रहन-सहन सम्यक् होगा और साथ ही आसन, प्राणायाम, प्रेक्षाध्यान आदि चलते रहेंगे, तो शरीर में विष-द्रव्यों का जमाव अतिमात्रा में नहीं होगा और जो जमा हो गए हैं, उन्हें बाहर निकाल देने से शरीर में किसी घातक या तीव्र बीमारी होने की संभावना नहीं रहेगी। हमारा शरीर भिन्न-भिन्न अवयवों से एवं प्रत्येक अवयव ऊतकों से Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १४१ निर्मित है। प्रत्येक ऊतक कोशिकाओं से निर्मित है। इन कोशिकओं में चलने वाली जैविक क्रियाओं से विष-द्रव्य की उत्पति होती रहती है। इसके साथ अपनी खाने -पीने की गलत प्रणाली तथा रहन-सहन की गलत आदतों से भी विष-द्रव्यों की उत्पति होती है। ये सारे विष-द्रव्य यदि किसी भी कारण से बाहर निष्कासित न हों, तो उस स्थिति को “विषाक्तता'' (टोक्सीमिया) कहा जाता है। उसे ही हम "रोग'' या "बीमारी" के रूप में भोगते है। विष-द्रव्यों की अशुद्धियों को निष्कासन करने की शरीर की प्राकृतिक प्रक्रिया तो बीमारी में भी चालू ही रहती है। उदाहरणार्थ-जुकाम में शरीर श्लेष्म के रूप में विष-द्रव्यों का बाहर निष्कासन करता रहता है। शरीर में अपने आपको स्वस्थ रखने की आन्तरिक शक्ति मौजूद होती है। कुछ अपवादों को छोड़कर वह स्वस्थ रहता ही है। यदि मनुष्य अपने शरीर के अवयवों का दुरुपयोग न करे या उन पर अत्याचार न करे, तो शरीर स्वत: ही स्वस्थ रहेगा। परन्तु खाने-पीने की गलत आदत, जिह्वा का स्वाद, शरीर-विज्ञान के बोध का अभाव आदि कारणों से मनुष्य प्राय: अपने शरीर पर ऐसे अत्याचार करता है जिससे शरीर अस्वस्थ हो जाता है। हमारा आहार कैसा होना चाहिए? इस प्रश्न पर मुख्य रूप से दो दृष्टिकोणों से विचार-विमर्श हुआ है। स्वास्थ्य और साधना। स्वास्थ्य की दृष्टि से आहार का बहुत बड़ा मूल्य है। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए इसका इतना मूल्य है, पर मानसिक और अध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए उसका कितना मूल्य होगा, यह सब नहीं जानते। ___ शरीरिक स्वास्थ्य का मूल आधार है-संतुलित भोजन । प्रोटिन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, खनिज, लवण, क्षार और विटामिन्स-ये उचित मात्रा में ग्रहण किए जाते हैं, वह संतुलित भोजन माना जाता है। इससे शरीर स्वस्थ और क्रिया करने में सक्षम रहता है। भोजन का मन की क्रियाओं पर भी बहत असर होता है, क्योंकि मस्तिष्क की रासायनिक प्रक्रिया भोजन से प्रभावित होती है। संतुलित भोजन का उद्देश्य है-शरीर स्वस्थ रहे तथा मन विकृत, उत्तेजित या क्षुब्ध न हो । बीमारी पैदा होने का बहुत बड़ा कारण है-अहितकार और अपरिमित भोजन । एक आचार्य ने लिखा है हियाहारा मियाहारा अप्पाहारा य जे नारा । न ते विज्जा मिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा।।" -जो हित, मित और अल्पमात्रा में भोजन करते हैं, उनकी चिकित्सा वैद्य नहीं करते, वे स्वयं अपने चिकित्सक हैं। भोजन स्वास्थ्य देता है और भोजन स्वास्थ्य बिगाड़ता है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैन दर्शन और विज्ञान भोजन के विमर्श का साधना का दृष्टिकोण है-आन्तरिक वृत्तियों का शोधन । भोजन का प्रयास केवल शरीर के बाहरी तत्त्वों तक ही सीमित नहीं है। उसका प्रभाव हमारी आन्तरिक शक्तियों पर, शरीर के सूक्ष्म तत्त्वों पर और सूक्ष्म-शरीर पर भी होता है। इसलिए भोजन के विषय में हमें बहुत सावधान होना चाहिए। अन्तर्वृति को मूर्च्छित बनाने वाली वस्तुएं साधक के लिए निषिद्ध हैं। एक प्रकार का आहार विचार को, भाषा को, मन को स्वस्थ बनाता है। दूसरे प्रकार का आहार इन्हें अस्वस्थ बनाता है। (१) उपवास आदि तप जैन जीवन-शैली में तप का एक महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक साधना है। महावीर की साधना-पद्धति में उसे 'निर्जरा' अर्थात् कर्म-संस्कारों से मुक्ति का एक सक्षम साधन माना है। तप या निर्जरा के बारह प्रकार हैं-छह बाह्य, छह आन्तरिक । उपवास, ऊनोदरी, वृति-संक्षेप रस-परित्याग आदि बाह्य तप के प्रकार हैं। चारों का सम्बन्ध भोजन और अभोजन से है। खाना जितना महत्त्वपूर्ण है, 'नहीं खाना' उतना ही महत्त्वपूर्ण है। खाने का जितना मूल्य है 'नहीं खाने का भी उससे कम मूल्य नहीं है। जब तक हम 'नहीं खाने' पर विचार नही करते, तब तक भोजन का विषय पूर्ण दृष्टि से चर्चित नहीं होता। स्वास्य के लिए यदि संतुलित भोजन जरूरी है तो उसके लिए भोजन को छोड़ना भी बहुत जरूरी है। अनाहार को छोड़कर केवल आहार को देखना वास्तव में आहार के प्रति भ्रांत होना है और अपने स्वास्थ्य के प्रति भी अन्याय करना है। जो लोग केवल भोजन का ही महत्त्व समझते हैं, उसे छोड़ने का महत्त्व नहीं समझते, वे न केवल मोटापे की बीमारी से ग्रस्त होते हैं, अन्य किन्तु बीमारियां भी उन्हें आक्रांत करती हैं। 'खाना' 'नहीं खाना', कब, कैसे, और कितना खाना, मधुर और स्निग्ध खाना या रूखा-सूखा खाना आदि-आदि अनेक प्रश्नों का सम्यग् उत्तर है-आहार-विवेक। आहार और अनाहार आप आहार करते हैं, परन्तु यदि उपवास करना नहीं जानते, अनाहार रहना नहीं जानते तो आपका आहार आपके लिए कठिनाई बन जाता है। आहार ही जटिलता पैदा करता है। हम आहार करते हैं भूख की समस्या को समाहित करने के लिए । वही आहार अनेक समस्याएं हमारे सामने प्रस्तुत कर देता है। जो लोग केवल आहार करते हैं, उपवास नहीं करते या उपवास का मर्म नहीं जानते, वे समस्याओं को कम नहीं कर सकते। उपवास का अर्थ नहीं खाना भी है, कम खाना भी है, आहार की मात्रा को कम करना भी है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १४३ शरीर में जितने काम-केन्द्र, वासना-केन्द्र, आवेग-केन्द्र और स्मृति केन्द्र हैं वे सारे उत्तेजित होते हैं भोजन को प्राप्त कर। भोजन के अभाव में ये सारे केन्द्र शिथिल हो जाते हैं। चूंकि उन्हें अब सहयोग नहीं मिलता, सहयोग का रास्ता कट जाता है। सेना के जब रसद नहीं मिलती, वह आगे नहीं बढ़ पाती। शत्रु-सेना सब से पहले रसद के मार्ग को काट देती है। उपवास रसद के मार्ग को काट देता है। उस स्थिति में इन्द्रियां शांत और मन शांत इस प्रक्रिया के द्वारा यह होता है कि उत्तेजना या सक्रियता के जो साधन हैं, उपाय हैं, निमित्त हैं, उनको हम समाप्त कर देते हैं, किन्तु पूरा समाप्त नहीं कर पाते। यह पूरी प्रक्रिया नहीं है। केवल मार्ग में जो व्यवधान डालते थे, उन्हें शिथिल बना डालते हैं । आहार का विसर्जन, परित्याग, एक शब्द में उपवास, इसलिए कि जिससे उत्तेजना पैदा हो रही है, उसका मार्ग अवरूद्ध किया जाए। हम भोजन नहीं करते तो इसका परिणाम केवल स्थूल शरीर पर ही नहीं होता, सूक्ष्म शरीर पर भी होता है। यदि उसका परिणाम केवल स्थूल शरीर पर ही होता तो बहुत छोटी बात होती। सूक्ष्म शरीर को भी शक्ति प्राप्त होती है स्थूल शरीर के माध्यम से। उसे भी शक्ति चाहिए। वह स्थूल शरीर से ऐसा काम करवाता है कि उसे शक्ति प्राप्त हो सके। उपवास करना सूक्ष्म शरीर को पसन्द नहीं है। भूखा रहा स्थूल शरीर और चोट पड़ी सूक्ष्म शरीर पर। ऊर्जा का स्रोत है स्थूल शरीर। हमारा मन बुरी बात सोचता है तो ताकत किसे मिलती है? ताकत मिलती है सूक्ष्म शरीर को, कर्म शरीर को। सारी शक्ति प्राप्त होती है स्थूल शरीर के द्वारा। जब भोजन बंद होता है तो परेशानी होती है सूक्ष्म शरीर को। उसका प्रभाव वहां तक पहुंच जाता है। उपवास उपवास ही सबसे बड़ी औषधि है। हम जब तक इसके महत्त्व को नहीं समझेंगे, हमारे भोजन की समस्या का समाधान नहीं निकलेगा। द्वितीय महायुद्ध के बाद जब जर्मनी में सर्वेक्षण किया गया तब निष्कर्ष निकाला गया कि यहां अधिकांश बीमारियां अतिभोजन के कारण हुई हैं। हम लोग इतना खाते हैं जितना हमें नहीं खाना चाहिए। हमें जितनी भूख लगती है उसे चार भागों में बांट देना चाहिए। दो भाग भोजन के लिए, एक भाग पानी के लिए और एक भाग वायु के लिए छोड़ देना चाहिए। परन्तु लोग जब खाना खाने के लिए बैठते है तो भूख से भी और अधिक खाना चाहते है। ताकि भूख न लगे। खाने के आधा घंटा बाद कहते हैं कि पेट फटा जा रहा है, आंतें फट रही हैं। इस प्रकार हमारे यहां खाने की व्यवस्थित पद्धति नहीं है। भोजन के सम्बन्ध में हमारा अज्ञान ही बहुत सारी समस्याओं को जन्म देता है। खाना जरूरी है, तो उसके साथ-साथ "उपवास'' और नहीं खाना भी Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जैन दर्शन और विज्ञान जरूरी है। उपवास सहिष्णुता का बड़ा प्रयोग है। प्रतिदिन प्रात:काल भोजन की मांग कम हो जाती है। जो उपवास करते हैं, उनमें सहज ही सहिष्णुता का विकास होता है और संकल्पशक्ति का विकास होता है। ___ आयुर्वेद का विश्वास है कि सप्ताह में एक बार उपवास अवश्य होना चाहिए। आज हम उपवास के महत्त्व को भूल गए और पश्चिम के लोगों ने उपवास-चिकित्सा का प्रयोग कर रखा है। न जाने कितने वर्षों से चल रहा है। उपवास-चिकित्सा पर पश्चिम में जितनी अच्छी पुस्तकें निकली हैं शायद भारत में नहीं निकली। उपवास प्रयोग है, अगर प्रयोग की दृष्टि से किया जाए। उपवास प्रयोग तब बनता है, जब पहले दिन हल्का खाना खाया जाए और पारणा में हल्का खाया जाए। तीन दिन बराबर यह चले। पहले दिन हल्का भोजन, दूसरे दिन उपवास और तीसरे दिन फिर हल्का भोजन, तब उपवास वास्तव में प्रयोग बनता है। भगवान महावीर कहते हैं-मृत्यु के समय तो तुम्हारा खाना छूटेगा ही, तब तुम दुःखी न होओ, इसीलिए पहले ही खाना छोड़ने का अभ्यास रखो। पहले ही बिना भोजन के आनन्द की अनुभूति का अभ्यास रखो। इसका अर्थ देह का दमन नहीं है। यह देह की संज्ञा से ऊपर उठने की बात है, आत्मानुभूति की बात है। जब व्यक्ति को देह और आत्मा की भिन्नता की अनुभूति हो जाती है, तो उसके लिए तपस्या दु:ख की हेतु नहीं रहती, सुख की हेतु तो खैर रहेगी ही कहां से? तब वह आनन्द की हेतु बन जाएगी। देह और आत्मा की भिन्नता की अनुभूति नहीं होती है, तब तक खाना छोड़ने में डर लगता है। पर सही अर्थ में देखा जाए तो मनुष्य को दुःख खाना छोड़ने में नहीं है, अपितु खाने में ही सुखा मान लेने की संज्ञा में है। इस मिथ्यात्व का परिशोधन करने के लिए महावीर अनशन-उपवास की बात कहते हैं। उपवास कितना करना चाहिए, इसके विषय में वे कोई निश्चित मानदंड नहीं बताते हैं कि इतना उपवास करना पड़ेगा। जहां तक मन में आनन्द की अनुभूति हो, तब तक उपवास करो। जो उपवास आनन्द की अनुभूति नहीं कराता है, उसके लिए महावीर की अनुमति नहीं है। जो तपस्या देह और आत्मा की भिन्नता, पुद्गल-निरपेक्ष आनन्द का अनुभव नहीं करा सके, वह वास्तव में तपस्या कम, देह-दण्ड अधिक है। साधना की बात बहुत सारे लोग आसन-प्राणायाम से शुरू करते हैं। महावीर उसे अनाहर (अनशन) से शुरू करते हैं। सम्भवत: इसका कारण यही रहा Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १४५ होगा कि जब मनुष्य का आहार पर नियन्त्रण हो जाएगा, तो बाकी के सब नियन्त्रण तो सहज ही प्राप्त हो जाएंगे। इसलिए वे उपवास को बहुत अधिक महत्त्व देते हैं। इसके साथ दूसरा सवाल उठता है कि क्या बिना आहार के जीवन का काम चल सकता है? जैसे कि पहले कहा गया, महावीर की दृष्टि जीवन और मृत्यु पर नहीं है। आहार के साथ हमारा इतना घनिष्ठ लगाव है कि हम उसके बिना रह नहीं सकते। महावीर सबसे पहले इस लगाव को तोड़ना चाहते हैं। ऐसा नहीं है कि एक दिन आहार न किया, तो आदमी मर जाए। कठिनाई यही है कि आदमी का आहार के साथ इतना लगाव हो गया है कि उपवास की बात करते ही उसका सारा मानसिक ढांचा चरमरा जाता हैं। उपवास का मूल्य : वैज्ञानिकों की दृष्टि में डॉ. ज्होन कीथ बेडो द्वारा लिखित पुस्तक- "Stay young-Reduce your Rate of Aging" में अपने वैज्ञानिक प्रयोगों की चर्चा के दौरान बताया गया है कि १. उपवास वृद्धावस्था को रोकने का एक प्रमाणसिद्ध प्रयोग है। चूहों पर जब ये प्रयोग किए गए तो उसके आश्चर्यजनक परिणाम सामने आए। चूहों के एक दल को अत्यधिक भोजन की सुविधा दी गई, दूसरे दल को सामान्य, नियमित एवं नियन्त्रित मात्रा में भोजन दिया गया तथा तीसरे दल को एक दिन भोजन (सामान्य एवं नियन्त्रित मात्रा में) एवं एक दिन उपवास पर रखा गया। दूसरे दल के चूहे पहले से दीर्घजीवी हुए तथा तीसरे दल वाले दूसरे से भी बहुत अधिक दीर्घजीवी हुए। २. उपवास के दौरान शरीर का “इम्यूनोलोजिकल सिस्टम'' (प्रतिरोधक तंत्र) असंदिग्धरूप से शक्तिशाली होता है। इस तन्त्र में काम करने वाले रक्त के श्वेतकणों, जिन्हें फेगोसाइट्स और लिम्फोसाइट्स कहा जाता है, की कार्यक्षमता में अद्भुत वृद्धि होती है। लिम्फोसाइट्स के दो प्रकारों-बी-सेल्स और टी-सेल्स जो आगन्तुक कीटाणु या विषाणुओं का प्रतीकार करते हैं, की कार्यक्षमता में वृद्धि होने से शरीर में जमा होने वाले विजातीय तत्त्वों का पूर्ण शोधन सम्भव हो पाता है। इन विजातीय तत्त्वों के जमाव का परिणाम ही है-कोशिकाओं का वृद्ध होना, जो अन्ततोगत्वा मनुष्य को वृद्ध बना देती है। ३. कैंसर जैसे खतरनाक कोशिकाओं की सफाई में उपवास बहुत उपयोगी है। डॉ. बेडो ने स्वय ३ १/२ वर्ष तक एकान्तर उपवास कर पाया कि इससे स्वास्थ्य बहुत अच्छा रहता है। चूहों के प्रयोगों में यह बात भी सामने आई कि जहां तीसरे दल के चूहे दो वर्ष के बच्चों की तरह कूद-फांद मचा रहे थे वहां Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैन दर्शन और विज्ञान पहले दल वाले बूढ़े की भांति शिथिल और थके-मांद नजर आ रहे थे। डॉ. बेडो ने उपवास के दौरान शरीर में होने वाले जैव-रासायनिक परिवर्तनों के आधार पर उक्त निष्कर्ष निकाले हैं । आजकल तो चिकित्सा के क्षेत्र में भी उपवास को मान्यता मिल गई है। जैन धर्म मूल में शरीर - विज्ञान नहीं है । वह तो आत्मविज्ञान है । पर चूंकि हमारी आत्मा शरीर में रहती है; अत: वहां शरीर के संबंध में भी बहुत सारी चर्चा हुई है। जैन साधना-पद्धति का शरीर की पवित्रता के साथ निश्चित अनुबंध तो नहीं है। पर वे इस बात को भी स्वीकार करते हैं कि उच्चतम साधनाओं के लिए एक विशिष्ट प्रकार के शरीर - संरचना की आवश्यकता है । जैसा कि लुई हूक ने कहा है - स्वस्थ शरीर वही है, जो आवेगमुक्त हो । महावीर की साधना के लिए आवेगमुक्त शरीर की आवश्यकता बताते हैं । जब तक शरीर आवेगग्रस्त होगा, तब तक उसमें स्वस्थ आत्मा का निवास न हो सकेगा। उपवास से आवेगों पर नियन्त्रण प्राप्त कि जा सकता है । उपवास- चिकित्सा ---- कुछ लोगों को यह सुनकर विस्मय हो सकता है क्या उपवास से भी चिकित्सा हो सकती है? पर आज इस बात पर विस्मय करने की कोई आवश्यकता नहीं है। डॉ. एडवर्ड हुकर डेवी ने ' The Non-break-fast and Fasting Cure' नाम की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। उनका कहना है- बीमारी में जबरदस्ती खाने और दवाएं लेने की अपेक्षा उपवास अधिक लाभप्रद है । प्राकृतिक चिकित्सा की दृष्टि से लम्बे तथा छोटे- दोनों ही प्रकार के उपवासों का विधान है। छोटे उपवास अर्थात् तीन दिन के उपवास । उससे ज्यादा दिनों के उपवास बड़े उपवास कहलाते हैं । उपवास-काल में कभी-कभी भोजन की इच्छा, बेचैनी या कमजोरी महसूस हो सकती है, पर ये सारी स्थितियां अस्थायी हैं । प्रो. दूहरिट ने अपनी पुस्तक 'Diet and Healing Systems' में लिखा है-उपवास काल में जो कमजोरी महसूस होती है, वह भोजन का अभाव नहीं है, अपितु शरीर में एकत्र मल का विनाश होता है । शरीर की शुद्धि हो जाने के बाद शरीर में पुन: शक्ति आ जाती है । यह कोई जादू नहीं है, अपितु शरीर में स्थित विजातीय द्रव्यों के हट जाने से सहज प्रतिफल होता है । I साधारणतया लोगों की धारणा है कि भोजन की मात्रा जितनी अधिक होगी, उतनी ही शक्ति प्राप्त होगी । पर यह धारणा सर्वथा भ्रामक है। सच बात तो Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १४७ यह है कि हमारा स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन भोजन की मात्रा की अपेक्षा उसके पाचन की रासायनिक प्रक्रिया तथा आत्मसात् करने पर अधिक आधारित है। अपनी जिह्ना के स्वाद तथा प्राकृतिक आदतों के कारण हमारे शरीर में अनेक प्रकार का विजातीय कचरा इकट्ठा हो जाता है। उसके प्रभाव से मुक्त होने के लिए उपवास एक रामवाण औषधि के समान है। साधारणतया लोग उपवास से डरते है। डॉक्टर लोग भी यह कहते हैं कि शरीर की शक्ति बनाये रखने के लिए कुछ न कुछ खाते रहना चाहिए। पर प्राकृतिक जीवन जीने वाले प्राणियों की ओर ध्यान दिया जाए तो यही लगेगा कि वे अपनी बहुत सारी बीमारियां उपवास के द्वारा अनेक रोगों से मुक्त हुआ जा सकता है। यह आपको क्षीण करने वाला नहीं है, अपितु तेजस्विता प्रदान करने वाला है। डॉ. लक्ष्मीनारायण शर्मा ने अपनी पुस्तक 'सरल प्राकृतिक चिकित्सा' में उपवास के विषय में अनेक महत्त्वपूर्ण बातें लिखी हैं, जो संक्षेप में इस प्रकार हैंउपवास शरीर में क्या करता है? शरीर में स्वाभाविक रूप से अनेक प्रकार की ज्वलन-क्रिया (कम्बश्चन) होती रहती है। ज्वलन-क्रिया के कारण ही हमारा शरीर एक खास तापक्रम तक गरम रहता है। इसे तेजस् शरीर भी कहा जा सकता है। लेकिन ज्वलन-क्रिया जारी रखने के लिए हमेशा ईंधन की जरूरत होती है। साधारण रूप में हमें यह ईंधन भोजन के कार्बोहाइड्रेट्स और चर्बी (चिकनाई) से मिलता रहता है। लेकिन उपवास-काल में जब बाहर से भोजन मिलना बन्द होता है, तो शरीर में संग्रहीत पदार्थ इस अग्नि में जलने लगता है। इसीलिए उपवास द्वारा चर्बी बहुत जल्दी कम होती है। केवल चर्बी नहीं जलती पेशियां, रक्त और जिगर में से संगृहीत शक्कर आकर जलती है। प्रत्येक ऊतक (टिशू) से संगृहीत भोजन आकर जलने लगता है और इस संगृहीत भोजन के साथ प्रत्येक धातु की संगृहीत गन्दगी (विजातीय द्रव्य) भी उखड़कर आती है और इस ज्वलन-क्रिया से भस्म हो जाती है। इसीलिए यह में कहा जाता है कि उपवास शरीर की भीतरी गंदगी का नाश कर देता है। ___शरीर की जमा पूंजी खत्म होने के कारण उपवास काल में शरीर का वजन प्राय: १ पौंड प्रतिदिन के हिसाब से कम होता है। शरीर की विभिन्न धातुएं इस अनुपात से छीजती हैं। चर्बी ९७ प्रतिशत, जिगर ६२ प्रतिशत, तिल्ली ५७ प्रतिशत, मांसपेशियां ३१ प्रतिशत, मस्तिष्क या तंतु ० प्रतिशत। इस छीजन के कारण उपवास-काल में शरीर में कुछ कमजोरी आती है, लेकिन चंकि मस्तिष्क बिलकुल नहीं छीजता, इसलिए सोच-विचार की शक्ति बढ़ती हैं, नींद अच्छी आती Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैन दर्शन और विज्ञान है, विचार सात्त्विक होने लगते हैं, स्मरणशक्ति बहुत तेज हो जाती है। __ शारीरिक कमजोरी इस कदर नहीं होती है कि उपवासकर्ता को खाट पर लेटना पड़े, बल्कि बहुत साधारण-सी दुर्बलता आती है। व्यक्ति घूम-फिर सकता है, अपने दैनिक काम बड़े मजे से कर सकता है। उपवास में प्रात:कालीन घूमना बहुत लाभ करता है। भ्रमण से लौटने के बाद शक्ति और स्फूर्ति का अनुभव होता है। अनेक व्यक्ति तो टहलने के बाद हल्का व्यायाम भी करते है। लेकिन व्यायाम कोई जरूरी नहीं, टहलना ही काफी है। एक सप्ताह तक के छोटे उपवासों में तो दफ्तर या दुकान का काम भी आसानी से किया जा सकता है। अलबत्ता लम्बे उपवासों (३०-४०-५० दिन) में फिर भी आराम की जरूरत होती है। लेकिन कमजोरी की परेशानी तब भी नहीं महसूस होती। यदि उपवासकर्ता उपवास के महत्त्व को अच्छी तरह समझता है और उपवास पर उसकी आस्था है, तो उसे प्राय: उपवास में कोई दुर्बलता नहीं आती। अधिकांश लोगों को दुर्बलता न खाने के डर से पैदा हो जाती है। उपवास-काल में शुरू के दिन भूख सताती है लेकिन यह असली भूख नहीं होती। क्योंकि तीसरे दिन यह भूख समाप्त हो जाती है। भूख के समय अधिक पानी पी लेने से उसका कष्ट मालूम नहीं होता। उपवास में दूसरे या तीसरे दिन जीभ पर सफेद मैल आ जाता है। कभी-कभी श्वास से बदबू भी आती है। दांतो में चिपचिपाहट पैदा हो जाती है। नये उपवासकर्ताओं को इन लक्षणों से भ्रम में नहीं पकड़ना चाहिए। ये लक्षण इस बात का सबूत होते है कि शरीर के विजातीय द्रव्य बाहर आ रहे हैं। फिर ये लक्षण अपने आप ही दूर हो जाते है। ज्यों-ज्यों शरीर की अंदरूनी सफाई होती जाती है, शरीर में हल्कापन, स्फूर्ति, उत्साह और नीरोगता अनुभव होने लगती है। विभिन्न रोग और उपवास उपवास ऐसा उपचार है जो प्राय: सभी रोगों ने अपना चमत्कारी प्रभाव दिखाता है। रोग चाहे नया हो अथवा पुराना, उपवास निश्चित रूप से उस पर काबू पा लेता है। हजारों केस ऐसे होते हैं, जिन्हें डॉक्टर, हकीम असाध्य मानकर जवाब दे देते हैं, वे ही रोगी उपवास से ठीक हो जाते हैं। दमा, बढ़ा हुआ रक्तचाप, बवासीर, एग्जिमा (चमला), मधुमेह ऐसे रोग माने जाते हैं, जिनका कोई इलाज नहीं होता। लेकिन न मालूम इस तरह के कितने पुराने और असाध्य रोग जैसे फसली बुखार, टाइफाईड (मियादी बुखार), चेचक जैसे रोगों में भी उपवास अपना चमत्कारपूर्ण प्रभाव दिखाता है। अमेरिका के डॉ. एडवर्ड डेबी ने अपने बच्चे का डिप्थीरिया जैसा घातक रोग उपवास से ठीक कर लिया था। कब्ज और कब्ज से पैदा होने वाले रोग में तो Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली उपवास में बहुत जल्दी लाभ होता देखा जाता है। उपवास की अवधि उपवास २-३ दिन से लगाकर २ मास अथवा इससे भी अधिक दिनों का किया जा सकता है। एक सप्ताह तक का उपवास छोटा उपवास कहलाता है। सप्ताह से अधिक समय के उपवास लम्बे उपवास की श्रेणी में आते हैं। उपवास की अवधि रोगों के अनुसार नहीं, बल्कि रोगियों की हालत के मुताबिक निश्चित की जाती है। रोग का पुराना या नयापन, रोगी के शरीर की शक्ति, रोगी के शरीर में रोग की गहराई तथा रोगी की मानसिक स्थिति आदि जांचकर ही उपवास की अवधि निश्चित की जाती है। यों नये रोगों में छोटे उपवास और पुराने रोगों में लम्बे उपवास अपेक्षित होते हैं। प्राय: एक सप्ताह से कम के उपवास से कोई खास लाभ नहीं होता है। फिर भी प्रारम्भ करने वाले यदि शुरू में ३-४ दिन का उपवास करना चाहें, तो अनुभव प्राप्त करने की दृष्टि से यह ठीक होता है। लम्बे से लम्बा उपवास भी जब विधिवत् किया जाता है तो उससे कभी खतरा पैदा नहीं होता है। अनेक व्यक्तियों ने दो-दो मास के उपवास सफलतापूर्वक किये हैं। उपवास में सावधानी उपवास में कभी-कभी खतरे और परेशानियां भी पैदा हो सकती है। यह बात सोलह आने ठीक है कि उपवास हर रोग को ठीक कर सकता है, लेकिन हर रोगी को नहीं। जिस रोगी की जीवनी-शक्ति बहुत घट चुकी होती है, उसे उपवास से कोई लाभ नहीं होगा। जैसे टी. बी. के दसरे या तीसरे दर्जे की हालत के रोगी और अन्तिम दर्जे तक पहुंचा मधुमेह का रोगी। इसके अलावा दिल और गुर्दे की भी कई ऐसी पेचीदी बीमारियां होती हैं जिनमें उपवास से लाभ नहीं हो पाता। कुछ रोगियों की ऐसी दशाएं भी होती हैं जहां उपवास एकमात्र इलाज न होकर इलाज का एक अंग होता है। उपवास का मूल्यांक गलत न हो, इसलिए सावधानी रखनी चाहिएजहां तक हो सके उपवास में खुले बदन धूप और हवा में बैठना चाहिए। रूस के न्यरोफिजियोलोजिस्ट अकेडेमिसियन पियोत्र अनोखिन का मत है कि अनुभवी की देख-रेख में लम्बे उपवास का प्रयोग पेट के अल्सर, दमा, मधुमेह आदि से मुक्ति पाने के लिए काफी उपयोगी उपाय है। शरीर रचना की दृष्टि से उपवास एक प्रकार से 'शॉक ट्रीटमेंट' जैसा प्रयोग है। उससे नाड़ी मंडलीय क्रिया-कलाप बढ़ जाता है। उपवास के तीसरे दिन से त्वचा में परिवर्तन दीखने लगता है; यह शरीर की प्रतिरक्षात्मक प्रक्रिया की अभिवृद्धि का द्योतक है। यह रोगी के पेथोलॉजिकल कॉम्प्लेक्स पर क्रियाशील होता है। इस दिशा में रूस में अनेक Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैन दर्शन और विज्ञान केन्द्रों पर कार्य हो रहा है। डॉ. अनोखिन का मत है कि चिकित्सा क्षेत्र में उपवास से बड़ी सम्भावनाएं है। वे इस दिशा में और अधिक काम करने की अपेक्षा मानते हैं । भगवान् महावीर ने एक दिन के उपवास से लेकर छह महीने तक के उपवास को 'अनशन' की संज्ञा दी है। 'अनशन' शब्द आजकल भूख हड़ताल के चक्कर में पड़कर कुछ अवमत हो गया है। महावीर इसके सर्वथा विरुद्ध है । वे शरीर की शुद्धि के लिए भी उपवास की उपयोगिता को सीमित करना नहीं चाहते । उनका लक्ष्य तो उससे बहुत ऊपर है । वे तो केवल आत्मदर्शन के लिए ही उपवास का समर्थन करते हैं। उन्होंने स्वयं दो दिन से लेकर छह महीने तक के लम्बे उपवास किये । वे उपवास - काल में अपना अधिक समय आत्म- - चिन्तन में या धयान में ही बिताते थे । यद्यपि उन्होंने स्वयं तो अपनी तपस्या बिना पानी चौविहार ही की है, पर उनकी तपोयात्रा में पानी पीकर भी तपस्या करने का विधान है। इस अवस्था में केवल गर्म पानी का ही उपयोग अधिक किया जाता है। गर्म पानी को कीटाणुरहित भी माना गया है । भोजन में कमी करना ( ऊनोदरी तप) एवं अस्वादद-वृत्ति (वृत्ति - संक्षेप तप ) यदि कोई उपवास न कर सके, मो उसके लिए अन्य तपों का विधान किया गया है, जिनमें ऊनोदरी और वृत्तिसंक्षेप उल्लेखनीय हैं। ऊनोदरी का तात्पर्य है- भोजन में कमी करना, भूख से अधिक न खाना। भूख हो उससे एक-दो ग्रास भी कम करना ऊनोदरी है। खाद्य पदार्थों (द्रव्यों) की संख्या में कमी करना भी ऊनोदरी है। जैसे-५ या ७ पदार्थों से अधिक न खाना। अधिक 'द्रव्य' खाने का बुरा प्रभाव पाचन-क्रिया पर पड़ता है। दिन में बार-बार न खाना भी ऊनोदरी का एक प्रकार है । एक, दो या तीन बार से अधिक न खाना, दो बार के भोजन में भी बीच में तीन घण्टे का अन्तराल होना आदि भी ऊनोदरी के प्रयोग हैं। वृत्ति-संक्षेप का अर्थ है - ऐसे विशेष संकल्प स्वीकार करना जिससे अस्वाद- द-वृत्ति का विकास हो । जो कुछ सहजभाव से मिल जाये उसे खाते समय स्वाद - भावना से मुक्त रहना वृत्ति-संक्षेप है। संकल्प का स्वीकार 'अभिग्रह' कहलाता है। आधुनिक शरीरशास्त्र की दृष्टि से सामान्य रूप से स्वस्थ और साधारण श्रम करने वाले व्यक्ति को दिन भर में २५०० कैलोरी ताप उत्पन्न करने वाले भोजन की आवश्यकता होती है। महावीर ने उसे ३२ ग्रास की संज्ञा दी है। व्यक्ति की क्षमता के अनुसार उन्होंने इसमें कभी-बेसी का भी विधान किया है । पर मात्रा Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली का यह विवेक मनुष्य का अपना होता है। जो व्यक्ति यह विवेक नहीं कर सकता, वह साधना के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकता। . महात्मा गांधी ने अपनी स्वास्थ्य साधना' नाम की छोटी-सी, पर महत्त्वपूर्ण पुस्तक में लिखा है-“पशु-पक्षियों का जीवन देखिए । वे कभी स्वाद के लिए नहीं खाते और न इतना अधिक ही खाते हैं कि पेट फटने लगे। वे केवल अपनी भूख मिटाने भर ही खाते हैं, जो कि उन्हें प्राकृतिक रूप से मिल जाता है। वे कुछ भी नहीं पकाते। क्या यह अच्छी बात है कि मनुष्य केवल पेट की उपासना करें? क्या यह अच्छी बात है कि मनुष्य सदा रोगों का शिकार बनता रहे? वास्तव में यदि मनुष्य भी प्रकृति-प्रदत्त वस्तुओं को उसी रूप में खाये, भूख से अधिक न खाये, स्वाद के लिए न खाये, तो वह भी पशु-पक्षियों की तरह रोग-मुक्त रह सकता है।" अतिभोजन से आंत श्लथ हो जाती है। वह मल को आगे नहीं ढकेल पाती। इस प्रकार कोष्ठबद्धता हो जाती है। उससे चिन्तन में कुंठा आती है। प्रसन्नता के लिए यह अनिवार्य है कि मल-संचय न हो। दो दिन तक खाना न खाया जाये तो भी आंतों को पचाने के लिए शेष रह जाता है। पर मल का उत्सर्ग न हो तो एक दिन में बेचैनी हो जाती है। आंतों में मल भरा रहने से अपान वायु का द्वार रूद्ध हो जाता है। फिर वह ऊपर जाती है और हृदय को धक्का लगाती है। जिसे हम सामान्यत: हृदय-रोग समझते हैं, वह बहुत बार यही होता है। अपने शरीर के तापमान से अधिक ठंडा और अधिक गर्म भोजन भी हानिप्रद होता है। उससे आंत और दांत दोनों विकृत होते हैं। भोजन का संबंध आवश्यकता पूर्ति से है पर उसका संबंध जब स्वाद से हो जाता है, तब मर्यादा का अतिक्रम और विपर्यय होने लगता है। अध्यशन-वर्जन अध्यशन आहार का एक दोष है। पहले खाया हुआ पचा नहीं, उसी बीच और खाना अध्यशन है। संभव हो तो पांच घंटे, कम से कम तीन घंटे पहले, दूसरी बार अन्न न खाया जाए। यह सामान्य मर्यादा रही है। कुछ हल्के भोजन जल्दी पच जाते हैं, पर अन्न तीन घंटे पहले नहीं पचता। पचने से पूर्व खाने से घोल कच्चा ही रह जाता है। प्राचीन काल में भोजन दो बार किया जाता था, कभी-कभी तीन बार भी। किन्तु आजकल इस सिद्धांत में परिवर्तन आ गया है। कई डाक्टर थोड़ा-थोड़ा बार-बार खाने को कहते है। उनका आशय संभवत: हल्के भोजन से है। अल्सर जैसे शरीर रोग में बार-बार खाया जाता है। आंध्रप्रदेश कृषि विश्वविद्यालय के डॉ. प्रो. सूर्यनारायण ने कहा है-“यह बात बिलकुल सही है कि जिस व्यक्ति को अपने आपको स्वस्थ बनाये रखने की Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैन दर्शन और विज्ञान इच्छा है उसे जिह्वा का दास नहीं बनना चाहिए और न उसे अंधाधुंध नियंत्रणहीन रूप में खाते ही रहना चाहिए। जो व्यक्ति अपने शरीर पर अवांछित दबाव नहीं डालता है वह निश्चय ही रोगमुक्त रहता है। पूरे रूप में शरीर को पोषण मिले इसके लिए यह आवश्यक है कि भूख के बिना न खाया जाये । भोजन ठूंसते ही रहना मात्र उसका लक्ष्य नहीं होना चाहिए। दो भोजनों के बीच में काफी समय का अन्तर रखते थोड़ा कम खाना अच्छे स्वास्थ्य की गारंटी है ।" निश्चय ही उपरोक्त कथनों में ऊनोदरी तथा वृत्ति - संक्षेप का समर्थन मिलता है। अत: इस संबंध में सावधानी बरतनी चाहिए कि भोजन इतना ही किया जाय कि थोड़ी भूख बाकी रहे । लुई ओगाफाल्स, ओहियो में अपराधकर्मियों और भोजन के सम्बन्ध में शोधकार्य प्रारम्भ किया गया है। वहां अपराधकर्मियों की जांच की जाती है कि वह 'हाइपराग्लाईसीमिया' – खून में शक्कर के रोग से ग्रस्त तो नहीं है । इससे ग्रस्त होने पर व्यक्ति में चिड़चिड़ापन आ जाता है। वह शंकालु प्रवृत्ति का हो जाता है, और यदा-कदा 'हाइपरग्लाईसीमिया' जनित अपराधों में प्रवृत्त हो जाता है, यथा मारपीट, यौन अपराध तथा कानून का उल्लंघन आदि । ऐसे व्यक्तियों के भोजन में परिवर्तन कर दिया जाये, मीठी चीजें तथा स्टार्च वाली चीजें बन्द कर दी जायें तो उसकी प्रवृतियों में परिवर्तन हो जाता है। चीन के एक विख्यात दार्शनिक लिन्ड ताड़ ने बिलकुल सच है- - हमारा जीवन भगवान पर आश्रित नहीं है, वह हमारे रसोइयों पर आश्रित कहा है । रात्रि - भोजन का परिहार भोजन के सम्बन्ध में रात्रि - भोजन नहीं करना, यह भी महावीर की एक विशेष सूचना है। रात्रि भोजन से अंधकार में बहुत सारे जीव-जन्तुओं की हिंसा की संभावना तो होती ही है, पर इसके अतिरिक्त पाचन की दृष्टि से भी इसकी अपनी उपयोगिता है। दिन रहते-रहते खाने से सूरज की गर्मी का भोजन के पाचन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अच्छे पाचन के लिए मस्तिष्क क्रियाशील और सचेत रहना आवश्यक है तो अच्छी नींद के लिए खाली पेट रहना भी आवश्यक है। यह शरीर-विज्ञान के संबंध में एक सर्वसम्मत नियम है । इस दृष्टि से दिन रहते-रहते खा लेना एक स्वास्थ्यकर नियम भी बन जाता है। जो लोग रात में देर से भोजन करते हैं और फिर सो जाते हैं, अपने शरीर के साथ जबरदस्ती करते हैं । प्रश्न है कि जैन परम्परा में रात्रि - भोजन को अस्वीकार क्यों किया? भला, भूख के लिए भी कोई समय निर्धारित होता है? यर्थाथता यह है कि जब भूख लगे तब भोजन खा लो। यह एक नियम ही पर्याप्त है भूख के लिए क्या दिन और Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १५३ क्या रात? और क्या प्रकाश और क्या अंधकार? ___ रात्रिभोजन न करना धर्म से सम्बन्धित तो है ही क्योंकि यह धर्म के द्वारा प्रतिपादित हआ है। इसके साथ इस निषेध का एक वैज्ञानिक कारण भी है। हम जो भोजन करते हैं, उनका पाचन होता है तैजस शरीर के द्वारा। उसको अपना काम करने के लिए सूर्य का आतप आवश्यक होता है। जब उसे सूर्य का प्रकाश नहीं मिलता तब वह निष्क्रिय हो जाता है, पाचन कमजोर हो जाता है। इसलिए रात को खाने वाला अपच की बीमारी से बच नहीं सकता। यह कारण वैज्ञानिक है। दुसरा कारण है कि जब सूर्य का आतप होता है तब कीटाणु बहुत सक्रिय नहीं होते हैं। बीमारी जितनी रात में सताती है उतनी दिन में नहीं सताती। उदाहरणार्थ-वायु का प्रकोप रात में अधिक होता है। ये सारी बीमारियां रात में इसलिए सताती हैं क्योंकि रात में सूर्य का प्रकाश और ताप नहीं होता। जब वे होते हैं, तब बीमारियां उग्र नहीं होती। रस-परित्याग इसके अतिरिक्त महावीर भोजन में जिस एक बात पर और जोर देते हैं, वह है रस-परित्याग। रस-परित्याग का सामान्य अर्थ है दूध, दही, घी, चीनी, मिठाई तथा तेल-इन छह विकृतियों (विगयों) का परित्याग। विकृति शब्द प्रकृति का विलोम है। जब महावीर विकृति शब्द का प्रयोग करते हैं, तो निश्चय ही उनका संकेत प्रकृति की ओर है। प्राकृतिक भोजन सहज मन के लिए भी उत्तेजना-रहित है। वृत्तियों में उत्तेजना न आये, इसके लिए वे बार-बार रूखे-सूखे नीरस भोजन की याद दिलाते हैं। इस दृष्टि से वे विकृतियों के परित्याग की बात कहते हैं। वे न केवल शरीर को उपचित ही करती हैं पर विकारों को भी जन्म देती हैं। इसीलिए वे कहते हैं 'रसा पगामं न निसेवियव्वा। भुत्ता-रस दित्तिकरा नराणं, दितं च कामा समभिद्दवंति, दुमं जहा साउफलं व पक्खी ।।' -प्रकाम रसों का निषेवन मत करो। वे मनुष्य के लिए उत्तेजक हैं। वे मनुष्य को उसी तरह से परेशान करते हैं जैसे मधुर फलोंवाले वृक्ष को पक्षी। पर इसका यह मतलब नहीं कि वे एकदम नीरस आहार के समर्थक तथा रसपूर्ण आहार के विरोधी हैं। आवश्यकतानुसार रसपूर्ण आहार के लिए भी उनका निषेध नहीं है। पर व्यक्ति को उसके संतुलन का बोध अवश्य होना चाहिए। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैन दर्शन और विज्ञान कुछ लोगों का खयाल है कि स्वास्थ्य की रक्षा के लिए घी, दूध आदि की आवश्यकता है। संतुलित भोजन की दृष्टि से एक हद तक इनकी आवश्यकता हो सकती है। पर दीर्घ और स्वावस्थ जीवन पर शोध से इस बात का पता चला है कि उसका मुख्य राज सीधा-सादा भोजन ही है। आज दक्षिणी अमेरिका की पहाड़ियों तथा घाटियों में, जॉर्जिया आदि के गांवों में अनेक शतायु व्यक्ति मिलते हैं। उनसे बातचीत करने पर यह पाया गया है कि उनके जीवन का रहस्य सीधा-सादा भोजन तथा तनावमुक्त जीवन है। यद्यपि वे यह नहीं बता पाते कि उनकी उम्र कितनी है पर न्यूयार्क अकादमी ऑफ मेडिसिन के डायरेक्टर ने अनेक लोगों की शताधिक आयु को स्वीकार किया है। नयी शोधों के आधार पर शरीर-शास्त्र में यह स्थिर हो गया है कि अधिक चिकनाई का प्रयोग स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। यदि चिकनाई ४० प्रतिशत कैलोरी से ज्यादा हो जाए तो मोटापा, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह आदि बीमारियों की आशंका बढ़ जाती है। कई अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि भोजन में अधिक चिकनाई होने तथा सीने और आंतों के कैंसर में पारस्परिक सम्बन्ध है। सेचुरेटेड चिकनाई का अधिक प्रयोग भी उचित नहीं है। तली हुई चीजें भी हमारे पाचन-तंत्र को क्षति पहुंचाती हैं। बहुत सारे लोग बहुत सारी चीजों को केवल स्वाद की दृष्टि से ही खाते हैं। मिर्च-मसाले, हींग आदि ऐसी चीजें आदमी के भोजन में प्रविष्ट हो गयी हैं जिनकी शरीर के लिए उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी जीभ के लिए है। दालें, शक्कर, घी, का उपयोग कम-से-कम किया जाना उत्तम स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। स्वास्थ्यपूर्ण भोजन में रासायनिक खाद्यों का भी निषेध है। जिस अन्न में समस्त खनिज-लवण स्वाभाविक हो वही पूर्ण स्वास्थ्यप्रद भोजन है। चीनी और नमक पर नियंत्रण चीनी, नमक और चिकनाई ये तीनों भोजन के अनिवार्य अंग बने हुए हैं। इनके कारण अनेक रोग उत्पन्न होते हैं, यह सब नहीं जानते। हृदय की बीमारी के लिए तीनों निषिद्ध माने जाते हैं। बहुत चीनी का प्रयोग भी न हो, बहुत चिकनाई का प्रयोग भी न हो और नमक का प्रयोग सर्वथा न हो तो बहुत अच्छा है। शक्ति के लिए चीनी आवश्यक होती है, किन्तु यह सफेद चीनी नहीं। चीनी तो सहज प्राप्त होती है। दूध में चीनी होती है। फिर दूसरी चीनी की जरूरत क्या इसी प्रकार चीनी के विषय में 'साइन्स रिपोर्ट' अगस्त, १९७६ में श्री आई. रधुनाथ ने लिखा है-इस शताब्दी के प्रारम्भ से हमारे भोजन की आदतों में Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली बड़े महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए है। पहले कार्बोहाड्रेट पदार्थ शक्ति के मुख्य स्रोत थे। आज उनका स्थान चीनी ने लिया है। इसके पीछे कारण रूप हल्के पेयों (soft drinks) में लोगों की रुचि का अत्यधिक बढ़ना है। चीनी की खपत के इस रूप में बढ़ने के गम्भीर परिणाम हो सकते हैं। इसमें सबसे प्रमुख बात तो यह है कि चीनी में पोषण-तत्त्व नगण्य-सा है। फिर भी यह पोषक आहारों पर हावी होती जा रही है। ............ आज औसत अमेरिका के भोजन में ४० प्रतिशत कैलोरी चीनी से प्राप्त होती है। पर हल्के पेय, तैयार मिठाइयों आदि का प्रयोग कम करके उसे मात्र १५ प्रतिशत कैलोरी चीनी से प्राप्त करनी चाहिए। हमारे शरीर को जो शर्करा (ग्लुकोज) चाहिए वह बाजार में मिलनेवाली चीनी में बहुत कम है। दानेदार शर्करा में जो मिठास होती है वह हमारे शरीर में सीधे काम नहीं आती। उसे पचाने के लिए उल्टा हमारे शरीर-तंत्र को काम करना पड़ता है। इसीलिए वह लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक करती है। नमक का ज्यादा प्रयोग भी स्वास्थ्य को कमजोर बनाता है। इस सलाह के पीछे मुख्य आधार यह है कि नमक कुछ लोगों के रक्तचाप को बढ़ा देता है। लगभग २० प्रतिशत लोग जिनमें बच्चे भी शामिल हैं, उच्च रक्तचाप से पीड़ित रहते हैं। कुछ अध्ययनों से यह सिद्ध हुआ है कि अधिक नमक खाने से हृदय-रोग, पेट का कैंसर, सिरदर्द आदि की आशंका रहती है। तीन ग्राम नमक से ज्यादा नमक मनुष्य के लिए अनावश्यक है और इतना नमक तो खाद्य-पदार्थों में बिना अतिरिक्त नमक मिलाये ही प्राप्त हो जाता है। यदि नमक का प्रयोग कम हो जाए तो दस-बीस प्रतिशत बीमारियां भी कम हो जाएं। नमक के कारण लोग ज्यादा खाते है। कृत्रिम स्वाद पैदा कर हमने नमक को भोजन का प्रधान तत्त्व मान लिया जिससे जीभ को स्वाद मिले, डाक्टरों को संरक्षण मिले, उनका धन्धा चले और बीमारियां अच्छी तरह से पलें। नमक छोड़ना केवल साधना का प्रयोग ही नहीं, स्वास्थ्य का प्रयोग भी है। यदि पूरे सप्ताह में सात दिन नमक न छोड़ सकें तो एक, दो, तीन दिन ही छोड़ कर देखें। यह प्रियता और अप्रियता से बचने का प्रयोग होगा, संकल्प-शक्ति का प्रयोग होगा तथा साथ-साथ स्वास्थ्य का भी प्रयोग होगा। हृदय-रोग की संभावना कम होगी, अन्तव्रण, (कैंसर) की संभावना कम होगी। नमक कृत्रिम ढंग से उत्तेजना पैदा करता है, रक्त को अद्रव बनाता है। जब वह उत्तेजना नहीं होगी, मानसिक शान्ति में भी सहयोग मिलेगा। नमक का प्रयोग साधना के लिए वर्जित होता है और स्वास्थ्य के लिए यह विघ्न है। कुछ प्रयोग आयंबिल तपस्या एक प्रयोग है जिसमें कोरा एक धान्य और पानी चलता है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान आयंबिल का प्रयोग अनेक बीमारियों को मिटाने वाला प्रयोग है। भयंकर बीमारियां आयंबिल से नष्ट होती हैं। पक्षाघात की बीमारी बहुत भयंकर होती है, किन्तु आयंबिल के द्वारा ठीक हो जाती है। अजीर्ण और अपच की बीमारी इससे ठीक होती है। एक साथ ज्यादा वस्तुएं खाने से बहुत बीमारियां होती है और एक अनाज खाने से पाचन-शक्ति को बहुत राहत मिलती है। एक वस्तु पेट में जाती है तो पचाने में सुविधा होती है और अनेक वस्तुएं एक साथ पेट में जाती हैं तो उन्हें पचाने में अधिक शक्ति लगानी पड़ती है। आयंबिल में नमक का भोजन नहीं होता। एक प्रयोग यह भी हो सकता है-कभी अलग-अलग खाया जाए। रोटी अलग, साग अलग; क्योंकि साग जरूरी होता है, यह तो ठीक बात है। पर इसमें तो फर्क नहीं पड़ेगा कि अलग-अलग खाया जाए, पूर्ति तो हो जाएगी। अलग खाने का मतलब है अस्वाद का प्रयोग और साथ-साथ स्वास्थ्य का भी बहुत बड़ा प्रयोग हो जाएगा। रोटी के साथ साग खाते हैं तो पूरा चबाया नहीं जाता। स्वास्थ्य का मूल सिद्धांत है कि भोजन को जितना चबाया जाए उतना ही अच्छा है। एक बात तो जरूर है कि जो इतना चबाए तो उसे ज्यादा खाने की जरूरत भी नहीं पड़ती। पांच रोटियां जो काम नहीं करतीं, एक-डेढ़ रोटी उतना काम कर सकती है अगर चबाया जाए। नहीं चबाने का परिणाम होता है कि दांत भी खराब होते हैं और आंत भी खराब होती है। दांत और आंत दोनों के साथ शत्रुता का पोषण करना हो तो चबाना छोड़ दो। जिन लोगों ने बिना साग के कभी गेहूं की रोटी नहीं खायी उन्हें पता ही नहीं कि गेहूं का स्वाद कैसा होता है? बिना साग के गेहूं की रोटी खाकर देखें, पता चलेगा कि गेहूं कितना मीठा होता है, कितनी मिठास है गेहूं में ! इतना मीठा होता है कि फिर चीन डालने की बात ही नहीं आती। (२) शाकाहार बनाम मांसाहार मांसाहार का निषेध क्यों? हमारा जीवन आहार से शुरू होता है। आहार होता है, तब दूसरी प्रवृत्तियां चलती हैं। जैसी प्रवृत्ति, वैसा संस्कार; जितनी प्रवृत्ति, उतना संस्कार; जैसा संस्कार, वैसा विचार; जैसा विचार, वैसा व्यवहार। व्यवहार हमारी कसौटी है। भीतरी जगत् में कौन कैसा है, हम नहीं जान पाते। मनुष्य की जो प्रतिमा व्यवहार में बनती है उसी के आधार पर उसका मूल्यांक होता है। अच्छा व्यवहार, अच्छे विचार, अच्छा संस्कार अच्छे आहार बिना नहीं हो सकता। इसलिए हमारे धर्माचर्यों Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १५७ ने आहार-शुद्धि को प्राथमिकता दी है। हम अच्छाई का प्रारम्भ आहार-शुद्धि से व्रत करें। हम न खाएं, यह सबसे अच्छा है, पर यह संभव नहीं है। आहार हमारे जीवन की अनिवार्यता हैं हम वह न खाएं जिसकी अनिवार्यता नहीं है। वनस्पति को आहार की अनिवार्यता के रूप में स्वीकृति है। इसके पीछे हिंसा का अल्पीकरण, स्वास्थ्य और सात्त्विक संस्कार एवं विचार का दृष्टिकोण बहुत स्पस्ट है। ये तीनों दृष्टिकोण मांसाहार का समर्थन नहीं करते। इसलिए इन दृष्टिकोणों से मांसाहार अनिवार्यता की कोटि में नहीं आता। आधुनिक शरीर-शास्त्री, आहार-शास्त्री और स्वास्थ्य-शास्त्री भी अपने अन्वेषणों के आधार पर मांसाहार को शारीरिक और मानसिक, दोनों दृष्टियों से दोषपूर्ण बतलाते हैं। मांसाहार अप्राकृतिक उत्तेजना उत्पन्न करता है, सहनशीलता को कम करता है, धमनियों और शरीर के तंतुओं के लचीलेपन को नष्ट कर आयु को कम करता है। क्रूरता, क्षणिक आवेश, अधैर्य-ये मांसाहार के सहज परिणाम हैं। आदमी मांस खाकर भी जीता है और अनाज खाकर भी जीता है। इन दोनों में हम चयन करें और सोचें-मांस की अनिवार्यता है या अनाज की अनिवार्यता। हिंसा की संभावना मांस खाने में ज्यादा है या अनाज खाने में है? इस चयन का फलित होगा कि मांस खाना अनिवार्य नहीं है, अनाज खाना अनिवार्य है। क्योंकि शाकाहार का कोई विकल्प नहीं है जो मनुष्य को जीवित रख सके। मांसाहार का विकल्प है-शाकाहार । मांस को छोड़ने वाला शाकाहार के बल पर जी सकता है। शाकाहारी मांस नहीं खाता, पर मांसाहारी अनाज और फल, साग-सब्जी खाते हैं। क्योंकि मांसाहार करने पर भी शाकाहार की अनिवार्यता को वे अतिक्रमण नहीं कर पाते। शाकाहार की न्यूनतम अपेक्षा है, उसे छोड़ा नहीं जा सकता। उसके बिना काम नहीं चल सकता। यह अनिवर्यता का सिद्धान्त है। अनाज और मांस दोनों की तुलना में मांस का भोजन मनुष्य को अधिक क्रूर बनाता हैं। मांस को प्राप्त करने में मनुष्य को जितना क्रूर बनना पड़ता हैं, उतना अनाज को प्राप्त करने में नहीं बनना पड़ता। जो लोग मांसाहारी है, वे भी बुचड़खाने में नहीं जाते। जहां जीवों का बध होता है, पशु-पक्षी मारे जाते हैं, वहां नहीं जाते। यदि वे वहां चले जाएं तो संभव है उनके लिए भी मांस खाना मुश्किल हो जाए। अनाज खाने में भी हिंसा है, क्रूरता की दृष्टि से मांस भोजन की कोटि में नहीं आता। अनिवार्यता और हिंसा का अल्पीकरण-इन दोनों दृष्टियों से मांस-भोजन स्वीकार्य नहीं हो सकता। जिन लोगों ने करुणा से आर्द्र होकर देखा उन सबने एक स्वर से कहा-मनुष्य विवेकशील प्राणी है वह विकल्पों का चयन करता है। इसलिये उसे मांस नहीं खाना चाहिए। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैन दर्शन और विज्ञान अन्तर्वृत्ति की दृष्टि से हमें मांसाहार के प्रश्न पर विचार करना चाहिए। जिन पशुओं, पक्षियों और जलचर जीवों का मांस खाया जाता है, उनमें तामसिक वृत्तियां प्रबल होती हैं। मांस पशु के शरीर का अभिन्न भाग होता है, जिसके कण-कण में तामसिक वृत्तियां उभरती हैं। उस मांस को खाने वाला क्या पाशविकता के संस्कारों से बच पाएगा? कभी नहीं। मनुष्य में पाशविकता, अज्ञान, प्रमाद और क्रूरता के बढ़ने का बहुत बड़ा कारण है-मांसाहार । मांसाहार ने निश्यच ही मनुष्य को कुछ अंशों में पशु बनाया है और उसमें पाशविक वृत्तियां पैदा की हैं, अन्यथा मनुष्य कुछ ऐसे आचरण नहीं करता जो पशु के लिए ही उचित हो सकते हैं, मनुष्य के लिए नहीं। मांसाहार के निषेध की चर्चा पहले अहिंसा के दृष्टिकोणों से की जाती थी, अब यह अन्तवृत्तियों के दृष्टिकोणों से की जा रही है। सभी चाहते हैं कि हमारे समाज में अपराध की बाढ़ न आए, किन्तु अन्तर्वत्तियों को परिष्कृत किए बिना अपराध की बाढ़ को रोका नहीं जा सकता। अन्तवृत्तियों को विकृत बनाने वाली वस्तुओं के प्रयोग को छोड़े बिना उन्हें परिष्कृत नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि से मांसाहार का प्रश्न मनुष्य के लिए बहुत चिन्तनीय है। यह एक ऐसी समस्या है, जिसे दूसरी समस्याएं उपस्थित कर, मनुष्य अपनी दृष्टि से ओझल करना चाहता है, किन्तु वह दृष्टि से ओझल होकर भी अपना प्रभाव दिखाए बिना नहीं रहती और स्वयं समाहित नहीं होती। मन शान्त और पवित्र रहे, उत्तेजनाएं कम हों-यह अनिवार्य अपेक्षा है। इसके लिए आहार का विवेक होना जरूरी है। अपने स्वार्थ के लिए बिलखते हुए मूक प्राणी की निर्मम हत्या करना क्रूर कर्म है। मांसाहार इसका बहुत बड़ा निमित्त है। इसलिए अनिवार्यता, अन्तर्वृत्ति और करुणा-इन सब दृष्टियों से मांसाहार का वर्जन आहार-विवेक का महत्त्वपूर्ण अंग है। विश्व के हर कोने से वैज्ञानिक व डॉक्टर यह चेतावनी दे रहे हैं कि मांसाहार कैंसर आदि असाध्य रोगों का निमित्त बनकर आयु क्षीण करता है, और शाकाहार अधिक पौष्टिकता व रोगों से लड़ने का क्षमता प्रदान करता है। __ पशुओं के मारने से पूर्व उनके शरीर में पल रहे रोगों की उचित जांच नहीं की जाती और उनके शरीर में पल रहे रोग-मांस खाने वाले के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं; फिर जिस त्रास व यन्त्रणापूर्ण वातावरण में इनकी हत्या की जाती है उस वातावरण से उत्पन्न हुआ तनाव, भय, छट-पटाहट क्रोध आदि पशुओं के Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १५९ मांस को जहरीला बना देता है। वह जहरीला रोग ग्रस्त मांस- मांसाहारी के उदर में जाकर उसे असाध्य रोगों का शिकार बनाता है । अम्लों की विनाशीलता शरीर में बाहर से प्रवेश करने वाले विष- द्रव्यों में मुख्य योगदान अशुद्ध आहार के द्वारा होता है । यदि आहार - विवेक द्वारा हित, मित, सात्त्विक आहार ही ग्रहण किया जाए, तो शरीर में बाहर से विष- द्रव्यों का प्रवेश नहीं होगा । इतना ही नहीं, शुद्ध आहार द्वारा पूर्व में जमा विष- द्रव्यों को बाहर निकालने में भी सहायता मिलेगी । हमारा आहार (भोजन) ऐसा होना चाहिए, जिससे कि शरीर में विष- द्रव्यों अतिमात्रा में जमा न हो पाए। ऐसा आहार "शुद्ध" आहार कहलाता है। शरीर में चयापचय की क्रिया के परिणामस्वरूप हमारे शरीर में यूरिक एसिड, लेक्टिक एसिड आदि अम्ल पैदा होते हैं। ऐसे पदार्थ भोजन में अधिक न लें जिनसे इन अम्लों में वृद्धि हो । अन्यथा इन अम्लों को निष्क्रिय करने के लिए क्षार की मात्रा पर्याप्त न होने से, अम्ल अवशिष्ट रह जायेगा, जो हानिकारक ही सिद्ध होता है । कार्बोहाइड्रेट-यदि भोजन में कोर्बोहाइड्रेट की मात्रा आवश्यकता से अधिक हो जाती है, तो उससे कार्बन डाईआक्साइड की उत्पत्ति बढ़ जाती है जिससे शरीर में कार्बोनिक ऐसिड पैदा होता है, जो एक विष- द्रव्य के रूप में शरीर को नुकसान पहुंचाता है। प्रोटीन - भोजन में प्रोटीन का जो हिस्सा होता है, उसके चयापचय के परिणामस्वरूप यूरिक एसिड का निर्माण होता है । अत्यधिक श्रम से शरीर में लैक्टिक एसिड की मात्रा बढ़ जाती है। इन अम्लों को शरीर से यथाशीघ्र निष्कासित करना चाहिए तथा निष्कासित करने से पूर्व उन्हें क्षारों द्वारा निष्क्रिय करना आवश्यक है। सोडियम, पोटेशियम, केल्शियम और मेग्नेशियम क्षारों की पर्याप्त मात्रा रक्त प्रवाह में रखने के लिए इन द्रव्यों से युक्त पदार्थ भोजन द्वारा ग्रहण करना आवश्यक है। यदि भोजन द्वारा इनकी आपूर्ति नहीं होती है तो हमारे शरीर के भीतर के क्षार - भंडार जैसे- अस्थियां, पृष्ठ-रज्जु, लीवर आदि में से उन्हें निकालकर रक्त प्रवाह में भेजना पड़ता है। इस प्रकार जब क्रमश: क्षार - भंडार रिक्त हो जाते हैं तब रक्त में अतिरिक्त मात्रा में जमा अम्ल अपनी विनाशलीला शुरू कर देते हैं । उदारणार्थ- संधिवात की बीमारी में अस्थि- संधियों में यूरिक ऐसिड जमा होता है । इसलिए हमारे भोजन में अम्ल-निरोधक या क्षारान्त पदार्थ की पर्याप्त मात्रा में पूर्ति आवश्यक है । फल, सब्जी, भाजी, क्षारान्त हैं तथा दाल अन्न Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैन दर्शन और विज्ञान आदि अम्लान्त है। दूध केवल नवजात शिशुओं के लिए क्षारान्त है वयस्कों के लिए वह अम्लान्त बन जाता है। इस प्रकार अम्लान्त भोजन की तुलना में पर्याप्त मात्रा में क्षारान्त भोजन होने से ही व्यक्ति -“अम्लों' की विनाशलीला से बच सकता है। चर्बी-भोजन में यदि स्नेह या चर्बी (वसा) की मात्रा सीमा से अधिक होती है तो आंतों में उसका रूपान्तरण फ्री-फेटी एसिड के रूप में होता है। इसे निष्क्रिय करने के लिए पित्त या अन्य-सोडियम, पोटेशियम आदि के क्षारों का अतिरिक्त मात्रा में व्यय करना पड़ेगा, जो एक “दुर्व्यय' है। यदि ये क्षार पर्याप्त न हों तो एसिटोन डाइ-एसेटिक एसिड जैसे अति विषैले विष-द्रव्यों का संग्रह शरीर में बढ़ेगा जो मृत्यु का भी कारण बन सकता है। स्पष्ट है कि मांसाहार अम्लों की विनाशलीला में एक बहुत बड़ा निमित्त है। मनुष्य की प्राकृतिक शरीर-रचना शाकाहारी जीवों जैसी इस सृष्टि में शाकाहारी व मांसाहारी जीवों के अनेकों जातियां हैं और बहुत छोटे से लेकर बड़े आकार तक के विभिन्न प्रकार के जीव हैं, किन्तु सभी शाकाहारी जीवों की शरीर रचना, हाथ, पांव, दांत, आंतों आदि की बनावट व उनको देखने, सूंघने की शक्ति व खाने-पीने का ढंग मांसाहारी जीवों से भिन्न है। जैसे Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर का अंग १. दांत ' २. पंजे ३. जबड़े की गति ४. चबाने की क्रिया ५. जीभ ६. पानी पीने की क्रिया ७. आंतें ८. लीवर, गुर्दे ९. पाचक अंग में हाइड्रोक्लोराइड एसिड मांसाहारी नुकीले तेज़ नाखुन वाले केवल ऊपर नीचे हिलते हैं बगैर चबाए भोजन निगलते हैं खुरदरी (rough) जीभ बाहर निकाल कर लंबाई कम, शरीर की लम्बाई के बराबर; धड़ की लम्बाई से ६ गुनी; आंतें छोटी होने के कारण वे मांस के सड़ने व विषाक्त होने से पहले ही उसे बाहर फैंक देती हैं । अनुपात में बड़े; ताकि मांस का व्यर्थ मादा आसानी से बाहर निकाल सके मनुष्य की अपेक्षा दस गुना अधिक, जिससे मांस आसानी पच सकता है शाकाहारी चपटी दाढ़ वाले नाखुन तेज नहीं ऊपर नीचे, दाएं-बाएं, सब ओर हिलते हैं, भोजन चबाने के बाद निगलते हैं चिकनी (smooth) जीभ बिना बाहर निकाले, होठों से लंबाई अधिक; शरीर की लंबाई से ४ गुनी; धड़ की लंबाई से १२ गुनी; इसके कारण मांस को जल्दी बाहर नहीं फैंक पाती । अनुपात म में छोटे, ताकि मांस का व्यर्थ मादा आसनी से बाहर नहीं निकाल सकते कम, मांस को आसानी से नहीं पचा सकता १. जीन्स हीपकीन्स यूनिवर्सिटी के डॉ० एलन वाकर ने दांतों के माइक्रोस्कोपिक एनेलिसिस से यह पता लगाया है कि मनुष्य फल खाने वाले प्राणियों का वंशज है न कि मांस खाने वालों का । । विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १६१ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ १०. लार (सलाइवा) ११. ब्लड - पी. एच. १२. सूंघने की शक्ति १३. आंखें १४. शब्द अम्लीय (acidic) कम; झुकाव अम्लीय की ओर अत्यन्त तीव्र रात में चमकती हैं; रात में भी देख सकती हैं कर्कश, भयंकर जन्म के बाद एक सप्ताह तक दृष्टि-शून्य क्षारीय (alkaline) लार में टायलिन ptyaline अधिक; झुकाव क्षारीय की ओर उतनी तीव्र नहीं रात में देख नहीं सकती कर्कश नहीं जन्म से ही दृष्टि वाले १५. बच्चे जैन दर्शन और विज्ञान Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १६३ उपरोक्त तथ्यों से यह पता लगता है कि प्रकृति ने मनुष्यों की बनावट गाय, घोड़ा, ऊंट, जिराफ, सांड आदि शाकाहारी पशुओं के समान ही की है, उसे शाकाहारी पदार्थों को ही सुगमता व सरलता से प्राप्त कर सकने व पचाने की क्षमता दी है । मनुष्य 'के अलावा संसार का कोई भी जीव प्रकृति द्वारा प्रदान की हुई शरीर रचना के विपरीत आचरण करना नहीं चाहता। शेर भूखा होने पर भी शाकाहारी पदार्थ नहीं खाता और गाय भूखी होने पर भी मांसाहार नहीं करती क्योंकि वह उनका स्वाभाविक प्रकृति अनुकूल आहार नहीं है। मांसाहरी पशु अपनी पूरी उम्र मांसाहार कर व्यतीत करते हैं; उनके लिए यही पूर्ण आहार है किन्तु कोई भी मनुष्य केवल मांसाहर पर दो तीन सप्ताह से अधिक जीवित नहीं रह सकता क्योंकि केवल मांस का आहार इतने अधिक तेजाब व विष (Acid and Toxins ) उत्पन्न कर देगा कि उसके शरीर की संचालन क्रिया ही बिगड़ जाएगी। जो मनुष्य प्रकृति के विपरीत मांसाहार करते हैं उन्हें भी कुछ-न-कुछ शाकाहरी पदार्थ लेने ही पड़ते हैं क्योंकि मनुष्य के लिए मांसाहार अपूर्ण व आयु क्षीण करने वाला आहार है। ऐसकीमों जो परिस्थितिवश प्राय: मांसाहार पर ही रहते हैं, की औसत आयु सिर्फ ३० वर्ष ही है। जबकि केवल शाकाहार पर मनुष्य पूरी व लम्बी उम्र सरलता से जी सकता है। उपरोक्त सभी तथ्य यह प्रमाणित करते हैं कि प्रकृति ने मनुष्य की रचना शाकाहारी और केवल शाकाहार भोजन के अनुकूल ही की है। मांसाहारः रोगों का जन्मदाता मांसाहार पर भगवान महावीर ने बहुत तीव्रता से प्रहार किया है। जैन धर्म ने तो मांसाहार को हिंसा की दृष्टि से तथा भाव एवं लेश्या की मलिनता की दृष्टि से हेय माना ही है, पर विश्व के अन्य धर्म - शास्त्रों व महापुरुषों ने हर प्राणी मात्र में उस परम पिता परमात्मा की झलक देखने को कहा है व अहिंसा को परम धर्म माना है। अधिकांश धर्मों ने तो विस्तार पूर्वक मांसाहार के दोष बताए हैं और उसे आयुक्षीण करने वाला व पतन की ओर ले जाने वाला कहा है किन्तु किसी भी निरीह प्राणी की हत्या का निषेध तो सभी धर्मो ने किया है । अपने स्वाद व इन्द्रिय-सुख को ही जीवन का परम ध्येय समझने वाले कुछ लोग अपने स्वार्थवश यह प्रकट करते हैं कि उनके धर्म में मांसाहार निषेध नहीं है, किन्तु यह असत्य है । ' शरीर और मन की दृष्टि से भी मांसाहार पर आज बहुत विचार हो चुका है। वैज्ञानिक खोजों से यह प्रमाणित हो चुका है कि मांसाहार शरीर की दृष्टि से १. विस्तार के लिए देखें गोपीनाथ अग्रवाल, शाकाहार या मांसाहार पृष्ठ २५-२८ । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैन दर्शन और विज्ञान अनेक प्रकार से हानिप्रद है । शाकाहार में तंतुमय पदार्थ अधिक होते हैं। उनसे पेट को साफ रखने में मदद मिलती है । शरीर के विषाक्त पदार्थ उनके सहारे से बाहर निकल आते हैं। जब भी आहार में तंतुमय पदार्थों की कमी होती है, बड़ी आंत का कैंसर तथा दूसरी बीमारियां होने की शक्यता है । / मांसाहार हमारे लिए कितना घातक व असाध्य रोगों को निमंत्रण देने वाला है इस पर ठोस निष्कर्ष बड़े-बड़े डाक्टरों, वैज्ञानिकों आदि ने निकाले हैं स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ न्यूयार्क, बफैलों में की गई शोध से यह प्रकाश में आया कि अमरीका में ४७००० से भी अधिक बच्चे हर वर्ष ऐसे जन्म लेते हैं जिन्हें माता-पिता के मांसाहारी होने के कारण कई बीमारियां जन्म से ही लगी होती हैं और ये बच्चे बड़े होने पर भी पूर्णतः स्वस्थ नहीं हो पाते । ' हृदय रोग व उच्च रक्तचाप - I रक्त- वाहनियों की भीतरी दीवारों पर कोलेस्टेरोल की तहों का जमना इसका मुख्य कारण है । १९८५ के नोबेल पुरस्कार विजेता अमरीकी डा. माइकल एस. ब्राउन व डॉ. जोसेफ एल. गोल्डस्टीन ने यह प्रमाणित किया है कि हृदय रोग से बचाव के लिए कोलेस्टेरोल नामक तत्त्व को जमने से रोकना अति आवश्यक है, यह तत्त्व वनस्पति में नहीं के बराबर होता है । अण्डों में सबसे अधिक व मांस, अण्डों व जानवरों से प्राप्त वसा में काफी मात्रा में होता है । १०० ग्राम अण्डा प्रतिदिन लेने का अर्थ जरूरत से ढाई गुना अधिक कोलेस्टेरोल लेना है । जो व्यक्ति मांस या अण्डे खाते हैं उनके शरीर में 'रिस्पटरों' की संख्या में कमी हो जाती है जिससे रक्त के अन्दर कोलेस्टेरोल की मात्रा अधिक हो जाती है। इससे हृदय रोग गुर्दे के रोग एवं पथरी जैसी बीमारियां को बढ़ावा मिलता है। इससे आंतों, स्तनों तथा गर्भाशय के रोग होने की संभावना अधिक रहती है । ब्रिटेन के डा. एम. रॉक ने एक सर्वेक्षण अभियान के बाद यह प्रतिपादित किया कि " शाकाहारियों में संक्रामक और घातक बीमारियां मांसाहारियों की अपेक्षा कम पाई जाती हैं। वे मांसाहारियों की अपेक्षा अधिक स्वस्थ, छरहरे बदन, शांत प्रकृति और चिन्तनशील होते हैं।" बी. बी. सी. के टेलीविजन विभाग द्वारा शाकाहार पर एक साप्ताहिक कार्यक्रम द्वारा मांसाहारियों को स्पष्ट चेतावनी दी जाती रही है कि इससे आपको घातक बीमारियों का सामना करना पड़ सकता है। पश्चिमी देशों में जहां मांसाहार का प्रचलन अधिक है वहां दिल का दौरा, १. अहिंसा संदेश, जून, ८९ रांची Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १६५ कैंसर, ब्लड-प्रेशर, मोटापा, गुर्दे के रोग, कब्ज, संक्रामक रोग, पथरी, जिगर की बिमारी आदि घातक बीमारियां अधिक होती हैं जबकि भारत, जापान व दक्षिण अफ्रीका में जहां मांसाहार का प्रचलन कुछ कम है, कम होती है।' मांसाहार से कैंसर सभी प्राणियों के शरीर में विषैले पदार्थ तैयार होते हैं। वे केवल मल-मूत्र द्वारा ही शरीर से बाहर निकल सकते है। जब कोई जानवर मारा जाता है और उसके मांस में से पदार्थ रह जायें तो उनके बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं रह जाता। हृदय की क्रिया बंद होने के बाद शरीर के सारे अवयव पूर्ण रूप से निष्क्रिय हो जाते हैं। अत: मृत जानवरों के मांस में विषैले पदार्थ भारी मात्रा में जमा रह जाते है। जो व्यक्ति उसे खाता है, सहज ही सारा विषैला तत्त्व उसके शरीर में पहुंच जाता है। जिन जानवरों को मारा जाता है उन्हें हार्मोन्स, एन्टीबॉडीज और इसी प्रकार की अन्य औषधियां तथा जन्तुनाशक दवाइयां निश्चय रूप से दी जाती हैं। जो व्यक्ति मांसाहार करता है उसके शरीर में ये जहरीले पदार्थ जमा हो जाते हैं। गायों आदि जानवरों का मोटा-ताजा बनाने के लिए भी B.E.S. नाम की दवाई दी जाती है। इससे उनके मांस को खाने से कैंसर की संभावना बताई गयी है। जिन स्त्रियों को आज से पचीस वर्ष पूर्व B.E.S. की औषधि दी गयी थी उनमें तथा उनकी पत्रियों तक में कैंसर का प्रमाण अधिक पाया गया है। ___ मांसाहारियों में कैंसर का बढ़ना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। एक सर्वेक्षण से पता चला है कि मांसाहार करने वाले २५ देशों में से १९ देशों की मृत्यु-संख्या बहुत ऊंची है। ५ देशों की मृत्यु संख्या मध्यम है जबकि केवल एक देश की मृत्यु दर नीची है।' । उन देशों में जहां लोग शाकाहार करते हैं वहां कैंसर बहुत कम पाया जाता है। १९७५ में बम्बई में कैंसर के पाने वालों की संख्या दस हजार में एक थी जबकि इंग्लैंड में ५.५ प्रतिशत थी। ईजिप्त में काले रंगवाली शाकाहारी जातियों में कैंसर नहीं के बराबर है जबकि मांसाहार जाति में अंग्रेजों जितनी ही है। कोप्ट मठ में जहां लोग चाय कॉफी तथा मांसाहार नहीं करते हैं, पिछले २७ वर्षों में कैंसर की एक घटना भी नहीं हुई। ____ अमेरिकन सिनेटरों की समिति ने 'आहार-विषयक अमेरिका का ध्येय' विषय पर अपनी रिर्पोट पेश करते हुए यही कहा है-मांसाहार से हृदय-विकार १. कल्याण, गोरखपुर, पृष्ठ ५७१ व हिन्दुस्तान टाइम्स, नई दिल्ली, १.१०.८६ Human onchogene : Work done by Prof. R.A. Weinberg from Massachutts Hospital U.S.A. and others. - Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ तथा कैंसर की संभावनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता । आस्ट्रेलिया, जहां सर्वाधिक मांस भोजन खाया जाता है और जहां प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष १३० किलो गोमांस (Beaf) की खपत है वहां (Bowel) आंतों का कैंसर सबसे अधिक है। Dr. Andrew Gold ने अपनी पुस्तक 'Diabetes : Its Causes and Treatment' में शाकाहारी भोजन की ही सलाह दी है । जैन दर्शन और विज्ञान आंतों का अलसर, अपैन्डिसाइटिस आंतों और मल द्वार का कैंसर (Ulcreative colitis. Appendicitis. Cartinoma of colon and rectum) ये रोग शाकाहारियों की अपेक्षा मांसाहारियों में अधिक पाए जाते हैं । अन्य बीमारियां मांसाहारी लोगों का पेशाब प्राय: तेजाबयुक्त होता है। इस कारण शरीर से रक्त का पेशाब और क्षार का अनुपात ठीक रखने के लिए हड्डियों में से क्षार के नमक खून में मिलते रहते हैं। इसके विपरीत शाकाहारियों का पेशाब क्षार वाला होता हैं । इसलिए उनकी हड्डियों का क्षार खून में नहीं आता और हड्डियां मजबूत रहती हैं। डॉ. ए. वॉचमैन और डॉ. डी. एस. बर्नसीन ने हार्वर्ड मेडिकल स्कूल रिपोर्ट, १९६९, पृ. 457 में लिखा है- मांसाहार पाचन-संस्थान को खराब करता है, क्योंकि वह मुंह की लार की प्रतिक्रिया को क्षार से अम्ल में परिवर्तित कर देता है । इस प्रकार लार अपने काम में सक्षम नहीं होती । मांसाहार जिन असाध्य रोगों को जन्म देता है, उनमें से कुछ इस प्रकार है। १. मिर्गी (Epilepsy) इन्फेक्टेड मांस से होने की संभावना है। २. गुर्दे की बीमारियां (Kidney Diseases) - मांसाहार अधिक प्रोटीनयुक्त होने से गुर्दे खराब करता है । ३. संधिवात, गठिया आदि (Rheumatoid artheritis, gout etc.) - मांसाहार खून से यूरिक एसिड की मात्रा बढ़ाता है। इससे ये बीमारियां हो सकती है। ४. ऐथेरोस्क्लेरोसिस - रक्त धमनियों का मोटा होना। यह बीमारी मांसाहार में विद्यमान पोलीसेचुरेटेड फेट्स, कोलेस्टेरोल आदि से होती है। इससे विपरीत १. Role of Vegetarian Diet in Health and Disease, Bombay. २. Medical Basis of Vegetarian Nutrition, New Delhi. ३. Medical Basis of Vegetarian Nutrition, New Delhi; डॉ नेमीचन्द जैन, अण्डा ही जहर है, इन्दौर । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली शाकाहारी भोजन इस बीमारी से बचाता है। ५. आंतों का सड़ना- अण्डा, मांस आदि खाने से पेचिस, मंदाग्नि आदि बीमारियां घर कर जाती हैं, आमाशय कमजोर होता है व आतें सड़ जाती हैं। ६. विषावरोधी-शक्ति का क्षय-मांस, अण्डा, खाने से शरीर की विषावरोधी शक्ति नष्ट होती हैं और शरीर साधारण-सी बीमारी का भी मुकाबला नहीं कर पाता, बुद्धि व स्मरण शक्ति कमजोर पड़ती है। विकास मंद हो जाता है। कुछ अमरीकी व इंग्लैंड के डाक्टरों ने तो अण्डे को मनुष्य के लिए जहर कहा है। ७. त्वचा के रोग, एग्जीमा, मुंहासे आदि- त्वचा की रक्षा के लिए विटामिन A का सर्वाधिक महत्त्व है जो गाजर, टमाटर, हरी सब्जियों आदि में ही बहुतायत में होता है। यह शाकाहारी पदार्थ जहां त्वचा की रक्षा करते हैं वहीं मांस, अण्डे, शराब इत्यादि त्वचा-रोगों को बढ़ावा देते हैं। त्वचा में जलन महसूस होने वाले रोग के अधिकांश रोगी मांसाहारी ही पाए गए। ८. अन्य रोगों जैसे माइग्रेन, इन्फैक्शन से होने वाले रोग, स्त्रियों के मासिक धर्म संबंधी रोग आदि भी मांसाहारियों में ही अधिक पाये जाते हैं। सारांश में जहां शाकाहारी भोजन प्राय: प्रत्येक रोग को रोकता है वहीं मांसाहारी भोजन प्रत्येक रोग को बढ़ावा देता है। शाकाहारी भोजन आयु बढ़ाता है तो मांसाहारी भोजन आयु घटाता है। महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक तथ्य १. ग्वालियर के दो शोधकर्ताओं डा. जसराज सिंह और श्री. सी. के. डवास ने ग्वालियर जेल के ४०० बन्दियों पर शोध कर यह बताया कि २५० मांसाहारी बन्दियों में से ८५ प्रतिशत चिड़चिड़े स्वभाव के व झगड़ालू टाइप के निकले जबकि बाकी १५० शाकाहारी बन्दियों में से १० प्रतिशत शांत स्वभाव के और खुशमिजाज थे। २. अमरीकी विशेषज्ञ डा. विलियम, सी. राबर्टस का कहना है कि अमेरिका में मांसाहारी लोगों में दिल के मरीज ज्यादा हैं। उनके मुकाबले शाकाहारी लोगों में दिल के मरीज कम होते है। ३. एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार एक कीड़ा जिसे अंग्रेजी में ब्रेन बग (Brain Bug) कहते है। ऐसा होता है जिसके काटने से पशु पागल हो जाता है किन्तु पागलपन का यह रोग पूरी तरह विकसित होने में १० वर्ष तक का समय लग जाता है। इस बीच यदि कोई इस कीड़े द्वारा काटे हुए पशु का मांस खा लेता है तो पशु में पलने १. अहिंसा संदेश, जून ८९, रांची Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैन दर्शन और विज्ञान वाले यह रोग मांस खाने वाले के शरीर में प्रवेश कर पाता है।' यह तो सर्वविदित ही है कि हत्या से पहले पशु, पक्षी मछलियों आदि के स्वास्थ्य की पूरी जांच नही की जाती और उनके शरीर में छुपी हुई बीमारियों का पता नहीं लगाया जाता। अण्डे, पशु, पक्षी, मछलियां भी कैंसर टयूमर आदि अनेक रोगों से ग्रस्त होते हैं और उनके मांस के सेवन से वे रोग मनुष्य में प्रवेश कर जाते ४. अकेले अमरीका में ४०००० से अधिक केस प्रतिवर्ष ऐसे आते है जो रोग-ग्रस्त अण्डे व मांस खाने से होते हैं। ५. हैल्थ एजूकेशन काउंसिल के अनुसार विषाक्त भोजन (Food Poisoning) से होने वाली 90 प्रतिशत मौतों का कारण मांसाहार है। ६. जब पशु बूचड़खाने में कसाई के द्वारा अपनी मौत को पास आते देखता हे तो वह डर, दहशत से कांप उठता है। मृत्यु को समीप भांपकर वह एक-दो दिन पहले से ही खाना-पीना छोड़ देता है। डर व घबराहट में उसका कुछ मल बाहर निकल जाता है। मल जब खून में जाता है तो जहरीला व नुकसानदायक बन जाता है। मांस में रक्त, वीर्य, मूत्र, मल आदि अन्य कितनी ही चीजों का अंश होता है। मौत से पूर्व नि:सहाय पशु आत्मरक्षा के लिये पुरुषार्थ करता है, छटपटाता है। पुरुषार्थ बेकार होने पर उसका डर, आवेश बढ़ जाता है, गुस्से से आंखें लाल हो जाती हैं, मह में झाग आ जाते हैं। ऐसी अवस्था में उसके अन्दर एक पदार्थ एड्रीनालिन (Adrenalin) उत्पन्न होता है जो उसके रक्त-चाप को बढ़ा देता है व उसके मांस को जहरीला बना देता है। जब मनुष्य वह मांस खाता है तो उसमें भी एड्रीनालीन प्रवेश कर उसे घातक रोगों की ओर धकेल देता है। एड्रीनालिन के साथ जब क्लोरिनेटेड हाइड्रोकार्बन लिया जाता है तब तो यह हार्ट-अटैक का गंभीरतम खतरा उत्पन्न कर देता है। ७. मछली, अण्डे आदि को (प्रिजर्व करने) ठीक रखने के लिए बोरिक एसिड व विभिन्न बोरेट्स का प्रयोग होता है, ये कम्पाउण्ड Cerebral Tissues में एकत्र होकर गंभीर खतरा उत्पन्न कर देते हैं। बूचड़खानों से प्राप्त मांस कितना हानिकारक, दूषित, गंदा व रोग-ग्रस्त होता है इसका अनुमान इससे ही लगा सकते है कि यूरोप के अत्याधुनिक, नवीन उपकरणों १. वही २. वही 3. Food for a future, Published by Akhil Bhartiya Hinsa Nivaran Sangh, Ahemdabad. ४. Hindustan Times, New Delhi, 1.10.86 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १६९ व नई टैक्नीक द्वारा संचालित बूचड़खानों को भी स्वास्थ्य की दृष्टि से आदर्श नहीं कहा जा सकता तब भारत के बूचड़खानों के मांस की तो बात ही क्या । ८. अमेरिका के डा. ई. बी. एमारी तथा इगलैंड के डा. इन्हा ने अपनी विश्व विख्यात पुस्तकों 'पोषण का नवीनतम ज्ञान' और 'रोगियों की प्रकृति' में साफ-साफ माना है कि अण्डा मनुष्य के लिए जहर है । ९. इंग्लैण्ड के डा. आर. जे. विलियम का निष्कर्ष है "संभव है अण्डा खाने वाले शुरू में अधिक चुस्ती अनुभव करें किन्तु बाद में उन्हें हृदय रोग, एकजीमा, लकवा जैसे भयानक रोगों का शिकार हो जाना पड़ता है । शाकाहार अधिक पौष्टिक व गुणकारी शाकाहारी भोजन से उचित मात्रा में प्रोटीन अथवा शक्तिवर्द्धक उचित आहार प्राप्त नहीं होता-यह मात्र भ्रांति है । आधुनिक शोधकर्ताओं व वैज्ञानिकों की खोजों से यह साफ पता लगता है कि शाकाहारी भोजन से न केवल उच्च कोटि के प्रोटीन प्राप्त होते है अपितु अन्य आवश्यक पोषक तत्त्व विटामिन, खनिज, कैलोरी आदि भी अधिक प्राप्त होते है। सोयाबीन व मूंगफली में मांस व अण्डे से अधिक प्रोटीन होता है । सामान्य दालों में भी प्रोटीन की मात्रा कम नहीं होती। गेहूं, चावल, ज्वार, बाजरा, मक्का, आदि के साथ यदि उचित मात्रा में दालें एवं हरी सब्जियों का सेवन किया जाए तो न के वल प्रोटीन की आवश्याकता पूर्ण होती हैं अपितु अधिक संतुलित आहार प्राप्त होता है, जो शाकाहारी व्यक्ति को मांसाहारी की अपेक्षा अधिक स्वस्थ, सबल व दीर्घायु प्रदान करता है । अनेक शोधकर्ताओं ने यह पता लगाया है कि शाकाहारी अधिक शक्तिशाली, परिश्रमी, अधिक वजन उठा सकने वाले, शांत स्वभाव के व खुशमिजाज होते हैं । जापान में किए गए अध्ययनों से यह पता चला है कि शाकाहारी न केवल स्वस्थ व निरोग रहते हैं अपितु दीर्घजीवी भी होते हैं वे उनकी बुद्धि भी अपेक्षाकृत तेज होती है। अतः यह कहना कि मांसाहार शाकाहार की तुलना में अधिक शक्तिवर्धक हैं, एक गलत धारणा है। नेशनल इन्स्टीट्यूट आफ न्युट्रीशन, हैदराबाद द्वारा प्रकाशित (Nutritive Value of Indian Foods ) में विभिन्न खाद्य-पदार्थों की जो तुलनात्मक तालिका दी गई है। उससे यह स्पष्ट होता है कि शाकाहारी पदार्थों में प्रोटीन व अन्य स्वस्थ्य वर्धक तत्त्वों की कमी नहीं है। उस तालिका से यह भी पता चलता है कि मांसाहारी पदार्थों में (Fiber ) फाइबर (दालों, अनाज आदि का ऊपरी भाग ) की मात्रा बिल्कुल नहीं है और यह Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैन दर्शन और विज्ञान निश्चित हो चुका है कि फाइब्बर रोगों को रोकने में अत्यधिक महत्त्व रखता है। हमारे स्वास्थ्य के लिए विटामिन्स भी अत्यवश्यक है। इन विटामिन्स के स्रोत भी शाकाहारी पदार्थ ही हैं। शाकाहारी भोजन के गुणों को जानकर अब पाश्चात्य देशों में शाकाहार आंदोलन तेज हो रहा है। ब्रिटेन के दस लाख से अधिक लोग अब पूर्णत: शाकाहारी हैं और इस संख्या में आश्चर्यजनक वृद्धि हो रही है। आर्थिक दृष्टि __ आर्थि दृष्टि से भी शाकाहारी की अपेक्षा मांसाहार ज्यादा मंहगा होता है। एक बकरा ७ पौंड अनाज खाता है, तब एक पौंड माल तैयार होता है। प्राय: ऐसा कहा जाता है कि अंडो से बहुत कम खर्च में प्रोटीन व पौष्टिकता प्राप्त होती है लेकिन यह एक मिथ्या प्रचार है। विभिन्न पदार्थों में प्रोटीन की प्रतिशत की जो तालिका है उसके अनुसार एक ग्राम प्रोटीन की कीमत इस प्रकार आती है।३ पदार्थ १ ग्राम प्रोटीन की कीमत अंडे से १४ पैसे गेहूं से ४ पैसे दालों से ३ पैसे सोयाबीन से २ पैसे यदि ऊर्जा (कैलोरीज) की दृष्टि से देखें तो १०० कैलोरीज पर व्यय इस प्रकार आता है:पदार्थ १०० कैलोरीज पर व्यय अंडे से गेहूं से दालों से ८ पैसे सोयाबीन से ५ पैसे ९ पैसे ९ पैसे a aus १. Medical Basis of Vegetarian Nutrition, Published by Kishore Chari table Trust, Delhi. २. अहिंसा संदेश, जून ८९, P. Box No. 85, Ranchi. ३. डॉ. नेमीचन्द जैन, अण्डा जहर ही जहर, इन्दौर । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १७१ अत: यह स्पष्ट है कि अंडों की अपेक्षा दालों व अनाज से बहुत कम खर्च में प्रोटीन व ऊर्जा प्राप्त होती है, इसके अतिरिक्त अन्य महत्त्वपूर्ण पदार्थ विटामिन्स, खनिज, फाइबर, कार्बोहाइड्रेट, इत्यादि अलग प्राप्त होते हैं जो मांसाहारी पदार्थों में प्राय: नहीं के बराबर हैं। आर्थिक दृष्टि से यह भी सारांश निकाला गया है कि मांस द्वारा एक किलोग्राम प्रोटीन प्राप्त करने के लिए पशु को ७ से ८ किलोग्राम तक प्रोटीन खिलाना पड़ता है। यह भी अनुमान लगाया गया है कि १ पशु-मांस-कैलोरी प्राप्त करने के लिए ७ वनस्पति-कैलोरी खर्च होती है। अमेरिका के कृषि विभाग ने जो आंकड़े बनाए हैं उससे पता लगता है कि जितनी भूमि एक औसत पशु को चराने के लिए चाहिए उतनी से औसत दर्जे के पांच परिवारों का काम चला सकता है। एक औसत अमरीकी करीब १२० किलो मांस प्रतिवर्ष खाता है; इसे प्राप्त करने के लिए करीब एक टन अनाज खर्च होता है। यदि वह सीधा १२० किलो अनाज खाए तो वर्ष भर आठ व्यक्तियों का कार्य चल सकता है। प्रोफेसर जार्ज बौर्गस्टौर्म के अनुमान के अनुसार केवल अमेरिका में पशु-जगत् जितनी वनस्पति-फूड खर्च करता है, उतनी ही विश्व की आधी आबादी पेट भर सकती है। गाय, बैल आदि पशुओं के गोबर से खाद, गैस ऊर्जा आदि की जो अतिरिक्त प्राप्ति होती है उन सबका यदि हिसाब लगाया जाए तो यह प्रकट होता है कि ऐसे पशुओं का वधकर हम उतना ही लाभ प्राप्त करते हैं जितना कोई चाय बनाने के लिए नोट जलाकर लाभ प्राप्त करे। नित्य एक सोने का अंडा देने वाली मुर्गी का पेट काटना समझदारी कभी नहीं है। बौम्बे ह्यू मैनिटेरियन लीग के आनरेरी सैक्रेटरी दशरथ भाई ठक्कर के अनुसार पशु-जगत् हमारी राष्ट्रीय सम्पदा में प्रतिवर्ष २५,५०० करोड़ रुपये दूध, खाद, ऊर्जा व भार उठाने की सेवा से अपना पसीना बहाकर हमारे राष्ट्र को देते हैं, इसके अतिरिक्त इनके मरने के उपरांत, इनका चमड़ा व हड्डियां अलग उपयोग में आती हैं। हमें तो इन पशुओं का कृतज्ञ होना चाहिए जो हमें इतनी सम्पदा देते हैं व हमारी सेवा करते हैं। यदी हम इनके उपकार का बदला इन्हें बूचड़खाने भेज कर चुकाएं तो यह हमारी कृतघ्नता ही है। पशओं का वध रोकने से उपर्युक्त प्रत्यक्ष लाभ के अतिरिक्त जो अप्रत्यक्ष लाभ हैं वे भी कम नहीं है। सस्ती खाद मिलने पर अनाज सस्ता होने से गरीब को १. Human Onchogene : Work done by Prof. R.A.Weinberg from Massachutts Hospital, U.S.A. and others. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैन दर्शन और विज्ञान भी भरपेट भोजन मिलेगा, जिससे कुपोषण से होने वाले रोग घटेंगे व उनकी दवाइयों पर होने वाला खर्च बचेगा। अनाज सस्ता होने से मंहगाई सूचकांक गिरेगा, महंगाई भत्तों की बचत होगी। मजदूर आंदोलन, हड़तालें आदि कम होंगी जिससे उत्पादन बढ़ेगा व कीमतें कम होंगी। उत्पादन बढ़ने से राष्ट्रीय आय में वृद्धि होगी और राष्ट्र को विदेशी कों के लिए हाथ नहीं फैलाना पड़ेगा। । अत: पश-बध रोकना केवल एक धार्मिक, नैतिक या दया की बात ही नहीं है बल्कि राष्ट्र की आर्थिक उन्नति व स्वास्थ्य-रक्षा की परम आवश्यकता भी हैं। पर्यावरण अपनी सुरक्षा व प्रसन्नता चाहने वाले को दूसरों की सुरक्षा व खुशी प्रदान करना सीखना चाहिए अन्यथा प्रकृति का दण्ड देने का अपना अलग ही नियम है। जिस प्रकार जंगल नष्ट होने से पर्यावरण संतुलन बिगड़ रहा है और हम वन-रक्षा व पेड़ लगाओ आंदोलन पर अपनी पूरी शक्ति लगा रहे हैं, उसी हमें अपने अस्तित्व व पर्यावरण व परिस्थितिक (Environment & Ecological) संतुलन को कायम रखने के लिए एक दिन पशु-पक्षी बचाओ आंदोलन करना पड़ेगा। इस कार्य में जितनी देर होगी उतनी ही अधिक हानि होगी। ३. (तम्बाकू-वर्जन) व्यसनों की विनाशलीला हमारा शरीर जीवन-विकास में सहायक होने वाली एक मशीन है। उसका दुरुपयोग न करना तथा उसे स्वस्थ बनाए रखना ही समझदारी है। यह एक सामान्य विवेक की बात है, किन्तु आज का मनुष्य इस ओर विशेष ध्यान नहीं देता। वह निरन्तर मृत्यु से डरता है, पर प्रत्येक संभाव्य रीति से वह अपने आपको त्वरता के साथ मृत्यु के नजदीक ले जा रहा है। अज्ञान, निष्क्रियता, तनाव तथा खतरनाक बुरी आदतों के द्वारा हजारों तरीकों से मनुष्य अपने शरीर का दुरुपयोग करता है। ये तरीके हमने अपनी जीवन-पद्धति में अपना रखे हैं। उदाहरणत: आज मद्यपान और धूम्रपान मनुष्य सभ्यता के अंग बन चुके हैं। धूम्रपान प्रत्येक सिगरेट के डिब्बे पर तथा विज्ञापन में यह कानूनी चेतावनी दी जाती है कि सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। धूम्रपान से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो सकते हैं। जैसे-वातस्फीती (एम्फीजीमा) हृदय-रोग, चिरकालक खांसी आदि। इन दिनों में जनता के ध्यान को आकर्षित करने वाला धूम्रपान का Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १७३ सबसे बड़ा दुष्परिणाम है-फेफड़ों का कैंसर। यह एक असाध्य और बहुधा घातक बीमारी है। यह बीमारी नहीं पीने वालों की अपेक्षा पीने वालों में २० गुणा अधिक व्याप्त है। कैंसर की बीमारी विषाक्त कोशिकाएं वृद्धिंगत होती हुई स्वस्थ कोशिकाओं को नष्ट कर देती हैं और अन्तोगत्वा ऊतकों को भी। एम्फीजीमा (वातस्फीति) की बीमारी में श्वास-प्रकोष्ठों (अल्वीओली) का रोगात्मक विस्तार होता है। बहुत सारी श्वसनिकांए एक साथ अवरुद्ध हो जाती हैं। श्वास -प्रकोष्ठों की दीवारें पतली होकर क्षीण हो जाती हैं। जिससे श्वसन-तंत्र की समग्र उपयोगी सतह के क्षेत्रफल में भारी गिरावट आ जाती है। सारी परिस्थितियां अपुनरावर्तनीय है। अन्ततोगत्वा ऑक्सीजन की कमी तथा कर्बन-डाइआक्साइउड की वृद्धि निरन्तर बनी रहती है, जिससे मृत्यु तक हो सकती है। अब धूम्रपान ने केवल फेफड़ों के कैंसर का प्रमुख कारण माना जाता है अपितु स्वरयंत्र, मुख-गुहा तथा अन्न-नली के कैंसर का भी प्रमुख कारण माना जाता है। तथा साथ ही मूत्राशय, अग्न्याशय (क्लोमग्रंन्थि) और गुर्दे के कैंसर में भी सहयोगी कारण बनाता है। सिगरेट का धुआं श्वास-नलिका के अस्तर में रहे हुए सूक्ष्म बालों (रोमों) को आघात पहुचां कर संवेदन-शून्य कर देता है। जिससे वे धूलिकण-युक्त श्लेष्म को ऊपर धकेलने में अक्षम हो जाते हैं तथा उसे स्वरयंत्र द्वारा बाहर निकालने की क्रिया बंद हो जाती है। यदि धूम्रपान की आदत वाले व्यक्ति धूम्रपान छोड़ दें तो कुछ महिनों में ये बाल साफ-सूफी के कार्य के लिए पुन: सक्रिय बन जाते हैं। नशीले पदार्थों का सेवन तनाव-मुक्ति उत्तेजना या सुखाभास की तीव्रानुभूति (या मस्ती) के लिए नाना प्रकार के नशीले पदार्थों का नित्य सेवन करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। दुर्भाग्य की बात है कि अब तक जितने नशीले औषध आविष्कृत हुए हैं, वे १. आधार : टाइम पत्रिका, मार्च १९८५; इसी पत्रिका में अमेरिका के सर्जन-जनरल सी० एवरेट कूप की इसी विषय की एक रिपोर्ट भी प्रकाशित है। इस रिपोर्ट में वे कहते हैं-हमारे युग की सार्वजनिक स्वास्थ्य से सम्बन्धित समस्याओं में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण समस्या धूम्रपान की है। उसकी रोकथाम भी की जा सकती है फिर भी हमारे समाज में मृत्यु का सबसे प्रमुख कारण धूम्रपान है। इस रिपोर्ट में आगे धूम्रपान न करने वालों को भी एक चेतावनी दी गई है कि उनको सिगरेट के धुएं से भरे कमरों में जाने से बचना चाहिए। क्योंकि कैंसरोत्पादक तत्त्व धूम्रपान करने वाले व्यक्ति के द्वारा कस लेने में जितनी मात्रा में भीतर जाते हैं उसकी अपेक्षा सुलगती सिगरेट के निकलते धुएं में अधिक मात्रा में विद्यमान होते हैं। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जैन दर्शन और विज्ञान किसी-न-किसी रूप में खतरनाक सिद्ध हुए हैं। अधिकांश ऐसे पदार्थों से व्यक्ति उनका व्यसनी बन जाता है, यानी कुछ दिनों के सेवन के बाद उनके शरीर का चयापचय-क्रम परिवर्तित हो जाता है और व्यसनी को उन पदार्थों के निरन्तर सेवन पर आश्रित होना पड़ता है। यदि उनका उपयोग अचानक बन्द कर दिया जाय, तो व्यसनी को काफी पीड़ा सहन करनी पड़ती है और कभी-कभी तो मृत्यु भी हो सकती है । यह पराश्रितता शारीरिक न भी हो, पर मानसिक रूप में अवश्य हो जाती है, जो नशीले पदार्थ को 'वैशाखी' का रूप देकर मनुष्य का पंगु बना देती है । बहुत सारे नशीले पदार्थ यकृत और मस्तिष्क जैसे प्राणाधार अवयवों को भारी क्षति पहुंचाते है । अफीम और मार्फिया जैसे स्वापक पदार्थ केन्दीय नाड़ी संस्थान के शामक होने का कारण पीड़ा आदि में राहत पहुंचाते हैं या चिंता की अनुभूति से व्यक्ति को मुक्त करते हैं। इससे सुखाभास या भ्रम भी पैदा होता है, किन्तु ये तीव्र दुर्व्यसन हैं और सदियों से गम्भीर स्वास्थ्य समस्याओं के उत्पादक रहे हैं। इन व्यसनों के शिकार व्यक्ति अपनी लत पूरी करने के लिए अपराध करने उतारू हो जाते हैं। उत्तेजक पदार्थ चाय, काफी, कोको आदि अन्य पेय पदार्थों में विद्यमान केफीन और सिगरेट आदि तम्बाकू वाले पदार्थों में विद्यमान निकोटीन सामान्यतः प्रयुक्त उत्तेजक पदार्थ है। इन दोनों में (केफीन और निकोटीन में ) केन्द्रीय नाड़ी तंत्र को उत्तेजित करने की अद्भुत क्षमता है । किन्तु दूसरी ओर ये ही तत्त्व हृदय रोग को बढ़ाने में सहयोगी बनते हैं। अधिक मात्रा में केफीन का सेवन चिड़चिड़ापन तथा अनिद्रा की बीमारी को पैदा करता है । निकोटीन की अतिमात्रा फुफ्फुस से सम्बन्धित कैंसर आदि अनेक रोगों को जन्म देने के लिए कुख्यात है । शारीरिक दृष्टि से इनका व्यसन-स्वभाव विवादास्पद हो सकता है, किन्तु मानसिक दृष्टि से इनकी परावलम्बिता असंदिग्ध है । भांग, गांजा, सुल्फा, एल. एस. डी. आदि जिन्हें "साईकेडेलिक औषध' कहते हैं, शरीर में से प्राकृतिक रूप में श्रावित “नोरएपिनैफ्रीन" नामक उत्तेजक हार्मोन के स्राव में वृद्धि करके अपना प्रभाव डालते है । इनके सेवन करने वालों में कभी-कभी उत्तेजना इतनी अधिक हो जाती है कि व्यक्ति नींद नहीं ले सकता । सुखाभास जैसी स्थिति और गहरी निराशा की स्थिति एक के बाद एक होती रहती है । इन पदार्थों का दीर्घकालीन सेवन व्यक्ति को भ्रम या भ्रांति या उग्र व्यवहार तक पहुंचाता है । एल. एस. डी. का अणु रसायनिक दृष्टि से सेरोटोनीन नामक तंत्रिका-संचारी (न्यूरोन - ट्रान्समीटर) के साथ अदभुत सादृश्य रखता है, जिससे वह मस्तिष्कीय ' कोशिकाओं के कार्य कलापों में विक्षेप पैदा करता है। इससे पैदा होने वाले भ्रम Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १७५ अतिआह्लादक या अति भयानक स्वप्न जैसे होता है। जब व्यक्ति नशे की स्थिति में होता है, तब उनकी विवेकशक्ति विकृत हो जाती है जो उसके स्वयं के लिए तथा अन्य लोगों के लिए भी हानिकारक सिद्ध हो सकती है। अमेरिका की "नेशनल ऐकेडमी ऑफ साइन्स'' के “इन्स्टीट्यूट ऑफ मेडिसिन'' नामक संस्थान में गांजा के प्रभाव पर अपनी विस्तृत रिपोर्ट (लगभग १०० पृष्ठों की) के निष्कर्ष में बताया है-“गांजे में विद्यमान मुख्य सक्रिय तत्त्व (डेल्टा टेट्राहाइड्रोकेनाबीनोल) (टी. एच. सी.) शराब की तरह क्रियावाही तंतुओं के पारस्परिक तालमेल को छिन्न-भिन्न कर डालता है।" इससे गतिमान पदार्थों के हिलने-डुलने को समझने की क्षमता भी प्रभावित होती है। ऐसा व्यक्ति प्रकाश की चमक को पकड़ने में असफल हो जाता है। चूंकि ये सारी क्रियाओं में पैदा होने वाली गड़बड़ी का अर्थ होता है भारी खतरा मोल लेना। इन पदार्थों का सेवन स्वल्पकालीन स्मृति को क्षीण करता है, अवबोध-शक्ति को मन्द तथा निर्णायक शक्ति में विपर्यय करता है, व्यक्ति के मस्तिष्क में आतंक और किंकर्तव्यमूढ़ता की प्रतिक्रियाएं पैदा करता है। इन पदार्थों का अतिमात्रा में सेवन करने से श्वसन-पथ का कैंसर होने और फुफ्फुसों को गंभीर रूप में क्षति पहुंचने की संभावना बनी रहती है। जर्दा-धूम्रपान: बीसवीं सदी का निर्मम हत्यारा संसार में समय-समय पर विभिन्न कारण मानव विनाश के लिए उत्तरादायी रहे हैं। इस शताब्दी के शुरू के दशकों में महामारियां, जैसे चेचक, प्लेग, टीबी, मलेरिया और निमोनिया सबसे अधिक अकाल मौतों का कारण बनी। दूसरे एवं पांचवे दशक में मृत्यु के सबसे बड़े कारण विश्व-युद्ध रहे। छठे दशक से अब तक असामयिक मृत्यु का सबसे बड़ा जो कारण रहा है वह है जर्दा-धूम्रपान । पिछले चार दशकों से संसार में तम्बाकू पीने वे खाने से हुयी बीमारियां मानव को मृत्यु मुख में ले जाने में प्रमुख रही हैं। अकाल मृत्यु के सबसे बड़े कारण जर्दा-धूम्रपान को यमदूत की संज्ञा दी जा सकती है। निम्न आंकड़े इस कथन की पुष्टि करते १. प्रथम विश्व युद्ध के चार सालों में जितने लोगों की मृत्यु हुई, उतने लोग तो तम्बाकू से उत्पन्न बीमारियों से सिर्फ १.५ वर्ष में काल-कवलित हो जाते हैं। २. भयंकर बीमारी एड्स से पिछले एक दशक में संसार में जितने लोगों की मृत्यु हुई, उतने लोग तो तम्बाकू से हुई बीमारियों से सिर्फ एक माह में मर जाते Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैन दर्शन और विज्ञान ३. जर्दा-धूम्रपान से भारत में रोजाना ३,००० लोग मरते हैं अर्थात् सड़क दुर्घटनाओं से २० गुना व हत्याओं से २१ गुना अधिक लोग रोजाना जर्दा-धूम्रपान से जनित हुई बीमारियों से मरते हैं। देश के समाचार-पत्रों में हत्याओं व दुर्घटनाओं से हुई मृत्यु के त्रासद समाचार मुखपृष्ठ पर छपते हैं, किन्तु मानव-मृत्यु के इनसे कहीं बड़े कारण सिगरेट या बीड़ी से हुई मृत्यु का उल्लेख भी नहीं होता। आलोचना तो दूर समाचार-पत्रों में तो जर्दा बीड़ी और सिगरेट के प्रचार-प्रसार के लिए लुभावने विज्ञापन छपते हैं। ४. कई प्रकार के कैंसर पैदा करने वाले तत्त्व जो कारसीनोजन कहलाते हैं, सिगरेट या बीड़ी के धुएं में होते हैं। मुंह, गले व फेफड़े के कैंसर के हर दस रोगियों में से ९ व्यक्ति वे होते हैं जो जर्दा-धूम्रपान के आदी होते हैं। मूत्राशय, गुर्दे पेन्क्रीयाज, पेट व गर्भाशय कैंसर भी धूम्रपान करने वालों के अधिक होते हैं। मुंह, गले व भोजन नली का कैंसर आमंत्रित करने में शराब धूम्रपान का सहयोग करती है। ५. जर्दा-धूम्रपान लेने वालों में हृदय-रोग की संभावना १५ गुना अधिक होती ६. क्रॉनिक ब्रांकाइटिस व एम्फाइजीमा जैसे खतरनाक रोगों के भी दस में से नौ रोगी धूम्रपान करने वाले व्यक्ति होते हैं। ७. भारत में धूम्रपान करने वाले व्यक्तियों में से ३० प्रतिशत लोग क्रॉनिक ब्रांकाइटिस नामक श्वास रोग से पीड़ित होते हैं। ८. जर्दा-धूम्रपान लेने वालों में ब्रेन हेमरेज और लकवे की बीमारी जर्दा धूम्रपान न लेने वालों से कहीं अधिक होती है। ९. जर्दा-धूम्रपान के साथ डायबिटीज की सम्भावना बढ़ जाती है। १०. धूम्रपान से रीढ़ की हड्डी के विकार पैदा हो जाते है। ११. जर्दा-धूम्रपान करने वाले के चेहरे पर झुर्रियां, उसके द्वारा किये जाने वाले जर्दा-धूम्रपान की मात्रा के अनुपात में बढ़ती है। १२. यदि कोई व्यक्ति ४० सिगरेट पीता है, तब उसके बगल में बैठा ऐसा व्यक्ति सिगरेट नहीं पीता, ३ सिगरेट के बराबर धुआं शरीर में ग्रहण करता है। १३. चिन्ताओं से घिरे लोगों के लिए जर्दा-धूम्रपान अधिक खतरनाक हृदयाघात (हार्ट अटैक) की संभावना बहुत ज्यादा होती है। १४. जर्दा-धूम्रपान से उच्च रक्तचाप जैसी घातक बीमारी हो जाती है। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १७७ १५. लगातार जर्दा-धूम्रपान करने से व्यक्ति को खाना कम स्वादिष्ट लगता है। १६. गर्भावस्था में बीड़ी या तम्बाकू के सेवन या सिगरेट पीने से गर्भ के बच्चे पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यदि गर्भ का बच्चा लड़का है तब उसे कुप्रभाव की आशंका अधिक होती है। १७. बीड़ी एवं सिगरेट के धुएं में ५ प्रतिशत घातक गैस कार्बन मोनोआक्साइड होती है, जो कि खून के आवश्यक तत्त्व हीमोग्लोबिन से मिलकर कार्बोक्सी-हीमोग्लोबीन नामक विषैला पदार्थ बनाती है। इससे प्रतिरोधात्मक शक्ति कम होती है तथा शरीर में पोलीसाइथेमिया की बीमारी हो जाती है और नर्वस सिस्टम की कार्य-क्षमता में विकार आ जाता है। धूम्रपान करने वाले व्यक्ति की शारीरिक क्षमता में भी कमी आती है और थोड़ा परिश्रम करने के पश्चात् ही ऐसे लोगों को थकान आने लगती है। १८. एक सिगरेट पीने धूम्रपान करने वाले व्यक्ति का जीवन पांच मिनट कम होता है, अर्थात् कोई व्यक्ति १२ सिगरेट रोजाना पीता है, तब उसकी उम्र एक घंटा प्रतिदिन घटती जाती है। १९. एक पैकेट सिगरेट पीने वाला व्यक्ति यदि सिगरेट के बजाय इस धन को लगातार २५ वर्ष तक बैंक में संचित करता रहे तो इस अवधि के उपरान्त ३.५ लाख रुपये बैंक में जमा होंगे। जबकि २५ वर्ष तक धूम्रपान करते रहने के पश्चात् शरीर को स्वस्थ रखने हेतु ५००-१००० रुपये प्रति माह चिकित्सा पर खर्च करने पड़ते हैं। जर्दा-धूम्रपान: आत्म-हत्या का तरीका जर्दा-धुम्रपान का सेवन करने वाले अधिकतर व्यक्ति तम्बाकू के घातक कुप्रभावों से प्राय: अनभिज्ञ होते हैं, लेकिन बहुत से व्यक्ति इसकी बुराइयों को जान लेने के बावजूद जर्दा-धूम्रपान का सेवन करना जारी रखते हैं और कालांतर में इसकी वजह से उत्पन्न बीमारियों से काल-कवलित होते हैं। इस श्रेणी के व्यक्तियों की मृत्यु को तो "आत्म-हत्या" कहना ही अधिक उपयुक्त होगा। आत्म-हत्या के अन्य कारणों से यह सिर्फ इसलिए भिन्न है कि अन्य तरीके जैसे आत्म-दाह, फांसी लगाना, या जहर खाने से तत्काल मृत्यु होती है, जबकि तम्बाकू तम्बाकू से जनित बीमारियों से व्यक्ति धीरे-धीरे, घट-घुट कर मरता है। अत: जर्दा-धूम्रपान से होने वाली मृत्यु वस्तुत: आत्महत्या का सबसे प्रचलित तरीका है। हर चार धूम्रपान करने वाले व्यक्तियों में से एक (२५ प्रतिशत) की मृत्यु जर्दा-धूम्रपान से जनित बीमारियों से होती है। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ हत्या का प्रचलित तरीका धूम्रपान अनुमानत: भारत में प्रतिदिन २०० लोगों की मृत्यु धूम्रपान करने वाले दोस्तों या स्वजनों के सान्निध्य में रहने की वजह से उनके द्वारा छोड़े गए धुएं से हुई बीमारियों से होती है । एक प्रकार से इन्हें धूम्रपान करने वाले स्वजनों द्वारा की गई हत्याएं ही कहा जाना चाहिए। धूम्रपान करने वाले दोस्तों या परिवारजनों के सान्निध्य में रहने वाले स्वस्थ व्यक्तियों के फेफड़े की क्षमता २० - २५ प्रतिशत तक घट जाती है और यदि फेफड़े पहले से ही कमजोर हैं तो बीमारी अधिक घातक होती है । सिगरेट का साइड स्ट्रीम धुंआ तथा धूम्रपान के दौरान मुंह से निकला धुंआ दोनों में ही टार की मात्रा इतनी होती है, जो कि अगल-बगल बैठे व्यक्तियों में कैंसर पैदा कर सकती है। इसी प्रकार धूम्रपान करने वाले व्यक्ति के सान्निध्य में रहने से हृदय रोग की संभावना बढ़ जाती है । अतः सिर्फ यही जरूरी नहीं है कि आप स्वयं धूम्रपान न करें, बल्कि निकट रहने वाले व्यक्ति को धूम्रपान न करना भी उतना ही आवश्यक है । आत्म-निरीक्षण जैन दर्शन और विज्ञान पिछले चालीस वर्षों में संसार में मौत का ताण्डव करने वाली ऐसी क्या चीज धूम्रपान में? है लगभग ४,००० प्रकार के तत्त्व सिगरेट के धुएं में पाए गए हैं जिनमें से निकोटीन नामक तत्त्व नितांत खतरनाक होता है। इसके घातक प्रभाव के कारण इसे बहुत सी कीटनाशक दवाओं में काम में लिया जाता है। लगातार सेवन करने पर यह हृदय तथा अन्य अंगों पर कुप्रभाव डालता है। समय के साथ यह हृदय की धमनियों में मोम जैसा जमाव पैदा कर देता है, जिससे धीरे-धीरे ये धमनियां बन्द होती जाती हैं । परिणामस्वरूप ऐसे व्यक्तियों को हृदय रोग हो जाता है। पेट में अल्सर भी हो सकता है। धूम्रपान एक प्रकार से अपने ही शरीर के अंगों से की गई क्रूर हिंसा के समान है। फेफड़े के ऊतक बीड़ी-सिगरेट के धुएं में घुट कर नष्ट हो जाते है । जो बचते है उन पर घाव हो जाते हैं और कालिख जमती जाती है। जिस प्रकार लकड़ी जलाने वाले चूल्हे की रसोई में २०-२५ साल में कालिख की मोटी परत जम जाती है, उसी प्रकार फेफड़ों में भी सिगरेट-बीड़ी के धुंएं से कालिख जम जाती है जो वातावरण से ली गयी ऑक्सीजन के फेफड़ों द्वारा शरीर में प्रवेश के छिद्र बन्द कर देती है तथा फेफड़ों में नाजुक उत्तक जल कर नष्ट हो जाते है । इस अवस्था में रोगी को श्वास लेने में कठिनाई होने लगती है । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली धूम्रपान 'क्यों और कैसे छोड़ें? किसी भी समय जर्दा-धूम्रपान छोड़ने से निम्न लाभ होंगे : * हृदय रोग की संभावना कम होगी । * - रोग कम होगा तथा इसमें फायदा होगा । * निमोनिया, टी.बी. व अल्सर जैसे खतरनाक रोगों की संभावना कम होगी । * आपके बच्चों को आप के द्वारा धूम्रपान करने से होने वाली बीमारियां नहीं होगी । * कैंसर की संभावना घट जाएगी । * यौन क्षमता में काफी वृद्धि होगी । इच्छा शक्ति जर्दा - धूम्रपान छोड़ने में सबसे आवश्यक है और बिना पक्के इरादे के जर्दा - धूम्रपान छोड़ने की कल्पना भी नहीं की जा सकती । लेकिन इच्छा-शक्ति विकसित करने में जर्दा - धूम्रपान के घातक प्रभावों की सही जानकारी की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है । एक चिकित्सक बीमारी के समय रोगी को इस प्रकार की जानकारी देकर रोगी का मानस जर्दा - धूम्रपान के कुप्रभावों की ओर आकर्षित कर सकता है । लोग जर्दा - धूम्रपान क्यों शुरू करते हैं? धूम्रपान की शुरूआत अक्सर बचपन में होती है। कच्ची उम्र में इसके अधिकतर नौसिखिए परिणामों के बारे में अनभिज्ञ रहते हैं । प्राय: इसकी शुरूआत निम्न प्रकार से होती है : * उत्सुकता, जिज्ञासा एवं प्रयोग करने की लालसा । * दोस्तों को प्रभावित करने के लिए । श्वास * घर के बुजुर्गों द्वारा छोड़ी सिगरेट या बीड़ी को उठा कर कश खींचने की उत्सुकता से 1 * दोस्तों के साथ काम करने के बाद आराम करते समय । १७९ * * दांत के दर्द, बलगम की रूकावट, पेट में गैस व कब्ज जैसी बीमारी में आराम के लिए कुछ लोग जर्दा- धूम्रपान की शुरूआत करते है । अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों में मेहमान को हुक्का या बीड़ी पिलाना सामान्य शिष्टाचार माना जाता है। काफी लोग इस सामाजिक चलन से धूम्रपान शुरू करते हैं। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैन दर्शन और विज्ञान धूम्रपान कैसे भी शुरू हो, कुछ महीनों या सालों में लत या नशे में परिवर्तित हो जाता है। लोग जर्दा-धूम्रपान जारी क्यों रखते हैं? मुख्यतया लोग निम्नलिखित कारणों से धूम्रपान जारी रखते हैं : एक आदत शौकिया शुरू किया गया जर्दा-धूम्रपान धीरे-धीरे आदत बन जाता है, तथा दिनचर्या के किसी कार्य से जुड़ जाता है। शौच करते वक्त, भोजन करने के बाद, काफी मेहनत करने के बाद, कुछ समय के लिए विश्राम करते समय आदि। ये कुछ उदाहरण हैं जिनमें जर्दा-धूम्रपान का एक आदत की तरह दिनचर्या में समावेश होता है। यदि आदत को शुरू में नहीं रोका जाए तो यह लत बन जाती है। एक रिवाज पुराने समय से ही धूम्रपान समाज में एक महत्त्वपूर्ण रिवाज रहा है। आज भी कई घरों में मेहमान-नबाजी के लिए बीड़ी-सिगरेट, हुक्का या चिलम पेश की जाती है। यहां तक कि समाज में किसी का हुक्का-पानी बन्द करने का मुहावरा उसके बहिष्कार के लिए प्रयुक्त किया जाता है। अहम् के लिए ____ पान की दुकान पर खड़े अदा से कश लेना, निचला होंठ आगे करके धुएं के छल्ले निकालना, मुंह में सिगरेट दबा कर स्कूटर चलाना, मुंह में सिगरेट रख बेफ्रिकी, लापरवाही मनमौजीपन या धाकड़ व्यक्तित्व दिखाना, आदि ऐसी गतिविधियां हैं जो कि अहम् की तुष्टि करती है। एक नशा लगातार धूम्रपान करने से नशा हो जाता है तथा जब कभी धूम्रपान न किया जाए तो बहुत से शारीरिक कष्ट प्रकट होने लगते हैं। ऐसी स्थिति में धूम्रपान या तो सकारात्मक भाव जैसे जोश, आनन्द या सुस्ताने के लिए या नकारात्मक भाव जैसे चिन्ता, हड़बड़ी, बेचैनी को कम करने के लिए किया जाता है। मनुहार कई लोग मनुहार के कच्चे होते हैं। स्वयं बीड़ी-सिगरेट छोड़ देते हैं, किन्तु किसी ने मनुहार की नहीं कि फौरन फिर शुरू कर जाते हैं। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १८१ चाहने पर भी लोग जर्दा-धूम्रपान क्यों नहीं छोड़ पाते? आदत एवं नशे के वशीभूत हो चाहने पर भी लोग जर्दा-धूम्रपान नहीं छोड़ पाते एवं इस लत के दुष्परिणामों की ओर आंख मूंद लेते हैं। धूम्रपान के साथ प्रविष्ट होने वाले धुएं से जो नुकसान शरीर में होता है, यदि आंखों से उसे देखना संभव होता तो धूम्रपान कोई नहीं करता। लेकिन विडम्बना यह है कि जब इस नुकसान से होने वाली लक्षण उभरने लगते हैं तब तक शरीर में बीमारी जड़े जमा कर असाध्य होने लगती है। क्या कोई ऐसी चीज है जो जर्दा-धूम्रपान छूड़ा सके? पक्का इरादा ही जर्दा-धूम्रपान छुड़ा सकता है, अन्य कोई चीज या जादू ऐसा नहीं है जो यह काम कर सकें। कुछ लोग धूम्रपान छोड़ जर्दा या तम्बाकू खाना शुरू करते हैं। लेकिन कुछ लोग धूम्रपान बन्द कर लगातार जर्दा खाने लगते हैं। इससे कोई विशेष लाभ नहीं होता, क्योंकि हृदय व पेट की बीमारियां जर्दे के कारण भी उतनी ही होती हैं। जर्दा-धूम्रपान कैसे छोड़ा जाए? प्रथम चरण : छोड़ने से पहले निम्न प्रश्नों का उत्तर सोच कर लिखिए(अ) मैंने जर्दा-धूम्रपान क्यों शुरू किया? (ब) मैं जर्दा-धूम्रपान क्यों करता हूं। (स) मैं जर्दा-धूम्रपान क्यों छोड़ना चाहता हूं? अधिकतर ऐसा देखा गया है कि अ और ब का उत्तर एक नहीं होता है। यदि ऐसा होता है तो कहीं आप जर्दा-धूम्रपान का सेवन मजबूरी में तो नहीं कर रहे है? द्वितीय चरण : जहां तक हो सके अपने साथ जर्दा-धूम्रपान लेने वाले दोस्त या सहकर्मी को भी जर्दा-धूम्रपान छोड़ने के लिए प्रेरित करें और साथ-साथ तम्बाकू-त्याग का निश्चय करें। दो दोस्त यदि एक साथ तम्बाकू से छुटकारा पाने की चेष्टा करें, तो ज्यादा पक्के इरादे से जर्दा-धूम्रपान छोड़ सकते हैं, और इन्हें त्यागने से शुरू में होने वाली व्याकुलता का अधिक दृढ़ता से सामना कर सकते हैं। (परिवारजनों को चाहिए कि जर्दा-धूम्रपान बन्द करने वाले व्यक्ति को प्रोत्साहित करें, उसका मनोबल बढ़ाएं)। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैन दर्शन और विज्ञान तृतीय चरण ० जर्दा-धूम्रपान एकदम छोड़ने का संकल्प करें, कम करने का नहीं। जर्दा-धूम्रपान कम करने से कोई खास लाभ नहीं होगा, बल्कि यह आपके तम्बाकू बन्द करने के इरादे को कमजोर करेगा। ० जर्दा-धूम्रपान छोड़ने का किसी निश्चित दिन का संकल्प करें। ___ त्यौहार का दिन, बच्चे का जन्म-दिन या किसी दिन देवालय में जाकर जर्दा-धूम्रपान छोड़ने की प्रतिज्ञा करें। इस प्रकार तम्बाकू अधिक दृढ़ निश्चय के साथ छोड़ी जा सकती हैं, क्योंकि इनसे जुड़ा भावनात्मक लगाव आपको प्रतिज्ञा-पूर्ति में मदद करता है। चतुर्थ चरण : आत्म-विश्वास रखिए की आप प्रतिज्ञा पूरी करेंगे। जर्दा-धूम्रपान को तिलांजलि देने के बाद रोजाना लिखिए कि क्या फायदे आप महसूस करते हैं; जैसे : ० मुंह से बदबू नहीं आना। ० बलगम कम आना। ० खांसी में कमी। दो महीने में दो-तीन किलो वजन बढ़ना (यानी बीड़ी, सिगरेट आपका शरीर इतना जलाती थीं।) यदि पूरी कोशिश के बावजूद जर्दा-धूम्रपान न छोड़ पाएं तो इस प्रकार के तरीके अपनाएं जिनसे इनकी मात्रा कम हो, जैसे दायें हाथ से बीड़ी सिगरेट पीने की बजाय बाएं हाथ से पीना, बीड़ी या सिगरेट को पॉलीथीन के बैग में रबर बैंड से बांध कर रखना, एक ही ब्रांड की सिगरेट पीना, खुद खरीद कर न पीना, घर पर नहीं पीना, आदि। जर्दा-धूम्रपान छोड़ने से होने वाली व्याकुलता या धूम्रपान तलब का क्या समाधान है? ० इसे नकारिए तथा जर्दा-धूम्रपान छोड़ने से होने वाले फायदों की बात सोचिए। ० सोचिए कि धूम्रपान से आपको ही नहीं बल्कि बीबी, बच्चों को भी कितना खतरा है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १८३ ० स्वयं को याद दिलाइये कि यह आप के आत्म-विश्वास की परीक्षा का समय है। ० अपने को अधिक से अधिक व्यस्त रखिए। ० मुंह में इलायची या सौंफ रखिए। ० लम्बे, गहरे श्वांस अन्दर-बाहर लेकर एकाग्रता से मन ही मन दोहराइए, "मैं कभी तम्बाकू सेवन नहीं करूंगा, जर्दा-धूम्रपान नहीं लूंगा।'' इससे मनोबल को दृढ़ता मिलती है। प्रेक्षाध्यान के प्रयोग से भी जर्दा-धूम्रपान छोड़ने से होने वाली व्याकुलता पर नियंत्रण किया जा सकता है। ० विचार कीजिए-कुछ लोग महिनों तक उपवास रख लेते हैं, कई दिन खाए-पीए निकाल देते हैं, क्या मैं उनसे कमजोर हूं? ० जब भी जर्दा-बीड़ी, सिगरेट या तम्बाकू देखें, अपने बच्चों को याद कीजिए क्योंकि तम्बाक आपके बच्चों से उनके पिता को हमेशा के लिए छीन सकती है। बीड़ी या सिगरेट का हर कश निकोटीन की मात्रा दिमाग में पहुंचाता है, जिससे दिमाग की कोशिकाएं निकोटीन के प्रभाव में आती हैं और लगातार सेवन के बाद निकोटीन दास हो जाती हैं। क्या आप अपने दिमाग को निकोटीन की गुलामी में रखना पसन्द करेंगे? क्या आप का आत्मबल और स्वाभिमान मजबूत नही कि इस गुलामी को छोड़ सकें? (४) मद्यपान-वर्जन मद्यपान और मांसाहार का भगवान महावीर तीव्र प्रतिरोध करते हैं। वह केवल अहिंसा की दृष्टि से ही नहीं अपितु उससे मनुष्य की वृत्तियां भी बिगड़ती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज ये प्रवृतियां बढ़ रही हैं, पर जिस मात्रा में ये प्रवृतियां बढ़ रही हैं उसी मात्रा में समस्याएं भी बढ़ रही हैं। दी ओहिया स्टेट युनिवर्सिटी के श्री वॉल्टर सी. रेक्लेस ने अपनी पुस्तक 'The Crime Problem' में मद्यपान पर सांगोपांग अध्ययन प्रस्तुत किया है। उन्होंने कहा-अपराध से तीन बातें मुख्य रूप से जुड़ी हुई हैं-शराब पीना, नशीली दवाइयां लेना तथा अस्वाभाविक यौन-भावना। इसके साथ वेश्या-गमन, जुआ, परिवार का बिखराव, गर्भपात, भिखारीपन आदि अनेक समस्याएं जुड़ी हुई हैं, पर कदाचित् शराब इन सारी समस्याओं से प्रमुख रूप से जुड़ी हुई है। यद्यपि यह तो सम्भावना नहीं है कि अपराध के लिए केवल शराब को ही उत्तरदायी ठहरा दिया जाए। पर फिर भी उसमें शराब का एक महत्त्वपूर्ण भाग है, Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैन दर्शन और विज्ञान इसमे कोई संदेह नही है । पर यह सच है कि शराब और अराजकता के बीच एक गहरा सम्बन्ध है। शराबी आदमी अपने सामाजिक दायित्व के प्रति उदासीन रहता है। वह औसत आदमी की तुलना में ज्यादा अपराध करता है । मद्यपान और अपराध अमरीका की एक जांच समिति ने १२ राज्यों के २७ कारागरों और सुधार गृहों में १३४०२ बंदियों का परीक्षण कर यह तथ्य निकाला है कि उनमें से ५० प्रतिशत से अधिक अपराध संयमहीनता के कारण किये गये थे । और वह संयमहीन सीधा शराब से जुड़ी हुई थी । स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. जोसेफ केहन की पुस्तक 'Behind the Sins of Murder' के अनुसार हत्या के आधे केस केवल शराब के कारण होते हैं । सिटी कोर्ट के न्यायाधीश श्री ग्रेलिनर ने अपने सामने आये १०,००० मामलों की छानबीन करने के बाद बताया कि उनका ९२ प्रतिशत कारण शराब ही था । न्यायाधीश श्री विलियम आर. मैके ने नेशनल वायस ( ६ मार्च १९४७) में लिखा था-दस वर्ष तक प्रॉसिक्युटिंग एटॉर्नी एवं इतनी अवधि तक म्युनिसिपल एवं सुप्रीम कोर्ट- पीठों का काम करने के उपरान्त मेरा सुविचारित मत है कि जो भी व्यक्ति फौजदारी अदालत के सम्मुख सुनवाई के लिए उपस्थित होते हैं उनमें से ९० प्रतिशत मादक शराब के अत्यधिक उपयोग के कारण प्रत्यक्ष रूप से स्वयं ही ऐसे मामलों में लिप्त होते हैं । कुयाहोगा काउन्टी, ओहिया ने क्वीनलैंड में विस्तृत जांच करने के बाद अपने प्रतिवेदन में कहा - हमारी कार्यविधि में हमें डकैतियों के मामलों के सम्बन्ध में जो विपुल साक्षियां पेश की गयीं, उनसे प्रतिध्वनित होता है कि शराब का उसमें महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह ही वह स्थान है जहां डकैतियों का उद्भव होता है। आग लगाना, सेंध मारना, यौन अपराध, गोली चलाना, छुरा भोंकना, नर-हत्या, धोखाधड़ी गोपनीय हथियार रखना, मारपीट एवं वाहन सम्बन्धी कानून का उल्लंघन भी उसी में शामिल है न्यूजर्सी राज्य की मद्यसारयुक्त पेय नियंत्रण राज्य आयुक्त फेडरिक बर्नेस्ट ने अपने भाषण में कहा था - अनादिकाल से पुलिस की चार समस्याएं रही हैं- अनैतिकता, जुआ, मादक द्रव्य और शराब । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १८५ लॉस एंजिल्स काउण्टी के सुपीरियर कोर्ट के जज विलियम आर. मैके ने कहा है- न्यायालय में पेश होने वाले अपराध के १० मामलों में ९ ऐसे होते हैं जो प्रत्यक्षत: शराब के अंधाधुन्ध उपयोग की देन होते हैं । 1 मद्यपान के अध्ययन में नवीन प्रवृत्तियों के लेखक ए. आई. मालकोइम ने अपनी रिपोर्ट में बताया है - सामान्य जनसंख्या की तुलना में मद्यपों की आत्म-हत्या की दर ५८ गुना अधिक होती है । अमेरिका में अपराधिता के अध्ययन में चित्रित आंकड़ों में बताया गया है - १९६७ में पियक्कड़ स्थिति में बंदी बनाये गए लोगों की संख्या १६९६२८० थी । सुरापान कर वाहन चलाने के आरोप में बंदी बनाये गए व्यक्तियों की संख्या २४८९१२ थी, सुरापान के प्रभाव से अनियंत्रित व्यवहार करनेवाले बंदियों की संख्या ४९५७८४ थी । कुल मिलाकर २१, ४०,९७६ की यह कुल संख्या इस बात का प्रमाण है कि वहां की कुल बंदियों की संख्या में एक-तिहाई से लेकर आधी संख्या मद्यपान से सम्बन्धित लोगों की थी । यौन अपराधों में ६० प्रतिशत, चोरी-चकारी में ६५ प्रतिशत, जालसाजी में ६६ प्रतिशत, ऑटोचोरी में ६८ प्रतिशत, बलात्कार में ३९ प्रतिशत, सेधमारी में ७० प्रतिशत, लूटमार में ७४ प्रतिशत, हत्याओं में ७९ प्रतिशत, जान-बूझकर गोली चलाने में ८३ प्रतिशत, सामान्य प्रहार में ८५ प्रतिशत, हथियार सम्बन्धी अपराधों में ८५ प्रतिशत, जेब काटने के ९३ प्रतिशत अपराधों में शराब का हाथ है । 'लिसन' नामक पत्रिका में २३३ जजों के अनुमानों का सर्वेक्षण करने के बाद पाया गया कि गिरफ्तार किए व्यक्तियों में से ६३ प्रतिशत का शराब से लगाव रहा है । इन सब से एक बात निर्विवाद रूप से उभरती है कि मद्यपान और अपराध का चोली-दामन का सम्बन्ध है । सुरापान से आदमी क्रूर, क्रोधी एवं प्रमादी बन जाता है। उसके लिए जीवन बहुत सस्ता हो जाता है । वह न केवल अपनी ही हानि कर लेता है अपितु दूसरों की हत्या करने में भी उसे कोई संकोच नहीं रहता । जब कोई व्यक्ति शराब के नशे में होता है तो वह सभी प्रकार के अपराध और विभिन्न स्तरों पर उत्तरदायित्वहीन व्यवहार करने लगता है। कई जगह पर पाया गया है कि अन्य अपराधों से जितने व्यक्ति जेल जाते हैं, शराब के नशे में धुत्त होकर जेल जाने वालों की संख्या उससे ज्यादा है। अवैध गविविधियों में अनुरक्त व्यक्तियों में शराब पीने के बाद मिथ्या साहस की भावना उद्भव होती है। ऐसे लोगों को भयानक काम करने के लिए शराब पिलाई जाती है। शराब ऐसे व्यक्तियों को भी उचित - अनुचित में भेद - रेखा Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैन दर्शन और विज्ञान खींचने में विवेकहीन बना देती है जो उच्च सिद्धान्तों को मानने वाले होते है । मद्यपान के परिणामस्वरूप वे अपनी भावनाओं पर नियंत्रण खो देते हैं। यदि वे मद्यपान नहीं करते तो कदापि अपराध नहीं करते, पर मद्यपान के बाद वे अपना आपा खो देते हैं । वास्तव में वह सही और गलत में विवेक न कर पाने के कारण होता है । ऐसी स्थिति की तुलना ढलान में चलती हुई गाड़ी के ब्रेक फेल हो जाने से की जा सकती है । मद्यपान और वेश्यावृति यौन अपराधों एवं व्यक्तिगत हिंसा के मामलों में भी शराब को ही मुख्य प्रेरणा के रूप में माना गया है । वेश्यावृति एवं मद्यपान के बीच गहन सम्बन्ध है । बालकों के साथ यौन अपराध में लिप्त होने वाले व्यक्ति प्रायः सुरापायी होते हैं । वे जितनी मात्रा में शराब अधिक पीते हैं, उसी मात्रा में अपराध भी तीव्रता से करते हैं 1 सुरापान को वैध कर देने का ही एक बड़ा अभिशाप वेश्यावृति है । इसका सम्बन्ध अधिकतर मदिरालयों से है । क्योंकि सड़कों पर घूमने वाले लोग अपना धन्धा चलाने के लिए सुरापान के स्थलों में प्रवेश करते हैं । कतिपय मद्य प्रतिष्ठान तो मात्र कामवासना की पूर्ति के ही अड्डे होते हैं जहां वेश्याओं से सम्पर्क ही एकमात्र लक्ष्य होता है । जियोन हैराल्ड नामक समाचार-पत्र में विशम हजरब्सेंक ने लिखा है - मदिरालय अबाध स्वातंत्र्य के दिनों की अपेक्षा हजारों गुणा अधिक विघातक और विनाशक सिद्ध हो रहे हैं । हमारे युवकों को पथभ्रष्ट करने के लिए उपवन ही शराब स्थल नहीं रह गये है, अपितु उनके साथ-साथ वेश्यालय भी सड़कों पर ही बस गये I हैं । वेश्यालयों के साथ शारीरिक स्वास्थ्य किस हद तक जुड़ा हुआ है, इसे बताने की आवश्यकता नहीं है। हजारों-हजारों ही नहीं, लाखों-करोड़ों लोग अपने गुप्त रोगों का उपहार वेश्यालयों से ही प्राप्त करते हैं । विन्कोन्सिन राज्य विधानमण्डल ने १९१४ में महिलाओं में वेश्यावृत्ति आदि की जांच के लिए एक समिति नियुक्त की थी । उसने अपने प्रतिवेदन में बताया है कि महिलाओं और युवतियों के पतन, मादक पेय, शराब और व्यावसायिक दुराचार के बीच एक गहन सम्बन्ध है । सभी विशेषज्ञ इस तथ्य से सहमत हैं कि बाल- अपराध तथा अवैध संतानों की उपज का मुख्य अड्डा सुरागृह ही होते है । ९० प्रतिशत अवैध सन्तानें उन परिचयों का ही परिणाम होती हैं जो मदिरालयों में होता है। सहायक काउण्टी अटॉर्नी ल्युसिएन सेलवारे के अनुसार ऐसे मामले से संबंधित युवक युवतियों की Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १८७ उम्र १६-२२ वर्ष के बीच की पायी गयी है। डॉ. हीले ने कहा है-लघुमात्रा में किया जाने वाला सुरापान भी किशोर-युवतियों को चारित्रिक दृष्टि से गिरा देता है। अनेक खोजों से यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो गयी है कि सुरापान की अवस्था में महिलाएं अपना विवेक खो देती हैं। मद्यपान और तलाक तलाक-सम्बन्धी मामलों के सम्बन्ध में अपने अनुभव बताते हुए श्री मैके ने कहा-दिन-प्रतिदिन पति-पत्नी में मतभेद से पैदा होने वाली कतार मेरे समक्ष आती है, उसमें ७५ प्रतिशत मामलों में शराब ने ही झंझट प्रारंभ करवाया है जिसने तलाक के लिए कार्यवाही को आवश्यक बना दिया। मैं यह देखकर विशेष रूप से द्रवित हुआ हूं कि महिलाओं में भी सुरापान की लत बढ़ती जा रही है। वस्तुत: यह प्रत्येक दृष्टि से नैतिक पराभव की ही परिचायक है। इससे बालकों को भी अपराध करने का प्रत्यक्ष बढ़ावा मिलता है; क्योंकि शराबी माताएं बच्चों के प्रति उपेक्षाशील हो जाती हैं। उनका समय मदिरालय के चक्कर लगाने में ही बीतने लगता है। मद्यपान और गर्भस्थ शिशु ____ अब यह बात स्पष्ट हो गयी है कि गर्भवती नारी यदि अत्यधिक शराब पिये तो गर्भस्थ बच्चे में विकृति आ सकती है। यह बात केवल अत्यधिक शराब पीने वाली महिलाओं पर ही लागू नहीं होती अपितु कम मात्रा में कभी-कभी दिन में एक-दो बार कड़ी शराब पीने वाली महिलाओं पर भी लागू होती है। अमेरिका में यू. एस. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अल्कोहलीक अब्यूज एण्ड अल्कोहलिज्मने अपनी शोध में बताया है-प्रतिदिन एक-दो औंस विशुद्ध अल्कोहल यदि गर्भवती नारी लेती है तो उसके बच्चे के विकास में असामान्यता आ जाती है या जन्मजात विकृति आ जाती है। अनुमान है कि अमेरिका में स्कूल में पढ़ने वाले ५० से ७० लाख बच्चों में बुद्धि सम्बन्धी कोई-न-कोई विकार है। शोध करने पर पता चला है कि उनकी माताएं गर्भावस्था में शराब पीती थीं: क्योंकि शराब मां के रक्त में पहंचकर गर्भगत बच्चे की रक्तधारा में मिल जाती है। जब मां नशे की हालत में होती है तो गर्भवस्था में बच्चा भी नशे की हो जाता है। यह स्थिति उसके लिए बड़ी भयानक होती है; क्योंकि उसके यकृत का पूरा-पूरा विकास नहीं होता। वयस्क आदमी का यकृत २८ मि. ली. शराब का उपापचय एक घण्टे में कर सकता है। भ्रूण का अविकसित यकृत इस कार्य को बड़ी धीमी गति से कर पाता है। अत: बच्चे तक पहुंचने वाला अल्कोहल गर्भनाल में अपविस्तृत हो जाता है। जब मां के रक्त में अल्कोहल की मात्रा नीचे उतरेगी Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जैन दर्शन और विज्ञान तभी वह बच्चे के उस अतिरिक्त अल्कोहल को वापस ले सकेगी। अत: मां यदि २८ मि. ली. से अधिक शराब पीती है तो असहाय बच्चे को अति दीर्घकाल तक उसे अपने रक्त में रोके रखना पड़ता है। पर मां यदि पीती ही जाए, तो बच्चे में बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया निश्चय ही होगी। __ अभी तक यह बताना कठिन है कि किस काल में गर्भावस्था में शराब का दुष्प्रभाव सबसे अधिक होता है। पर इतना निश्चित है कि यदि मां की इच्छा हो कि उसका बच्चा स्वस्थ हो, उसका कद छोटा न हो, चेहार विकृत न हो, आंखें छोटी न हो, नाक का ऊपरी हिस्सा दबा हुआ न हो, हृदय तथा फुफ्फुस निर्दोष हो, हाथ-पैर कुरूप न हों, मस्तिष्क अधिक मोटा न हो, उसे रक्तचाप न हो, स्नायु-दुर्बलता न हो तो उसे शराब से दूर से ही नमस्कार करना चाहिए। इतना ही नहीं, मद्यपायी माताओं के बच्चे प्राय: मर जाते हैं। जीवित रह जाएं तो उनका वजन कम होता है। मद्यपान और बाल-अपराध मैके, ब्लैकर, डेमोन और कैले ने अपने-अपने अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला है कि बाल-अपराधों और सुरापान का गहन सम्बन्ध है। १९६५ में कैलिफोर्निया के राजकीय बाल-सुधारगृहों में प्रविष्ट ६०,१४७ बालकों का अध्ययन कर श्री रिचार्ड ने पता लगाया है कि उनमें से २० प्रतिशत का अपराधों से सम्बन्ध रहा है। उनमें से अनेक मद्यपान के आदि थे। १८ अप्रैल १९६८ के रूस के प्रमुख समाचार-पत्र 'प्रवादा' से पता लगता है कि रूस में भी बच्चों में मद्यपान की आदत बढ़ रही है। १४ से १६ वर्ष की आयु के अनेक किशोरों द्वारा किये गये अपराधों का एकमात्र कारण शराब पीना ही था। उसे पीने के लिए उन्होंने चोरी की और पुन: पीने के लिए पुन: चोरी करनी पड़ी। फिर तो उनके जीवन में यह एक चक्र ही बन गया। लिसन' पत्रिका के सम्पादक जे. ए. वकवाल्टर ने वाशिंगटन राजकीय पन्टिशियरी में रखे गये २०० बच्चों का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला है कि उनमें १८९ मद्यपायी थे। शराब और स्वास्थय एक बार हम दर्शन और तर्क को छोड़ दें, नैतिकता और समाज-व्यवस्था को भी भूल जायें तो भी शराब मनुष्य के स्वयं के स्वास्थ्य के लिए कितनी भयानक है, इस पर जरा ध्यान दें। स्वास्थ्य-समस्याओं में हृदय-रोग और कैंसर के बाद तीसरा स्थान शराब के दुर्व्यसन का है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १८९ ___ शराब शरीर और मन पर कितने भयंकर प्रभाव डालती है, इसकी जानकारी के लिए चिकित्सा-व्यवस्था में लगे लोगों, वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों, मनोरोग-विशेषज्ञों, शरीरक्रिया एवं औषधि विज्ञान-वेत्ताओं की राय महत्त्वपूर्ण होती है। इस दृष्टि से अमेरिका में आयोजित मानस-चिकित्सक और नाड़ी-तन्त्र विशेषज्ञों के राष्ट्रीय सम्मेलन का प्रस्ताव अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने कहा है-इस सम्मेलन की सम्मति में यह निश्चित रूप से सिद्ध हो चुका है कि शरीर के भीतर ली गयी शराब मस्तिष्क और अन्य तन्तुओं के लिए विष के रूप में काम करती है। इसके प्रभाव से प्रत्यक्ष रूप से पागलपन, मुगी, मन की दुर्बलता और अन्य इसी प्रकार की अनेक मानसिक बीमारियां आती हैं। ___ स्ट्रासबर्ग में आयोजित इण्टरनेशनल फिजीओलॉजिकल कांग्रेस में औषधि-निर्माण विभाग के डाक्टर ओटटों श्मेइदरवर्ग ने अपने निबन्ध में कहा था-शराब क्लोरोफार्म और ईथर की तरह अवसादक है। इसके सम्पर्क से व्यक्ति के शरीर के प्रत्येक तन्तु की शक्ति निर्बल हो जाती है। ___ इंग्लैण्ड में पागलपन पर नियुक्तक मीशन की रिपोर्ट में कहा गया है कि पागलपन के विषाक्त कारण की सूची में शराब मुख्य है। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के सर्जन जनरल डाक्टर थॉमस पाईन ने भी कहा है-पागलपन का मुख्य कारण शराब है। अल्कोहल एण्ड अल्कोहलिज्म पुस्तक के पृष्ठ १४ पर लिखा है-अत्यधिक शराब पीने की वजह से प्रतिवर्ष कई मिलियन डालर खर्च हो जाते है। मानवीय कष्ट का मूल्य तो किसी प्रकार नहीं आंका जा सकता। ह्विस्की, ब्रांडी आदि शराब सम्बन्धी विशेष काढ़े हुए पेय जब पेट में डाले जाते हैं तब जिगर, छोटी आंत और छोटी नसों द्वारा मद्यसार शीघ्रता से रक्त की सहायता से शरीर के सब भागों में पहुंच जाता है। मुश्किल से ही कोई शराब बड़ी अंतड़ियों तक पहुंचती है। भोजन-रहित पेट में अंतड़ियों द्वारा मद्यसार को शीघ्रता से अपने में खपा लेना असाधारण गति से होता है। १० से ३० मिनट के भीतर यह रक्त में उच्चस्तर तक पहुंचती जाती है। जिस मात्रा में शराब ली जाती है उसी मात्रा में उसका परिणाम और यह हानि पहुंचाती है। प्रबल शराब का पेट के साथ सम्पर्क होने से वहां सूजन हो जाती है, जिससे पाचक-यन्त्रों को स्थायी रूप से हानि होती है। यह एक प्रकार का प्रवाहशील विष है जो जिगर, दिल और गुर्दो को क्षति पहुंचाता है। इससे पेट में दीर्घकालीन सूजन हो जाती है। शराब का पेट पर जो सीधा उत्तेजक प्रभाव पड़ता है वह मुख्यत: रक्त के जमा और संकुचित हो जाने का है। कभी-कभी इससे पेट में फोड़े हो जाते हैं। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० जैन दर्शन और विज्ञान प्रतिदिन आदतन शराब पीने से पेट के अन्दर सूजन रहने लगती है। पुराने मद्यपायी वातनाड़ी शोथ, मस्तिष्क-ज्वर, चमड़ी फटने का रोग, रक्ताल्पता आदि अनेक बीमारियों से घिर जाते हैं। वैज्ञानिक खोजों से पता लगा है कि दीर्घकाल तक मद्य पीने से हृदय की नसें बेकार हो जाती हैं। इससे अनेक प्रकार के विकार प्रकट हो जाते हैं। इसी प्रकार मद्यपान से अप्रत्यक्ष रूप से गुर्दे पर भी भारी प्रभाव पड़ता है। शराबी के मूल-अम्ल का निकलना कम हो जाता है, जिससे मूत्र के रक्तसारों में कमी हो जाती है। उससे मेगनेशियम की भी कमी हो जाती है। नशीले पेय शराब आदि कैंसर के भी मुख्य कारण हैं। उन समस्त देशों में जहां शराब अधिक पी जाती है, कैंसर का प्रसार अधिक है। यकृत (liver) शरीर में प्रविष्ट विषों को निकालने में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। मदात्यय (over-intoxication) से शरीर की कोशिकाएं असामान्य रूप से विषाक्त बन जाती हैं, जिन्हें निर्विष बनाने के लिए यकृत को अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है। इस प्रकार मदात्यय से मस्तिष्क और यकृत को अपूरणीय क्षति होती है। युवावस्था में मौत तक हो सकती है। सवाल होता है-शराब से जब इतना नुकसान है तो लोग इसका प्रयोग क्यों करते हैं? इसका कारण यह है कि साधारण आदमी समझता है कि शराब पीने से वह चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है। ऐसा केवल बीमार आदमी ही नहीं समझते हैं अपितु दिन भर की मेहनत से थका हुआ हर आदमी यही सोचता है। पर यह बात ध्यान रखने की है कि नशे से न तो शक्ति आती है और न उससे चिन्ताएं मिटती है; अपितु नशे के बाद कार्यक्षमता तथा चिन्ताएं और अधिक बढ़ जाती हैं। अल्कोहल के लगातार सेवन से आदमी के शरीर में अनेक बीमारियां घर कर लेती हैं। आंखें जलने लगती हैं, मितली-सी आने लगती है, भूख खत्म हो जाती है, थकावट आने लगती है, पसीना ज्यादा छूटने लगता है, शरीर में कम्कम्पी शुरू होती है। आदमी उसे दूर करने के लिए फिर ज्यादा शराब पीता है। परिणामत: परेशानियां भी बढ़ने लगती हैं। और आदमी एक दुश्चक्र में उलझ जाता है। ____ सुप्रसिद्ध ब्रिटिश सर्जन सर लाउडर ब्रुटन ने कहा है-शराब धीरे-धीरे निर्णय को पंगु बनाती है, उसका यह कार्य प्रथम जाम के साथ ही प्रारम्भ हो जाता डाक्टर क्वैनसैल का अभिमत है-मद्यसारयुक्त पेय की लघु मात्रा भी मूत्राशय की थैली की कार्य-प्रणाली में भारी परिवर्तन कर सकती है। विचार को पंगु Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली बना सकती है, अनुभूति की स्वच्छता में कमी तथा निर्णय लेने की शक्ति को घटा सकती है। मद्यपान और आयु इटली के प्राध्यापक लोम्बोजो के निष्कर्ष के अनुसार शराब मानव जीवन को घटाने वाली प्रमुख चीजों में एक है। मद्यपान करने वाला २० वर्ष की आयु वाला व्यक्ति १५ वर्ष और जिए जब कि न पीने वाला ४४ वर्ष जी सकता है। अनेक बीमा कम्पनियों ने शराब और मृत्यु-सम्बन्ध के बारे में अनेक महत्त्वपूर्ण अध्ययन प्रस्तुत किये हैं। मेडिकल एक्एरिल मोर्टलरी इन्वेस्टिगेशन के केन्द्रीय ब्यूरो के अध्यक्ष ने २५ वर्षों तक २० लाख लोगों के जीवन-वृत्तों के सम्बन्ध में एक जांच का परिणाम देते हुए कहा है-यह सुनिश्चित है कि मद्यपायियों की अपेक्षा मद्यपान न करने वाले ५० वर्ष अधिक जीते हैं। कानेक्टीकट म्युच्युअल के अध्यक्ष जैकब ग्रीने का कथन है-मैं इस बहु प्रचलित धारणा का विरोध करता हूं कि बीयर हानिरहित है। यदि शराबमुक्त लोगों की मृत्यु-संख्या १०० है तो यदा-कदा पीने वालों की मृत्यु संख्या १२२, संयमित पीने वालों की मृत्यु-संख्या १४२ तथा नियमित पीने वालों की मृत्यु-संख्या २१२ है। इतना ही नहीं, शराब के धंधे में लिप्त व्यक्तियों की मृत्यु-दर भी बढ़ जाती है। यह सब कुछ होते हुए भी आज मद्यपान का प्रवाह बढ़ रहा है। जहां पहले नशाबंदी का कानून था वह समाप्त कर दिया है। इसके पीछे शराब-प्रसारकों के व्यापक विज्ञापन अभियान एक मुख्य भूमिका निवाहते है। इससे लोगों पर मनोवैज्ञानिक असर होता है और मद्यपान के प्रति अनैतिकता की धारणा टूट गयी है। आज तो सुरापान सभ्य-समाज में सामाजिक स्तर का परिचायक समझा जाने लगा है। उसके बिना अतिथि-सत्कार भी अधूरा समझा जाता है। सामाजिक उत्सव आदि में आजकल मद्यपान के लिए लोगों को विवश किया जाता है। बहुत लोग इच्छा न होते हुए भी केवल मजाक के पात्र बनने के डर से इनकार नहीं करते। पर बहुत लोग चाहकर वैसा करते हैं। वे नहीं जानते कि मद्यपान-सेवन उन्हें मानसिक परावलम्बिता तथा अत्यन्त खतरनाक दुर्व्यसन की ओर तेजी से धकेल रहा है। विज्ञापन करने वाले लोग करोड़ों रूपये इस बात का प्रसार करने में लगाते हैं कि सीमित मात्रा में शराब पीना बुरा नहीं है। पर सीमित मात्रा में मद्यपान ही अपरिमितता की ओर प्रथम पग है। इसका कभी-कभी उपयोग भी अन्तत: एक आदत बन जाती है। आज जो लोग भयंकर पियक्कड़ हैं उन्होंने भी शराब पीना Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ जैन दर्शन और विज्ञान कभी-कभी पीने से शुरू किया होगा। प्रारम्भ में उन्होंने यही सोचा होगा कि सीमित मात्रा में शराब पीते हैं या कभी-कभार पीते हैं। पर धीरे-धीरे उनके शरीर का ढांचा ही ऐसा बन जाता है कि वे पेय बिना रह ही नहीं सकते। वैज्ञानिक साक्ष्य इस बात का समर्थन करती है कि कार-दुर्घटनाओं में अधिकांश का निमित मद्यपान है। यातायात दुर्घटनाओं में ५१ प्रतिशत का सम्बन्ध शराब पिए हुए चालाकों या परिचालकों से है। ड्राइवर के द्वारा मद्यपान करने पर उसके मस्तिष्क पर शराब का दुष्प्रभाव पड़ता है जिससे वह सही ढंग से समन्वयन, निर्णायकता और प्रतिवर्ष सहज क्रिया (reflex action) करने में अक्षम हो जाता है। शराब पीने का प्रभाव ही यह होता है कि आदमी की नियंत्रण-शक्ति चेतनाशून्य हो जाती है और वह अच्छे-बुरे में भेद नहीं कर सकता। रक्त की धारा के माध्यम से जब शराब एक बार मस्तिष्क में प्रविष्ट हो जाती है तो उसका प्रभाव आत्म-नियंत्रण तथा निर्णय लेने की शक्ति पर हावी हो जाता है। इसलिए सीमित मद्यसारयुक्त पेयों का प्रयोग मात्र छलनामय सिद्धांत है। सीमित मात्रा में मद्यपान ही कभी न बुझने वाली शराब की शुरूआत देता है। इस दृष्टि से हल्की नशीली शराब का सेवन भी मद्यसार की आदत का निमणि कर देता है। इसलिए इस दिशा में बहुत सावधानी रखने की आवश्यकता है। शरीर-शक्ति के लिए शराब का प्रयोग करना न तो बुद्धिमानी है और न यह पौष्टिक खाद्य पदार्थ का स्थान ले सकती है। अल्कोहल में कैलोरीज तो होती है पर वह विटामिन, प्रोटीन, लोहा आदि पौष्टिक पदार्थों का स्थान नहीं ले सकती। वह तो बस एक चाबुक मात्र है। ___ यदि हम थोड़ी-सी आंखें उठाकर देखें तो हमें अपने आस-पास ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जिनके कारण परिबार का परिवा क्षत-विक्षत हो जाता है। न्यायाधीश ए. ए. डावसन (टैक्सास) के आकलन के अनुसार यदि मादक शराब का पीना बन्द हो जाये तो दो-तिहाई न्यायालय समाप्त हो जाएं। इसके साथ-साथ वर्तमान कानूनों को लागू करने में जितनी राशि खर्च होती है उसमें भी ८५ प्रतिशत की बचत हो सकती है। आज करोड़ों-अरबों रुपये उन लोगों पर खर्च किए जाते हैं जो मद्यपान की चपेट में आ जाते हैं। अकेले अमेरिका में २१ वर्ष की अवस्था से ऊपर के अपराधियों पर २९ मिलियन डालर खर्च होता है; जबकि इन अपराधों में अधिकांश के मूल में शराब ही होती है। कुछ लोगों का तर्क है कि शराब पीना उनका अपना व्यक्तिगत मामला है। पर एक व्यक्ति का आचरण जब समाज को प्रभावित करने लग जाता है तो Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १९३ व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सीमा समाप्त हो जाती है। शराब पीना एक व्यक्तिगत मामला भले ही हो, आज यह एक सामाजिक रूप ले चुका है । थोड़ी-सी पी गयी शराब भी औद्योगिक उत्पादन की गति शिथिल कर देती है । मादकता लाने वाली शराब तो किसी भी आधुनिक फैक्टरी या कारखाने को नष्ट-भ्रष्ट कर सकती है । इसीलिए जेफरसन काउन्टी अलवाया के शेरिफ होस्ट मेकडोबेल का कहना है- मेरा सदैव विश्वास रहा कि यदि कोई व्यक्ति कहता है कि शराब पीना उसका अधिकार है तथा उसमें बाधा डालने का किसी को अधिकार नहीं है तो एक शेरिफ के तौर पर मैं कह सकता हूं कि इस मामले में दखल देना एक नागरिक का परमपावन कर्तव्य हैं । आज तो नशे की दृष्टि से शराब एक अकेली चीज नहीं रह गयी है अपितु भारत सरकार द्वारा स्थापित विशेषज्ञों की एक कमेटी ने अपनी रिपोर्ट 'ड्रग एब्यूज इन इंडिया' में नशीली चीजों के नाम इस प्रकार गिनाये हैं- भांग, गांजा, चरस, पेथेडीन, मारफीन, हीरोइन, कोकीन तथा शराब आदि । जो लोग इनके अधीन हो जाते हैं; वे बीमार हो जाते हैं । सारी दुनिया में आज नशे की ये चीजें द्रुतगति से फैल रही हैं। थाइलैंड में ५ लाख से अधिक व्यक्ति नशीली दवाइयों के आदी हैं; जबकि मलेशिया में उनकी संख्या सवा लाख है। उनमें से ७५ प्रतिशत व्यक्ति तो हीरोइन का इस्तेमाल करते हैं । सिंगापुर तथा हांगकांग में तो उनकी संख्या ८० प्रतिशत हो जाती है । इसीलिए भगवान् बुद्ध ने कहा था- ' - "मनुष्यों, तुम सिंह के सामने जाते समय भयभीत न होना क्योंकि वह पराक्रम की परीक्षा है । तुम तलवार के नीचे सिर झुकाने से भयभीत मत होना क्योंकि वह बलिदान की कसौटी है । तुम पर्वत-शिखर पर से पाताल में कूद पड़ना क्योंकि यह तप की साधना हैं । तुम बढ़ती हुई ज्वालाओं से विचलित मत होना, यह स्वार्थ- परीक्षा है । पर शराब से सदा भयभीत रहना क्योंकि यह पाप और अनाचार की जननी है।" आगे उन्होंने कहा है- "जिस राजा के राज्य में सुरादेवी आदर को प्राप्त होगी वह राज्य कालवेदी पर नष्ट हो जाएगा। वहां न औषधि उपजेगी, न अनाज ।” भारत सरकार ने भी अपने संविधान में स्वीकार किया है- राज्य अपनी जनता के पोषक भोजन और जीवन-निर्वाह के स्तर को ऊंचा करने और सार्वजनिक स्वास्थ्य के सुधार को अपने प्रारम्भिक कर्तव्यों में मुख्य समझेगा और विशेषतया राज्य वह प्रयत्न करेगा कि नशीले पेयों और नशीली दवाइयों के प्रयोग का निषेध करें । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान (५) भाषा-विवेक भाषा-विवेक जैन जीवन-शैली के साथ जुड़ा हुआ एक ऐसा बिन्दु है, जो अध्यात्म-साधना, व्यावहारिक जीवन एवं व्यक्तित्व-निर्माण-इन तीनों दृष्टियों से बहुत महत्त्वपूर्ण है। भाषा का सीधा सम्बन्ध शब्द से है और शब्द एक ऐसा भौतिक अस्तित्व है जिस पर आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में बहुत सूक्ष्मता से प्रयोग एवं परीक्षण हुए हैं। प्रस्तुत प्रकरण में भाषा-विवेक पर तीन दृष्टिकोणों से विचार करना है १. साधना में भाषा-विवेक २. व्यवहारमें भाषा-विवेक ३. शक्ति के स्रोत रूप शब्द (भाषा) की मीमांसा इन तीनों पर जैन दर्शन और विज्ञान के संदर्भ में हमें चर्चा करनी है। शब्द भी : मौन भी भगवान महावीर शब्द और मौन दोनों को स्वीकार करते हैं और दोनों से ही इनकार करते हैं। वास्तव में महावीर की हर बात अनेकांतवादी है। उनके हिसाब से प्रतिबन्धक शब्द नहीं, राग-द्वेष है। राग-द्वेषमुक्त शब्द प्रतिबन्धक नहीं, विमोचक है। वास्तव में वही शब्द विमोचक है जो मौन से जुड़ा हुआ है। इसीलिए भगवान महावीर ने स्वयं साढ़े बारह वर्षों तक मौन की साधना की। यदि मौन ही अन्तिम बात होती तो फिर वे प्रवचन नहीं करते। वास्तव में 'अवचन' की साधना से ही वचन 'प्रवचन' बन सकता है। इससे स्पष्ट है कि वचन के लिए 'अवचन' की भूमिका आवश्यक है। वाणी की शक्ति वाणी एक ऐसी शक्ति है जो एक ओर मन का प्रतिनिधित्व करती है तो दूसरी ओर शरीर को उछालती है। आदमी किसी से लड़ता है तो वाणी के द्वारा लड़ता है। आदमी किसी से प्रेम करता है तो वाणी के द्वारा करता है। आदमी किसी को अपना बनाता है तो वाणी के द्वारा ही बनाता है। आदमी किसी को विरोधी बनाता है तो वाणी के द्वारा ही बनाता है। वाणी की बहुत बड़ी शक्ति है। मुंह से एक बात निकलती है और सामने वाले व्यक्तियों को चाहे सो बना देती है। वाणी की एक ऐसी शक्ति है भावना और दूसरी शक्ति है उच्चारण । उच्चारण के आधार पर ही समूचे मंत्र-शास्त्र का विकास हुआ है। तरंग का सिद्धांत भी इसके साथ जुड़ता है। आज वाणी पर आधुनिक खोजें हुई हैं, मंत्रशास्त्रीय खोजें Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १९५ हुई है। इन खोजों में तीनों शक्तियों की बात निर्णीत हुई है। तीनों बातें जुड़ी हुई मिलती हैं। पहली बात है भावना। दूसरी बात है उच्चारण और तीसरी बात है उच्चारण के द्वारा उत्पन्न वाणी की शक्ति। उच्चारण के साथ-साथ मस्तिष्क में तरंग पैदा होती है। एक शब्द का उच्चारण होता है और अल्फा-तरंगें पैदा हो जाती है, एक शब्द का उच्चारण होता है और थेटा तरंगें पैदा हो जाती है, बीटा तरंगें पैदा हो जाती हैं। इन तरंगों के आधार पर मंत्रों की कसौटी की जाती है। 'ओम्' का उच्चारण होता है, अल्फा तरंगें पैदा होती हैं और मस्तिष्क रिलैक्स हो जाता है, शिथिल हो जाता है। जैसे-जैसे मस्तिष्क की शिथिलता बढ़ती है, अल्फा-तरंगें पैदा होती चली जाती हैं। शिथिलन के लिए यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। जितने भी बीज-मंत्र हैं, उनसे भिन्न-भिन्न तरंगें उत्पन्न होती हैं और वे मस्तिष्क को प्रभावित करती हैं। बीजाक्षर हैं- अ, सि, आ, उ, सा, अर्ह, ओम्, ही, श्रीं, क्लीं। ये सारे बीज-मंत्र हैं। इनसे उत्पन्न तरंगें ग्रन्थि-संस्थान को प्रभावित करती हैं, अन्त:सावी ग्रन्थियों के स्राव को संतुलित करती हैं। ग्रन्थियों का स्त्राव हृ' के उच्चारण से संतुलित हो जाता हैं। प्रश्न है. वाणी की शक्ति का विकास कैसे हो? उसी अशुद्धि को मिटाने का एक उपाय है-'प्रलम्बनादाभ्यासाद् वाक्य-शुद्धि:'-प्रलंब नाद के अभ्यास से वाक्य शुद्धि होती है। ध्वनि प्रलंब है। मन के साथ, भावना के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रलंबनाद का अभ्यास महत्त्वपूर्ण होता है। यह उच्चारण का एक प्रकार है। उच्चारण अनेक प्रकार के होते हैं-उदात्त, अनुदात्त, स्वरित, इस्व, दीर्घ प्लुत आदि। मंत्रशास्त्र में इस्वोच्चारण का एक प्रकार का लाभ होता है, दीर्घोच्चारण का दूसरे प्रकार का लाभ होता है और प्लुतो उच्चारण का भिन्न प्रकार का लाभ होता है। उच्चारण जितना लम्बा होता है, ऊर्जा उसी के अनुपात में निर्मित होती है और मन के साथ उसका सम्बन्ध स्थापित होता है। अर्ह और ओम् का लम्बा उच्चारण होता है। सामवेद में अनेक प्रकार की उच्चारण-पद्धतियों का महत्त्वपूर्ण उल्लेख है। उच्चारण के आधार पर एक-एक मंत्र की हजार-हजार शाखाएं हो जाती हैं। वाणी और शब्दों का संयोजन और उच्चारण हमारी भावना को प्रभावित करता है। वाक्यशुद्धि का दूसरा उपाय है-सत्य का आलम्बन । उच्चारण का विवेक कर लिया, तरंगों को भी समझ लिया, किन्तु उसके पीछे भावना का जो बल है वह यदि असत् है, असत्य है तो सब कुछ बिगड़ जाएगा। वचन-सिद्धि का सबसे बड़ा साधन है-सत्य। जो सत्यवादी होता है, उसके कथन को कोई बदल नहीं सकता। उसके कथन को कोई अन्यथा नहीं कर सकता। उसकी वाणी की तरंगों में. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ जैन दर्शन और विज्ञान परमाणुओं में इतनी शक्ति आ जाती है कि प्राकृतिक घटना को वैसे ही घटना पड़ता है। एक व्यक्ति में सत्य का, ब्रह्मचर्य का इतना बल होता है कि प्रकृति भी उससे प्रभावित होती है-बादल होते हैं तो बिखर जाते हैं और नहीं हों तो बन जाते हैं। और भी न जाने क्या-क्या घटित हो जाता है। सत्य की शक्ति असीम है। जिन व्यक्तियों ने सत्य की निष्ठा बनाए रखी, वे विलम्ब से भले ही हो, आगे बढ़े हैं। यदि सत्य के प्रति अटूट निष्ठा होती है तो उसका अच्छा परिणाम अवश्य आता है। यदि वास्तव में सत्य का प्रयोग हो तो वाणी में भी अपार शक्ति आ जाती है। इससे वचनसिद्धि होती है। मौन की शक्ति हम बोलने से परिचित हैं। बोलने का क्या मूल्य है-इसे भलीभांति जानते है। हमारा सारा व्यवहार बोलने से चलता है। किन्तु न बोलने का भी अपना मूल्य है। जितना बोलने का मूल्य है उतना ही न बोलने का मूल्य है और एक अवस्था में शायद बोलने का मूल्य अधिक है। उसे मूल्य हो हमें समझना है। जितना भाषा का प्रयोग अधिक होगा, हम अधिक बोलेंगे तो हमारे अन्तर्ज्ञान में बाधा आएगी। चंचलता बाधा उत्पन्न करती है। भाषा का पहला काम है चंचलता उत्पन्न करना। बोलने से पहले चंचलता और बोलने के बाद चंचलता। जब हम बोलते हैं तो सबसे पहले मन को चंचल करना पड़ता है। यह सारा चंचलता का व्यवहार है। यह व्यवहार अन्तर्ज्ञान में बाधा उपस्थित करता है। ___ मौन का एक परिणाम हैं-निर्विचारता। जब हम मौन कर लेते हैं तब निर्विचारता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। __नहीं बोलने का दूसरा मूल्य है-विवाद-मुक्ति । मौन हो जाओ, विवाद अपने आप समाप्त हो जाएंगे। 'अतृणे पतितो वहिः, स्वयमेव विनश्यति'-आग जल रही है। उसे खाने के लिए घास नहीं मिली, भोजन नहीं मिला, तो वह स्वयं बुझ जाएगी, जलेगी नहीं। एक बोलता है और दूसरा यदि मौन हो जाता है, जो आग को घास नहीं मिलती, वह अपने आप शांत हो जाती है, बुझ जाती है। मौन का तीसरा लाभ है-अहं-मुक्ति। नहीं बोलने से अहंकार समाप्त हो जाता है। बोलने से अहंकार बढ़ता है। भगवान् महावीर ने इसीलिए कहा-न चित्ता तायए भासा, कओ विज्जाणुसासणं-भाषा हमें त्राण नही देती। नहीं बोलने का एक बहुत बड़ा मूल्य है-सत्य की सुरक्षा। अवक्तव्य, अनिर्वचनीय, अव्याकृत-ो शब्द सत्य की सुरक्षा करते हैं। एक कहता है-अस्ति Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १९७ 1 अर्थात् हैं'। दूसरा कहता है - नास्ति अर्थात ' नहीं है।' दोनों की दो दिशाएं हैं। विवाद की स्थिति आ जाती है। महावीर ने कहा- जो कहता है अस्ति, वह भी सही नहीं है और जो कहता है नास्ति, वह भी सही नहीं है। दोनों गलत हैं। दोनों सही तब हो सकते हैं जब दोनों अपने-अपने कथन के साथ अपेक्षा जोड़ देते हैं । और कहते हैं कि इस दृष्टि से, इस अपेक्षा से यह है और इस अपेक्षा से यह नहीं है - स्यादस्ति, स्यान्नास्ति । जब स्यादस्ति कहने से भी काम नहीं चलता और स्यान्नस्ति कहने से भी काम नहीं चलता तब स्याद् अवक्तव्य कहना होता है। यह मानकर चलो कि सत्य नहीं कहा जा सकता, संपूर्ण सत्य कहा नहीं जा सकता । सत्य की प्रकृति, स्वभाव ही ऐसा है कि वह कहा नहीं जा सकता। हम जो कहते हैं वह सत्य का एक अंशमात्र होता है । हम अंशमात्र का कथन करके पूरे सत्य के प्रति शायद अन्याय ही करते हैं, एक दृष्टि से । इस बात को मानकर ही तुम कहो कि पूरा सत्य कहा नहीं जा सकता । 1 आज के पेरासाइकोलॉजिस्ट टेलीपैथी का प्रयोग करते हैं। टेलीपैथी का अर्थ है - विचार - संप्रेषण । इसके लिए मानसिक क्षमता के विकास की जरूरत होती थी । साधक मानसिक क्षमता को बढ़ाने का प्रयत्न करते थे । हमने बोलने की बहुत आ डालकर मानसिक क्षमता को कमजोर किया है, गंवाया है। यदि हम न बोलकर अपनी मानसिक क्षमता को विकसित करें तो ऐसा भी हो सकता है कि बिना कहे भी बात समझ में आ सकती है । 'गुरोस्तु मौनव्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशया:'- जिस गुरु की आत्म-शक्ति प्रबल होती है, वह मौन बैठता है। शिष्य आते हैं, नाना प्रकार के संदेह लेकर। गुरु के पास बैठते हैं, गुरु की सन्निधि प्राप्त करते हैं। उनके सारे संशय नष्ट हो जाते हैं, उनका समाधान हो जाता है। क्योंकि वहां मन भाषा चल रही है । मन अपना काम करता हैं, संदेह मिट जाता है । भाषा - विवेक के सूत्र एक बात के कर्कश शब्दों में कहा जा सकता है, उसे ही सरस तरीके से कहा जा सकता है । कर्कशता भाषा की फूहड़ता है, सरसता एक साधना है। फर्क तथ्य का नहीं, कथ्य का है 1 मन में यदि कर्कशता नहीं है तो भाषा में कर्कशता नही आ सकती । मन ही यदि कर्कश है तो भाषा कर्कश होने से नहीं बच सकती। इसीलिए साधक को बोलते समय इस बात का ख्याल रखना आवश्यक है कि वह कर्कश न बोले । कर्कश की तरह ही भाषा प्रयोग का एक अन्य रूप है कठोर । सत्य १. देखें, इसी पुस्तक का तीसरा अध्याय, पृ. १२६ । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ जैन दर्शन और विज्ञान कहना आवश्यक है, पर उसे कठोर बनाकर कहना भाषा - विवेक का खंडन है । इसीलिए कहा गया है कि-सत्यं ब्रू यात् प्रियं ब्रू यात् मा ब्रू यात् सत्यम- प्रियं । सत्य बोलो पर ऐसा सत्य बोलो जो प्रिय हो । अप्रिय सत्य मत बोलो । कभी-कभी ऐसा भी क्षण आता है कि कठोर सत्य को भी प्रकट करना पड़ता है । पर यह आदत नहीं होनी चाहिए। कठोर सत्य को कहने की भी साधक की तैयारी होनी चाहिए। पर उसके लिए उसे अपने मन को अत्यंत मृदु बनाना होगा । मृदु मन के द्वारा निकला हुआ कटु सत्य थोड़ी देर के लिए कटु महसूस हो सकता है । पर अन्तत: वह मृदुता में परिणत होता ही है । कटुता और स्पष्टता बहुत सारे लोग इतने व्यावहारिक होते हैं कि कटु सत्य को व्यक्त करने की हिम्मत ही नहीं करते । यह साधना नहीं, कायरता है। इससे भलाई की नहीं अपितु बुराई की जड़ें मजबूत होती हैं, जो लोग अपने साथियों से कटु सत्य कहने में केवल इसलिए डरते हैं कि हमसे नाराज हो जायेंगे, वे अपने साथियों के हितेच्छु नहीं, दुश्मन हैं। साधक वह हो सकता है जो समय पर कटु सत्य को प्रकट करने का भी साहस रखता है । वे हां में हां नहीं मिला सकते। फिर भी उनसे यह अपेक्षा तो है ही कि वे पत्थरवाज होने से बचें। जो लोग सत्यवादिता के नाम पर पत्थरफेंक बात करते हैं वे अनजाने में ही दूसरे लोगों को तो पीड़ादायक होते ही हैं, अपने लिए भी स्वयं शत्रुओं की सेना खड़ी कर लेते हैं । वास्तव में स्पष्टवादिता के लिए आदमी को पात्र होना भी आवश्यक है। यह कभी संभव नहीं है कि सबको एक घाट पानी पिलाया जाये । वह स्पष्टवादिता ही कारगार हो सकती है जो सामने वाले व्यक्ति के दिल को ठेस नहीं पहुंचाये। साथ ही साथ सत्य कहने वाले व्यक्ति के लिए भी यह आवश्यक है कि वह निश्च्छिद्र हो । शब्द और भावना भाषा - विवेक भावना को तो आदर करता ही है, पर वह शब्द को भी अहिंसा का जामा पहनाता है । वास्तव में भाषा एक अहिंसक शिल्प है । जो भाषा - विवेक को नहीं जानता, वह अहिंसा को भी नहीं जानता। जो अहिंसा को नहीं समझता, वह साधना को भी नहीं समझ सकता । इसीलिए भाषा साधना के साथ बहुत गहरे अर्थों में जुड़ी हुई हैं । एक इस्लामी कहावत है कि मुंह से निकलने वाले हर शब्द को तीन फाटकों से होकर आना चाहिए। पहले फाटक पर दरबान पूछे - क्या यह सत्य है ? दूसरे फाटक पर पूछे - क्या यह आवश्यक है ? और तीसरे फाटक पर पूछा Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १९९ जायें-क्या यह नेक है? सचमुच भाषा - विवेक का यह एक बहुत बहुत बड़ा निदर्शन है । धीमें बोलने का अभ्यास करें जब भी हम बोलते हैं तो हवा में ध्वनि तरंगें बनती हैं। वे तरंगें पूरे पर्यावरण पर आघात करती है । आज उसे बहुत सूक्ष्मता से माप लिया गया है। उसका वैज्ञानिक मानक है- डेसीबल । वैज्ञानिकों के ध्वनि के विविध रूपों को डेसीबल के रूप में इस तरह व्यक्त किया है अतिसूक्ष्म श्रवणेन्द्रिय से ज्ञात होने वाली आवाज मनुष्य के हृदय की धड़कन पेड़ पत्तों की सरसराहट रेफ्रिजेटर की गुनगुनाहट कुत्ते का भौंकना से भरी आवाज तेज दौड़ने वाली ट्रक की आवाज बड़े कारखानों की आवाज जेट विमान की आवज रॉक एंड रोल की तीव्र संगीत राकेट की आवाज डेसीबल १ १० २० यह एक वैज्ञानिक तालिका है जब भी हम बोलते हैं, तो ध्वनि तरंगें पैदा होती हैं। हम जोर से बोलेंगे, तो ध्वनि तरंगें जोर से उठेगी, वायु प्रदूषण बढ़ेगा। धीमे बोलने से हम वायु प्रदूषण से बच सकते हैं। ३०-४० ६५ ८३-८९ ९० १२० १२० १३८ १९५ तीव्र आवाज से आदमी की ऊर्जा तो क्षीण होती ही है उसका विचार-तंत्र भी प्रभावित होता है। उससे अभिव्यक्ति का तारतम्य खंडित हो जाता है। धीमे बोलकर आदमी अपने वक्तव्य को ज्यादा प्रभावी ढंग से प्रस्तुत कर सकता है। यह एक बहुत की आध्यात्मिक प्रक्रिया है । बातचीत करते समय भारतीय लोग बड़े जोर से बोलते हैं। उससे बिना मतलब ऊर्जा नष्ट होती है । विदेशी लोग प्रायः धीमे-धीमे बोलते हैं । शायद दो आदमियों की बात तीसरे आदमी के कानों में नहीं पड़ती। इससे दूसरों को बिना मतलब विक्षेप नहीं होता । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जैन दर्शन और विज्ञान ध्वनि-प्रदूषण के दुष्प्रभाव ध्वनि-प्रदूषण का मनुष्य के शरीर पर विविध रूपों में प्रभाव होता है। वैज्ञानिकों ने इस बात की सूक्ष्मता से खोज की है कि इससे आदमी न केवल बहरा ही हो सकता है अपितु उसकी स्मृति भी क्षीण हो सकती है। बल्कि उसका स्नायु-तंत्र भी विघटित हो सकता है। शहरों तथा कल-कारखानों के आस-पास रहने वाले लोगों पर अनुसंधान करने से अनेक चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। नोबल पुरस्कार विजेता डॉ. रोबर्ट ने आज के ७० वर्ष पहले कहा था-"एक दिन आयेगा जब हमें मनुष्य के स्वास्थ्य के सबसे बड़े शत्रु के रूप में कोलाहाल से संघर्ष करना पड़ेगा।" लगता है सचमुच आज वह क्षण नजदीक आ रहा है। ध्वनि से सभी परिचित हैं। यह वही ध्वनि है जिसके बढ़ जाने से व्यक्ति पागल हो सकता है, पाचनशक्ति बिगड़ सकती है, रक्तचाप बढ़ सकता है, हृदयरोगी की जान खतरे में पड़ सकती है। ध्वनि की तीव्रता (शोर) के विरुद्ध विश्व भर में एक मुहिम चल रही है। सभी देश शोर के खिलाफ कमर कसे हुए है। परन्तु इसका आशय यह नहीं कि ध्वनि सिर्फ नुकसान ही पहुंचाती है। आधुनिक विज्ञान ने इसी ध्वनि का चिकित्सा के क्षेत्र में सफलतापूर्वक उपयोग करना सीख लिया है। ध्वनि दो प्रकार की होती है। एक श्रव्य, जिसे हम सुन सकते हैं। दूसरी पराश्रव्य, जिस हम सुन नहीं सकते। पराश्रव्य ध्वनि-तरंगों की आवृति अधिक होने से वह हमें सुनाई नहीं पड़ती। पराश्रव्य ध्वनि-तरंगों का चिकित्सा के क्षेत्र में सर्वप्रथम उपयोग स्वीडन के डॉ. लेकसैल ने किया था। लेकसैल ने मस्तिष्क में रसौली आदि का पता लगाने के लिए पराश्रव्य ध्वनि का सफलतापूर्वक सहारा लिया था। आज भी लैकसैल विधि से मस्तिष्क की अन्दरूनी खराबी का पता लगाया जाता है। मस्तिष्क में जासूसी ___पराश्रव्य तरंगों से मस्तिष्क के भीतरी हिस्से का ग्राफ (रेखाचित्र) बनाया जा सकता है। मस्तिष्क के अंदरूनी भाग का कच्चा चिट्ठा होता है यह ग्राफ। यदि मस्तिष्क में कहीं रसौली या फोड़ा आदि हो तो यह पराश्रव्य तरंगों की निगाहों से छिप नहीं सकता। तरंगें उसका अता-पता व स्थिति ग्राफ के जरिए बना देती हैं। आंख जैसे नाजुक अंग के ऑपरेशन में अब तक चिकित्सकों को कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। लैंस व ऐंटीना जैसे महत्त्वपूर्ण भागों में पराश्रव्य ध्वनि अब वे सब काम करने में सक्षम है जो पहले छुरी-कांटों के बल पर किया जाता था। लैंस के साधारण ऑपरेशन में जहां पहले कई सप्ताह या Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली महीनों तक रोगी के घाव नही भर पाते थे, वहीं जब ध्वनि-ऑपरेशन के बाद एक या दो दिनों में ही घाव ठीक हो जाते हैं। यदि आंख में कोई वस्तु चली जाए या आंख के भीतरी भाग में कोई गांठ या ऐसी कोई चीज (विकार) उभर जाए तो शल्य-क्रिया के लिए आवश्यक माप-जोख भी पराश्रव्य ध्वनि की मदद से किया जाने लगा है। स्त्रियों, विशेषकर गर्भवती स्त्रियों के रोगों के निदान में पराश्रव्य ध्वनि महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। इसकी मदद से गर्भ में भ्रूणों की संख्या ज्ञात की जा सकती है। जब किसी गर्भवती का ऑपरेशन करना होता है तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात है-भ्रूण के प्लेसेन्टा की स्थिति को जानना। पराश्रव्य ध्वनि ने यह काम आसान कर दिया है। यदि भ्रूणों में कोई विकार हो तो उसे भी पराश्रव्य ध्वनि की मदद से दूर किया जा सकता है। अल्ट्रासोनिक कार्डियोग्राफ हृदय की जांच के लिए चिकित्सक अकसर ई. सी. जी. (इलेक्ट्रो कार्डियोग्राफ) का सहारा लेते हैं। अब यह कार्य ध्वनि-तरंगें करने लगी हैं। ध्वनि-तरंगों से प्राप्त लेख 'अल्ट्रासोनिक कार्डियोग्राफ' कहलाता है। ध्वनि के गतिमान बिन्दुओं को एक निर्धारित वेग से चलने वाली फिल्म पर अंकित कर यह कार्डियोग्राफ प्राप्त किया जाता ध्वनि-तरंगों से सूक्ष्म रक्तवाहिकाओं का भी रक्तचाप मालूम किया जा सकता है। धमनियों में कहीं कोई खराबी आ गयी हो, तो उसे भी ध्वनि-तरंगें खोज निकालती हैं। इस विधि को 'ए स्कोन' विधि कहते है। शरीर के अन्य अंगों जैसे यकृत वृक्क व अग्न्याशय के रोगों को ध्वनि-तरंगें पहचान लेती हैं। शरीर में कहीं भी रसोली हो, ये तरंगें तुरन्त उसका पता-ठिकाना बता देती है। सोवियत वैज्ञानिकों ने ध्वनि-तरंगों की मदद से हड्डी या ऊतकों को जोड़ने की नयी तकनीक विकसित की है। इस पद्धति से बांह, हंसुली तथा पसलियों का इलाज किया जाता है। सोवियत अनुसन्धानकर्ताओं ने एक और नयी खोज की है। उन्होंने पराश्रव्य ध्वनि से ऊतक काटने की ऐसी पद्धति खोजी है, जिसमें मेहनत तो कम लगती ही है, ऊतकों को हानि नहीं के बराबर पहंचती है। साथ ही कटाई में सफाई भी उच्च स्तर की होती है। 'ध्वनिजन्य तरंगों का मानव-शरीर पर होने वाला प्रभाव' विषय पर पचीस वर्षों तक गहन अध्ययन करने के बाद, इटालियन वैज्ञानिक डॉ. लेसरल सारियो ने प्रमाणित किया है कि Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जैन दर्शन और विज्ञान १. उच्छ्वास के साथ शब्दों-स्वरों के उच्चारण से उत्पन्न प्रकम्पनों से आंतरिक अवयवों का व्यायाम हो जाता है। २. भीतर के ऊतकों तथा तंत्रिका-कोशिकाओं की गहराई तक प्रकंपन पहुंचते हैं। ३. इससे ऊतकों तथा अवयवों में रक्त-संचार, निर्बाध बनता है और उनमें प्रचुर मात्रा में रक्त की आपूर्ति होने से प्राण-शक्ति प्रदीप्त होती है। नवीनतम शरीरशास्त्रीय अध्ययन से इस बात का पता चला है कि इन स्पन्दनों का हमारी अन्त:स्रावी ग्रन्थियों पर गहरा प्रभाव पड़ता है, जिनके द्वारा हमारी भावधारा चिन्तन एवं आचरण को प्रभावित किया जा सकता है। __ ध्वनि-प्रकम्पनों के प्रभाव से अनुकम्पी तथा परानुकम्पी तंत्रिकाओं में एक सुदृढ़ता स्थापित की जा सकती है। म्युनिख ने एक संगीतज्ञ मीटर लुडविग मात्र अपने संगीत से तहखाने में स्थित अपने क्लीनिक में १३ से १६ वर्ष के अत्यधिक असामान्य बच्चों के लिए अभिव्यक्ति के नये उपाय रचने में संलग्न हैं। उनकी इस चिकित्सा पद्धति का महत्त्व परम्परागत चिकित्सक भी असंदिग्ध रूप से मानते हैं। शब्द और संगीत-चिकित्सा संगीत आदमी के उल्लसित मन की एक सरस अभिव्यक्ति है। अनादिकाल से आदमी इस माध्यम से अपने मन की कुंठाओं को विसर्जित करता रहा है। नादस्तु पंचमो वेदः' कहकर वैदिक परम्परा में इसे महत्त्व दिया गया है। श्रमण परम्परा में भी इसे आदर प्राप्त है। इटली की बात हैं-तेरहवीं शताब्दी में यहां एक विचित्र प्रकार की बीमारी का प्रचलन हो गया। उसके प्रभाव से आदमी को सोते समय मधुमक्खी के दंश की-सी पीड़ा का अनुभव होगा। धीरे-धीरे वह पीड़ा इतनी असाध्य हो जाती कि आदमी उछल-कूद मचाने लगता। वह वस्त्रों के उतार फेंकता और अश्लील शब्दों का प्रयोग कर धक्का-मुक्की करते लगता। कभी-कभी तो वह सूअर की तरह गन्दे स्थानों में लोटने-पोटने भी लगता। डॉक्टरों को यह रोग समझ में नहीं आ रहा था। 'फार्डीना सूड' नाम के एक डॉक्टर के पास एक ऐसा ही केस आया। डॉक्टर उस समय वीणा पर संगीत का अभ्यास कर रहा था। उसे सुनकर सहसा रोगी की बीमारी शांत होने लगी। थोड़ी देर में तो वह पूर्ण रूप से स्वस्थ बन गया। उसके बाद तो इसी पद्धति से डॉक्टर ने अनेक लोगों को स्वस्थता प्रदान की। अंतत: वह संगीत एक दवा बन गया। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली २०३ एक रूसी विज्ञानवेक्ता प्रो. एस. बी. कोदाफ ने कई बार अपने प्रयोगों में सफलता प्राप्त कर लेने के बाद यह परिणाम निकाला है कि संगीत द्वारा आंखों का इलाज किया जा सकता है और जिन आंखों की रोशनी धीरे-धीरे कम होती जाती है उसमें संगीत द्वारा इलाज करके लगभग २५ प्रतिशत सुधार आसानी से किया जा सकता । उक्त वैज्ञानिक ने प्रयोग करके देखा है कि जो घड़ियां घंटा बजाती है, उनके संगीतमय स्वर से ही आंखों पर काफी प्रभाव पड़ जाता है । इस प्रसंग में रूस की अपेक्षा अमेरिका के प्रयोग तो और भी आर्श्यजनक हैं। शिकागो के पागलखाने में विश्व प्रसिद्ध पियानोवादक मो. वोगुस्लावस्की ने कई बार अनोखे प्रयोग किए। उस पागलखाने में एक नवप्रसूता इटालियन युवती भरती हुई थी । वह अपने बच्चे से भी भयंकर घृणा करती थी । वोगुस्लावस्की ने पागलखाने में उसे ग्राफ संगीत सुनाया तो न केवल यह अपने बच्चे को ही चाहने लगी अपितु बिलकुल स्वस्थ हो गई । न्यूयार्क में विलेन अस्पताल के डॉ. एस. एम. बेंडर ने स्वभावतः उत्पाती बच्चों के उपद्रवों को छुड़ाने का साधन संगीत खोज निकाला है। ब्रुकलिन के नेत्र और कान अस्पताल के चिकित्सक डॉ. ए. एफ. बर्डमैन ने चीर-फाड़ के समय रोगियों के कान में ईयरफोन लगाकर ऑपरेशन में बहुत बड़ी सफलता प्राप्त की है । फ्रांस एवं अमेरिका की स्वास्थ्य औषध प्रयोगशालाओं में अब तो सैकड़ों विज्ञानवेता संगीत की भावी उपयोगिताओं को लेकर अनेकविध अनुसंधान कर रहे हैं। एक जर्मन औषध - विशेषज्ञ ने तो सुप्रसिद्ध अंग्रेजी औषध अनुसन्धान-पत्र 'लेसेट' में स्पष्ट लिखा है- संगीत में इतनी बड़ी संभावनाएं दिखाई पड़ती हैं कि वह समय आने में बहुत देर नहीं जब रोगियों को देखने के लिए स्टेथेस्कोप और दवाइयों के बक्स के साथ-साथ डॉक्टरों को कुछ मधुर संगीत के रिकार्ड भी अपने पास रखने पड़ेंगे। संगीत का प्रभाव केवल मनुष्यों पर ही नहीं, पशुओं पर भी पड़ता है I स्वीडन तथा रूस के कुछ डेरी फार्मों में प्रयोग करके देखा गया कि संगीत से गायें अधिक दूध देने लगती हैं; बल्कि आज तो यह भी खोज लिया गया है कि संगीत से पेड़-पौधे भी प्रभावित होते हैं। मंत्रों के प्रभाव से पौधे जल्दी फूलते - फलते हैं । नागपुर के पास खाकरी नामक गांव में कृषि में मंत्रों के प्रभाव पर प्रयोग हो रहे है । उनके कुछ परिणाम सामने आए हैं । रासायनिक खाद वाले क्षेत्र में जहां १६ किलो ककड़ी और ३५ किलो बैंगन पैदा हुए वहां अभिमंत्रित जल से सींचे जाने वाले Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैन दर्शन और विज्ञान खेत में ४० किलो ककड़ी और ७० किलो बैंगन पैदा हुए। इन सब प्रयोगों से ध्वनि से भौतिक प्रभावों की एक झलक मिलती है । ध्वनि तरंगों का उपयोग आज अनेक रूपों में हो रहा है। हीरे जैसी कठोरतम वस्तुओं का सूक्ष्म ध्वनि से काटा जा सकता है । पारे और पानी का मिश्रण साधारणतया नहीं होता, पर सूक्ष्म ध्वनि-प्रयोग से यह भी संभव हो सकता है। सूक्ष्मध्वनि से कपड़ों की धुलाई हो सकती है । शब्द की शक्ति एकलय, एक गति से निरन्तर किए जाने वाले सूक्ष्म आघात का चमत्कार वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में देखा जा चुका है। इस प्रयोग की पुष्टि हो चुकी है कि एक टन भारी लोहे का गर्डर किसी छत के बीचोबीच लटका दिया जाय और उस पर पांच ग्राम के वजन वाले कार्क का निरंतर आघात एक गति, एक क्रम से कराया जाए तो कुछ ही समय बाद गर्डर कांपने लगेगा । पुलों पर से होकर गुजरती सेना को पैर मिलाकर चलने से रोक दिया जाता है। कारण यह है कि लेफ्ट राइट के ठीक क्रम से तालबद्ध पैर पड़ने से जो एकीभूत शक्ति उत्पन्न होती है, उसकी सामर्थ्य इतनी अद्भुत एवं प्रचंड होती है कि उसके प्रहार से मजबूत पुलों के भी टूटकर गिर पड़ने की संभावना बन जाती है। इसी प्रकार मंत्र जप के क्रमबद्ध उच्चारण से भी एक तापक्रम उत्पन्न होता है । फलस्वरूप शरीर के अन्तः संस्थानों में विशिष्ट प्रकार की हलचलें उत्पन्न होती हैं जो आंतरिक मूर्च्छना को दूर करने एवं सुषुप्त क्षमताओं को जागृत करने में सक्षम रहती हैं । पदार्थ-विज्ञान के विशेषज्ञ जानते हैं कि इलेक्ट्रो-मैगनेटिक वेब्स पर साउण्ड को सुपर-इम्पोज कर रिकार्ड कर लिया जाता है। फलस्वरूप वे पलक मारते ही सारे संसार की परिक्रमा कर लेने जितनी शक्ति प्राप्त कर लेती हैं । इन शक्तिशाली तरंगों के सहारे ही अंतरिक्ष में भेजे गए राकेटों की उड़ान को धरती परसे नियंत्रित कर उन्हें दिशा देने, उनकी आंतरिक खराबी दूर करने का प्रयोजन पूरा किया जाता है । इस तरह हम देखते हैं कि शब्द-शक्ति केवल संहारक ही नहीं है । उसके कुछ रचनात्मक उपयोग भी हैं । इस दृष्टि से मंत्र - शास्त्र का अध्ययन एक विशेष महत्त्व रखता है । भाषा - - विवेक के अन्तर्गत उसका अध्ययन और भी महत्त्वपूर्ण है । मंत्र । शब्द - शक्तियों के दो चामत्कारिक रूप हैं- एक काव्य और दूसरा काव्य में स्तुतियां - स्रोत आदि आते हैं । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली २०५ मंत्र जाप का ही एक रूप है। वह आत्मशक्ति, प्राणशक्ति और चैतन्यशक्ति को जगाने का विज्ञान है। इसके दो विभाग हैं-एक भक्ति मार्ग और दूसरा तंत्र-मार्ग। जो लोग श्रद्धावान् और सरल होते हैं उनके लिए भक्ति-मार्ग है। बौद्धिक लोगों के लिए तंत्र का मार्ग है। मंत्रों के द्वारा जैव-रासायनिक परिवर्तन भी संभव है। मंत्र-शक्ति आज कोई अजूबा नहीं रह गई है। पूर्व और पश्चिम में अनेक लोग उस पर अनुसंधान कर रहे हैं। अनेक स्थानों पर मंत्रों के द्वारा शारीरिक चिकित्सा के प्रयोग हो रहे हैं। फिलिपाइन्स में तो बिना ऑपरेशन के केवल ध्वनि तरंगों के द्वारा ही शरीर की चीर-फाड़ की जा रही है। वैज्ञानिक इस खोज में गहराई से लगे हुए हैं कि ऑपरेशनों के लिए औजारों की आवश्यकता न रहे। मंत्र की शक्ति __ मंत्र के तीन तत्त्व हैं-शब्द, संकल्प और साधना। मंत्र का पहला तत्त्व है-शब्द। शब्द मन के भावों का वहन करता है। मन के भाव शब्द के वाहन पर चढ़कर यात्रा करते हैं। कोई विचार-संप्रेषण (टेलिपेथी) का प्रयोग करे, कोई सजेसन या ऑटोसजेसन का प्रयोग करे, उसे सबसे पहले ध्वनि का, शब्द का सहारा लेना पड़ता है। वह व्यक्ति अपने मन में भावों को तेज ध्वनि में उच्चारित करता है। जोर-जोर से बोलता है। ध्वनि की तरंगें तेज गति से प्रवाहित होती हैं। फिर वह उच्चारण को मध्यम करता है, धीरे करता है, मंद करता है। पहले होंठ, दांत, कंठ, सब अधिक सक्रिय थे, वे मंद हो जाते हैं, ध्वनि मंद हो जाती है। होंठों तक आवाज पहुंचती है पर बाहर नहीं निकलती। जब मंत्र की मानसिक क्रिया होती है, मानसिक जप होता है तब न कंठ की क्रिया होती है, न जीभ हिलती है, न होंठ और न दांत हिलते हैं। स्वर-तंत्र का कोई प्रकम्पन नहीं होता। शब्द अपने स्वरूप को छोड़कर प्राण में विलीन हो जाता है, मन में विलीन हो जाता है, तब वह अशब्द बन जाता है। मंत्र का दूसरा तत्त्व है-संकल्प। मंत्र-साधक की संकल्प-शक्ति दृढ़ होनी चाहिए। उसकी श्रद्धा और इच्छाशक्ति गहरी होनी चाहिए। प्रत्येक मंत्र-साधक में यह आत्मविश्वास और संकल्प होना ही चाहिए कि 'मैं अपने अनुष्ठान में अवश्य ही सफल होऊंगा।' मंत्र का तीसरा तत्त्व है-साधना। जब तक मंत्र-साधक आरोहण करते-करते मंत्र को प्राणमय न बना दे, तब तक वह सतत साधना करता रहे। वह निरंतरता Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ को न तोड़े। साधना में निरन्तरता और दिर्घकालिता- दोनों अपेक्षित हैं । दीर्घकाल का अर्थ है - जब तक मंत्र का जागरण न हो जाए, मंत्र वीर्यवान् न बन जाए, मन चैतन्य न हो, जो मंत्र शब्दमय था वह एक ज्योति के रूप में प्रकट न हो जाए, तब तक उसकी साधना चलती रहे । जैन दर्शन और विज्ञान मंत्र स्वयं शक्तिशाली होता है। उसका वर्ण विन्यास, अक्षर-संरचना शक्तिशाली होती है। एक-एक अक्षर इतना शक्तिशाली होता है कि जिसकी कोई कल्पना नहीं की जा सकती। आप इसे दर्शन की गहराइयों में जाकर समझें । वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर ‘अ’ ‘आ' आदि अनन्त पर्यायों से मुक्त होता है । प्रत्येक अक्षर के अनन्त पर्याय हैं । अनन्त अवस्थाएं घटित होती हैं । हम उनकी कल्पना नहीं कर सकते। अक्षर अर्थात् अक्षरणशील । उसका कभी क्षरण नहीं होता । अक्षर तीन हैं- परमात्मा अक्षर है, आत्मा अक्षर है और वर्णमाला का वर्ण अक्षर है । इनका कभी क्षरण नहीं होता । आप स्वयं इसका अनुभव करें 'रें' 'रं' को लें । इसका उच्चारण करें। मात्र उच्चारण, मात्र ध्वनि । इसके साथ मंत्र की भावना न भी जोड़ें, इसके साथ अन्तर्ध्वनि को न भी जोड़ें, एकाग्रता को भी न जोड़ें, केवल रं, रं, रं की ध्वनि करते जाएं। कुछ समय बाद आप अनुभव करने लगेंगे कि आपके शरीर में ऊष्मा बढ़ रही है, ताप बढ़ रहा हैं 1 'णमो अरिहंताणं' - इस सप्ताक्षरी मंत्र के जाप से कषाय क्षीण होते हैं । 'णमो अरिहंताणं' के जाप की चौंसठ विधियां है। तैजस केन्द्र में इस मंत्र का ध्यान करने से क्रोध उपशांत होता है, क्षीण होता है । आनंद - केन्द्र में इस मंत्र का ध्यान करने से मान, अहंकार क्षीण होता है । विशुद्धि - केन्द्र में इस मंत्र का धान करने से माया क्षीण होती है। तालु - केन्द्र में इसका ध्यान करने से लोभ क्षीण होता है । इस मंत्र के द्वारा सारे कषाय क्षीण होते हैं। मंत्र से उत्पन्न होने वाली ध्वनि तरंगों के द्वारा, मंत्र के साथ घुलने वाली भावना के द्वारा, संकल्प - शक्ति और मंत्र के साथ होने वाली गहन श्रद्धा के द्वारा तथा मंत्र के साथ होने वाले इष्ट के साक्षात्कार के द्वारा कषाय नष्ट होते है । मंत्र - शक्ति का यह एक उदाहरण मात्र है । मंत्र की आराधना की अनेक निष्पत्तियां है । ये निष्पत्तियां आतंरिक भी हैं और बाह्य भी हैं, मानसिक भी हैं और शारीरिक भी हैं। मंत्र की आराधना से जब मंत्र सिद्ध होने लगता है, तक कुछ निष्पत्तियां हमारे सामने प्रकट होती हैं। पहली निष्पत्ति है- मन की प्रसन्नता । जैसे-जैसे मंत्र सिद्ध होने लगता है, मन में प्रसन्नता आने लगती है । उस समय न हर्ष, न शौक, न राग, न द्वेष का Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली कोई मैल नहीं रहना। इसका दूसरा परिणाम है-चित्त की सन्तुष्टि । पदार्थ की उपलब्धि के बिना भी मन संतोष से इतना भर जाता है कि सारी चाह मिट जाती है, कुछ भी नहीं चाहिए। इसी प्रकार मंत्र की आराधना से स्मृतिशक्ति का विकास होता है, बौद्धिक शक्तियों का विकास होता है और अनुभव की चेतना जागती है। ये मानसिक निष्पत्तियां हैं, जो प्रत्यक्ष अनुभव में आती हैं। __मंत्र की आराधना का शरीर पर प्रभाव होता है। मंत्र की आराधना जैसे-जैसे विकसित होने लगती है, अनायास ही व्यक्ति की आंखों में आंसू उछल पड़ते हैं, शरीर रोमांचित हो जाता है, कंठ गद्गद् हो जाता है, वाणी भारी-सी हो जाती है। ये शारीरिक लक्षण प्रकट होने लगते हैं। स्वास्थ्य का भी परिवर्तन होता है। ___ जाप करने वाला या मंत्र की आराधना करने वाला व्यक्ति क्षय, अरूचि, अग्नि की मंदता आदि-आदि बीमारियों पर नियन्त्रण पा लेता है। मंत्र की आराधना के द्वारा तैजस शरीर को सक्रिय बनाया जाता है। मंत्र की आराधना का सबसे पहला प्रभाव पड़ता है तैजस शरीर पर। जब तक तैजस शरीर तक मंत्र नहीं पहुंचता, तब तक मंत्र सफल नहीं होता। वह मात्र शब्द का पुनरावर्तन बनकर रह जाता है। ___ मंत्र की सफलता का सूत्र है-शब्द को आगे पहुंचाते-पहुंचाते, स्थूल शरीर की सीमाओं को पार कर, तैजस शरीर की सीमा में पहुंचा देना। जब मंत्र तैजस शरीर तक पहुंच जाता है, तब वहां उसकी शक्ति बढ़ जाती है। फिर तैजस शरीर से जो प्राणधारा निकलती है, उससे मंत्र शक्तिशाली बन जाता है। इस स्थिति में शरीर की शक्ति बढ़ जाती है, मन की शक्ति बढ़ जाती है और संकल्प की शक्ति बढ़ जाती है-मन की सारी क्रियाओं की शक्ति बढ़ जाती है। मंत्र की साधना का बहुत बड़ा परिणाम, उपलब्धि या निष्पत्ति है--संकल्प-शक्ति का विकास। मंत्र की आराधना जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, संकल्प-शक्ति का विकास होता चला जाता है। इससे इच्छा-शक्ति बहुत विकसित होती है, प्रबल होती है। इससे एक प्रकार का कवच हमारे चारों ओर बन जाता है। तब बाहर का आक्रमण, बाहर का संक्रमण, बाहर का कुप्रभाव उस कवच को भेदकर व्यक्ति की चेतना तक नहीं पहुंच पाता। वह बाहर ही रह जाता है। आभामण्डल, लेश्याओं का घेरा और Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जैन दर्शन और विज्ञान एक विचित्र प्रकार का ओरा-ये सारे हमारे शरीर के आसपास, चारों ओर एक वलयकार में बन जाते हैं। यह सार मंत्रशक्ति का प्रभाव है। . मंत्र एक शक्ति है, ऊर्जा है। उस शक्ति के द्वारा अध्यात्म का दरवाजा बन्द भी किया जा सकता है और खोला भी जा सकता है। समय-समय पर मंत्रों के अनेक प्रयोजन सामने आए हैं। मंत्रों से चिकित्सा होती है। मंत्र द्वारा भयंकर बीमारियां नष्ट होती हैं। मंत्र-साधना के द्वारा व्यक्ति अपनी ऊर्जा को इतना प्रबल बना देता है, आभामण्डल को इतना शक्तिशाली बना देता है, अपने लेश्या के कवच को इतना सूक्ष्म बना देता है कि आने वाले बुरे विचारों के परमाणु उसको प्रभावित नहीं कर पाते, उनके मस्तिष्क में प्रवेश नहीं कर पाते। ____ जब सुषुम्ना का उद्घाटन होता है, तब मनुष्य के लिए अन्तर्मुखी, निष्काम और निर्विकार होने का द्वार खुलता है। प्राण की धारा जब सुषुम्ना में प्रवाहित होने लगती है, तब आध्यात्मिक जागरण प्रारम्भ होता है। अध्यात्म-जागरण का पहला बिन्दु या उस यात्रापथ का पहला चरण है-सुषुम्ना में प्राणधारा का प्रवेश। मंत्र के द्वारा ऐसा किया जा सकता है। मंत्र के द्वारा हम ऐसी सूक्ष्म ध्वनि-तरंगें पैदा करते हैं कि सुषुम्ना के द्वार खुल जाते हैं और व्यक्ति में आध्यात्मिक जागृति की किरण फूट पड़ती है। अभ्यास १. जैन जीवन-शैली के मुख्य बिंदुओं का उल्लेख करने हुए स्वास्थ्य-विज्ञान के आधार पर उनकी उपादेयता पर विस्तार से प्रकाश डालें। २. उपवास का जैन साधना-पद्धति में क्या स्थान है? वैज्ञानिकों की दृष्टि में उसके मूल्य को बताते हुए उसकी समीक्षा करें। ३. उपवास के अतिरिक्त तप के अन्य प्रकारों की हमारे जीवन में क्या उपयोगिता है? ४. 'शाकाहार बनाम मांसाहार' का वैज्ञानिक आधारों पर विश्लेषण करते हुए मनुष्य-जाति के लिए कौन-सा अधिक श्रेयस्कर है, उसे सप्रमाण प्रस्तुत करें। ५. धूम्रपान से क्या-क्या हानि होती है? उससे मुक्त होने के लिए क्या करना चाहिए? ६. मद्यपान एवं नशीले पदार्थों से व्यक्तिगत एवं समाज के स्तर पर होने वाले दुष्परिणामों का विस्तृत आकलन करें। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली २०९ ७. भाषा-विवेक के सन्दर्भ में जैन साधना का वैज्ञानिक दृष्टि से मूल्यांकन करें। ८. मंत्र-विज्ञान के मौलिक आधार क्या हैं? आधुनिक विज्ञान द्वारा प्रतिपादित शब्द की शक्ति के सन्दर्भ में इनकी चर्चा करें। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा (१) नियमवाद - नियंता की अस्वीकृति ने नियम की ओर ध्यान आकर्षित किया। जैन दर्शन नियंता को नहीं मानता, नियम को मानता है । भगवान् महावीर ने चार मुख्य नियमों का प्रतिपादन किया-द्रव्यावेश, क्षेत्रोदेश, कालादेश और भावादेश । आदेश का अर्थ है-अपेक्षा। किसी भी घटना, विषय-वस्तु का ज्ञान करना हो तो कम से कम इन चार नियमों से उसकी समीक्षा करें और उसके बाद निर्णय लें। यह नियमवाद सत्य की खोज का सिद्धांत है। जैन दर्शन ने प्रत्येक व्यक्ति को सत्य की खोज का अधिकार दिया है। केवल अमुक व्यक्ति ही सत्य का खोजी नहीं हो सकता; प्रत्येक मनुष्य हो सकता है । 'अप्पणा सच्चमेसेज्जा' - स्वयं सत्य की खोज करो । यह बहुत वैज्ञानिक बात है । नियमवाद: जैन- दर्शन की मौलिक प्रस्थापना सत्य की खोज का अर्थ है नियमों की खोज । नियमों की खोज ही सत्य की खोज है। वैज्ञानिक पहले नियम को खोजता है, फिर नियम की खोज के आधार पर कार्य करता है । धर्म के क्षेत्र में कहा गया- नियमों की खोज करों । जैन- दर्शन ने नियमों को खोजा है और नियमों का काफी विस्तार किया है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव-ये चार दृष्टियां जैन-दर्शन में ही उपलब्ध हैं, अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं हैं। उत्तरकाल में जैनाचार्यों ने इनका विकास किया । चार आदेशों के स्थान पर पांच समावायों का विकास हुआ है-स्वभाव, काल, नियति, पुरुषार्थ, भाग्य और कर्म । ये पांच समवाय चार दृष्टियों का विकास है। इन पंच समवायों को समाहित किया जाए तो यह पांच उत्तरवर्ती दृष्टियां और चार पूर्ववर्ती दृष्टियां- -आठ नियम प्रस्तुत होते हैं । (काल दोनों में है । इसलिए आठ दृष्टियां होंगीं ।) इन दृष्टियों के द्वारा समीक्षा करके ही किसी सचाई का पता लगाया जा सकता है, किसी घटना की समीक्षा या व्याख्या की सकती है। इनके बिना एकांगी दृष्टिकोणों से वास्तविकता का पता नहीं चलता, मिथ्या धारणाएं पनप जाती हैं। एकान्तवाद से बचने का सिद्धान्त सम्यग्दर्शन का सिद्धांत नियमों के बिना चल नहीं सकता । तत्त्वज्ञान के विषय में दृष्टिकोण का सम्यक् होना आवश्यक है । प्रत्येक घटना और वस्तु के बारे में भी व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् होना चाहिए, एकांगी नहीं होना चाहिए । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा एकांगीवाद और मिथ्या एकांतवाद से बचने के लिए नियमवाद का सिद्धांत बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसकी घटनाओं के साथ व्याख्या करें, जीवन-संदर्भ के साथ व्याख्या करें तो नियमवाद का एक उदात्त पक्ष उजागर हो सकता है। (अ) संदर्भ : जन्म और मृत्यु का __जीवन का पहला संदर्भ है-जन्म और मरण। मनुष्य जन्मता है और मरता है, यह एक चक्र है। यह क्यों होता है? इसका नियम क्या है? आदमी क्यों जन्म लेता है और क्यों मरता है? जन्म लेना एक नियति है, अनिवार्यता है। जब तक आत्मा कर्मबद्ध है, तब तक व्यक्ति जिएगा, मरेगा। इसका एक नियम है नियति और दूसरा नियम है काल । एक काल के बाद प्रत्येक वस्तु को बदलना होता है, उसी रूप में रह नहीं सकती। काल-मर्यादा भी इसका एक नियम है। नियामक एक ही नहीं है ___ तीसरा नियम है-कर्म । आयुष्य-कर्म के परमाणुओं को भोगना है। जितने समय तक आयुष्य-कर्म के परमाणु पूरे हुए, भोग लिए गए, मृत्यु हो जाएगी। चौथा नियम है-स्वभाव । वह भी अपना काम करता है। द्रव्य का स्वभाव है कि वह परिवर्तित होता रहता है। द्रव्य में ध्रौव्यांश अपरिवर्तनांश है तो साथ-साथ में परिवर्तनांश भी है, अध्रौव्यांश भी है। द्रव्य में परिणमन होता है, पर्याय बदलता है। एक पर्याय (अवस्था) है जन्म और दूसरा पर्याय है मरण। यह पर्याय एक चक्र चलता है। इस प्रकार अनेक नियम मिलकर जन्म और मरण की व्यवस्था का सम्पादन कर रहे हैं। इस भाषा में भी कहा जा सकता है-अनेक नियमों के प्रयोग से जन्म और मरण की व्यवस्था संपादित हो रही है। (ब) सन्दर्भ रोग का जीवन का दूसरा संदर्भ है-रोग। जन्म के बाद एक बड़ी स्थिति आती है रोग की। रोग क्यों होता है? अनेक लोग सोचते है-असातवेदनीय कर्म का उदय है इसलिए यह रोग हो गया, किन्तु यदि इसकी समीक्षा करें तो यह बात समीचीन नहीं ठहरती। केवल असातवेदनीय कर्म ही रोग का कारण नहीं बनता। रोग के अनेक कारण हैं और अनेक नियम हैं। एक नियम है-क्षेत्र । क्षेत्र संबंधी रोग होता है। एक व्यक्ति अमुक गांव में गया और बीमार हो गया। वहां से बाहर जाते ही वह बिना दवा के ठीक हो जाएगा। एक नियम है-काल। काल-जनित रोग पैदा होते हैं। सर्दी के मौसम में एक प्रकार के रोग पैदा होते हैं और गर्मी के मौसम में दूसरी प्रकार के रोग पैदा होते हैं। लू का प्रकोप गर्मी के मौसम में होगा, सर्दी के मौसम में नहीं होगा। शीतजनित बीमारियां सर्दी में होंगी, गर्मी में नहीं होगी। प्रात:काल एक रोग उपशांत Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैन दर्शन और विज्ञान होगा और रात्रि में, मध्य रात्रि में वह रोग भयंकर बन जाएगा। एक नियम है-अवस्था। अवस्था-जनित रोग होता है। अमुक अवस्था में एक प्रकार की बीमारी होगी, पहले वह नहीं होगी। एक नियम है-भाव । अमुक भाव में बीमारी होगी। क्रोध का भाव तीव्र हो गया तो अमुक बीमारी पैदा हो जाएगी। आजकल इस पर बहुत काम हुआ है विज्ञान के क्षेत्र में। किस प्रकार का मनोभाव किस प्रकार की बीमारी मनोदैहिक (Psycho-somatic) रोग को जन्म देता है-इस विषय में बहुत खोज हो रही है। भाव भी इसका एक कारण है, नियम है। कर्म एक नियम है आयुर्वेद में एक प्रकार का रोग माना गया-कर्मज रोग, जो कर्म से उत्पन्न होता है। कर्म एक नियम है। कुछ बीमारियां ऐसी हैं, जिन्हें कर्मज कहा जा सकता है। असातवेदनीय कर्म के उदय से होने वाला रोग कर्मज कहा जा सकता है। किन्तु सब रोगों को कर्मज माना जाए, यह समीचीन नहीं लगता। रोग आने पर असातवेदनीय का उदय हो जाता है। अप्रिय कर्म का योग होता है, दुःख का संवदेन होता है, यह ठीक बात है किन्तु सब रोग असातवेदनीय के उदय से होते हैं-यह विमर्शनीय है। ऐसा नहीं होना चाहिए। दु:ख का निमित्त होना एक बात है और असातवेदनीय के उदय से पैदा होना बिलकुल दूसरी बात है। कर्म सर्वत्र नियामक नहीं एक आदमी चल रहा था। ठोकर लगी और पैर में दर्द हो गया। असातवेदनीय के उदय से यह बीमारी आई, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता। किन्तु ठोकर लगी, दर्द हुआ और असातवेदनीय कर्म का उदय हो गया, यह कहा जा सकता हैं। रोग का एक नियम हो सकता है-कर्म, किन्तु उसे सर्वत्र नियामक नहीं माना जा सकता। नियमों की समीक्षा किसए बिना शायद पूरी बात समझ में नही आती। क्षेत्र सम्बन्धी रोग होते हैं, काल संबंधी रोग होते हैं। कीटाणुजनित रोग होते है, बहुत सारे रोग संक्रामक होते है। एक संक्रामक बीमारी फैली, हजारों-हजारों आदमी एक साथ बीमार हो गए। वह असातवेदनीय से उत्पन्न रोग नहीं है किन्तु उस रोग ने असातवेदनीय कर्म का उदय ला दिया। यदि समग्र दृष्टि से रोग के बारे में नियमों की समीक्षा की जाए तो एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत हो पाएगा। (स) संदर्भ नींद का जीवन का एक संदर्भ है-नींद । व्यक्ति के जीवन को नींद बहुत प्रभावित करती है। जब नींद आनी चाहिए, तब बहुत सारे व्यक्तियों को नींद नहीं आती और जब नींद नहीं आनी चाहिए, तब लोगों को नींद आ जाती है। ध्यान के समय में Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा २१३ नींद नहीं आनी चाहिए, स्वाध्याय के समय में नींद नहीं आनी चाहिए किन्तु नींद आ जाती है। सोते समय नींद आनी चाहिए, किन्तु उस समय बहुत लोगों को घंटों तक नींद नहीं आती। वे बिस्तर पर इधर-उधर करवटें बदलते रहते है । नींद जीने के साथ जुड़ा हुआ एक पहलू है । प्रश्न होता है- नींद का क्या नियम बन है? उसे कौन प्रभावित करता है ? इसका पहला नियम है- काल । काल और नींद का बहुत गहरा सम्बन्ध है। दिन नींद का काल नहीं है। नींद का काल है-रात्रि । दिन में सोना और रात में न सोना-दोनों स्वास्थ्य की दृष्टि से अनुकूल नहीं माने जाते । आयुर्वेद का सिद्धांत है-दिन में नहीं सोना चाहिए या बहुत नहीं सोना चाहिए। केवल गर्मी के दिनों में दिन में सोया जा सकता है, और दिनों में दिन में सोना उपयुक्त नहीं माना जा सकता। काल का नियम हैं नीद के साथ जुड़ा हुआ । सहज नींद रात में जितनी अच्छी आती है, दिन में उतनी अच्छी नहीं आती। यदि आती है तो अधिक आलस्य पैदा कर देती है । अपराध भी नींद में दूसरा नियम है कर्म का । नींद का कर्म के साथ भी सम्बन्ध है । जब दर्शनावरणीय कर्म के परमाणु व्यक्ति को प्रभावित करते हैं, तब व्यक्ति नींद में चला जाता है । एक व्यक्ति बहुत नींद लेता है । उसका निदान नहीं होता । बहुत प्रयत्न करता है, पर नींद आए बिना नहीं रहती । इस स्थिति की समीक्षा करना अपेक्षित है । न आहार का कारण, न कफ की प्रधानता और न वायु की प्रधानता । बिलकुल स्वस्थ है और फिर भी नींद बहुत आती है तो वहां दूसरा नियम खोजना होगा। वह नियम होगा - कर्म । निश्चित ही उस व्यक्ति के दर्शनावरणीय कर्म की अधिकता है । उसका विपाक बहुत होता है, इसलिए वह नींद में चला जाता है। कुछ लोग बहुत सघन निद्रा में चले जाते हैं । इतनी सघन निद्रा, जिस स्त्यानर्धि निद्रा कहा जाता है। जिस नींद में आदमी अकरणीय काम कर लेता है, असंभावित काम कर लेता है और उसे पता ही नहीं चलता। ऐसी होती है स्त्यानर्धि नींद। नींद में उठकर चला जाता है, किलोमीटरों तक चला जाता है, किसी का दरवाजा खोल आता है, चोरी कर आता है, किसी को मार आता है, कहीं से कोई चीज उठाकर ले आता है और वापस आकर सो जाता है । उसे पता ही नहीं चलता कि उसने कुछ किया है। ऐसी घटनाएं (जिसे मनोविज्ञान में Somnambulism कहा जाता है) आज भी कहीं-कहीं मिलती है। समाचार-पत्रों में ऐसे विवरण प्रकाशित होते हैं । इतनी गाढ़ निद्रा के मूल कारण को शरीर में नहीं खोजा जा सकता। इसका कारण है-कर्म । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैन दर्शन और विज्ञान निदान से परे का सच ___ बहुत बार बीमारी की अवस्था के और इस प्रकार की नींद की अवस्था के शारीरिक कारण भी खोजे जाते हैं। किन्तु कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। कुछ लोग कहते हैं-डॉक्टरों के द्वारा सारे निदान करा लिये, निदान में बिलकुल बीमारी नहीं आ रही है और मैं बहुत भयंकर बीमारी भुगत रहा हूं। इसका क्या कारण है ? उपकरण नहीं बता पा रहे हैं कि यह व्यक्ति बीमार है और यह व्यक्ति भयंकर दु:ख भोग रहा है। वहां केवल शरीर को ही नियम मानकर सत्य को, वास्तविकता को नहीं खोजा जा सकता। वहां शरीर से आगे खोजना होता है। उस बीमारी का कारण है-असातवेदनीय कर्म। वह कर्म के कारण भुगत रहा है। बीमारी का कोई लक्षण प्रकट नहीं हो रहा है किन्तु असातवेदनीय का प्रबल उदय हो गया इसलिए वह कष्ट को भोग रहा है। यह सत्य की खोज का बहुत व्यापक दृष्टिकोण बनता है। जैन-दर्शन ने इस दृष्टिकोण को बहुत व्यापक बनाया है और इस व्यापक दृष्टिकोण से सत्य की बहुत समीक्षा की है, मीमांसा की है। (द) संदर्भ : अमीर और गरीबी का जीवन से जुड़ा हुआ एक संदर्भ है-गरीबी और अमीरी। आदमी गरीब क्यों बनता है, आदमी अमीर क्यों बनता है? यह एक आम धारणा है कि जिसने अच्छा कर्म किया था, वह अमीर बन गया जिसने बुरा कर्म किया था वह गरीब बन गया। यह एक सचाई हो सकती है, एक नियम हो सकता है किन्तु इसे व्यापक नियम नहीं कहा जा सकता। अनेक नियम इसमें काम करते हैं। एक नियम है-क्षेत्र । क्षेत्र कर्म के उदय में निमित्त बन सकता है। एक क्षेत्र ऐसा है, जहां पैदा होने वाला आदमी बहुत गरीबी भोगता है और एक क्षेत्र ऐसा है, जहां पैदा होने वाला सहज ही अमीर बन जाता है। हमारे सामने एक घटना है-अरब देशों में जब तक तेल उपलब्ध नहीं हुआ, अमीरी नहीं थी, बहुत गरीबी थी और प्राकृतिक साधन भी बहुत कम थे। न वहां विशेष खेती थी, न कोई और रोजगार के अच्छे साधन थे किन्तु जैसे ही तेल उपलब्ध हुआ, वे देश दुनिया के अमीर देशों में मुख्य बन गए। यह अमीरी किस कर्म के उदय से हुई? एक साथ ऐसा कैसे हुआ? सबके एक साथ शुभ कर्मों का उदय हो गया, ऐसा नहीं माना जा सकता। यदि इस बात की गहराई में जाकर नियमों को खोजा जाए तो इसका नियम उपलब्ध होगा-क्षेत्र । भविष्यवाणी मिथ्या क्यों होती है? काल का भी एक नियम है। गरीबी और अमीरी में काल भी कारण बनता है। अमुक व्यक्तियों पर या अमुक-अमुक स्थानों पर सौर-विकिरण का अमुक Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा २१५ प्रकार का प्रभाव होता है। काल का अर्थ है-सूर्य चन्द्रमा की गति यानी सौर-मंडल की गति और सौर-मंडल के विकिरण। पूरा का पूरा ज्योतिशास्त्र इस आधार पर विकसित हुआ है। ज्योतिशास्त्र बहुत वैज्ञानिक सिद्धांत है। प्रस्तुत प्रसंग में उस ज्योतिष से संबंध नहीं है जिसके द्वारा फलित बताने में बहुत गड़बड़ियां होती हैं। इसका कारण है-भविष्यवाणी करने वाले को पूरे नियम का पता ही नहीं होता। वे एक बात को लेकर भविष्यवाणी कर देते हैं। इसलिए भविष्यवाणी अनेक बार मिथ्या प्रमाणित होती है। जब ज्योतिष के पूरे नियम का पता नहीं होता, तब अनेक मिथ्या धारणाएं बन जाती है और उन धारणाओं के आधार पर ये भविष्यवाणी करने वाले लोगों को बहुत गुमराह कर देते हैं। किसी को बताते हैं-तुम्हारे लड़का पैदा होगा और पांच दिन के बाद लड़की हो जाती है। किसी को बताते हैं तुम्हारा कारखाना बहुत चलेगा और सात दिन बाद दिवाला निकल जाता है। ये सामने आई हुई घटनाएं हैं। ये भविष्यवाणियां व्यक्ति को गुमराह करती हैं। ज्योतिर्विज्ञान : एक नियम ज्योतिर्विज्ञान का अर्थ है-काल-चक्र के आधार पर होने वाली घटनाओं का विश्लेषण और वह बहुत सही निकलता है। कब किस प्रकार के ग्रहों की गति होती हैं। और उस गति के क्या परिणाम आते हैं, यह बिलकुल वैज्ञानिक बात है। इसे गणित ज्योतिष कहा जाता है। कुछ व्यक्ति हस्तरेखा देखकर चार-पांच मोटी-मोटी बातें जान लेते हैं और उसके आधार पर फलित बता देते है। कुण्डली देखते हैं और भविष्यवाणी कर देते हैं। इस पाखण्डवाद ने ज्योतिर्विज्ञान को धूमिल बना दिया, संदेहास्पद बना दिया। वास्तव में ज्योतिर्विज्ञान एक बहुत बड़ा नियम है। कब सूर्य, चन्द्र आदि-आदि ग्रहों की गति और उनके विकिरण किस प्रकार के होते है और कब व्यक्ति उनसे प्रभावित होता है-यह सारा ज्योतिर्विज्ञान से जाना जा सकता है। इन नियमों का विस्तार किया गया ज्योतिर्विज्ञान में । किस महीने में, किस ऋतु में और किस राशि में किस प्रकार का विकिरण होता है और वह व्यक्ति के शरीर को किस प्रकार प्रभावित करता है। यदि हार्ट को पुष्ट करना है तो किस राशि में उसको पुष्ट किया जा सकता है? यदि मस्तिष्क को पुष्ट करना हो तो किस राशि में पुष्ट किया जा सकता है। प्रत्येक अवयव के साथ राशि और ऋतु का चक्र जुड़ा हुआ है। ज्ञान को विकसित करना हो तो कब करना चाहिए। जैन आगमों में अध्ययन के विशेष काल का निर्देश दिया गया है। प्रश्न पूछा गया-स्वाध्याय प्रारम्भ करें तो कब करें। उत्तर दिया गया-पुष्य नक्षत्र में या अमुक-अमुक नक्षत्र में अध्ययन शुरू करें। अमुक दिशा में बैठकर अध्ययन शुरू करें। यह दिशा का निर्देश, काल का निर्देश बहुत सार्थक है। उस समय किया गया Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जैन दर्शन और विज्ञान स्वाध्याय का प्रारम्भ बहुत फलदायी होता है और बहुत ग्राह्य बनता है। प्रभाव सौरमंडल के विकिरणों का यह काल का प्रभाव है। उसके नियम गरीबी और अमीरी के साथ भी जुड़े हुए है। अमुक प्रकार का सौर-मंडल का ब्रह्मण्डीय विकिरण अमुक प्रकार के व्यक्ति को प्रभावित करता है तो गरीबी की स्थिति बन जाती है। बहुत लोग कहते हैं-हमने बहुत प्रयत्न किया, व्यावसायिक बुद्धि और पुरुषार्थ का भी बहुत उपयोग किया, बहुत चेष्टाएं की, प्रयत्न किए, अनेक लोगों से सम्बन्ध स्थापित किए किन्तु अब तक सफलता नहीं मिली, गरीबी बनी की बनी रही। समाज में ऐसी घटनाएं बहुत होती हैं और इनका कारण हो सकता है-कोई काल विपरीत चल रहा है, सौर-मंडल के विकिरण विपरीत काम कर रहे हैं। जब कोई अवसर आता है, वे व्यक्ति के कार्य की निष्पत्ति में बाधक बन जाते हैं। एक नियम है-पुरुषार्थ । श्रम-हीनता, श्रमविमुखता गरीबी को बढ़ाती है और श्रम की प्रचुरता गरीबी को कम करती है, गरीबी को मिटाती है। एक नियम है-कर्म। जिस व्यक्ति के असातवेदनीय कर्म का उदय अति तीव्र होता है, उसकी गरीबी को मिटाना मुश्किल बन जाता है। इस प्रकार अनेक नियमों को जानकर ही इस प्रश्न की समीक्षा की जा सकती है। (ई) संदर्भ भाव का जीवन का एक संदर्भ है-भाव । एक दिन में मनुष्य को अनेक भावों का सामना करना होता है। क्रोध, अहंकार, लोभ आदि-आदि मनोभाव बदलते रहते हैं। एक आदमी ने कहा-मुझे दिन में गुस्सा कम आता है और रात को ज्यादा आता है। किसी को अमुक व्यक्ति पर गुस्सा ज्यादा आता है, किसी को अमुक स्थिति में गुस्सा ज्यादा आता है, ऐसा क्यों होता है? किसी व्यक्ति को अमुक स्थान में जाने पर गुस्सा आ जाता है। इसका क्या कारण है? इस प्रश्न के संदर्भ में नियमों के समवाय अनुशीलन आवश्यक है। स्थानांग सूत्र में चार कारण बतलाए गए हैं। उनमें पहला कारण है-क्षेत्र। एक क्षेत्र के प्रकपन ऐसे होते हैं, जहां आते ही आदमी के भाव बिगड़ जाते हैं और एक क्षेत्र के प्रकंपन ऐसा होते है, जहां आते ही आदमी के भाव अच्छे हो जाते हैं, गुस्से के भाव शांत हो जाते हैं । नेपाल में भवन बनाते समय मिट्टी का परीक्षण किया जाता है। वहां यह एक शास्त्र-विद्या चल पड़ी है। नेपाल में इस प्रकार के ज्योतिर्विज्ञानी हैं, जो मिट्टी का परीक्षण करते हैं। परीक्षण के बाद बतलाते हैं यहां की मिट्टी के प्रकम्पन किस प्रकार के हैं। वे आपके लिए लाभप्रद होंगे या हानिकारक? क्षेत्र के आधार पर यह पूरा विज्ञान विकसित हुआ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा मूड क्यों बिगड़ता है? मूड बिगड़ने का एक ही कारण नहीं है। उसका एक नियम है-काल। प्रात:काल मूड कम बिगड़ेगा और गर्मी का समय है तो मूड जल्दी बिगड़ जाएगा। व्यक्ति का अलग-अलग समय पर अलग-अलग मूड होता है। पर जिस सिद्धांत का विकास हुआ है, उसे स्वर-विज्ञान में स्वरोदयशास्त्र में बहुत स्थान दिया गया है। किस समय किस प्रकार का भाव भीतर चलता है-इस आधार पर सारे कार्यों का निर्णय करना चाहिए। अनेक आदमी जानते हैं कि अभी लाभ की दुघड़िया है, शुभ की दुघड़िया है, अमृत का दुघड़िया है। ये सारे व्यक्ति पर प्रभाव डालते हैं। एक समय होता है, व्यक्ति का भाव बहुत शांत रहता है, प्रसन्न रहता है, मूड बहुत अच्छा रहता है। दूसरा समय आया, उसी व्यक्ति का उसी दिन में भाव बिगड़ जाता है, मूड बिगड़ जाता है। वह बिलकुल बदला हुआ-सा लगता है। यह वही व्यक्ति है, ऐसा विकास नहीं होता। एक व्यक्ति के भाव कितने बदल जाते है, उसके पर्याय कितने बदल जाते हैं, इसे नियमवाद के आधार पर समझा जाता है। नियमन का सिद्धांत है-नियमवाद __ जीवन का संदर्भ में नियमवाद का यह संक्षिप्त अनुशीलन है। नियमों का जैन-साहित्य में बहुत विकास हुआ है। उसमें बहुत सारे नियम ग्रथित हैं। अगर सारे नियमों का संकलन किया जाए तो पूरा एक नियमशास्त्र बन जाए, नियमों का एक महाग्रंथ बन जाए, उसके आधार पर नियमों की समग्र व्याख्या की जा सकती है। जैन-दर्शन नियंता को नहीं मानता, ईश्वर को नहीं मानता। वह नियमन के सिद्धांत को नियमवाद के सन्दर्भ में प्रस्तुत करता है। वह मानता हैं-हर व्यक्ति और पदार्थ के अपने-अपने नियम हैं और वे नियम अपना काम करते हैं। ईश्वरवादी यह कहकर छुट्टी पा सकता है कि भगवान् की ऐसी मर्जी थी, ऐसी इच्छा थी, अत: ऐसा हो गया पर एक अनीश्वरवादी यह कहकर छुट्टी नहीं पा सकता। उसके सामने बड़ा जटिल मार्ग है। ईश्वरवाद का मार्ग बहुत सरल मार्ग है। ईश्वर का अस्वीकार बड़ा जटिल कार्य है। इससे व्यक्ति के सामने स्वयं निर्णय करने का प्रश्न आता है, नियमों की खोज का प्रश्न आता है। इस प्रश्न के संदर्भ में जैन-दर्शन नियमों की खोज की है, वह खोज बहुत उपयोगी है, उसका ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। आधुनिक विज्ञान में नियमवाद आधुनिक विज्ञान का सारा विकास नियमवाद के आधार पर हुआ है। भौतिक विज्ञान में न्यूटन से लेकर आइंस्टीन तक उन मौलिक नियमों को खोजने Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जैन दर्शन और विज्ञान का प्रयत्न किया गया है जिनके आधार पर जगत् की प्रक्रियाओं की व्याख्या की जा सके। आधुनिक विज्ञान के 'परमाणुवाद'' द्वारा समस्त व्यावहारिक प्रक्रियाओं को समझने का प्रयत्न काफी सफल हुआ है। जीव-विज्ञान के रहस्यों को भी भौतिक विज्ञान एवं रासायनिक विज्ञान के मौलिक नियमों के आधार पर उद्घाटित करने में वैज्ञानिक काफी आगे बढ़े हैं। अस्तु, नियमवाद के आधुनिक विज्ञान का मूल स्तंभ माना जा सकता है। (२) ईश्वरवाद : कर्मवाद अज्ञात रहस्यों को समझने के लिए दार्शनिकों ने अनेक सिद्धांत स्थापित किए। कर्म के विषय में भी अनेक सिद्धांत स्थापित हैं। कुछ दार्शनिक केवल कर्मवादी है। कुछ कर्मवाद को मानते हैं पर ईश्वरवाद के सहचारी के रूप में उसे स्वीकार करते हैं। वे केवल कर्मवाद को नहीं मानते। सष्टि है परिवर्तनात्मक ___ जैन दर्शनक कर्मवादी दर्शन है। ईश्वर का सिद्धांत मान्य नहीं है। ईश्वर के लिए तीन कार्यों की कल्पना की गई- (१) सृष्टि का कर्ता होना चाहिए, (२) नियंता होना चाहिए, (३) अच्छे और बुरे कार्य का फल भुगताने वाला होना चाहिए। सष्टि के कर्ता, सृष्टि के नियता और कर्म-फल को भोग देने वाला, नियोजन करने वाले ईश्वर की कल्पना के पीछे ये तीन मुख्य तत्त्व काम करते है। जैन दर्शन ने जगत् को अनादि माना, इसलिए उसे ईश्वर की कोई आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई। सृष्टि का नियन्ता कोई नहीं ___जैन दर्शन जगत् को भी मानता है और सृष्टि को भी मानता है। जगत् अनादि, है, प्रत्येक पदार्थ अनादि है। प्रत्येक पदार्थ में परिणमन होता है. जीव और पुद्गल के संयोग से वैभाविक परिवर्तन होती है। वह सृष्टि है। सृष्टि जीव और पुद्गल के द्वारा संपादित होती है। जीव और पुद्गल के अतिरिक्त किसी तीसरी सत्ता को मानने की कोई आवश्यकता नहीं । दूसरा प्रश्न है नियमन का। जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि का नियंता कोई नहीं है। अगर कोई नियंता है, सर्वशक्तिमान है तो सृष्टि इस प्रकार की नहीं होती। इस त्रुटिपूर्ण व्यवस्था वाली सृष्टि के लिए अगर ईश्वर को नियन्ता माने और साथ-साथ में सर्वशक्तिमान भी मानें तो दोनों में अन्तर्विरोध जैसा उपस्थित हो जाता है। यदि सृष्टि का कर्ता सर्वशक्तिमान है तो व्यवस्था इतनी त्रुटिपूर्ण नहीं होगी। यदि १. इसी पुस्तक में नवें प्रकरण में इसकी विस्तृत चर्चा की जाएगी। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा २१९ वह सर्वशक्तिमान नहीं है तो वह सारी सृष्टि का अकेला नियमन नहीं कर सकता। यह नियन्ता वाली बात संगत प्रतीत नहीं होती। सृष्टि का नियमन नियम के द्वारा जैन दर्शन ने नियन्ता की आवश्यकता अनुभव नहीं की। उसका सिद्धांत है नियम । सृष्टि का नियम के द्वारा होता है, नियंता के द्वारा नहीं होता। हमारे जगत् के कुछ सार्वभौम नियम हैं, जो अकृत्रिम हैं, किसी के द्वारा बनाए हुए नहीं हैं। जीव-पुद्गल के स्वयंभू नियम हैं और वे नियम अपना काम करते हैं। एक जीव को मोक्ष जाना है तो वह अपने नियम से जाएगा। एक पुद्गल को, परमाणु को बदलना है तो वह अपने नियम से बदलेगा। एक परमाणु का एक गुणा काला है और उसे अनन्त गुना काला होना है तो वह अपने नियम से होगा। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का जितना परिवर्तन है वह सारा अपने नियम से होगा। निर्धारित समय से उसे निश्चित रूप से बदलना ही पड़ेगा। यह प्राकृतिक नियम है, सार्वभौम नियम है और इस नियम से सारा नियमन हो रहा है। यह सारी ओटोमेटिक व्यवस्था है, स्वयंकृत व्यवस्था है। बाहर के कृत या आरोपित व्यवस्था नहीं है, इसलिए नियंता की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। कर्तृत्व : भोक्तृत्व तीसरा प्रश्न है-कर्म का फल देने वाला कोई होना चाहिए। जैसे चोरी करने वाला चोर अपने आप उसका फल नहीं भुगतता। कोई न्यायाधीश होता है, दंडनायक होता है, जो उसे दंडित करता है, फल देता है, वैसे ही सारे जगत को अच्छे और बुरे कर्म का फल देने वाला भी कोई होना चाहिए। इस आधार पर कर्मफल -दाता की आवश्यकता कुछ दार्शनिकों ने महसूस की। किंतु जैन दर्शन ने इस आवश्यकता का अनुभव किया। जैन दर्शन का मंतव्य है-कर्म करने वाला और उसका फल भोगने की शक्ति स्वयं जीव में निहित है। उसे बाहर कहीं से लाने की आवश्यकता नहीं है। अपना स्वयं का कर्तव्य और अपना स्वयं का भोक्तृत्व-दोनों उसमें समाहित हैं इन तीन स्थितियों के आधार पर जैन दर्शन को ईश्वर की आवश्यकता दार्शनिक दृष्टि से महसूस नहीं हुई। प्रयोजनवादी दृष्टि एक संदर्भ है प्रयोजन का। प्रयोजनवादी दृष्टि से भी कुछ प्रश्न उभरते हैं-ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण क्यों किया? वह क्यों जगत के प्रपंच में आया और वह क्यों सबकी व्यवस्था और नियमन करता है। वह अच्छा करने वाले को अच्छे फल देता है और बुरा फल करने वाले को बुरा फल देता है। वह ऐसा क्यों करता है। उसका Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैन दर्शन और विज्ञान प्रयोजन क्या है? यह बड़ा जटिल प्रश्न है ईश्वरवादी के सामने । प्रयोजनवादी तर्क जब सामने आता है तो उसका संतोषजनक समाधान नहीं मिलता। यदि करुणा प्रयोजन है तो प्रश्न होगा-यह प्रयोजन कब पैदा हुआ? यदि कहा जाए-जिस दिन ईश्वर जन्मा, उसी दिन प्रयोजन पैदा हो गया तो इसका अर्थ होगा-ईश्वर और जगत् का जन्म एक साथ हुआ। यदि ईश्वर पहले था और प्रयोजन कभी बाद में हुआ तो प्रश्न आएगा-प्रयोजन बाद में क्यों पैदा हुआ पहले क्यों नहीं हुआ? उसका प्रयोजन आखिर क्या था? उत्तर दिया गया-करुणा थी प्रयोजन । ईश्वर के मन में करुणा जागी और उसने सृष्टि का निर्माण कर दिया। एकाऽहं बहुस्याम् यह करुणावादी प्रयोजन वाली सृष्टि नहीं है। जहां इतनी क्रूरता और इतना आतंक है वहां करुणावादी दृष्टिकोण सफल नहीं होता। करुणा की बात समझ में नहीं आती। दूसरे भी जितने प्रयोजन हैं उनकी कोई संगत व्याख्या सामने नहीं आती। इन सारे दार्शनिक बिन्दुओं के आधार पर एक जैन दर्शन ने ईश्वरवाद के अस्तित्व को नकार दिया। कहा जाता है-ईश्वर को अकेला रहना अच्छा नहीं लगा इसलिए उसने सोचा-‘एकोऽहं बहु स्याम्' मैं बहुत हो जाऊं। इसलिए वह एक से बहुत हो गया। जिस प्रकार से ईश्वर की कल्पना है, उससे यह बात भी संगत नहीं लगती। ईश्वरवाद : धार्मिक दृष्टिकोण हमारे सामने तीन दृष्टिकोण हैं-धार्मिक दृष्टिकोण, नैतिक दृष्टिकोण और दानिक दृष्टिकोण। इन तीनों बिन्दुओं पर ईश्वरवाद की यह अवधारणा सम्यक् नहीं उभरती। ___ जब प्रगति और परिवर्तन का अधिकार मनुष्य को नहीं है तो ईश्वर का अस्तित्व उसे संकट में डालने वाला है। मनुष्य न प्रगति कर सकता और न परिवर्तन कर सकता। जैसा है वैसा ही रहे। ये दोनों जब मनुष्य के हाथ में नहीं है तो धार्मिक दृष्टिकोण से ईश्वर का अस्तित्व उसके लिए खतरनाक बन गया। इस धारणा ने रूढ़िवाद एवं निराशावाद को जन्म दिया और इसी निराशावादी दृष्टिकोण ने मनुष्य को अकिंचित्कर बना दिया। ईश्वरवाद : नैतिक दृष्टिकोण नैतिक दृष्टि से विचार करें-यदि मनुष्य का संकल्प स्वतंत्र नहीं है तो वह अपने कत के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकता। वही व्यक्ति कत के प्रति उत्तरदायी हो सकता है जिसका संकल्प स्वतंत्र है। व्यक्ति का संकल्प उसे अपने कृत के प्रति उत्तरदायी बनाता है। यदि कृत स्वतंत्र नहीं है, ईश्वर ने जैसा कराया वैसा Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा २२१ उसने कर लिया तो अच्छे और बुरे का उत्तरदायी क्यों बनेगा ? ईश्वर ने अच्छा कराया तो अच्छा कर लिया और बुरा कराया तो बुरा कर लिया । उत्तरदायी कराने वाला है या करने वाला है? एक यंत्र उत्तरदायी नहीं हो सकता। एक लौह-मानव ( Robot ) थोड़ी दूर चलता है और फिर गोली दागता है। प्रश्न प्रस्तुत होता है-उसका उत्तरदायी कौन है ? क्या वह लौहमानव है, यन्त्र - मानव है, रोबोट है? बिल्कुल नहीं। उत्तरदायी है चलाने वाला । मनुष्य जिस प्रकार चलाता है, यंत्र- मानव उसी प्रकार चलता है। यदि मनुष्य वैसा ही यंत्र-मानव या लौह - मानव है तो वह अपने कृत का उत्तरदायी नहीं हो सकता। नैतिक दृष्टि से यह एक बड़ी समस्या पैदा हो जाती है नैतिकता की बात एक प्रकार से समाप्त हो जाती है। कर्मवाद के तीन सिद्धांत जैन दर्शन ने इस पर समग्रता से विचार किया । उसने पहला सूत्र दिया कर्मवाद का । हर आत्मा की स्वतंत्रता कर्मवाद का पहला आधार है । यदि व्यक्ति 1 का संकल्प स्वतंत्र नहीं है तो वह अपने कृत के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकता । संकल्प करने में वह स्वतंत्र है इसलिए कृत के प्रति उत्तरदायी है । वह अच्छा करता है तो उसका फल अच्छा होता है और बुरा करता है तो बुरा होता है। अच्छे और बुरे का जिम्मेवार वह स्वयं है । यह संकल्प की स्वतंत्रता कर्मवाद का पहला सिद्धांत है । कर्मवाद का दूसरा सिद्धांत है - कृत का नैतिक जिम्मेवार व्यक्ति स्वयं है। वह अपने कृत के प्रति नैतिक दायित्व से अलग नहीं हो सकता। कोई भी काम करता है तो उसे यह उत्तरदायित्व लेना होगा कि इसके लिए मैं स्वयं जिम्मेवार हूं । कर्मवाद का तीसरा सिद्धांत है - व्यक्ति को प्रगति और परिवर्तन का अधिकार है। छोटे-से छोटे प्राणी को भी ये दोनों अधिकार उपलब्ध हैं । एक एकेन्द्रिय प्राणी अपना विकास करते-करते पंचेन्द्रिय तक पहुंच जाता है, मनुष्य तक पहुंच जाता है, मुनि बन जाता है। आध्यात्मिक उत्क्रांति के पथ पर चलते-चलते वह वीतराग बन जाता है, केवली बन जाता है, मुक्त आत्मा भी बन जाता है। यह आध्यात्मिक उत्क्रांति का अधिकार प्रत्येक आत्मा को उपलब्ध है। प्रत्येक आत्मा इस उत्क्रांति के आधार पर आत्मा से परमात्मा बन सकती है । अधिकार है परिवर्तन एवं प्रगति का प्रश्न होता है-- आज मनुष्य जैसा है, क्या वह वैसा ही रहे? या अपने आपको Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जैन दर्शन और विज्ञान बदल सके? जैन दर्शन ने व्यक्ति को परिवर्तन का अधिकार दिया है। उसने कहा- हर आदमी बदल सकता है परिवर्तन कर सकता है। अगर परिवर्तन हो तो व्यक्ति की सारी साधना, तपस्या व्यर्थ बन जाए। इस बात में विश्वास नहीं किया जा सकता कि जो जैसा है वैसा ही रहेगा। जिसका स्वभाव जैसा है वैसा ही रहेगा। ऐसा वह मान सकता है, जिसने परिवर्तन को अस्वीकार किया है। जैन दर्शन परिवर्तन और प्रगति को स्वीकार करता है, इसलिए उसमें तपस्या और साधना का मूल्य है । यदि उन्हें अस्वीकार किया जाए तो तपस्या और साधना का मूल्य समाप्त हो जाता है। क्रोध, अहंकार, लोभ, अभिमान, माया, भय, कामवासना आदि-आदि मोहकर्म के विकार हैं उन सबको बदला जा सकता है, उनमें परिवर्तन किया जा सकता है। यह व्यक्ति की अपनी स्वतंत्रता है । इसी आधार पर साधना की पद्वति का विकास हुआ। तपस्या, ध्यान, स्वाध्याय--इनका विकास परिवर्तन के सिद्धांत के आधार पर हुआ है । यह परिवर्तन का सिद्धांत नहीं होता तो साधना और तपस्या का कोई अर्थ नहीं होता । ध्यान, स्वाध्याय और तपस्या-इन सबका विकास परिवर्तन के सिद्धांत के आधार पर हुआ है। 1 परिवर्तन का आधार परिवर्तन का आधार है - संकल्प की स्वतंत्रता । इस स्वतंत्रता ने ऐसा मार्ग दिया है, जिसमें न रूढ़िवाद के पनपने की जरूरत है, न निराशावाद के पनपने की जरूरत है और न पलायन की जरूरत है । जैन धर्म निरन्तर परिवर्तन की प्रक्रिया है । स्वयं को बदला जा सकता है, प्रत्येक क्षण बदला जा सकता है। इसी आधार पर स्वतंत्रता का सिद्धांत सार्थक बनता है । एकांगी धारणा जैन दर्शन ने कर्मवाद के सिद्धांत को स्वीकार किया, किन्तु कर्मवाद ईश्वरवाद का स्थान नहीं ले सकता । ईश्वरवादी कहते हैं - ईश्वर की इच्छा के बिना कुछ भी नहीं होता, एक पत्ता भी नहीं हिलता । यदि जैन दर्शन यह मान ले कि कर्म के बिना कुछ भी नहीं होता तो ईश्वरवाद और कर्म के सिद्धांत में कोई अंतर नहीं रह पाता । कर्म स्वयं ईश्वर के स्थान पर बैठ जाता है । जो कुछ होता है वह सब कर्म से होता है। यह बिल्कुल एकांगी धारणा है | जैन दर्शन के अनुसार यह सही नहीं है, उचित नहीं है । कर्मवाद से सब कुछ नहीं होता। कर्म का स्थान सीमित है। एक सीमित स्थान में कर्म से कुछ होता है, किन्तु सब कुछ नहीं होता। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा कर्म का कर्तृत्व नहीं है कर्म हमारी कृति है किन्तु कर्तृत्व उसका नहीं है । कर्तृत्व है आत्मा का । कृति का प्रभुत्व नहीं हो सकता । प्रभुत्व कर्तृत्व का हो सकता है । यदि व्यक्ति द्वारा किया हुआ कर्म सब कुछ बन जाए तो कर्ता गौण बन जाए। कर्ता का तो कोई अर्थ ही नहीं रहे। कर्म में कर्तृत्व नहीं है । कर्तृत्व व्यक्ति के भीतर संकल्प में है । यदि कृति और कर्ता का भेद स्पष्ट होता है तो कर्म को उतना ही मूल्य मिलेगा, जितना कि उसका मूल्य है । मिथ्या अवधारणाएं 1 भगवान महावीर ने कर्म को बहुत लचीला माना है। कहा गया- ' - 'सुचिन्ना कम्मा सुचिन्ना फला भवंति दुचिन्ना कम्मा दुचिन्ना फला भवंति ।' अच्छे काम का अच्छा फल होता है और बुरे कर्म का बुरा फल होता है - यह एक सामान्य बात है किन्तु इसके अपवाद बहुत हैं । कृत कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता, यह भी एक सामान्य सिद्धांत है। जब तक कर्म के सारे अपवादों को, विशेष नियमों को नही जाना जाता तब तक कर्म की बात पूरी समझ में नहीं आती। कर्म को सब कुछ मान लेने पर एक निराशावादी धारणा, भाग्यवादी धारणा बन जाती है और आदमी अकर्मण्य होकर बैठ जाता है। यह मिथ्या धारणा है । वह सोचता है-मैं क्या करूं? कर्म का फल ऐसा ही था, कर्म का योग ऐसा ही था। मेरे कर्म में ऐसा ही लिखा था । २२३ कर्मवाद में पुरुषार्थ का मूल्य पुरुषार्थ और कर्मवाद को कभी अलग नहीं किया जा सकता । ईश्वरवादी धारणा में अगर पुरुषार्थ नहीं होता है तो आश्चर्य की बात नहीं है किन्तु यदि कर्मवादी में पुरुषार्थ नहीं होता है तो इससे बड़ा कोई आश्चर्य नहीं । यह बहुत बड़ा आश्चर्य है । पुरुषार्थ और कर्मवाद का जोड़ा है। उन्हें कभी अलग नहीं किया जा सकता किन्तु कर्मवाद को सही न समझने के कारण पुरुषार्थीवादी दर्शन भी अकर्मण्य दर्शन जैसा बन जाता है । महावीर पुरुषार्थवाद के सशक्त प्रवक्ता भगवान महावीर ने कर्म के विषय में अनेक सिद्धांत दिए । पुरुषार्थ के द्वारा कर्म को भी बदला जा सकता है। एक व्यक्ति ने बहुत अच्छा कर्म किया, क्षयोपशम भी हुआ और पुण्य का बन्ध भी हो गया। किंतु कुछ समय बाद उसने बहुत बुरे कर्म किए और उसका परिणाम हुआ उसने जो अच्छा किया, वह बुरे में संक्रांत हो गया। एक व्यक्ति ने बहुत बुरा किया, किंतु उसने बाद में बहुत अच्छे कार्य Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जैन दर्शन और विज्ञान किए, यह सम्भव है कि उसका बुरा कर्म अच्छे में संक्रांत हो जाए । यह संक्रमण का सिद्धांत है । 1 यह संक्रमण का सिद्धांत है । कर्म के विषय में यह एक अपवाद है और यह पुरुषार्थ से सम्भव बना है। जैन दर्शन ने निरन्तर पुरुषार्थ पर बल दिया । भगवान महावीर ने कहा- पुरुष ! तु पराक्रम कर ! यह परम पुरुषार्थ की प्रेरणा भाग्यवाद का चकनाचूर कर देने वाली प्रेरणा है । भारतीय चिंतन और दर्शन में पुरुषार्थवाद पर जितना बल महावीर ने दिया, उतना किसी दूसरे ने दिया या नहीं, यह खोज का विषय है । नियामक कौन ? कर्मवाद और पुरुषार्थवाद - इन दोनों का अस्वीकार है ईश्वरवाद । जहां ईश्वरवाद है वहां न कर्मवाद की आवश्यकता है और न पुरुषार्थ की आवश्यकता है। जब ईश्वरवाद में ईश्वर के द्वारा सही अवस्था नहीं बैठी तो कर्मवाद को भी बीच में लाना पड़ा। पूछा गया—अच्छा और बुरा फल आदमी कैसे भुगतता है ? उत्तर दिया - ईश्वर 'भुगताता है। पुनः प्रश्न उभरा - ईश्वर किसी को अच्छा या बुरा फल क्यों देता है ? उत्तर दिया गया- व्यक्ति जैसा कर्म करता है, ईश्वर उसको वैसा ही फल देता है । गया कर्मवाद के बिना व्यवस्था संगत हो ही नहीं सकती। इसलिए ईश्वरवाद में भी कर्मवाद को मानना पड़ा । आखिर सब कुछ कर्मवाद से होना है। अच्छे और बुरे का नियामक कर्म है तो उसके लिए किसी ईश्वर को बीच में लाने की आवश्यकता नहीं है । कर्मवाद से जो हो जाता है उसके लिए किसी ईश्वर की और अपेक्षा करना प्रक्रिया - गौरव है। तर्कशास्त्र में कहा गया--- प्रक्रियागौरवं यत्र, तं पक्षं न सहामहे । प्रक्रियालाघवं यत्र, तं पक्षं रोचयामहे । जिसमें प्रक्रिया का गौरव होता है, उस पक्ष को सहन नहीं किया जा सकता । जिसमें प्रक्रिया का लाघव होता है, वही पक्ष रुचिकर हो सकता है । विज्ञान भी प्रक्रिया- गौरव को स्वीकार करता है। न्यूनतम नियमों से किसी प्रक्रिया की व्याख्या करना वैज्ञानिक सिद्धांत है । वास्तविक सचाई : व्यावहारिक सचाई 'सब जीव समान है' यह निश्चयनय की बात है, वास्तविक सचाई है, व्यावहारिक सचाई नहीं है । व्यवहारनय की दृष्टि से सब जीव समान नहीं है । उनमें भेद है और वह भेद कर्मकृत है-कर्म के द्वारा वह भेद किया गया है। एक Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा २२५ एकेन्द्रिय जीव है, एक पंचेन्द्रिय जीव है। एक समनस्क है, एक समनस्क है। एक बहुत विकासशील है, एक बहुत अवरुद्ध विकास वाला है। यह जो विकास का तारतम्य है. भेद है वह सार कर्म के द्वारा होता है। प्रत्येक आत्मा की स्वभावगत समानता और कर्मकृत विविधता-निश्चय-नय और व्यवहारनय की दृष्टि से ये दोनों सचाइयां मान्य हैं। आचारांग सूत्र में कहा गया है-कोई आत्मा हीन नहीं है, कोई आत्मा अतिरिक्त नहीं है। इसका अर्थ है-वास्तविक दृष्टि में कोई आत्मा हीन नहीं, कोई अतिरिक्त नहीं। व्यवहार दृष्टि से हीन भी है और अतिरिक्त भी है। ये सारी सचाइयां कर्मवाद के सन्दर्भ में ही स्पष्ट हो पाती हैं। इसलिए कर्मवाद जैन दर्शन का एक प्रमुख सिद्धांत बन गया। उसका सहचारी सिद्धांत है पुरुषार्थवाद के कर्मवाद और पुरुषार्थवाद को आधार पर उसने ईश्वरवाद के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया। आधुनिक विज्ञान आधुनिक विज्ञान ने ईश्वर-कर्तृत्ववाद के स्थान में प्रकृति के नियमों को प्रतिष्ठित किया गया है। प्रकृति के सारे रहस्यों के उद्घाटन का दावा विज्ञान नहीं करता। अभी आत्मा, कर्म (पुद्गल) आदि के विषय में विज्ञान का अनुसन्धान जारी (३) कार्य-कारणवाद एक कपड़ा है। प्रश्न हुआ-कपड़ा किससे बनता है?' उत्तर मिला-रूई से बनता है।' 'रूई कहां से आई? कपास के पौधे से। कपास का पौधा किससे बना?" 'वनस्पति के जीव और पुद्गल-दोनों का योग मिला, कपास का पौधा बन गया।' __ कपड़े का कारण है रूई, रूई का कारण है कपास और कपास का कारण है जीव तथा पुद्गल का योग। प्रश्न और आगे बढ़ा-जीव किससे बना, परमाणु किससे बना। प्रश्न रुक जाता है, थम जाता है। इसका कोई उत्तर नहीं हो सकता। जीव के बारे में कोई कारण नहीं बताया जा सकता, परमाणु के बारे में कोई कारण नहीं बताया जा सकता। कारण की खोज यहां समाप्त हो जाती है। ___जीव कार्य नहीं है और उसका कोई कारण नहीं है। परमाणु कार्य नहीं और उसका भी कोई कारण नहीं है। तर्कशास्त्र का सिद्धांत है-हर वस्तु में Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जैन दर्शन और विज्ञान कार्य-कारण खोजो। वह एक स्थूल तथ्य है। व्यवहार के क्षेत्र में यह नियम लागू हो सकता है किन्तु सूक्ष्म जगत् में कार्य-कारण के सिद्धांत का कोई अर्थ नहीं है । सूक्ष्म जगत् में न कोई किसी का कारण होता है और न कोई किसी का कार्य । जीव और परमाणु का अपना अस्तित्व होता है और उनका कोई कारण नहीं होता। यदि परमाणु का कोई कारण माना जाए तो कारण की श्रृंखला अनन्त बन जायेगी। वह कहीं थमेगी ही नहीं। तर्कशास्त्र में इसे अनवस्था दोष कहा जाता है। जीव का कारण मानने पर भी कार्य-कारण की श्रृंखला का कहीं अन्त नहीं होगा। प्रश्न निरपेक्ष सत्य का सत्य के दो प्रकार है-सापेक्ष सत्य और निरपेक्ष सत्य। कुछ दार्शनिकों ने कहा-जैन दर्शन में जितने सत्य हैं, वे सारे सापेक्ष हैं। कोई निरपेक्ष सत्य नहीं है। ईश्वरवादी ईश्वर को निरपेक्ष सत्य मानते हैं किन्तु जैन दर्शन में निरपेक्ष सत्य का कोई स्थान नहीं है। कपड़ा सत्य है किन्तु सापेक्ष सत्य है। अभी कपड़ा है और वह दस दिन में बदल जाएगा सब कुछ सापेक्ष। वस्तुत: निरपेक्ष सत्य क्या है? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न रहा है यदि इस प्रश्न पर तात्त्विक दृष्टि से विचार किया जाए तो जैन दर्शन के सामने यह कोई उलझन नहीं है। उसमें दोनों सत्य स्वीकार्य है। पञ्चास्तिकाय निरपेक्ष सत्य है वह किसी की अपेक्षा से नहीं है, किसी कारण से नहीं है। वह कारण और अपेक्षा से मुक्त एक अहेतुक सत्य है। उसके पीछे कोई अपेक्षा नहीं है, कोई हेतु नहीं है। वह अपने स्वभाव से सत्य है। अस्तित्व स्वाभाविक है, वहां कार्य-कारण का सिद्धांत समाप्त हो जाता है। अनादि परिणमन है निरपेक्ष सत्य जैन दर्शन का एक सिद्धांत है-पारिणामिक भाव। उसे दो भागों में विभक्त किया गया-अनादि पारिणामिक और सादि पारिणामिक । जो मूल तत्त्व हैं, अस्तित्व हैं, वे अनादि पारणिामिक हैं। उनके परिणमन का आदि बिन्दु किसी को ज्ञात नहीं हैं अस्तित्व का निरन्तर परिणमन होता रहता है। अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता रहता है, उसका कोई आदि बिन्दु नहीं खोजा जा सकता। पंचास्तिकाय, काल, लोक-अलोक ये सब अनादि पारिणामिक है। दूसरा है सादि पारिणामिक । मकान बना। पहले मकान नहीं था, मकान बन गया-यह सादि परिणमन है। कपड़ा नहीं था, कपड़ा बन गया, यह सादि परिणमन है। मनुष्य नहीं था, मनुष्य बन गया-यह सादि परिणमन है। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा २२७ निराधार भ्रम जितने सादि परिणमन हैं, उनमें कार्य-कारण को खोजा जा सकता है। जितने अनादि परिणमन हैं, उनमें कार्य-कारण को खोजने की कोई अपेक्षा नहीं होती। सादि परिणमन है सादि सत्य और अनादि परिणमन है निरपेक्ष सत्य। जैन दर्शन में निरपेक्ष सत्य की स्वीकृति नहीं है' यह भ्रम निराधार है, अहेतुक है। जैन दर्शन में निरपेक्ष सत्य का स्पष्ट उद्घोष है। जितने मूल अस्तित्व हैं, अनादि परिणमन हैं, वे सब निरपेक्ष सत्य हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल-ये सब निरपेक्ष सत्य हैं। लोक और अलोक भी निरपेक्ष सत्य हैं। इनके अतिरिक्त जितने भी सादि परिणमन हैं, वे सब सापेक्ष सत्य हैं। सापेक्ष सत्य में ही कार्य-कारण को खोजा जा सकता है। कारण के तीन प्रकार तर्कशास्त्र में तीन प्रकार के कारण माने गये हैं-उपादान कारण, निमित्त कारण और निवर्तक कारण, सहयोगी या सहकारी कारण। घड़ा बनाया जाता है, उसका उपादान कारण है मिट्ठी। उसका निवर्तक कारण है कुम्हार । उसके बनाने में जिन उपकरणों का प्रयोग होता है, वे हैं निमित्त कारण। जितने सादि परिणमन हैं उनमें इन तीनों कारणों को खोजा जा सकता है किन्तु यह आवश्यक नही है कि तीनों कारण सर्वत्र उपलब्ध हों। उपादान कारण का होना अत्यन्त अनिवार्य है। सादि परिणमन और निमित्त भी अनिवार्य है। किन्तु निवर्तक सर्वत्र हो, यह आवश्यक नहीं है। घड़े और मकान के निर्माण में कर्ता की जरूरत होती है। आकाश में बादल बनते हैं। उनका कोई कर्ता नहीं है। यह स्वाभाविक परिणमन है। जहां स्वाभाविक परिणमन होता है, वहां कर्ता की जरूरत नहीं होती, दो कारण मिलकर कार्य की निष्पत्ति कर देते हैं। जो कार्य स्वाभाविक नहीं होते हैं, कृत होते हैं, उनमें तीनों कारण उपलब्ध होते हैं। सृष्टि के निर्माण का प्रश्न कार्य और कारण की श्रृंखला पर अनेकांत दृष्टि से विचार आवश्यक है। अनेक दार्शनिक सर्वत्र कार्य-कारण की अनिवार्यता स्वीकार करते हैं। सृष्टि का प्रारम्भ ईश्वर से होता है ईश्वर कर्ता है और सृष्टि उसका कार्य है। इससे उपादान का प्रश्न और अधिक उलझ जाता है। ईश्वरवाद और कार्य-कारणवाद का भी परस्पर एक संबंध रहा है। कार्य-कारणवाद के आधार पर ईश्वर को स्वीकार किया जाता है। एक तर्क प्रस्तुत होता है-'घड़ा एक कार्य है तो उसका कर्ता भी होना Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जैन दर्शन और विज्ञान चाहिए। अगर सृष्टि कार्य है तो उसका कर्ता भी होना चाहिए। और उसका जो कर्ता है, वही ईश्वर है। यह तर्क भी बहुत सुलझा हुआ नहीं है। इस सन्दर्भ में अनेक प्रश्न उभर जाते हैं। ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण किया है। उसने संकल्प से किया या उपादान से? अगर उपादान मौजूद थे और सृष्टि का निर्माण किया तो परमाणुओं के संघात से किया या ऐसे संकल्प से ही कर दिया? ईश्वर ने संकल्प किसा और सृष्टि बन गई। कामघट की कहानी विश्रुत है। चिन्तामणि व्यक्ति के पास है, संकल्प किया और सृष्टि तैयार हो गई, वस्तु तैयार हो गई। क्या संकल्प से सृष्टि का निर्माण हुआ या परमाणुओं के संघात से सृष्टि का निर्माण हुआ? यह दार्शनिक जगत् का बहुचर्चित प्रश्न हैं। उपादान मूल कारण है ___ यदि परमाणु आदि की सामग्री से सृष्टि का निर्माण हुआ है तो इसका अर्थ होगा ईश्वर भी अनादि है और परमाणु आदि का जगत् भी अनादि है। इस दृष्टि से सृष्टि का निर्माण कोई विशेष बात नहीं है। जैसे एक कुम्हार घड़ा बनाता है, एक शिल्पी मूर्ति का निर्माण करता है वैसे ही किसी ने सृष्टि का निर्माण कर दिया। इसे विलक्षण घटना नहीं माना जा सकता। प्रश्न है सामग्री का। सामग्री, उपादान मूल कारण है। उसे अनादि माने बिना कहीं व्यवस्था बैठती नहीं है। जैन दर्शन का यह स्पष्ट अभ्युपगम है-प्रत्येक पदार्थ अनादि है। चेतन और अचेतन-दोनों अनादि है। कार्यकारण सर्वत्र मान्य नहीं जैन दर्शन की दूसरी महत्त्वपूर्ण स्वीकृति है-जितने पदार्थ कल थे, उतने ही आज हैं, उतने ही आगे रहेंगे। एक भी परमाणु न कम होगा और न ज्यादा होगा। जितने थे, उतने हैं और उतने ही रहेंगे। यह त्रैकालिक व्यवस्था है। न किसी को बनाने की जरूरत और न किसी को नष्ट होने की अपेक्षा। न कोई बनता है और न कोई बिगड़ता है, केवल परिवर्तन होता है, परिणमन होता है, रूपांतरण होता है। सब अपने स्वरूप में हैं। इसी आधार पर अनेकांत के इस सिद्धांतनित्या-नित्यवाद का विकास हुआ। अस्तित्व की दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ नित्य है और दर्शन की दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ अनित्य है। जैन दर्शन के अनुसार न किसी को नित्य कहा जा सकता है और न किसी को अनित्य कहा जा सकता है। अगर परमाणु नित्य है तो आत्मा भी नित्य है। यदि परमाणु अनित्य है तो आत्मा भी अनित्य है। अगर आत्मा मरता है तो परमाणु भी मरता है और परमाणु अमर Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा २२९ है तो आत्मा भी अमर है। आत्मा और परमाणु - दोनों अमर हैं, दोनों मरणधर्मा हैं । इन दोनों में परिवर्तन होता भी है, परिवर्तन नहीं भी होता । जैन दर्शन में कार्यकारण को सर्वत्र नियमित नहीं किया गया। प्रत्येक कार्य के पीछे कारण होना चाहिए, यह सिद्धांत जैन दर्शन में सम्मत नहीं है। जहां केवल सादि परिणमन होता है, वहां यह सिद्धांत लागू हो सकता है । अन्यत्र इसकी कोई अपेक्षा नहीं है। जगत् : दार्शनिक जगत् का अहं प्रश्न दार्शनिक जगत् का एक अहं प्रश्न है - यह जगत् क्या है? जिस जगत् में हम जी रहे हैं वह क्या है? इसका बहुत सीधा उत्तर है - अनादि और सादि परिणमन का योग, इसका नाम है जगत् । कुछ अनादि परिणमन हैं, वे सूक्ष्म हैं, तत्त्व हैं । जो मूल तत्त्व हैं, सूक्ष्म हैं वे अदृश्य रूप में काम आ रहे हैं। जीव सूक्ष्म तत्त्व है, परमाणु सूक्ष्म तत्त्व है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय - ये अमूर्त हैं । पुद्गल मूर्त हैं । 1 जगत् को दो भागों में बांटा गया - दृश्य जगत् और अदृश्य जगत् । चार तत्त्वों का जगत् अदृश्य जगत् है, काल भी अदृश्य है। केवल पुद्गल का जगत् दृश्य बनता है। किन्तु सभी पुद्गल हमारे लिए दृश्य नहीं बनते। दो प्रकार की परिणतियां होती हैं-एक सूक्ष्म परिणति और दूसरी स्थूल परिणति । जिन पुद्गलों की परिणति स्थूल बन जाती है, उन्हें आंख के द्वारा देखा जा सकता । जिनकी परिणति सूक्ष्म रहती है, उन्हें आंख के द्वारा नहीं देखा जा सकता । जैसे-जैसे शक्ति का विकास होता है, अदृश्य दृश्य बनते चले जाते हैं । चर्मचक्षुओं से जिन वस्तुओं को नहीं देखा जा सकता, उन्हें वर्तमान में माइक्रोस्कोप के द्वारा देखा जा सकता है, सूक्ष्म यान्त्रिक उपकरणों के द्वारा देखा जा सकता है। हमारी इन्द्रियों की पटुता यन्त्र के माध्यम से और अधिक बढ़ जाती है। एक अतिशयज्ञानी, अवधि - ज्ञानी और मनः : पर्यवज्ञानी सूक्ष्म पुद्गलों को देख सकता है। अमूर्त पदार्थ को सर्वज्ञ के सिवाय कोई नहीं देख सकता। अवधि, मन: पर्यव, प्रातिभ जातिस्मरण आदि ज्ञान से सम्पन्न व्यक्ति सूक्ष्म पुद्गलों को देख सकते हैं । जो पुद्गल चर्मचक्षु के विषय नहीं बनते, वे अतीन्द्रिय ज्ञान का विषय बन जाते हैं । दृश्य जगत् क्या है? सारा दृश्य जगत् दो भागों में बंट जाते हैं-चक्षु से देखा जाने वाला दृश्य जगत् और अतिशय ज्ञान के द्वारा देखा जाने वाला दृश्य जगत् । अदृश्य दृश्य कैसे बनता है? सूक्ष्म स्थूल परिणति कैसे होती है? सूक्ष्म को स्थूल कौन करता है? ये प्रश्न भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । जैन दर्शन ने इन पर बहुत सूक्ष्मता से विचार Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जैन दर्शन और विज्ञान किया है। इनमें ईश्वर-कर्तृत्व स्वीकार करने की कोई अपेक्षा नहीं है। सूक्ष्म से स्थूल बनने की प्रक्रिया जीव और पुद्गल के संयोग से स्वाभाविक रूप से स्वत: चलती है, चल रही है । सारा दृश्य जगत् जीव शरीर का जगत् है । एक कपड़ा वनस्पतिकायिक जीव का शरीर है। एक पत्थर पृथ्वीकायिक जीव का शरीर है। पानी, जो प्यास बुझाता है, अप्कायिक जीव का शरीर है। आग अग्नि - कायिक जीव का शरीर है । हवा चल रही है, स्पर्श के द्वारा उसका बोध होता है, वह वायुकायिक जीवों का शरीर है । मनुष्य सकायिक जीवों का शरीर है । इस जगत् का प्रत्येक दृश्य पदार्थ जीव का शरीर है । दृश्य जगत् के दो विकल्प बनते हैं- जीवित शरीर और जीवमुक्त शरीर । जितना दृश्य जगत् है, जो दिखाई दे रहा है, वह जीवयुक्त या जीवमुक्त शरीर है । प्रत्येक व्यक्ति जीवित शरीर को देखता है अथवा मृत शरीर को । दृश्य जगत् के ये दो ही विकल्प हैं । उसका तीसरा कोई विकल्प नहीं है । जैन दर्शन के दो प्रसिद्ध पारिभाषिक शब्द हैं- सचित्त और अचित्त । जिसमें जीवन विद्यमान हो, वह सचित्त शरीर है। जिसका जीव चला गया, जो मृत हो गया, वह अचित्त शरीर वाला होता है । यह नियम अत्यन्त व्यापक है कि जो दृश्य जगत् है, स्थूल जगत् है, वह सारा का सारा जीव का शरीर है । जीव के द्वारा उसका स्थूलीकरण हुआ है । (४) अनेकान्तवाद हम पर्याय को जानते हैं, द्रव्य को नहीं जानते । हमारा सारा दृष्टिकोण पर्यायवाची है । हम मनुष्य को जानते हैं, आत्मा को नहीं जानते। हम पशु को जानते हैं आत्मा को नहीं जानते। हम कीड़े-मकोड़े को जानते हैं, आत्मा को नहीं जानते । हम पेड़-पौधो को जानते हैं, आत्मा को नहीं जानते। पेड़-पौधे, कीड़े-मकोड़े, गाय-भैंस और आदमी मूल वस्तु नहीं हैं, मूल द्रव्य नहीं हैं ये सब पर्याय हैं। मूल द्रव्य सदा पर्दे के पीछे रहता है । जो सामने आता है, वह उसका एक कण या एक पर्याय होता है । हम पर्याय को देखते हैं, द्रव्य को नहीं देखते। इसीलिए हमारा आग्रह पर्याय में आबद्ध हो जाता है । सरल है पर्याय का दर्शन पर्याय का दर्शन बहुत सरल है। इसीलिए पर्यायवादी दर्शन बहुत वैज्ञानिक दर्शन लगता है | पर्यायवादी दर्शन जो सामने है, उसका निरूपण करता है और जो Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा २३१ सामने नहीं है, उसको अस्वीकार कर देता है। यह बहुत सीधा मार्ग है। जो सामने था, उसको व्याकृत कर दिया गया और जो सामने नहीं था उसको अव्याकृत कर दिया गया। यह पयार्यवादी दर्शन है। मनुष्य का एक पर्याय है किन्तु क्या वह पर्याय ही है? पर्यायवाद के आधार पर पहले और पीछे की बात नहीं सोची जा सकती, केवल वर्तमान की बात सोची जा सकती है। मनुष्य पर्याय है। उससे पहले क्या था और बाद में क्या होमा, पर्यायवाद के आधार पर इसका निर्धारण नहीं किया जा सकता। जो व्यक्ति अभी है, वह बाद में क्या होगा और वह पहले क्या था, यह पर्यायवादी दृष्टिकोण में नहीं सोचा जा सकता। दो दृष्टिकोण एक दर्शन का दृष्टिकोण है-जो दृश्य है, वह सचाई नहीं है। उस दर्शन का स्वर इस रूप प्रकट हुआ-ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या । ब्रह्म सत्य है और यह जगत् मिथ्या है। जो दिख रहा है, वह असार है, मिथ्या है। दूसरे दर्शन का दृष्टिकोण है-प्रत्येक पर्याय वर्तमान है, क्षणिक है। समाप्त होने के बाद कुछ भी नहीं होता। यह सिद्धांत पर्याय के आधार पर चलता है। जितने पर्याय हैं, वे सब मिथ्या हैं। एक दृष्टि से विचार करें तो पर्याय मिथ्या है, यह कहना भी असंगत नहीं है। पर्याय को मिथ्या कहा जा सकता है। जो अभी है वह बाद में नहीं भी हो सकता है। उसे मिथ्या, झूठ माना या धोखा मान लें तो कोई अस्वाभाविक बात नहीं लगती। हमारे सामने दो दृष्टिकोण हैं। एक दृष्टिकोण पर्याय को सत्य बतला रहा है और दूसरा दृष्टिकोण पर्याय को मिथ्या बतला रहा है। एक ओर जगत् मिथ्या और ब्रह्म सत्यं का घोष है तो दूसरी ओर जगत् सत्य और ब्रह्म अव्याकृत का उद्घोष है। ब्रह्म का कोई पता नहीं है, आत्मा का कोई पता नहीं है, जो दृश्य नहीं है, वह सत्य नहीं है। जो दृश्य है, वह सत्य है। पर्याय दृश्य है, द्रव्य दृश्य नहीं है। ज्ञेय तत्त्व दो हैं द्रव्य और पर्याय-इन दो आधार पर सारे विचारों का विकास हुआ है, सारे दर्शनों का विकास हुआ है। जितने भी दर्शन हैं वे या तो द्रव्यवादी हैं या पर्यायवादी। द्रव्यवादी दर्शन द्रव्य की व्याख्या कर रहे हैं, नित्य और शाश्वत की व्याख्या कर रहे हैं। पर्यायवादी दर्शन अनित्यवादी दर्शन है। तीसरा कोई दर्शन नहीं है। द्रव्यवादी दर्शनों ने द्रव्य की व्याख्या की और प्रत्येक द्रव्य को कूटस्थ नित्य बताया है। द्रव्य नित्य है। नित्य ही सत्य है, जो अनित्य है, वह सत्य नहीं है। एक सूत्र बन गया-शाश्वत सत्य और अशाश्वत मिथ्या। पर्यायवादी दर्शनों ने पर्याय की व्याख्या की। उनके लिए परिवर्तन सत्य है और जो नहीं बदलता है, वह असत्य होता है। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान जैन आचार्यों ने इस समस्या पर विचार किया । उन्हें लगा- दोनों दृष्टियां ठीक नहीं हैं। दोनों में कमियां हैं । ज्ञेय पदार्थ दो हैं- द्रव्य और पर्याय । इनके सिवाय जानने का कोई विषय ही नहीं है । सारा ज्ञेय विषय इन दो भागों में ही विभक्त होता है। विषय दो हैं तो जानने की दृष्टियां भी दो ही होंगी। द्रव्य को जानने वाली दृष्टि द्रव्यार्थिक नय है और पर्याय को जानने वाली दृष्टि पर्यायार्थिक नय है । अनेकांत और सम्यक् दर्शन २३२ प्रश्न होता है—सम्यक् दर्शन क्या है? द्रव्य को जानने वाली दृष्टि द्रव्य में अटक जाती है तो वह मिथ्या दर्शन है और पर्याय को जानने वाली दृष्टि पर्याय में अटक जाती है तो वह भी मिथ्या दर्शन है । द्रव्य को जानने वाली दृष्टि द्रव्य का प्रतिपादन करती है किन्तु पर्याय को अस्वीकार नहीं करती और पर्याय को जानने वाली दृष्टि पर्याय का प्रतिपादन करती है किन्तु द्रव्य को अस्वीकार नहीं करती। दोनों दृष्टियां परस्पर सापेक्ष हो जाती हैं। इसका नाम है सम्यक् दर्शन । निरपेक्ष दृष्टि मिथ्या दर्शन और सापेक्ष दृष्टि सम्यक् दर्शन । अनेकांत और सम्यक् दर्शन - दोनों समान अर्थ वाले बन जाते हैं । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक- दोनों दृष्टियां अलग-अलग होती हैं तो एकांतवाद होता है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक- दोनों दृष्टियां सापेक्ष होती हैं, संयुक्त हो जाती हैं तो अनेकांतवाद प्रस्तुत हो जाता है। दोनों दृष्टियों का अलग होना मिथ्या दर्शन है और दोनों दृष्टियों का संयुक्त होना सम्यक् दर्शन है I अनेकांत के निष्कर्ष जैन दर्शन ने द्रव्य और पर्याय की व्याख्या अनेकांत के आधार पर की। इसलिए जैन दर्शन न द्रव्यवादी है और न पर्यायवादी है । वह द्रव्य को भी स्वीकार करता है और पर्याय को भी स्वीकार करता है । इसी आधार पर जैन दर्शन के सन्दर्भ में कहा गया- वह न नित्यवादी है और न अनित्यवादी है किन्तु नित्यानित्यवादी है। वह न सामान्यवादी है और न विशेषवादी है किन्तु सामान्यविशेषवादी है। न कवादी है और न अनेकवादी है, किन्तु एकानेकवादी है। वह न अस्तिवादी है और न नास्तिवादी है, किन्तु अस्तिनास्तिवादी है । ये सारे निष्कर्ष अनेकांत के आधार पर फलित हुए हैं। 1 शाश्वतवाद की समस्या मूल दृष्टियां दो हैं- द्रव्यनय और पर्यायनय । जितना नित्यता का अंश है, जितना शाश्वत है, उसका प्रतिपादन करने वाली दृष्टि द्रव्य दृष्टि है, द्रव्यार्थिक दृष्टि है । जितना परिवर्तन का अंश है; जितना अनित्य है, उसका प्रतिपादन करने वाली Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा २३३ दृष्टि पर्यायार्थिक दृष्टि या पर्यायार्थिक नय है। दो ही तत्त्व प्रत्येक दर्शन के सामने हैं-नित्य और अनित्य, शाश्वत और अशाश्वत। जैन दर्शन शाश्वतवादी नहीं है। शाश्वतवादी को कुछ करने की जरूरत नहीं होती। साधना का विधान बनाने की जरूरत नहीं होती। आत्मा शाश्वत है, नित्य है, जैसा है वैसा रहेगा तो साधना की कोई आवश्यकता नहीं है। व्यक्ति साधना किसलिए करे? यदि आत्मा में परिवर्तन नहीं होता है तो साधना व्यर्थ है। यदि परिवर्तन होता है तो शाश्वतता का सिद्धांत खंडित हो जाता है। दोनों ओर से विरोध प्रस्तुत हो जाता है। एकांगी दृष्टिकोण में दोनों ओर से समस्या आती है। तर्क जैन आचार्यों का जैनाचार्यों ने एक तर्क प्रस्तुत कियानैकांतवादे सुखदुःखभोगो न पुण्य-पापे न च बंधमोक्षौ। एकांतवाद में सुख और दुःख का भोग नहीं हो सकता, बंध और मोक्ष नहीं हो सकता, पुण्य और पाप नहीं हो सकता। अगर आत्मा बदलता नहीं है तो यह नहीं माना जा सकता कि वह पहले दु:खी था और अब सुखी बन गया। पहले दु:खी था और अब सुखी बन गया। इसका अर्थ है कि आत्मा पहले एक अवस्था में था और अब दूसरी अवस्था में आ गया, परिवर्तन हो गया। अगर आत्मा परिवर्तित नहीं होता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि पहले दु:खी था, बाद में सुखी बन गया। पहले सुखी और बाद में दु:खी, यह स्थिति परिवर्तनशील पदार्थ में ही घटित हो सकती है। इसीलिए जैन दर्शन ने आत्मा को न सर्वथा शाश्वत माना और न सर्वथा अशाश्वत माना। आत्मा शाश्वत भी है और आत्मा अशाश्वत भी है। आत्मा शाश्वत है, इसलिए अनादिकाल से उसका अस्तित्व बना रहता है। आत्मा अशाश्वत है, इसलिए उसका अस्तित्व नाना पर्यायों में परिवर्तित होता रहता है। वह कभी सुखी बनता है और कभी दु:खी बनता है। वह कभी मनुष्य बनता है और कभी पशु बनता है। ___ यदि आत्मा शाश्वत ही है तो पुण्य और पाप की व्यवस्था घटित नहीं हो सकती। यदि शाश्वत ही है तो मानना होगा कि सारे संसार की हत्या करके भी आत्मा उसमें लिप्त नहीं हो सकता। क्योंकि वह शाश्वत है, जैसा है, वैसा ही रहता है, उसमें एक राई का भी फर्क नहीं पड़ता। इस स्थिति में न पुण्य की बात हो सकती है और न पाप की। व्यक्ति कुछ भी करे, न पुण्य होगा और न पाप होगा। यदि आत्मा शाश्वत है तो बंध किसका और मोक्ष किसका? ये सारे परिवर्तनशील पदार्थों में ही घटित हो सकते हैं। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जैन दर्शन और विज्ञान जैन दर्शन की भाषा जैन दर्शन के अनुसार जैसी एक आत्मा है, वैसा ही एक परमाणु है। बहुत बार कहा जाता है-आत्मा अमर है, शरीर मरता है, यह जैन दर्शन की भाषा नहीं है। आत्मा अमर है, यह सर्वथा सही नहीं है। एक परमाणु भी अमर है। कोई फर्क नहीं है। अगर परमाणु मरता है, शरीर मरता है तो आत्मा भी मरता है। प्रश्न होता है-शरीर क्या है? शरीर मूल द्रव्य नहीं है। शरीर एक पर्याय है। मूल द्रव्य है परमाणु। शरीर नहीं रहा, हम कहते हैं-अमुक व्यक्ति मर गया। वस्तुत: नष्ट कुछ भी नहीं हुआ। केवल रूपान्तरण हुआ। जो परमाणु शरीर में थे, वे शरीर के रूप में समाप्त हो गये और दूसरे रूप में बदल गए । एक सार्वभौम सिद्धांत है-जितने द्रव्य इस संसार में हैं, उतने ही हैं, उतने ही थे और उतने ही रहेंगे। एक भी परमाणु न अधिक होगा और न न्यून होगा। कुछ भी परिवर्तन नहीं होगा। परिवर्तन का सिद्धांत अपरिवर्तन के सिद्धांत से जुड़ा हुआ है। समस्या है-जो केवल द्रव्यार्थिक नय को मानकर चलते हैं, वे कभी परिवर्तन की व्याख्या नहीं कर सकते और जो केवल परिवर्तन को मानकर चलते हैं, वे मूल स्रोत की व्याख्या नहीं कर सकते। समन्वय की मौलिक दृष्टियां बौद्ध दर्शन पर्यायवाची दर्शन है। जब उसके सामने आत्मा आदि के प्रश्न आए तो उन्हें अव्याकृत कहकर टाल दिया गया। क्योंकि एकांतवाद के द्वारा उनकी सम्यक् व्याख्या हो नहीं सकती। जैन दर्शन ने इन दोनों दृष्टियों-द्रव्यार्थिक दृष्टि और पर्यायार्थिक दृष्टि का समन्वय किया। जैन दर्शन ने कहा-मूल तत्त्व भी है और पर्याय भी है। इसलिए उसने द्रव्य की व्याख्या भी की और पर्याय की व्याख्या भी की। उसने शाश्वत और अशाश्वत-दोनों का समन्वय साधा। आज के विचारक और विद्वान कहते हैं-जैन दर्शन मौलिक दर्शन नहीं है। यह दूसरे दर्शनों का समुच्चय है। दूसरे दर्शनों के विचारों का एक पुलिन्दा है। यह धारणा क्यों बनी? इसका आधार बना-जैन आचार्यों की समन्वय-दृष्टि । जैन आचार्यों ने समन्वय किया नयों के आधार पर। यह उनका समन्वयपरक दृष्टिकोण था। समन्वय का दृष्टिकोण जिन दृष्टियों से किया, वे उनकी अपनी मौलिक थीं। किन्तु जब समन्वय साधा तो दूसरों को लगा-सांख्य आत्मा को कूटस्थ नित्य मानता है। नित्यवादवेदांत का सिद्धांत भी है। अनित्यवाद बौद्धों का सिद्धांत है। जैनों ने नित्यवाद सांख्य और वेदांत से ले लिया और अनित्यवाद-पर्यायवाद बौद्धों से ले लिया। पर यह लेने का प्रश्न नहीं था। यह प्रश्न था समन्वय का। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा परिवर्तन : अपरिवर्तन _आचार्य सिद्धसेन ने लिखा-द्रव्यार्थिक नय बिलकुल सही है। यदि द्रव्यार्थिक नय बिलकुल सही है तो सांख्य का कूटस्थ नित्य भी बिलकुल सही है। पर्यायार्थिक नय बिलकुल सही है और यदि पर्यायार्थिक नय सही है तो बौद्ध का क्षणभंगुरवाद बिलकुल सही है। यदि एकांत नित्यवाद निरपेक्ष है और वह कहता है-केवल कूटस्थ नित्य ही सही है, परिवर्तन सही नहीं है, तो वह सम्यक नहीं है। यदि एकांत अनित्यवाद निरपेक्ष है और वह कहता है केवल परिवर्तन ही सम्यक् है, अपरिवर्तन सही नहीं है, तो वह भी सम्यक् नहीं है। परिवर्तन और अपरिवर्तन-दोनों का समन्वय करो, दोनों को एक साथ जोड़ दो तो दोनों सही हो जाएंगे। वैराग्य का आधार : परिवर्तनवाद वस्तु को देखने का यह दृष्टिकोण अनेकांत की अपनी मौलिकता है। हम द्रव्य को किस दृष्टि से देखें। एक मकान है। हम उसे किस दृष्टि से देखें। हम सोचें-मकान द्रव्य है या पर्याय। हमारा दृष्टिकोण यह होना चाहिए-मकान एक पर्याय है, हम जो कपड़ा पहने हुए हैं, वह एक पर्याय है। जो पर्याय होता है, वह परिवर्तनशील होता है। वैराग्य का विकास परिवर्तनवाद के आधार पर होता है। वैराग्य के विकास का बहुत बड़ा आधार बनता है पर्यायवाद। अभी एक कपड़ा साफ-सुथरा और बढ़िया लग रहा था किन्तु थोड़ी ही देर बाद वह मैला हो जाएगा। कुछ दिनों के बाद वह फट जाएगा और कुछ समय बाद वह समाप्त हो जाएगा। वह क्षणभंगुर है। शरीर की भी यही अवस्था है। हर पदार्थ की यही अवस्था है। एक पदार्थ अभी बहुत अच्छा है किन्तु कुछ ही समय के बाद वह बदल जाएगा, बिगड़ जाएगा। इस परिवर्तनवाद के आधार पर वैराग्य का विकास हुआ। शाश्वतवाद के आधार पर वैराग्य जैसी कोई चीज बनती ही नहीं है। जो शाश्वत है, जैसा है, वैसा ही रहेगा, इसमें क्या राग होगा और क्या विराग होगा? राग और विराग-दोनों परिवर्तनवाद के आधार पर बनते हैं। पर्याय कहां से आता है पर्यायार्थिक नय हमारे सामने स्पष्ट है। प्रश्न उपस्थित किया गया-पर्याय कहां से आता है? एक मनुष्य है। प्रश्न होता है-क्या वह मनुष्य ही है। वह मनुष्य से पहले भी कुछ है, उसके बाद भी कुछ है? इस खोज में चलें तो हम द्रव्य तक पहुंचेंगे। जो कपड़ा अभी है, क्या वह पहले भी था, बाद में भी होगा? इस खोज में चलें तो हम परमाणु तक पहुंचेंगे। यह मूल द्रव्य की खोज है, सूक्ष्मतम तत्त्व की खोज है। पर्याय Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जैन दर्शन और विज्ञान की खोज स्थूलतत्त्व की खोज है, सामने दिखने वाले पदार्थ की खोज है। हम केवल पर्याय या परिवर्तन पर अटके न रहें, मूल द्रव्य की खोज में आगे बढ़ते चले जाएं, इसके सिवाय कोई गंतव्य नहीं है। समाधान है अनेकान्त . जैन समाज को विरासत में जो एक महान् दर्शन मिला है, जगत् को देखने का एक सम्यक् और व्यापक दृष्टिकोण मिला है। यदि उसका सम्यक् प्रयोग किया जाए तो शायद अनेकांतवाद पूरे संसार को एक नया दृष्टिकोण और एक नया दर्शन दे सकता है। अनेकांत का यह दृष्टिकोण अनेक मिथ्या अभिनिवेशों, आग्रहों को मिटाने और एक सामंजस्यपूर्ण समाज की संरचना करने में बहुत सहयोगी बन सकता है, उपयोगी हो सकता है। अभ्यास १. नियमवाद से आप क्या समझते हैं? जन्म, मृत्यु और रोग के संदर्भ में नियमवाद की व्याख्या करें। २. क्या अमीरी और गरीबी के लिए अपने कर्म ही जिम्मेवार हैं? अपने उत्तर को सकारण स्पष्ट करें। ३. ईश्वरवाद और कर्मवाद में क्या अन्तर है? ४. जगत् (सृष्टि) की उत्पत्ति को कार्य-कारणवाद के द्वारा जैन दर्शन के आधार पर समझाइए। ५. द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय के आधार पर अनेकांतवाद के हार्द को स्पष्ट करें। ६. जैन दर्शन और विज्ञान के क्षेत्र में किए गए सत्य-मीमांसा के प्रयत्नों की तुलना करें। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : समय ६. जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा जैन दर्शन का दृष्टिकोण द्रव्य-मीमांसा जैन दर्शन में 'विश्व' के लिए 'लोक' शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'लोक' का व्युत्पत्तिजनक अर्थ है-जो देखा जाता है, वह लोक है। यह 'लोक' की केवल स्थूल परिभाषा है। लोक' की व्याख्यात्मक परिभाषा करते हुए कहा गया है : “ जिसमें छ: प्रकार के द्रव्य हैं, वह लोक है।'' इन छ: द्रव्यों के नाम इस प्रकार हैं : १. धर्मास्तिकाय : गति-सहायक द्रव्य २. अधर्मास्तिकाय : स्थिति-सहायक द्रव्य ३. आकाशास्तिकाय : आश्रय देने वाला द्रव्य ४. काल ५. पुद्गलास्तिकाय : मूर्त जड़ पदार्थ (Matter) ६. जीवास्तिकाय : चैतन्यशील आत्मा (Soul) इन छ: द्रव्यों की सह-अवस्थिति 'लोक' है। इस प्रकार की द्रव्य-मीमांसा जैन दर्शन की अपनी विशेषता है। छ: द्रव्यों में से काल को छोड़कर शेष पांच द्रव्य अस्तिकाय कहे गये हैं। 'अस्तिकाय' का तात्पर्य है कि ये द्रव्य सप्रदेशी-सावयवी हैं। 'काल' द्रव्य के प्रदेश नहीं होते; अत: उसे अस्तिकाय नहीं कहा गया है। इस कारण से कहीं-कहीं लोक की चर्चा करते हुए लोक को 'पंचास्तिकायरूप' बताया गया है। संक्षेप में जिसको हम 'विश्व' (युनिवर्स) की संज्ञा देते हैं, वह 'लोक' है। आकाश : लोक और अलोक ऊपर बताये गये छ: द्रव्यों में तीसरा द्रव्य आकाशास्तिकाय आकाश (स्पेस) का सूचक है। आकाशास्तिकाय को संक्षेप में आकाश भी कहा जा सकता है। इसकी परिभाषा करते हुए कहा गया है कि “वह द्रव्य, जो अन्य सभी द्रव्यों को अवगाह अथवा आश्रय देता है, उसको 'आकाश' कहते हैं।" आकाश वास्तविक द्रव्य है। द्रव्य की दृष्टि से आकाश एक और अखण्ड द्रव्य है अर्थात् उसकी रचना में सातत्य है। क्षेत्र की दृष्टि से आकाश अनन्त और असीम माना गया है। यह सर्वव्यापी है और इनके प्रदेशों की संख्या अनन्त है। काल की दृष्टि Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जैन दर्शन और विज्ञान से आकाश अनादि और अनन्त है अर्थात् शाश्वत है। स्वरूप की दृष्टि से आकाश अमूर्त है-वर्ण, गंध, रस, स्पर्श से रहित है अर्थात् अभौतिक है-भौतिक अथवा जड़ (मैटर) द्रव्य से भिन्न है; चैतन्य-रहित होने से अजीव है; गति रहित होने से अगतिशील है। समस्त आकाश-द्रव्य अन्य द्रव्यों के द्वारा अवगाहित नहीं है; अत: एक होने पर भी, अन्य द्रव्यों के अस्तित्व के कारण वह दो भागों में विभाजित हो जाता १. लोकाकाश। २. अलोकाकाश। आकाश का वह भाग, जो धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय-इन पांच द्रव्यों द्वारा अवगाहित है, वह लोकाकाश है। शेष भाग, जहां आकाश के अतिरिक्त और कोई द्रव्य नहीं होता, वह अलोकाकाश है। लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या असंख्यात है, अलोकाकाश के प्रदेशों की संख्या अनन्त है। लोकाकाश एक, अखण्ड सान्त और ससीम है। उसकी सीमा से परे अलोकाकाश एक ओर अखण्ड है तथा असीम-अनन्त तक फैला हुआ है। ससीम लोक चारों ओर से अनन्त अलोक से घिरा हुआ है। अर्थात् अलोक एक विशाल गोले के समान है, जिसकी त्रिज्या अनन्त है। इस कथन से यही अर्थ निकलता है कि धर्म, अधर्म आदि पांच द्रव्यों को धारण करने वाला यह विश्व (लोकाकाश) अनन्त आकाश-समुद्र में एक द्वीप के समान है। यहां पर यह बात ध्यान में रखनी आवश्यक है कि आकाश-लोक और अलोक-एक ओर अखण्ड द्रव्य है। अन्य द्रव्यों के अस्तित्व तर्क के आधार पर निम्न प्रकार से सिद्ध किया जा सकता है-लोकाकाश अथवा सक्रिय विश्व के अस्तित्व के विषय में कोई संदेह नहीं करता, क्योंकि वह इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्षतया जाना जाता है और सबके द्वारा ग्राह्य है। किन्तु यदि लोकाकाश का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है, तो अलोकाकाश का अस्तित्व स्वत: प्रमाणित हो जाता है, क्योंकि तर्कशास्त्र के अनुसार जिसका वाचक पद व्युत्पत्तिमान और शुद्ध होता है, वह पदार्थ सत् प्रतिपक्ष होता है। उदाहरणार्थ-जैसे अघट घट का प्रतिपक्ष है। घट' शब्द विधि-वाचक है; अघट निषेधवाचक है। इसी तरह अलोकाकाश लोकाकाश का निषेध-वाचक है-विपक्ष है; अत: अलोकाकाश का अस्तित्व लोकाकाश के साथ स्वीकृत हो जाता है। धन और ऋण ईथर छ: द्रव्यों में से प्रथम दो द्रव्य धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को हम Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व - मीमांसा २३९ क्रमश: धन ईथर (पाजिटिव ईथर ) और ऋण ईथर ( नेगेटिव ईथर ) कह सकते हैं । ये दोनों तत्त्व-धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित विश्व-सिद्धांत में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं । धर्मास्तिकाय वह तत्त्व है, जो लोक में सभी पदार्थों की सभी प्रकार की गति से असाधारण रूप में सहाय्य करता है। दूसरे शब्दों में वह का असाधारण माध्यम (मीडियम ) है । अधर्मास्तिकाय का लक्षण है - सब पदार्थों की स्थिति में- अगति में असाधारण रूप से सहाय्य करना । केवल 'ईथर' शब्द 'गति के माध्यम' के लिए प्रयुक्त होता है । गति और स्थिति को यदि हम अभिसमयानुसार 'धन' और 'ऋण' मान लें तो धर्मास्तिकाय को धन ईथर और अधर्मास्तिकाय को ऋण ईथर की संज्ञा दी जा सकती है । ये दोनों ईथर द्रव्य की दृष्टि से एक, अखण्ड और स्वतन्त्र वास्तविक द्रव्य हैं। क्षेत्र की दृष्टि से ये केवल लोकाकाश में व्याप्त हैं, अलोकाकाश में दोनों का ही अस्तित्व नहीं माना गया है; अत: जितनी लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या है, उतनी ही इनके प्रदेशों की संख्या है - अर्थात् 'असंख्यात' हैं । काल की दृष्टि से ये अनादि और अन्नत हैं अर्थात् शाश्वत हैं। स्वरूप की दृष्टि से ये अभौतिक हैं, अमूर्त हैं, अगतिशील हैं; चैतन्य - रहित हैं । आकाश द्रव्य का अस्तित्व अधिकांश दर्शन और विज्ञान निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं; जबकि धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व केवल जैन दर्शन ही स्वीकार करता है। जैन आगमों में इनके लिए तर्क पर आधारित प्रमाण दिए गए हैं। कार्य-कारणवाद के अनुसार प्रत्येक कार्य के लिए दो प्रकार के कारण आवश्यक हैं- उपादान और निमित्त । उपादान कारण वह है, जो स्वयं कार्यरूप में परिणत हो जाए। निमित्त कारण वह है, जो कार्य के निष्पन्न होने में सहायक हो । यदि किसी पदार्थ की गति होती है, तो उसमें उपादान कारण तो वह पदार्थ स्वयं है । किंतु निमित्त कारण क्या है ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए हमें कोई ऐसे पदार्थ की आवश्यकता हो जाती है, जिसकी सहायता पदार्थ की गति में अनिवार्य हो । यदि हवा आदि को निमित्त कारण माना जाए, तो यह एक नया प्रश्न उत्पन्न हो जाता है कि उनकी (हवा आदि की ) गति में कौनसा निमित्त कारण है? यदि इसी प्रकार किसी अन्य द्रव्य को निमित्त माना जाए, तो ऐसे कारणों की परम्परा चलती ही जाती है और 'अनवस्था दोष' ( Regresus ad infinitum) की उत्पत्ति हो जाती है, इसलिए ऐसे पदार्थ की आवश्यकता हो जाती है । जो स्वयं गतिमान् न हो । यदि पृथ्वी, जल आदि स्थिर द्रव्यों को निमित्त कारण के रूप में माना जाता है, तो भी यह युक्त नहीं होता है, क्योंकि ये पदार्थ समस्त लोकव्यापी नहीं हैं । यह आवश्यक है कि गति-माध्यम के रूप में जिस पदार्थ को माना जाता है, वह सर्वव्यापी Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० हो । इस प्रकार किसी ऐसे द्रव्य की कल्पना करनी पड़ती है, जो १. स्वयं गतिशून्य हो; २. समस्त लोक में व्याप्त हो; ३. दूसरे पदार्थों की गति में सहायक हो सके। I ऐसा द्रव्य धर्मास्तिकाय ही है । यहां यदि धर्मास्तिकाय का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार न करके आकाश द्रव्य को ही इन लक्षणों से युक्त माना जाए, तो भी एक बड़ी कठिनाई उपस्थित होती है । क्योंकि यदि आकाश द्रव्य ही पदार्थों की गति में सहायक हो, तो आकाश असीम और अनन्त होने के कारण गतिमान् पदार्थों की गति भी अनन्त आकाश शक्य हो जाती है- उनकी गति अबाधित हो जाती है । परिणामस्वरूप अनन्त आत्माएं और अनन्त जड़ पदार्थ अनन्त आकाश में निरंकुशतया गति करने लग जाते हैं और उनका परस्पर संयोग होना और व्यवस्थित, सांत और निर्वासित विश्व के रूप में लोकाकाश का होना, असम्भव हो जाता है । किन्तु इस विश्व का रूप व्यवस्थित है, विश्व एक क्रमबद्ध संसार (Cosmos) के रूप में दिखाई देता है, न कि अव्यवस्थित ढेर (Chaos ) की तरह। ये तथ्य हमें इस निर्णय पर ले जाते हैं कि विश्व की व्यवस्था का आधार किसी स्वतंत्र नियम पर है । परिणामस्वरूप हमें यह निर्णय करना पड़ता है कि पदार्थों की गति - अगति में सहायक आकाश नहीं, अपितु धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय नामक स्वतंत्र द्रव्य है । जैन दर्शन और विज्ञान जिस प्रकार गति- स्थिति के निमित्त के रूप में धर्म और अधर्म द्रव्यों की उपधारणा (पोस्च्युलेशन) आवश्यक है, उसी प्रकार लोक- अलोक के विभाजन में भी इनको माने बिना तर्कसम्मत समाधान नहीं मिलता। जैसे कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा है; 'लोक सीमित है और उससे आगे अलोक - आकाश असीम है। इसलिए पदार्थों की और प्राणियों की व्यवस्थित रूपरेखा को बनाए रखने के लिए आकाश के अतिरिक्त अन्य कोई तत्त्व होना चाहिए- यदि गति और अगति का माध्यम आकाश ही है, तो फिर अलोक - आकाश का अस्तित्व ही नहीं रहेगा और लोक व्यवस्था का भी लोप हो जाएगा।' लोक और अलोक का विभाजन एक शाश्वत तथ्य है; अत: इसके विभाजक तत्त्व भी शाश्वत होने चाहिए । कृत्रिम वस्तु से शाश्वत आकाश का विभाजन नहीं हो सकता; अत: ऊपर बताये गऐ छः द्रव्यों में ही विभाजक तत्त्व हो सकते हैं। यदि हम आकाश को ही विभाजक मानें तो यह उपयुक्त नहीं होगा, क्योंकि आकाश स्वयं विभज्यमान है, अत: वह विभाजन के हेतु नहीं बन सकता। यदि काल को विभाजक तत्त्व माना जाए तो भी तर्क-संगत नहीं होता, क्योंकि काल वस्तुतः (निश्चय दृष्टि से ) तो जीव और अजीव की पर्याय मात्र है । यह केवल औपचारिक द्रव्य है । व्यावहारिक लोक के सीमित क्षेत्र में ही विद्यमान है, जबकि नैश्चयिक काल लोक और अलोक ; Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा २४१ दोनों में है। जीव और पुद्गल गतिशील द्रव्य है अत: ये विभाजक तत्त्व के योग्य नहीं हैं। इस प्रकार छ: द्रव्यों में से केवल दो द्रव्य शेष रह जाते हैं, जो लोक-अलोक का विभाजन कर सकें। अत: धर्मास्तिकार्य और अधर्मास्तिकाय-ये दो द्रव्य आकाश का विभाजन करते हैं। जहां-जहां यह दो विद्यमान हैं, वहां-वहां जीव और पुद्गल गति करते हैं और स्थिर रहते हैं। जहां इनका अस्तित्व नहीं है, वहां किसी भी द्रव्य की गति और स्थिति सम्भव नहीं है। इस प्रकार लोकाकाश और अलोकाकाश का विभाजन हो जाता है। इसलिए कहा गया है-“धर्म और अधर्म को लोक तथा अलोक का परिच्छेद मानना युक्तियुक्त है। यदि ऐसा न हो, तो उनके विभाग का आधार ही क्या बने।" इस प्रकार धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय गति-स्थिति-निमित्तक और लोक-अलोक-विभाजक द्रव्यों के रूप में स्वीकार किए गए हैं। उक्त समय विवेचन को संक्षिप्त में इस प्रकार कहा जा सकता है : धर्मास्तिकाय (धन ईथर), अधर्मास्तिकाय (ऋण ईथर), आकाश, काल, पुद्गलास्तिकाय, और जीवास्तिकाय-इन छ: द्रव्यों से बना हुआ यह लोक परिमित है। इस लोक से परे आकाश-द्रव्य का अनन्त समुद्र है, जिसमें ईथरों के अभाव के कारण कोई भी जड़ पदार्थ या जीव गति करने में या ठहरने में समर्थ नहीं है। काल द्रव्य छ: द्रव्यों में काल-द्रव्य' एक ऐसा तत्त्व रहा है, जिसके स्वरूप के विषय में भी जैनाचार्य एकमत नहीं रहे हैं, जबकि आकाश, धर्म और अधर्म-इन तीन द्रव्यों के स्वरूप के विषय में विभिन्न जैनाचार्य प्राय: एक-मत हैं। 'काल' शब्द के विभिन्न अर्थ होते हैं, किन्तु जैन दर्शन की द्रव्य-मीमांसा में प्रयुक्त काल' शब्द का पर्यायवाची 'समय' है। वैसे 'समय' का पारिभाषिक अर्थ जैन दर्शन के अनुसार ‘काल का अविभाज्य अंश' है। किन्तु सामान्य व्यवहार में प्रयुक्त 'समय' शब्द 'काल' का ही सूचक है। जहां द्रव्यों की गणना आई है, वहां काल को भी गिना गया है। जहां अस्तिकायों का वर्णन है, वहां काल को नहीं गिना गया। श्वेताम्बर और दिगम्बर-परम्परा इस विषय में तो एकमत है ही कि 'काल' अस्तिकाय नहीं है। 'अस्तिकाय' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है; 'जीव, पुद्गल धर्म, अधर्म तथा आकाश-ये पांचों द्रव्य विद्यमान हैं। इसलिए इनको 'अस्ति' (है) ऐसा कहा गया है और ये 'काय' के समान बहु प्रदेशों को धारण करते हैं, इसलिए इनको 'काय' कहते हैं। 'अस्ति' तथा 'काय' दोनों को मिलाने से 'अस्तिकाय' होता है।'' अर्थात् ये पांच द्रव्य केवल अस्तित्ववान ही नहीं हैं या केवल प्रदेश-समूह ही नहीं है किन्तु दोनों में ही हैं; अत: ‘अस्तिकाय' संज्ञा से बताए गए हैं। इनके प्रदेशों के विद्यमानता के कारण ये तिर्यक-प्रचयस्कन्ध' के रूप में हैं और विस्तार इनका सहज गुण हो जाता है। धर्म, अधर्म, आकाश Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैन दर्शन और विज्ञान और जीव के स्कन्धों के परमाणु जितने काल्पनिक विभाग किए जाएं, तो आकाश के अनन्त और शेष तीनों के असंख्य होते हैं। ये विभाग 'प्रदेश' कहलाते हैं। इस प्रकार आकाश अनन्त प्रदेशात्मक और धर्म, अधर्म और एक जीव असंख्यात प्रदेशात्मक है। पुद्गल के परमाणु जब जुड़ते हैं, तब स्कन्धों का निर्माण होता है। दो परमाणुओं के मिलने से द्विप्रदेशी पुद्गल स्कन्ध बनता है यावत् अनन्त परमाणुओं के जुड़ने से अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध बनता है। इस प्रकार 'काल' को छोड़ कर शेष पांचों ही द्रव्यों के प्रदेश' होते हैं। केवल काल अप्रदेशी है। काल का केवल वर्तमान समय ही अस्तित्व में होता है। भूत समय तो व्यतीत हो चुका है-नष्ट हो चुका है और अनागत (भविष्य) समय अनुत्पन्न है। वर्तमान समय 'एक' होता है, इसलिए इसका तिर्यक्-प्रचय नहीं होता, अर्थात् काल 'अस्तिकाय' नहीं है। काल की वास्तविकता के विषय में जैनाचार्यों में परस्पर मतभेद रहा है। श्वेताम्बर-परम्परा में आचार्यों ने काल के दो भेद कर दिए हैं : व्यावहारिक काल और नैश्चयिक काल । नैश्चयिक काल अन्य द्रव्यों के परिवर्तन का हेतु है। जीव, पुद्गल आदि द्रव्यों में प्रत्येक समय में जो परिणमन होता रहता है-पर्याय बदलती रहती है, वह नैश्चयिक काल के निमित्त से है। दूसरे शब्दों में, नैश्चयिक काल को जीव और अजीव की पर्याय कहा गया है। जो जिस द्रव्य की पर्याय है, वह उस द्रव्य के अन्तर्गत ही है; अत: जीव की पर्याय जीव है और अजीव की पर्याय अजीव । इस प्रकार नैश्चयिक काल जीव भी है और अजीब भी है। काल का निरूपण जब निश्चय नय की दृष्टि से होता है, तब वह 'नैश्चयिक काल' कहलाता है; अत: वास्तविक काल 'नैश्चयिक काल' ही माना गया है। दूसरी ओर काल का जब व्यवहार नय की दृष्टि से निरूपण होता है, तब वह 'व्यावहारिक काल' कहलाता है। व्यावहारिक काल को 'द्रव्य' कहा गया है। काल को व्यवहार-दृष्टि से 'द्रव्य मानने का कारण यह है कि काल के कुछ एक उपकार अथवा लक्षण व्यवहार में अत्यन्त उपयोगी है और जो उपकारक' होता है, उसको द्रव्य कहा जा सकता है। जिन उपकारों के कारण काल 'द्रव्य' की कोटि में गिना जाता है, वे मुख्यतया पांच हैं : वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व। 'वर्तना' का अर्थ है-वर्तमान रहना-किसी भी पदार्थ के वर्तमान रहने का अर्थ यही है कि उसका अस्तित्व कुछ ‘अवधि' तक होता है। यह 'अवधि' शब्द का का ही सूचक है। यद्यपि 'काल' किसी भी द्रव्य को अस्तित्व की अवस्थिति प्रदान नहीं करता, फिर भी जिस अवधि तक पदार्थ रहता है, वह काल के उन सब क्षणों १. तीनों विमिति में विस्तार होने से तिर्यक्-प्रचय' कहलाता है। केवल एक ही वैमितिक विस्तार 'ऊर्ध्व-प्रचय' कहलाता है। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा २४३ की सूचक है, जिसमें पदार्थ का अस्तित्व बना रहता है, 'वर्तना' की तरह परिणमन' को भी 'काल' के बिना नहीं समझाया जा सकता। जब किसी पदार्थ में परिणमन होता है, तब स्वाभाविक रूप से उस परिवर्तन की कालावधि का सूचन हमें होता है। क्रिया' में गति आदि का समावेश होता है। 'गति' का अर्थ है-आकाश प्रदेशों में क्रमश: स्थान-परिवर्तन करना। अत: किसी भी पदार्थ की गति में स्थान-परिवर्तन का विचार उसमें लगने वाले काल के साथ किया जाता है। इसी प्रकार, अन्य क्रियाओं में भी समय का व्यय होता है। परत्व और अपरत्व अर्थात् 'पहले आना' और बाद में होना' अथवा 'पुराना' और 'नया'; ये विचार भी काल के बिना नहीं समझाये जा सकते। इस प्रकार व्यवहार में वर्तना आदि को समझने के लिए 'काल' को 'द्रव्य' माना गया है। व्यावहारिक काल गणनात्मक' है। काल के सूक्ष्मतम अंश समय से लेकर पुद्गल-परावर्तन तक के अनेक मान व्यावहारिक काल के ही भेद हैं। इनमें घड़ी, मुहर्त, अहोरात्र, मास, वर्ष आदि (अथवा सैकिण्ड, मिनिट, घण्टा आदि) के भेद भी समाविष्ट हैं। सूर्य-चन्द्र की गति के आधार से इनका माप किया जा सकता है। किन्तु जैन दर्शन के अनुसार विश्व के सब स्थानों में सूर्य-चन्द्र की गति नहीं होती है। एक मर्यादित क्षेत्र को छोड़कर शेष स्थानों में जहां ये आकाशीय पिण्ड अवस्थित हैं, वहां दिन, रात्रि आदि काल-मान नहीं होते। इसलिए यह माना गया है कि व्यावहारिक काल केवल समय-क्षेत्र' तक सीमित है। इस समय विवेचन का सारांश यह है कि काल स्वयं में कोई स्वतन्त्र 'वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता' नहीं है, किन्तु वस्तु-सापेक्ष वास्तविकताओं' का ही एक अंग-पर्याय है। कुछ अन्य आचार्यों की मान्यता के अनुसार नैश्चयिक काल वास्तविक द्रव्य है, जबकि व्यावहारिक काल नैश्चयिक काल की पर्याय-रूप है। दिगम्बर परम्परा में 'काल' के विषय में जो प्रतिपादन किया गया है, वह उक्त मन्तव्य से सर्वथा भिन्न प्रकार का है। दिगम्बर आचार्यों ने यद्यपि काल के दो भेद-नैश्चयिक और व्यावहारिक काल स्वीकार किए हैं, फिर भी इनकी परिभाषाएं भिन्न प्रकार से की हैं। सुप्रसिद्ध दिगम्बर आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती (ई. १०वीं शताब्दी) काल के विषय में लिखते हैं :" जो द्रव्यों के परिवर्तन-रूप, परिणाम-रूप देखा जाता है, वह तो व्यावहारिक काल है और वर्तना लक्षण' का धारक जो काल है, वह नैश्चियिक काल है। जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में रत्नों की राशि के समान परस्पर भिन्न होकर एक-एक स्थित हैं, वे कालाणु है और असंख्यात द्रव्य हैं।" नैश्चयिक काल, जो कि कालाणुओं के रूप में है, वास्तविक द्रव्य है और संख्या की Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जैन दर्शन और विज्ञान अपेक्षा से-असंख्यात है, क्योंकि लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं और प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित है। ये कालाणु एक-दूसरे से स्वतन्त्र हैं; इसीलिए काल द्रव्य अस्तिकाय नहीं बनता। कालाणु-रूप नैश्चयिक काल 'वर्तना' लक्षण के द्वारा जाना जाता है। प्रत्येक द्रव्य के समय-समय में होने वाले परिणमनों में उपादान कारण तो वे स्वयं ही होते हैं। किन्तु उन परिणमनों में निमित्त रूप से सहायक कालाणु होते हैं और उनकी इस सहकारिता को 'वर्तना' कहते हैं। कुछ एक आचार्यों के अनुसार द्रव्यों में होने वाले पर्याय-रूप परिवर्तनों में भी प्रति समय जो द्रव्य के धौव्य की अनुभूति होती है, वह वर्तना है। इस वर्तना लक्षण का धारक जो कालाण द्रव्य है, वह नैश्चयिक काल है। तात्पर्य यही है कि कालाणु के निमित्त से द्रव्यों में परिवर्तन (पर्याय) होता है और साथ-साथ उनके अस्तित्व की भी ध्रुव्रता बनी रहती है। कालाणु स्वयं भी उत्पत्ति, विनाश और धौव्य-रूप त्रिपुटी से युक्त माना गया हैं वर्तमान समय' की उत्पत्ति होती है, अतीत समय का विनाश और इन दोनों के आधारभूत कालाणु ध्रुव रह जाते हैं। इस प्रकार जो द्रव्य की परिभाषा है, वह कालाणु के लिए लागू होती है और परिणामस्वरूप कालाणु वास्तविक द्रव्य माना गया है। द्रव्यों में नवीन और प्राचीन आदि पर्यायों का समय. घडी. महत आदि रूप स्थिति को 'व्यावहारिक काल' की संज्ञा दी गई है। अर्थात् द्रव्य की पर्याय से सम्बन्ध रखने वाली जो समय, घटिका आदि रूप स्थिति है, वह स्थिति ही - व्यवहार काल' संज्ञा की धारक होती है, किन्तु जो द्रव्य की पर्याय है, वह व्यवहार काल' नहीं है। यह व्यावहारिक काल परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व, आदि लक्षणों से जाना जाता है; व्यावहारिक काल आदि और अन्त सहित होता है, जबकि नैश्चयिक काल (कालाणु) शाश्वत है-आदि-अन्त रहित है। व्यावहारिक काल स्वयं द्रव्य नहीं है। इस प्रकार नैश्चयिक काल (जो स्वतन्त्र द्रव्य है) के निमित्त से अन्य द्रव्यों में पर्यायरूप परिवर्तन होता है और इन पर्यायों की स्थिति से व्यावहारिक काल' जाना जाता है। अस्तु, श्वेताम्बर-परम्परा में नैश्चयिक काल को केवल जीव और अजीव की पर्याय रूप माना गया है। दिगम्बर-परम्परा में नैश्चयिक काल को वस्तु-सापेक्ष स्वतन्त्र वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया गया है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण : आपेक्षिकता के सिद्धान्त से पूर्व आइन्स्टीन के आपेक्षिकता के सिद्धांत (Theory of Relativity) से पूर्व वैज्ञानिक जगत् में 'आकाश और काल' सम्बन्धी एक सर्वमान्य सिद्धांत था, जो कि सर Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा २४५ आइजक न्यूटन (ई. १६४२-१७२७) द्वारा सर्वप्रथम दिया गया था । दार्शनिक गेसेण्डी के आकाश सम्बन्धी विचारों से प्रभावित होकर न्यूटन ने इस सिद्धांत की स्थापना की थी। अपनी विश्व-विख्यात पुस्तक 'प्रिंसिपिया' (Principia) में 'आकाश' और 'काल' का विवेचन करते हुए न्यूटन ने लिखा है : निरपेक्ष आकाश, अपने स्वभाव और बाह्य किसी वस्तु की अपेक्षा बिना, सदा एक-सा और स्थिर रहता है" और काल के सम्बन्ध में “निरपेक्ष, वास्तविक और गाणितिक काल अपने आप और स्वभावत: किसी बाह्य वस्तु की अपेक्षा बिना सदा समान रूप से रहता है।" न्यूटन की इन व्याख्याओं स्पष्ट हो जाता है कि न्यूटन ने आकाश और काल को स्वतंत्र वस्तु सापेक्ष वास्तविक तत्त्व माना है। इनका अस्तित्व न तो ज्ञाता पर निर्भर है और न अन्य भौतिक पदार्थों पर, जिनको वे आश्रय देते हैं अथवा सम्बन्धित करते हैं । “सभी वस्तुएं आकाश में स्थान की अपेक्षा से रही हुईं हैं।" न्यूटन के इस कथन का तात्पर्य यही है कि आकाश एक अगतिशील ( स्थिर) आधार के रूप में है तथा उसमें पृथ्वी और अन्य आकाशीय पिण्ड रहे हुए हैं। यह (आकाश) असीम विस्तार वाला है। चाहे वह किसी द्रष्टा (अथवा ज्ञाता) के द्वारा देखा जाये (अथवा अनुभव किया जाय) या नहीं और चाहे वह कोई पदार्थ द्वारा अवगाहित हो अथवा नहीं, इनकी अपेक्षा बिना स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में है और सदा से अस्तित्व में था । जो कुछ भी विश्व में हो रहा है, वह आकाश में हो रहा है। प्रत्येक भौतिक पदार्थ आकाश में ही कहीं-न-कहीं रहा हुआ है और उसमें ही वह अपना स्थान परिवर्तन कर सकता है। न्यूटन के अनुसार आकाश की रचना में सातत्य है; अर्थात् आकाश एक और अखण्ड' तत्त्व है । सर्वत्र एकरूप है, अर्थात भिन्न-भिन्न पदार्थों द्वारा अवगाहित होने पर भी उनके गुणों में परिवर्तन नहीं आता है । प्राचीन यूनानी गणितज्ञ युक्लिड के द्वारा भूमिति के जिन नियमों का आविष्कार किया गया था, वे नियम न्यूटन के आकाश में लागू होते हैं । न्यूटन की यह धारणा थी कि आकाश समतल ( flat ) है । अतः युक्लिडीय भूमिति के नियम इसमें कार्यक्षम होते हैं। आकाश में चलने वाली प्रकाश की किरणें सीधी रेखा में चलती हैं और एक दूसरे के समान्तर होने के कारण ये परस्पर में कभी नहीं मिल सकतीं । इस प्रकार के प्रकाशिकी सम्बन्धी नियम भी युक्लिडीय भूमिति के नियमों के आधार पर बनाये गए। इसके अतिरिक्त यांत्रिकी (Mechanics) के क्षेत्र में जहां पदार्थों की गति का प्रश्न आया, तो न्यूटन ने गति को निरपेक्ष बनाने के लिए स्थिर आकाश में संदर्भ के ढांचे (frame of reference) के रूप में काम में लिया। किसी भी पदार्थ की गति होती है, तब वह दूसरे पदार्थो की अपेक्षा में मानी जाती है । अब यदि कोई ऐसा पदार्थ न हो, जो कि स्वयं स्थिर हो, तो पदार्थों की गति सदा सापेक्ष बन जाती है । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जैन दर्शन और विज्ञान उदाहरणार्थ, पानी में जहाज चल रहा हैं; तो स्थूल दृष्टि से कहा जा सकता है की जहाज की गति पानी की अपेक्षा से होती है; किन्तु पृथ्वी की गति के कारण पानी भी स्थिर नहीं माना जा सकता। इस प्रकार जहाज भी चल रहा है और पानी भी । इससे आगे पृथ्वी की गति भी सूर्य की अपेक्षा से है; किन्तु सूर्य स्वयं ही गतिमान् है और अपने समस्त सौर मण्डल के साथ अन्तरिक्ष में घूम रहा है । इस प्रकार, स्थिर पदार्थ के अभाव में किसको गति की अपेक्षा का केन्द्र बनाया जाए? यह प्रश्न जब न्यूटन के सामने आया, तो सापेक्ष गति और निरपेक्ष गति के बीच भेद करने के लिए पहले तो उसने बताया कि यह सम्भव हो सकता है कि गतिशील नक्षत्रमण्डल से बहुत दूर अन्तरिक्ष में कोई ऐसा पदार्थ विद्यमान हो सकता है, जो कि निरपेक्षतया स्थिर हो और उसके संदर्भ में निरपेक्ष गति को समझाया जाय । किन्तु साथ ही उसने यह स्वीकार किया कि ऐसे कोई पदार्थ का ज्ञान हम निरीक्षण द्वारा तो करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं; अत: सबसे सरल हल यह है कि आकाश को ही स्थिर मानकर 'संदर्भ का ढांचा' बनाया जाय । 'काल' के विषय में भी न्यूटन के सिद्धान्त को वैज्ञानिक जगत् में मान्यता मिल गई । अन्यान्य दार्शनिक सिद्धान्तों की अपेक्षा में न्यूटन के काल - सम्बन्धी निरूपण में यह विशेषता थी कि इसमें काल एक स्वतन्त्र तत्त्व माना गया था । निरपेक्ष काल के निरूपण से न्यूटन ने आकाश और काल को एक दूसरे से स्वतन्त्र रखा है; अतः पदार्थों की गति से 'काल' के प्रवाह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । काल का प्रवाह तो अपने आप में सदा बिना किसी परिवर्तन के एक रूप से अनन्त भूत से अनन्त भविष्य तक चलता रहता है, यह न्यूटन का मन्तव्य था । आपेक्षिकता के सिद्धान्त का आविष्कार न्यूटन के 'निरपेक्ष आकाश' के सिद्धान्त से भौतिक विज्ञान में उपस्थित होने वाली समस्याओं का हल निकालने का प्रयत्न अठाहरवीं और उन्नीसवीं सदी के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया। इन समस्याओं में 'प्रकाश तरंगों' के प्रसार की समस्या मुख्य थी । प्रकाश तरंग के रूप में प्रसारित होता है, यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त था, किन्तु इसका प्रसार शून्य आकाश में किस माध्यम से होता है - यह प्रश्न उपस्थित होने पर वैज्ञानिकों को किसी ऐसे माध्यम की कल्पना करनी पड़ी, जो कि प्रकाश-तरंगों के प्रसार में सहायक हो। इस माध्यम को 'ईथर' कहा गया और माना गया कि ईथर एक ऐसा भौतिक तत्त्व है, जो कि समग्र आकाश में व्याप्त है और जो प्रकाश-तरंगों के प्रसार में उसी तरह सहायक होता है जिस तरह समुद्र की तरंगों के प्रसार में पानी होता है, अथवा ध्वनि के तरंगों के प्रसार में हवा होती है। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा २४७ इस प्रकार के ईथर-तत्त्व की कल्पना के बाद यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि जब गतिशील पदार्थ गति करते हैं, तब ईथर, जो कि सर्वत्र व्याप्त है, कि क्या स्थिति होती है? यदि वह भी पदार्थ की गति से प्रभावित होता है, तो उसमें से गुजरने वाली प्रकाश-तरगों पर भी उसका प्रभाव होना चाहिए। इस बात की सत्यता को परखने के लिए अनेक प्रकार के प्रयोग किए गये, जिसमें माइकलसन (Michelson) और मोर्ले (Morley) द्वारा किया गया प्रयोग (१८८१ ई.) उल्लेखनीय है। इस प्रयोग में गतिमान् पृथ्वी के ईथर से गुजरने से, ईथर पर क्या प्रभाव होता है, इसका प्रकाश-किरणों के द्वारा परीक्षण किया गया। . यदि आकाशीय पिण्ड ईथर के अनन्त समुद्र में सचमुच ही तैर रहे हैं, तो उनकी गति का वेग जानना सहज है। जैसे-एक वेगवाली नदी में एक नौका को एक किनारे से दूसरे किनारे तक ले जाने में जितना समय लगता है, उससे अधिक समय उस नौका को नदी के प्रवाह की दिशा में ले जाकर वापस लाने में लगेगा, भले ही दोनों बार समान दूरी तय की जाती हो। इस प्रकार यदि पृथ्वी ईथर में वस्तुत: घुमती है, तो प्रकाश की एक किरण पृथ्वी की गति की दिशा में चलती हुई दर्पण तक पहुंच कर वापस लौटने में अधिक समय लेगी, अपेक्षाकृत उसके कि किरण पृथ्वी-गति की दिशा के साथ लम्बकोण करके चलेगी। यदि वस्तुत: ईथर-तत्त्व पृथ्वी की गति से प्रभावित होता है (अर्थात् पृथ्वी की गति से ईथर का प्रवाह भी गति करने लगता है), तो प्रकाश की गति पर ईथर का प्रभाव होना जरूरी है और यह यन्त्रों द्वारा नापा जा सकता है। ईथर का अस्तित्व प्रायोगिक आधार पर सिद्ध किया जा सकता हैं। माइकलसन और मोर्ले के प्रयोगों से प्रकाश की गति पर पड़ने वाला ईथर का प्रभाव किसी भी रूप में सामने न आया। यह प्रयोग इसके बाद भी अनेक बार दुहराया गया। किन्तु परिणाम शून्य रहा। इसके परिणाम-स्वरूप ईथर के अस्तित्व के विषय में दो विकल्प रह गये : १. ईथर तत्त्व है और इस पर पृथ्वी की गति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता अर्थात् पृथ्वी स्थिर है। २. ईथर नाम का कोई तत्त्व नहीं है। प्रथम विकल्प को स्वीकार करने का अर्थ होता है-पृथ्वी की गति को अस्वीकार करना, जो वैज्ञानिकों के लिए असम्भव-सी बात थी। फिर भी दूसरी ओर ईथर को नहीं मानने से प्रकाश की तरंग-रूप में प्रसरण-क्रिया को नहीं समझाया जा सकता। इस प्रकार, जब कोई समाधान नहीं निकल रहा था, तब ई. १९०५ में यूरोप में एक छब्बीस वर्षीय नवयुवक वैज्ञानिक ने इसका सर्वग्राही समाधान दिया। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ जैन दर्शन और विज्ञान वह था, अल्बर्ट आइन्स्टीन । आइन्स्टीन ने 'आपेक्षिकता का सिद्धांत' (Theory of Relativity) नामक एक निबन्ध लिखा, जिसमें लोरन्ट्ज द्वारा दिए गए गाणितिक समीकरणों के आधार पर नए तथ्यों की स्थापना की गई। सर्वप्रथम आइन्स्टीन ने 'ईथर' की कल्पना को तिलांजलि दी। 'आकाश' को एक निरपेक्ष गतिशून्य तत्त्व न मानकर आइन्स्टीन ने बताया कि किसी भी प्रकार के प्रयोग से यह जानना अशक्य है कि अमुक पदार्थ की गति निरपेक्षतया क्या है?' इससे यह निष्कर्ष निकला कि विश्व में कोई भी पदार्थ निरपेक्षतया स्थिर नहीं रह सकता। पदार्थों की गति और स्थिति आपेक्षिक है। इसको विशिष्ट आपेक्षिकता का सिद्धांत (Special Theory of Relativity) कहते हैं। उक्त सिद्धांत के स्थापन में आइन्स्टीन ने इस परिकल्पना का आधार लिया कि प्रकाश की गति सदा अचल रहती है। इसको आइन्स्टीन में व्यापक रूप दिया और बताया कि “एक रूप में गति करने वाले निकायों ने प्रकृति के सभी नियम समान रूप से लागू होते हैं।' इसके परिणामस्वरूप किसी पदार्थ की निरपेक्ष गति क्या है-यह प्रकाश की गति की सहायता से अथवा अन्य किसी भी तरीकों से जानना अशक्य हो जाता है। दूसरी और प्रकाश की गति को सदा एकरूप ओर अचल मानने से 'ईथर' का अस्तित्व स्वत: समाप्त हो जाता है; क्योंकि यदि ईथर अस्तित्व में होता, तो उसकी गति का प्रभाव अवश्य प्रकाश की गति पर पड़ना चाहिए था। दूसरा तथ्य जो सामने आया, वह यह था कि प्रकाश की गति का वेग उत्कृष्टतम वेग है। विश्व में इससे अधिक वेग किसी भी पदार्थ का होना संभव नहीं है। प्रकाश का वेग जैसा कि पहले बताया गया था, एक निश्चित और परिमित ‘अचर' है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि किसी भी पदार्थ की स्थिति के निरीक्षण में लगने वाला काल चाहे कितना ही सूक्ष्म क्यों न हो, एक सीमा से कम नहीं हो सकता। आपेक्षिकता के सिद्धान्त के बाद : आकाश और काल आइन्स्टीन के 'आपेक्षिकता के सिद्धांत' ने भौतिक विज्ञान में अनेक बृहत् परिवर्तन ला दिए। इनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन 'आकाश' और 'काल' की धारणा सम्बन्धी थे। सुप्रसिद्ध जर्मन वैज्ञानिक मिन्काउस्की (Minkowski) ने 'आपेक्षिकता के सिद्धांत' का गाणितिक प्रतिपादन जिस रूप में किया, उससे यह तथ्य निकला कि विश्व 'आकाश-काल की एक सम्मिलित चतुर्वैमितिक सतता' (Fourdimensional continum of space and time) के रूप में है। अधिकांश रूप में गणित के साथ सम्बन्धित होने से तथ्य के यद्यपि व्यावहारिक भाषा में समझना अत्यन्त कठिन है, फिर भी उदाहरणों के द्वारा इसका स्पष्टीकरण किया जा सकता है। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा २४९ यह एक सामान्य तथ्य है कि कोई भी पदार्थ जब आकाश में स्थान रखता है, तो आकाश की तीनों ही विमितियों में अपनी लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई (अथवा गहराई) के कारण फैल जाता है । अब यदि पदार्थ स्थानान्तर करता है (अथवा गति करता है), तो दूसरे स्थान में जाने के लिए उसे कुछ समय लगता है । इस प्रकार पदार्थ की गति के निरूपण में हमें दोनों बातों का ज्ञान आवश्यक होता है-स्थान का और समय का। अत: समय (अथवा काल ) चतुर्थ विमिति के रूप में हो जाता है । अब आपेक्षिकता के सिद्धांत के अनुसार आकाश की तीन विमितियां और काल की एक विमिति मिलकर एक चतुर्वैमितिक अखण्डता का निर्माण करती है और हमारे वास्तविक जगत् में होने वाली सभी घटनाएं इस चतुर्वैमितिक सततता की विविध अवस्थाओं के रूप में सामने आती है । आकाश और काल एक दूसरे के साथ किस प्रकार जुड़े हुए हैं, इसको सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक हाइजनबर्ग ने बहुत सरल शब्दों में समझाया है : "जब हम भूत शब्द का प्रयोग करते हैं, तब उसका तात्पर्य यह होता है कि उसमें घटित सभी घटनाओं का ज्ञान करने के लिए हम समर्थ हैं, वे घटनाएं घट चुकी हैं। इसी प्रकार से जब हम 'भविष्य' का प्रयोग करते हैं, तो अर्थ होता है कि वे सभी घटनाएं, जो अब तक घटित नहीं हुई हैं, 'भविष्य' की हैं, जिनको हम प्रभावित करने में समर्थ हैं. इन परिभाषाओं का हमारे दैनन्दिन के शब्द-व्यवहार से सीधा सम्बन्ध है। अत: इस अर्थ में यदि हम इन शब्दों ('भूत' और 'भविष्य' ) का उपयोग करते हैं, तो बहुत सारे प्रयोगों के परिणामस्वरूप यह बताया जा सकता है कि 'भविष्य' और 'भूत' की घटनाएं द्रष्टा की गतिमान् अवस्था अथवा अन्य गुण-धर्मों से बिलकुल ही निरपेक्ष है ।........... . यह बात न्यूटन की यान्त्रिकी (Mechanics) में तथा आइन्स्टीन के 'आपेक्षिकता के सिद्धांत' में सत्य मानी जाती है। किन्तु दोनों में यह फर्क रह जाता है : पुरानी मान्यता में हम यह मान लेते हैं कि 'भविष्य' और 'भूत' के बीच में एक अतिसूक्ष्म (अनन्ततया सूक्ष्म) कालान्तर है, जिसको हम वर्तमान क्षण कहते हैं । परन्तु आपेक्षिकता के सिद्धांत में यह बात नहीं है। यहां पर भविष्य और भूत के बीच जो कालान्तर है, वह परिमित है और उसका दैर्ध्य द्रष्टा के स्थान पर आधार रखता है ।" इस कथन को इस उदाहरण द्वारा और स्पष्ट किया जा सकता है-जैसे अ स्थान पर द्रष्टा है और ब स्थान पर घटना घटती है । द्रष्टा जिस क्षण में घटना को देखता है, वस्तुतः वह घटना उस क्षण में नहीं होती है, क्योंकि ब और अ के बीच जो दूरी है, उस दूरी को पार करने के लिए प्रकाश को परिमित समय लगेगा। इस प्रकार जिसको हम 'वर्तमान ' कहते हैं, वह केवल अतिसूक्ष्म एक क्षण ही नहीं है, किन्तु वह सारा काल वर्तमान में गिना Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैन दर्शन और विज्ञान जाता है, जो घटना के होने और द्रष्टा के देखने के बीच गुजरता है और इस काल का दैर्ध्य स्पष्टतया द्रष्टा और घटना स्थल के बीच की दूरी पर आधारित है। यहां पर यह ध्यान रखना आवश्यक है कि अ और ब के बीच की दूरी कितनी भी छोटी क्यों न हो, प्रकाश का वेग (जो कि उत्कृष्टतम वेग है) परिमित होने से उस दूरी को तय करने में सुनिश्चित किन्तु परिमित समय ही लगेगा। एक व्यावहारिक उदाहरण से उक्त मन्तव्य का महत्त्व समझा जा सकता है। ऊपर दिए गए उदाहरण में ब को पृथ्वी से ५० प्रकाश-वर्ष दूर का तारा मान लिया जाए और अ को पृथ्वी पर स्थित, दूर-वीक्ष्णयन्त्र द्वारा निरीक्षण करता हुआ द्रष्टा माना जाए। मान लो कि ब पर कोई विस्फोट होता हुआ द्रष्टा दिखाई दिया। साधारण भाषा में हम कहेंगे कि मनुष्य की देखने की घटना और तारा पर विस्फोट की घटना एक ही क्षण में होती है। अर्थात् ये दोनों घटनाएं 'युगपत्' (simultaneous) हैं। किन्तु वस्तुत: क्या ये घटनाएं युगपत् हैं? नहीं। क्योंकि तारा पृथ्वी से ५० प्रकाश-वर्ष दूर है अर्थात् प्रकाश को तारा और पृथ्वी की बीच की दूरी तय करने में ५० वर्ष लगते हैं। तात्पर्य यह हआ कि जो विस्फोट 'अब' देखा गया, वह वस्तुतः ५० वर्ष पहले हो चुका था। इस प्रकार 'युगपत्' शब्द निरपेक्ष नहीं रह पाया है, किंतु दो घटनाओं के बीच की दूरी पर आधरित हो जाता है। दूसरे शब्दों में आकाश और काल एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और विश्व में होने वाली घटनाओं पर दोनों का सम्मिलित प्रभाव होता है। ___ आइन्स्टीन के विशिष्ट आपेक्षिकता के सिद्धांत से जो अनेक नए तथ्य वैज्ञानिकों के सामने आए, उनमें से दो-तीन महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों का उल्लेख संक्षेप में यहां पर किया जा रहा है। यद्यपि ये आकाश और काल सम्बन्धी प्रस्तुत चर्चा से सीधा सम्बन्ध नहीं रखते हैं, फिर भी इनका महत्त्व भौतिक विज्ञान में अत्यधिक फिट्जजेराल्ड और लोरेन्टज द्वारा दिये गये सिद्धातों के अनुसार गति का वस्तु की लम्बाई पर प्रभाव पड़ता है। आइन्स्टीन के आपेक्षिकता के सिद्धांत में यह बताया गया कि गतिमान् निकाय (system) में गति की दिशा में रही हुई आकाशीय विमिति में संकोच होता है, साथ ही साथ समय की विमिति में भी संकोच होता है। दूसरे शब्दों में इस तथ्य को इस प्रकार कहा जा सकता है : गतिमान निकाय में रही हुई नापने वाली छड़ की लम्बाई में हानि होती है और निकाय में स्थित घड़ी धीमे १. प्रकाश की गति एक सैकिण्ड में लगभग १,८६,००० माईल है; इस गति से चलने वाली प्रकाश-किरण जितना अन्तर एक वर्ष में काटती है, उसको १ प्रकाश-वर्ष कहते हैं। प्रकाश-वर्ष- ५.८८ x १०१२ माईल लगभग होते हैं। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा २५१ चलती है। इन परिवर्तनों का आधार गतिमान् निकाय का वेग है। वेग के अनुपात में ये परिवर्तन होते हैं ज्यों-ज्यों वेग बढ़ता है, त्यों-त्यों घड़ी की चाल अधिक शिथिल होती जाती है। यहां तक कि वेग प्रकाश के वेग के समान हो जाए (यह केवल कल्पना की जा रही है), तो घड़ी ठप्प हो जाएगी। इसी प्रकार नापने वाली छड़ की लम्बाई भी घटती-घटती, अन्तिम दशा में 'शून्य' हो जाएगी अर्थात् छड़ की लम्बाई रहेगी ही नहीं। इसलिए प्रकाश के वेग को पाना अशक्य है, यह मन्तव्य सिद्ध हो जाता है। आइन्स्टीन ने बताया कि प्रत्येक वस्तु का जड़त्व उसकी संहति पर आधारित है। इस जड़त्व के कारण आकाश में एक 'गुरुत्व-क्षेत्र' (Gravitational Field) की उत्पत्ति होती है। यह क्षेत्र पदार्थ की गति के क्षेत्र को निर्धारित करता है। इस प्रकार के क्षेत्र की भूमिति का निर्धारण पदार्थ की ‘संहति' और वग' से होता है जिसको आइन्स्टीन ने 'गाणितिक समीकरण' द्वारा व्यक्त किया है। प्रत्येक पदार्थ अपने आस-पास के आकाश में जिस गुरुत्व-क्षेत्र की उत्पत्ति करता है, वह 'वक्र' है! यथार्थ शब्दावली में-‘पदार्थ की संहति आकाश-काल की चतुर्वैमितिक सततता में वक्रता लाती है।' पदार्थ की गति उस दिशा में होती है, जिस दिशा में आकाश वक्र बनता है। इसको स्पष्ट करने के लिए यह उदाहरण दिया जा सकता है जैसे एक नतोदर कमरे के बीच हम एक तकिया रखे दें और फिर वहां बैठकर चार गोलियों को कमरे की जमीन पर चार दिशाओं में फेंके। यह स्वाभाविक है कि उस कमरे की नतोदरता के कारण चारों गोलियां उस तकिए से आकर टकराएंगी। अब, यदि किसी व्यक्ति को कमरे की नतोदरता का पता न हो, तो वह मानेगा कि तकिए में आकर्षण-बल है। किन्तु यह भ्रम होगा। वस्तुत: तो गोलियों का तकिए से टकराने का कारण कमरे की नतोदरता है। ऐसे ही सेव को नीचे गिरते देख न्यूटन ने पृथ्वी के आकर्षण-बल को उसका कारण माना था। किन्तु आइन्स्टीन ने बताया कि 'आकाश की वक्रता' ही इसका सही कारण है। क्योंकि, सेव 'आकाश' में जो वक्रता उत्पन्न करता है, उससे मानो आकाश नतोदर बन जाता है और सेव उस दिशा में गिरता है, जिस दिशा में आकाश की नतोदरता अत्यधिक होती है। 'आपेक्षिकता के सिद्धांत' में सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात यह है कि जहां न्यूटन के वैज्ञानिक सिद्धांतों में आकाश, काल और भौतिक पदार्थ, सभी एक दूसरे से स्वतंत्र थे, वहां आइन्स्टीन के सिद्धांत में ये तीनों एक-दूसरे से सम्बन्धित हो गए हैं। विश्व 'आकाश-काल की संयुक्त चतुर्वैमितिक सततता' बन गया है और उसके गुण-धर्म उसमें समाहित भौतिक पदार्थ पर आधारित हो गए हैं। भौतिक-पदार्थों की गति एवं स्थिति का सीधा प्रभाव आकाश-काल की सततता पर पड़ता है। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ आपेक्षिकता के सिद्धान्त का दार्शनिक पक्ष आपेक्षिकता के सिद्धान्त में 'आकाश और काल' के सम्बन्ध में जो विचार दिये गए हैं, उसके दार्शनिक पक्ष के विषय में वैज्ञानिकों के अभिमतों का अब हम अवलोकन करें । आकाश, काल और आकाश - काल की चतुर्वैमितिक सततता की वास्तविकता कहां तक वस्तु-सापेक्ष है और कहां तक ज्ञाता - सापेक्ष, इसके विषय में सभी वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं । जैन दर्शन और विज्ञान I डा. अल्बर्ट आइन्स्टीन के अभिमतानुसार “जिस प्रकार रंग, आकार अथवा परिणाम हमारी चेतना से उत्पन्न विचार हैं, उसी प्रकार आकाश और काल भी हमारी आन्तरिक कल्पना के ही रूप हैं। जिन वस्तुओं को हम आकाश में देखते हैं, उनके 'क्रम' के अतिरिक्त आकाश की कोई वस्तु - सापेक्ष वास्तविकता नहीं है । इसी प्रकार जिन घटनाओं के द्वारा हम काल को मापते हैं, उन घटनाओं के 'क्रम' के अतिरिक्त काल का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है ।" 'आकाश' और 'काल' का स्वतन्त्र वस्तु-र -सापेक्ष अस्तित्व न होने पर भी, 'आकाश-काल की संयुक्त चतुर्वैमितिक सततता’ वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता का प्रतीक है, ऐसा माना गया है। जब इस सततता का 'आकाश' और 'काल' के रूप में पृथक्करण किया जाता है, तब ये भेद ज्ञाता-र -सापेक्ष होते हैं, किन्तु जब वे चतुर्वैमितिक सततता के रूप में जुड़ते हैं, तब उसके द्वारा हमें वस्तु- सापेक्ष विश्व का ज्ञान होता है। इस तथ्य का स्पष्ट निरूपण सर जेम्स जीन्स के शब्दों में मिलता है। “हम समग्र प्रकृति को इस ढांचे (चतुर्वैमितिक सततता) में व्यक्त कर सकते हैं, इसलिए यह वस्तु- सापेक्ष वास्तविकता का प्रतिनिधित्व करती है । किन्तु 'आकाश' और 'काल ९ में इसका विभागीकरण वस्तु- सापेक्ष नहीं है - वह तो केवल ज्ञाता - सापेक्ष ही है । ........... आपेक्षिकता के सिद्धांत का मूल तत्त्व यह है कि सततता के आकाश और काल के विभागीकरण के विषय प्रकृति कुछ नहीं जानती।” इन वैज्ञानिकों के अभिमत में 'आकाश' एक संदर्भ का ढांचा' है। जिस प्रकार विषुवद् वृत्त (Equator), ग्रीनिच याम्योत्तर (Greenwhich meridian) उत्तरीध्रुव (North pole ) आदि काल्पनिक हैं; उसी प्रकार 'आकाश' और 'काल' भी काल्पनिक है । कुछ एक वैज्ञानिक इस निरूपण को स्वीकार नहीं करते । यद्यपि 'आकाश और काल की संयुक्त चतुर्वैमितिक सततता' के भौतिक पहलू के विषय में वे भिन्न मत नहीं रखते, फिर भी इन तत्त्वों का - आकाश और काल का केवल ज्ञाता-सापेक्ष अस्तित्व ही है, यह अभिप्राय उनको मान्य नहीं है। हंस राइशनबाख ने अपनी पुस्तक ( आकाश और काल का दर्शन) में 'आपेक्षिकता के सिद्धान्त' के भौतिक पक्ष की चर्चा के साथ-साथ दार्शनिक पक्ष की चर्चा भी की है। इसमें राइशनबाख ने आकाश और काल का वस्तु- सापेक्ष अस्तित्व गणित और तर्क - शास्त्र Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा के आधार पर सिद्ध किया है। उनके अभिमतानुसार गाणितिक आकाश के विविध भेद हो सकते हैं। इनमें से किसी एक को प्रेक्षण और प्रयोग के आधार पर वास्तविक आकाश माना जा सकता है। इस वास्तविक आकाश का वस्तु-सापेक्ष' अस्तित्व है। वे लिखते हैं-अभिसमयवादियों (conventionalists) के अनुसार वास्तविक आकाश की भूमिति के विषय में वस्तु-सापेक्ष निरूपण करना अशक्य है और इस विषय में तो हम ज्ञाता-सापेक्षात्मक और मनमाना निरूपण कर सकते है। वास्तविक आकाश की भूमिति का विचार ही निरर्थक है।' यह गलत धारणा है। यद्यपि भूमिति सम्बन्धी निरूपण कुछ एक मनमानी व्याख्याओं पर आधारित है, फिर भी यह निरूपण स्वयं में मनमाना नहीं बन जाता। एक बार व्याख्याओं का निश्यच कर लें ; बाद में वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता ही भूमिति के वास्तविक रूप को प्रकट करती है।' इसकी स्पष्टता के लिए उन्होंने एक सरल उदाहरण दिया है। जैसे-उष्णतामान के मापने में सेंटीग्रेड, फारनहाइट आदि विविध प्रकार के मानदण्ड काम में आते हैं। हम अपने अभिसमय के अनुसार कोई एक मानदण्ड को अंकित कर उष्णतामापक से वस्तु की उष्णता मानते हैं। जो अंक उष्णता को सूचित करता है, वह यद्यपि मानदण्ड के बदलने पर बदल सकता है, फिर भी उसकी यथार्थता' में परिवर्तन नहीं होता। एक वस्तु का उष्णतामान चाहें १५° सें० कहें अथवा ५९° फा. कहें, इसका आधार यद्यपि हमारे मानदण्ड की पसंदगी पर है, फिर भी वस्तु का उष्णतामान स्वयं में हमारी पसंदगी पर नहीं है; वह तो वस्तु-सापेक्ष ही है। काल के सम्बन्ध में प्रचलित गलत धाराणाओं का भी राइशनबाख ने खण्डन किया है : “काल को चतर्थ विमिति के रूप में मानने से, बहुत लोगों की यह मान्यता बनी है कि काल भी आकाश की एक ही विमिति' है। किन्तु यह गलत है। चतुर्विमिति में आकाश और काल को जोड़ने का अर्थ मात्र यही है कि किसी भी घटना (Event) का निर्देश हम चार निर्देशांकों द्वारा कर सकते हैं-आकाश के तीन निर्देशांक और काल का चौथा निर्देशांक ।...........जिस प्रकार तीन मूल रंगों-लाल, हरा, और नीले-के द्वारा हम किसी भी वस्तु के रंग का निर्णय कर सकते हैं कि अमुक वस्तु में इन तीन की कितनी-कितनी मात्राएं हैं ; किन्तु ऐसा करने से वस्तु का रंग बदल नहीं जाता. ........(उस प्रकार) काल का चतुर्थ विमिति के रूप में निरूपण करने से काल के विषय में हमारे विचार में कोई परिवर्तन नहीं आता है।' उनका यह स्पष्ट अभिमत है कि चतुर्वैमितिक गाणितिक रूप को मानते हुए भी यह मानना आवश्यक नहीं है कि आकाश और काल के बीच कोई अन्तर ही नहीं है। आपेक्षिकता के सिद्धांत से काल के जिन गुण-धर्मों का ज्ञान हमें होता है, चतुर्थ विमिति के रूप में काल के प्रतिपादन के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। मिन्काउस्की के गाणितिक प्रतिपादन का यह अर्थ करना Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैन दर्शन और विज्ञान कि आकाश और काल का केवल सम्मिलित रूप ही वास्तविक है, राइशनबाख के अनुसार गलत है। आकाश की विमितियों के विषय में वैज्ञानिकों और गणितज्ञों ने यह कल्पना भी की है कि इसकी विमितियों की संख्या चाहे जितनी हो सकती है किन्तु राइशनबाख ने माना है कि वस्तु-सापेक्ष दृष्टि से तो आकाश की केवल तीन विमितियां हैं। बहु-वैमितिक आकाश गाणितिक हो सकता है, परन्तु वास्तविक आकाश केवल त्रिवैमितिक है। वास्तविक आकाश की तीन विमितियां हैं। यह निरूपण उतना ही वस्तु-सापेक्षात्मक है जितना कि यह निरूपण कि 'भौतिक पदार्थ की तीन अवस्थाएं-ठोस, तरल और वायु-होती है; यह वस्तु-सापेक्ष विश्व के मूलभूत तथ्य का एक वर्णन है।" राइशनबाख ने आपेक्षिकता के सिद्धांत को मान्य रखते हुए यह निरूपण किया है कि 'आकाश' और 'काल' का वस्तु-सापेक्ष स्वतन्त्र अस्तित्व है। अपनी पुस्तक 'आकाश और काल का दर्शन के अन्त में आकाश और काल की वास्तविकता' शीर्षक के अन्तर्गत समग्र वैज्ञानिक व गाणितिक विवेचन के निष्कर्ष में वे लिखते हैं : “अत: हम निम्न कथन को आकाश और काल सम्बन्धी सबसे अधिक सामान्य विधान के रूप में लिख सकते हैं : 'सर्वत्र और सदा आकाश-काल की निर्देश-निकाय का अस्तित्व है।' यह निष्कर्ष आकाश और काल के बीच की भेदरेखा को अच्छी तरह प्रमाणित करता है।'' वस्तु सापेक्षता और ज्ञाता-सापेक्षता के बीच क्या अन्तर है तथा इसका आकाश और काल के साथ किस रूप में सम्बन्ध होता है, इसके विस्तृत विवेचन के बाद अन्तिम निष्कर्ष के रूप में उन्होंने लिखा है : “इस समग्र चिन्तन का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण परिणाम यह है कि आकाश के गुण-धर्म वस्तु-सापेक्ष हैं। जिन ज्ञान-मैमासिक विश्लेषणों (epistemological analyses) द्वारा हमने बहुत सारी समस्याओं को हल करने का प्रयत्न किया, उनका यह आकट्य अभिमत है कि 'आकाश' और 'काल' वास्तविक हैं।.....दार्शनिकों ने अब तक आकाश और काल के केवल आदर्शवादी प्रतिपादन को ही ज्ञान-मैमासिक विश्लेषण में शक्य माना है। किन्तु यह इसलिए हुआ है कि उन्होंने आकाश की गाणितिक और वास्तविक समस्याओं के द्विपक्षीय स्वरूप की उपेक्षा की है। गाणितिक आकाश काल्पनिक रचना है; अत: आदर्श है। भौतिक विज्ञान का कार्य है-इन गाणितिक रचनाओं में से किसी एक को वास्तविकता के साथ जोड़ने का। इस कार्य की निष्पत्ति में भौतिक विज्ञान वास्तविकता के विषय में निरूपणात्मक कथनों का उच्चारण करता है और हमारा लक्ष्य है, इन कथनों के वस्तु-सापेक्ष मूल तत्त्व को, वर्णन की अनिश्चितता के कारण घूसे हुए ज्ञाता-सापेक्ष बाह्य तत्त्व से विमुक्त करने का।' राइशनबाख के इस समग्र विवेचन Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा २५५ का सारांश यही है कि वे 'आपेक्षिकता के सिद्धान्त' को स्वीकार करते हैं, फिर भी 'आकाश' और 'काल' की वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता के निरूपण को इस सिद्धांत का फलित प्रतिपादित करते हैं। __आकाश और काल की वास्तविकता के पक्ष में जिन वैज्ञानिकों का अभिमत है, उनमें प्रो. हेनी मार्गेनौ का नाम भी उल्लेखनीय है। प्रो. मार्गेनौ के अनुसार: कोई भी पदार्थ सापेक्ष होने से, अवास्तविक नहीं बन जाता। निरपेक्ष आकाश' की मान्यता को यद्यपि आपेक्षिकता का सिद्धांत स्वीकार नहीं करता, फिर भी उससे 'आकाश' की वास्तविकता का अस्वीकार नहीं होता है। आकाश भी एक कन्स्ट्रक्ट्स' माना गया है, जो प्रमाणित है और इसलिए वास्तविक भी है। मार्गेनौ मानते हैं कि 'आकाश' के भौमितिक गुण-धर्मों का वास्तविक जगत् के पदार्थ कहां तक अनुकरण करते हैं, इसमें संदिग्धता तो हो सकती है, परन्तु 'आकाश' की वास्तविकता तो असन्दिग्ध है। उदाहरणार्थ कोई भी वास्तविक पदार्थ' पूर्ण रूप से सरल रेखात्मक हो, ऐसा अनुभव में न भी आता हो, फिर भी वास्तविक सरल रेखा आकाश के दो बिन्दुओं के बीच अस्तित्व रखती है और आकाश वास्तविक बिन्दुओं का बना हुआ है। 'आपेक्षिकता के सिद्धान्त' के दार्शनिक पक्ष की चर्चा के निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि आकाश और काल के स्वरूप के विषय में 'आपेक्षिकता के सिद्धान्त' के आधार पर अब तक सर्वमान्य निरूपण नहीं हो सका है। आकाश और काल वस्तु-सापेक्ष हैं अथवा ज्ञाता-सापेक्ष, यह दुविधा अब तक भी वैज्ञानिकों के सामने खड़ी उपसंहार 'आकाश' और 'काल' का स्वरूप भी रहस्यमय बना हुआ है। कुछ एक 'रिक्त आकाश' का प्रतिपादन करते हैं, तो अन्य 'अवगाहित आकाश' का; कई 'निरपेक्ष आकाश' का निरूपण करते हैं, तो कई ‘सापेक्ष आकाश' का; आकाश को 'वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता' के रूप में स्वीकार करने वाले भी हैं और 'ज्ञाता-सापेक्ष वास्तविकता' के रूप में करने वाले भी है। दूसरी और 'काल' के विषय में भी इस प्रकार की विभिन्न विचारधाराएं हैं। न्यूटन का अभिमत था-निरपेक्ष आकाश और काल पृथक्-पृथक् अस्तित्व रखते हैं। इस अभिमत के सहारे वैज्ञानिकों ने भौतिक ईथर की कल्पना की और 'आपेक्षिकता के सिद्धान्त' ने भौतिक ईथर को तिलांजलि देकर सापेक्ष आकाश-काल की स्थापना की। 'आपेक्षिकता के सिद्धान्त' से वैज्ञानिक जगत् में नई क्रान्ति आई। 'आकाश' और 'काल' की संयुक्त चतुर्वैमितिक सततता, प्रकाश की सीमित गति के कारण आकाश और काल की परस्परबद्धता, गति का 'आकाश' और 'काल' पर प्रभाव Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैन दर्शन और विज्ञान आदि विषय विशिष्ट आपेक्षिकता के सिद्धान्त' के परिणाम हैं। भौतिक-पदार्थ की संहति से होने वाली आकाश की वक्रता, आकाश के युक्लिडियेतर भौमितिक गुण-धर्म, गुरुत्व और जड़त्व की समानता आदि विषय 'सामान्य आपेक्षिकता के सिद्धान्त' के परिणाम हैं। फिर भी 'आकाश' और 'काल' का स्वरूप चिन्तन का विषय बना हुआ न्यूटन और जैन दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन न्यूटन द्वारा किया गया आकाश का निरूपण जैन दर्शन के आकाशास्तिकाय के साथ अत्यधिक सदृशता रखता है। दोनों विचारधाराओं में आकाश को एक स्वतंत्र वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया गया है तथा उसको अगतिशील, एक, अखण्ड और शून्यता की क्षमता वाल स्वीकार किया गया है; फिर भी इनमें एक महत्त्वपूर्ण अन्तर रह जाता है। न्यूटनीय भौतिक विज्ञान के आकाश के साथ भौतिक ईथर का अविच्छिन्न सम्बन्ध जोड़ कर गति की समस्या सुलझाने का प्रयत्न किया, जबकि जैन दर्शन अभौतिक ईथर (धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य) के सिद्धान्त से गति-स्थिति की समस्या का हल प्रस्तुत करता है। यही कारण था कि न्यूटन के सिद्धांतों ने नहीं सुलझने वाली एक ऐसी समस्या उत्पन्न कर दी, जिसके फलस्वरूप आपेक्षिकता के सिद्धान्त ने न्यूटन के भौतिक ईथर को तिलांजलि दे दी। जहां तक न्यूटन के आकाश की वास्तविकता-सम्बन्धी निरूपण का प्रश्न है, उसकी तर्कसम्मतता अब भी अविच्छिन्न ही है। पश्चिम के सुप्रसिद्ध दार्शनिक बर्टेण्ड रसल ने इसको स्वीकार करते हुए लिखा है : “न्यूटन का निरपेक्ष आकाश का सिद्धान्त उस दुविधा को दूर करता है, जो 'शून्य' और 'वास्तविकता' के सम्बन्ध से उपस्थित होती है। तर्कशास्त्र के आधार पर इस सिद्धान्त का खण्डन नहीं किया जा सकता। इस सिद्धान्त की अस्वीकृति का मुख्य कारण यही है कि निरपेक्ष आकाश' को जानना कतई सम्भव नहीं है; इसीलिए प्रायोगिक विज्ञान में उसकी धारणा कोई अनिवार्य परिकल्पना नहीं बन सकती। इससे भी अधिक व्यावहारिक कारण यह है कि भौतिक विज्ञान की गाड़ी इसके बिना नहीं चल सकती है।" उस उद्धरण से स्पष्ट हो जाता है कि न्यूटन का 'निरपेक्ष आकाश' अथवा जैन दर्शन का आकाशास्तिकाय का सिद्धान्त तर्क की दृष्टि से अकाट्य है। 'निरपेक्ष आकाश' के अस्तित्व पर आपेक्षिकता के सिद्धान्त' की चर्चा यथास्थान आगे की जायेगी। न्यूटन ने काल की जो परिभाषा दी है, उससे यह लगता है कि उन्होंने काल को वास्तविक तत्त्व या द्रव्य के रूप में न मान कर वास्तविक तथ्य के रूप में प्रतिपादित किया है। जैन दर्शन (श्वेताम्बर-परम्परा) भी काल को वास्तविक तत्त्व के रूप में स्वीकार नहीं करता। न्यूटन ने निरपेक्ष गाणितिक काल का Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा २५७ सिद्धांत प्रस्तुत किया है; जैन दर्शन के निरपेक्ष कालमान-'समय' आदि उसी प्रकार के सिद्धान्त के द्योतक हैं। इस प्रकार काल के विषय में भी दोनों सिद्धान्तों में बहुत साम्य है, फिर भी न्यूटन के सिद्धांत ने प्रकाश-गति की सीमितता को अस्वीकार करने के कारण आकाश और काल के पारस्परिक सम्बन्ध को स्वीकार नहीं किया है, जबकि जैन दर्शन में प्रकाश-गति की सीमितता से होने वाले आकाश और काल के पारस्परिक सम्बन्ध का विरोध नहीं है। - इस प्रकार प्राग्-आइन्स्टीन विज्ञान के क्षेत्र की आकाश-काल-सम्बन्धी धारणाएं जैन दर्शन की विचारधारा के साथ दार्शनिक (तत्त्व-मैमासिक) अपेक्षा से अधिक सृदश्य रखती है। आपेक्षिकता का सिद्धान्त और जैन दर्शन आइन्स्टीन द्वारा दिए गए आपेक्षिकता के सिद्धान्त के पश्चात् विज्ञान के क्षेत्र में जो नई क्रांति आई, उसका आकाश-काल की धारणाओं पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। इस सिद्धान्त के आविष्कार, इसके भौतिक विज्ञान के विविध पहलुओं पर पड़े हुए प्रभाव तथा इसके दार्शनिक पक्ष की चर्चा भी हम कर चुके हैं। जैन दर्शन के माध्यम से इसकी तुलानात्मक समीक्षा यहां की जा रही है। आकाश और काल के विषय में आपेक्षिकता के सिद्धान्त के दो पहलू हो जाते हैं १. आकाश और काल की सापेक्षता। २. आकाश और काल की वास्तविकता। आइन्स्टीन द्वारा प्रदत्त मूल आपेक्षिकता के सिद्धान्त में कहा गया है: “किसी भी प्रकार के प्रयोग के द्वारा किसी भी गतिमान निकाय की निरपेक्ष गति का पता नहीं लगाया जा सकता।" इस सिद्धान्त के आधार पर सामान्यतया यह तात्पर्य निकाला जाता है कि निरपेक्ष आकाश का कोई अस्तित्व ही नहीं है। यदि यही तात्पर्य सही हो, तो जैन दर्शन का आकाशास्तिकाय का सिद्धान्त आपेक्षिकता के सिद्धान्त के साथ ही मेल नहीं खाता। किन्तु उक्त तात्पर्य निर्विवादतया मान्य नहीं है। सर्वप्रथम तो यह जानना आवश्यक है कि आपेक्षिकता के सिद्धांत में कथित अशक्यता ज्ञाता-सापेक्ष असमर्थता के कारण है अथवा वस्तु-सापेक्ष असम्भवता के कारण है। यदि ज्ञाता-सापेक्ष असमर्थता के परिणाम रूप ही हम किसी भी गतिमान निकाय के निरपेक्ष गति को जानने में असमर्थ रहते हैं, तो निरपेक्ष गति के वास्तविक अस्तित्व का अन्त नहीं आ जाता। जैन दर्शन के आधार पर यही कहा जा सकता है कि उक्त अशक्यता ज्ञाता-सापेक्ष असमर्थता के कारण ही है, न कि वस्तु-सापेक्ष असम्भवता के कारण। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ जैन दर्शन और विज्ञान राइशनबाख ने इस प्रकार के विपर्यय को स्पष्ट उदाहरण के द्वारा समझाया है : "अवश्य ऐसे बहुत सारे प्रसंग होते हैं, जहां भौतिक विज्ञान परिमाणों को निकालने में समर्थ नहीं होता। इसका अर्थ क्या यह होता है कि जिस राशि का हम परिमाण निकालना चाहते हैं, उसका अस्तित्व ही नहीं है? उदाहरणार्थ, हवा के एक घन सेंटीमीटर में रहे हुए अणुगुच्छे (मोलिक्यूल) की संख्या का सही-सही निश्चय करना अशक्य है। निश्चितता की अत्यधिक मात्रा के साथ हम कह सकते हैं कि एक-एक अणुगुच्छे को गिनने में हम असफल ही रहेंगे, तो फिर क्या हम यह परिणाम निकालें कि इस संख्या का अस्तित्व ही नहीं है? प्रत्युत हमें यही कहना होगा कि ऐसा पूर्णांक होना ही चाहिए, जो इस राशि का बिलकुल सही द्योतक हो। आपेक्षिकता के सिद्धांत की भूल इसी तथ्य में निहित है कि उसमें जानने की अशक्यता को वास्तविक असम्भवता के साथ उलझा दिया गया है।' इस उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि निरपेक्ष आकाश का कोई अस्तित्व ही नहीं है, ऐसा फलित आपेक्षिकता के सिद्धांत के आधार पर निकालना अयथार्थ होगा। विश्व के प्रथम श्रेणी के वैज्ञानिक हाइजनबर्ग ने इसी उलझन का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है-"ईथर नामक परिकल्पित द्रव्य, जो १९ वीं शताब्दी में मैक्सवेल के सिद्धान्तों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता था, अब आपेक्षिकता के सिद्धान्त के द्वारा नामशेष कर दिया गया है। इसी बात को कभी-कभी इस प्रकार भी कहा जाता है कि निरपेक्ष आकाश का सिद्धान्त' खण्डित हो चुका है। किन्तु ऐसे कथन को बहुत सावधानी के साथ स्वीकार करना चाहिए।" यद्यपि हाइजनबर्ग ने यह तो स्वीकार नहीं किया है कि आकाश नामक कोई स्वतन्त्र अगतिशील वास्तविकता का अस्तित्व है, फिर भी उन्होंने यह तो माना ही है कि भौतिक ईथर के नामशेष हो जाने से 'आकाश' नामशेष नहीं हो गया है। अन्यत्र उन्होंने एक तर्क आपेक्षिकता के सिद्धांत के आलोचकों के नाम पर उपस्थित किया है, जिसको यदि वे स्वीकार नहीं करते हैं, फिर भी यह तो मानते हैं कि तर्क को प्रायोगिक आधार पर गलत सिद्ध नहीं किया जा सकता; क्योंकि इसमें ऐसी कोई धारणा नहीं कि गई, जो विशिष्ट आपेक्षिकता के सिद्धान्त से भिन्न हो। इसको प्रस्तुत करते हुए वे लिखते हैं : "आपेक्षिकता के सिद्धान्त के आलोचकों का कहना है-निरपेक्ष आकाश और निरपेक्ष काल का नास्तित्व विशिष्ट आपेक्षिकता के सिद्धान्त द्वारा किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होता है। (उस सिद्धान्त में तो) यही बताया गया है कि किसी भी सामान्य प्रयोग में वास्तवकि आकाश और वास्तविक काल प्रत्यक्षत: भाग नहीं लेते, किन्तु यदि प्राकृतिक नियमों के इस पहलू को ध्यान में ले लिया जाये तथा गतिमान् निर्देश-निकायों के लिए सही प्रतीत्यमान काल (मानो) का व्यवहार किया जाये, तो निरपेक्ष आकाश की धारणा के विरोध में कोई Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा २५९ तर्क नहीं रह जाता। ऐसा भी सम्भवतः माना जा सकता है कि हमारी आकाशगंगा का गुरुत्व- केन्द्र (सेंटर ऑफ ग्रेविटी) निरपेक्ष आकाश में (कम से कम लगभग ) स्थिर है।' इससे आगे आपेक्षिकता के सिद्धांत के आलोचक यह भी कह सकते हैं- 'हम आशा कर सकते हैं कि भविष्य के नाप-तोल निरपेक्ष आकाश की स्पष्ट परिभाषा देने में हमें समर्थ बना देंगे । .. . और इस प्रकार हम आपेक्षिकता के सिद्धान्त का खण्डन कर सकेंगे।'' इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि आपेक्षिकता के सिद्धान्त के आधार पर निरपेक्ष आकाश के अस्तित्व को स्वीकार न करना गलत सिद्ध हो सकता 1 : प्रो. मार्गेनौ भी इस बात को स्वीकार तो करते हैं कि निरपेक्ष आकाश एक सम्भवित कन्स्ट्रक्ट्स है "निरपेक्ष आकाश को स्वीकार करने वाला अपनी विचारधारा को इस सरल तथ्य पर आधारित करता है कि त्रिवैमितिक आकाश की कल्पना वह तभी कर सकता है, जबकि वह आकाश पदार्थशून्य हो । इस प्रकार का आकाश एक सम्भवित कन्स्ट्रक्ट्स है और वह प्राथमिक प्रश्न के ढांचे ही निरपेक्ष है।'' इससे आगे उन्होंने यही बताया है कि इस प्रकार का आकाश उपयोगी न होने वैज्ञानिक इसको स्वीकार नहीं करते, फिर भी इतना तो स्पष्ट रूप से स्वीकार्य हो ही जाता है कि निरपेक्ष आकाश का अस्तित्व समाप्त नहीं हुआ है । निरपेक्ष आकाश को जिस प्रकार से जैन दर्शन ने स्वीकार किया है, उसका खण्डन तो आपेक्षिकता के सिद्धांत के द्वारा किया ही नहीं जा सकता। हां, यह अवश्य मानना पड़ता है कि भौतिक विज्ञान के प्रायोगिक क्षेत्र में इस प्रकार के निष्क्रिय तत्त्व की कोई आवश्यकता प्रतीत न होने से उसके अस्तित्व को मानना भी आवश्यक न समझा जाये । आपेक्षिकता के सिद्धांत का दूसरा पहलू है- आकाश और काल की वास्तविकता । हम देख चुके हैं कि वैज्ञानिक इस विषय में एकमत नहीं हैं । आइन्स्टीन आदि जहां आकाश और काल को चेतन (ज्ञाता) द्वारा कल्पित तत्त्व ही मानते हैं, वहां राइशनबा आदि उसकी वास्तविकता को स्वीकार करते हैं। इस समस्या का हल प्राप्त करने के लिए हमें पहले कुछ धारणाओं का स्पष्टीकरण करना पड़ेगा। वैज्ञानिक शब्दावलि में आकाश, काल, आकश-काल की चतुर्वैमितिक सततता गुरुत्व - क्षेत्र या आव्यूहीय क्षेत्र (मेट्रिकल फील्ड) तथा ईथर; इन शब्दों द्वारा किन-किन तथ्यों का निरूपण हुआ है और जैन दर्शन के पारिभाषिक शब्दों (आकाशास्तिकाय, काल, धर्म, अधर्म, द्रव्य) से ये कहां तक सम्बन्धि होते हैं? ये दो महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं। 'आकाश' शब्द का प्रयोग आइन्स्टीन आदि केवल 'पदार्थ-क्रम' के अर्थ में रहते हैं, जबकि राइशनबाख आदि पदार्थ - क्रम के अतिरिक्त आकाश को एक स्वतन्त्र वास्तविकता के रूप में देखते हैं । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जैन दर्शन और विज्ञान जैन दर्शन में भी आकाशास्तिकाय को आश्रय देने वाला वास्तविक द्रव्य कहा है। यह धारणा आइन्स्टीन की आकाश की धारणा से नितांत भिन्न है । यदि आइन्स्टीन की आकाश की धारणा को स्वीकार किया जाता है, तो उससे पदार्थों के आश्रय की समस्या नहीं सुलझती। अतः जहां हम तर्कशास्त्रीय भूमिका को लेते हैं, वहां आइन्स्टीन की 'आकाश' सम्बन्धी धारणा से काम नहीं चल सकता । इसके अतिरिक्त भी आइंस्टीन की दी हुई परिभाषा पर्याप्त नहीं है। जैसा कि स्पष्ट हो चुका है, सामान्य आपेक्षिकता के सिद्धांत में आकाश और गुरुत्व - क्षेत्र या आव्यूही क्षेत्र को एक बना दिया गया है, जहां आकाश केवल पदार्थों का क्रम न रह कर वक्रता को धारणा करने वाला कोई तत्त्व या क्षेत्र का रूप ले लेता है। अब 'यह क्षेत्र क्या स्वन्तत्र वास्तविकता है ? ' - इस प्रश्न का उत्तर यदि निषेध में नहीं है तो यह क्षेत्र भी सम्भवत: वास्तविक 'आकाश' से अधिक भिन्न नहीं रह जाता। सामान्यतया यह माना जाता है कि वक्रता या क्षेत्र की उत्पत्ति पदार्थों की संहति से उत्पन्न होती है। जहां पर भी संहति वाला पदार्थ होता है, वह अपने आस-पास इस क्षेत्र को वैसे ही उत्पन्न कर देता है, जैसे चुम्बक के आस-पास चुम्बकीय क्षेत्र हो जाता है अथवा विद्युत प्रवाह के आस-पास विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है । तब यही कहा जा सकता है कि क्षेत्र कोई स्वतन्त्र वास्तविकता नहीं है। किंतु वस्तुतः ऐसा नहीं है । पदार्थों के अभाव में सूक्ष्म मात्रा में वक्रता या क्षेत्र का अस्तित्व बना रहता है। एडिंग्टन ने इस तथ्य का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है : 'उस प्रदेश में जहां किसी भी प्रकार के ज्ञात भौतिक पदार्थ या विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र का अभाव है, वहां पर भी एक निश्चत अल्प मात्रा में प्राकृतिक वक्रता होती है, जिसे सुख्यात रूप से विश्व-सम्बन्धी अचल कहा जाता है । इस वक्रता का उत्तरदायी उस प्रदेश को रोकने वाला कोई तत्त्व है, जिसे चाहे हम आकाश कहें क्षेत्र कहें या ईथर कहें ।" इस उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह निश्चत है कि भौतिक पदार्थ के अभाव में भी कोई ऐसा तत्त्व रह जाता है, जिसे हमें स्वतन्त्र वास्तविकता का ही रूप मान लेना पड़ेगा। जैन दर्शन का 'आकाशास्तिकाय' तो सम्भवत: इससे भी भिन्न रह जायेगा। हां, जिस रूप में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय की कल्पना की गई है, उससे यह सम्भव प्रतीत होता है कि वे इस प्राकृतिक वक्रता के लिए उत्तरदायी हों । उक्त विवेचन से यह भी स्पष्ट १. एडिंग्टन ने 'ईथर' सम्बन्धी एक नया सिद्धान्त उपस्थित किया है। उनके अभिमत में आपेक्षिकता के सिद्धांत ने भौतिक ईथर का अस्तित्व मिटा दिया है, किन्तु तब भी अभौतिक ईथर का अस्तित्व तो सम्भव हो सकता है। एडिंग्टन ने आकाश और ईथर में अविच्छिन्न सम्बन्ध की कल्पना की है और माना है कि आकाश, ईथर और क्षेत्र तीनों ही एक हैं। देखें, न्यू पाथवेज इन साइन्स, पृ० ३८-४१ । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा २६१ हो जाता है कि आकाशास्तिकाय नामक तत्त्व की जो धारणा जैन दर्शन में है, उसकी पूर्ति वैज्ञानिकों की आकाश, क्षेत्र या ईथर-सम्बन्धी धारणा नहीं कर सकती। अब 'चतमितिक आकाश-काल की सततता' की धारणा को लें। इसके विषय में आइन्स्टीन के विचारों को समझना कठिन है। जैसे कि पहले बताया जा चुका है, वे इसे वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता के रूप में मानते हैं। विश्व क्या है? इस प्रश्न का उत्तर वे यही देते हैं कि विश्व चतुर्वैमितिक आकाश-काल की सततता है। विश्व पदार्थों से नहीं, घटनाओं से बना हुआ है और ये घटनाएं इस चतुर्वैमितिक आकाश-काल की सततता की ही विविध अवस्थाएं हैं। इस प्रकार का विवेचन अत्यन्त ही उलझनपूर्ण लगता है। एक ओर से यह माना जाता है कि पदार्थ अपनी संहति के कारण चतुर्वैमितिक सततता में वक्रता उत्पन्न कर देता है-“जिस प्रकार सागर में तैरती मछली अपने आस-पास के पानी को आंदोलित कर देती है, उसी तरह एक तारा, पुच्छलतारा या ज्योतिर्माला उस आकाश-काल की सततता में जिसमें होकर वे गति करते हैं, परिवर्तन ला देते हैं।' दूसरी ओर उन पदार्थों को ही उस सततता की अवस्था का रूप माना जाता है। इस प्रकार चतुर्वैमितिक सततता का तत्त्व-मैमासिक दृष्टि से अस्पष्ट प्रतिपादन हुआ है। यह स्पष्ट अभिमत है कि आकाश-काल की चतुवैमितिक सततता से यह तात्पर्य निकालना कि काल आकाश की ही विमिति है, गलत होगा। जैन दर्शन का प्रतिपादन इस विषय में स्पष्ट है। पुद्गलास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल को भिन्न मानकर चलने पर आपेक्षिकता के सिद्धान्त के साथ कोई विरोध प्रतीत नहीं होता। पुद्गलास्तिकाय के संहति, गति आदि गुणों का आकाशास्तिकाय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जैन दर्शन के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि पौद्गलिक प्रभावों से उत्पन्न होने वाले गुरुत्व-क्षेत्र आदि भी पौद्गलिक होने चाहिए। अत: उसमें होने वाले परिवर्तन पुद्गल से ही सम्बन्धित हैं; इसका आकाश के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। बर्टेण्ड रसल द्वारा प्रतिपादित आकाश-सम्बन्धी सिद्धान्त वैज्ञानिकों की उलझन को और स्पष्ट कर देता है। एक तात्त्विक विवेचन के निष्कर्ष रूप में उन्होंने लिखा है-“इस तरह दो प्रकार के आकाश हो जाते हैं-एक तो ज्ञाता-सापेक्ष आकाश और दूसरा वस्तु-सापेक्ष आकाश । एक हमारे अनुभव द्वारा ज्ञात और दूसरा केवल अनुमानित या प्रकल्पित। किन्तु इस अपेक्षा से आकाश और विषय-ग्रहण के अन्य पहलुओं-जैसे रंग, शब्द आदि में कोई फर्क नहीं है। सब के सब अपने ज्ञातासापेक्ष रूप में कार्यकरणवाद के द्वारा प्रकल्पित होते हैं। वर्ण, शब्द और गन्ध के हमारे ज्ञान से आकाश के हमारे ज्ञान को किसी भी कारण से भिन्न नहीं माना जा सकता।" रसल द्वारा प्रतिपादित इन दो प्रकार के आकाशों का अनुभव-ग्राह्य (पर्सेप्चुअल) Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैन दर्शन और विज्ञान आकाश और धारणात्मक (कन्सेप्चुअल) आकाश कहा जाता है। जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित आकाशास्तिकाय को रसल के शब्दों में 'धारणात्मक आकाश' कहा जाता है। जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित आकाशास्तिकाय को रसल के शब्दो में 'धारणात्मक आकाश' कहा जा सकता है, जबकि वैज्ञानिकों का सम्बन्ध केवल अनुभव-ग्राह्य आकाश के साथ रहता है, किन्तु धारणात्मक आकाश का अस्तित्व स्वीकार किये बिना आश्रय-आश्रित सम्बन्ध की पहेली सुलझ नहीं सकती। ___ इस प्रकार उक्त विवेचन के निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित आकाशास्तिकाय का सिद्धांत न केवल आपेक्षिकता के सिद्धान्त द्वारा अखण्डित है, अपितु तर्क-सम्मत भी है। आपेक्षिकता के सिद्धान्त का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम है-आकाश-काल की विमितियों में संकुचन। लोरेन्ट्ज द्वारा दिये गये समीकरणों से पता चल जाता है कि किसी भी पदार्थ की गति के साथ आकाश-काल की विमितियां संकुचित होती हैं। गतिमान पदार्थ की लम्बाई गति की दिशा में संकुचित हो जाती है-इसी को आकाशीय विमिति में संकुचन माना गया है। अब यदि इस संकुचन को वास्तविक आकाश का ही संकुचन मान लिया जाये, तो यह गलत होगा। क्योंकि यह संकुचन भौतिक पदार्थ की ही एक अवस्था परिवर्तन के फलस्वरूप है, न कि अभौतिक आकाश, जिसमें वह पदार्थ आश्रित है, के संकुचन के कारण। ___ काल-विमिति का संकुचन कुछ दुरूहता उत्पन्न कर देता है, इसको समझने के लिए एक सरल उदाहरण लिया जाये । एक तारा पृथ्वी से ४० प्रकाश वर्ष दूर है। अब यदि एक राकेट २४०००० किलोमीटर प्रति सैकिण्ड की गति से वहां जाता है, तो उसे वहां पहुंचने में कितना समय लगेगा? आपेक्षिकता के सिद्धान्त के अनुसार इसके दो उत्तर हैं : पृथ्वी-स्थित मनुष्य की अपेक्षा से तो तारे पर पहुंचने में ३००००० + ४० २४०००० = ५० वर्ष लगेंगे। (क्योंकि प्रकाश की गति ३००००० कि.मी. प्रति सैकिण्ड है।) किन्तु जो मनुष्य उस राकेट में बैठे हुए हैं, उनके लिए फिटजगेराल्ड के संकुचन नियमों के अनुसार काल-विमिति में संकुचन हो जायेगा। यह संकुचन १० : ६ के अनुपात में होगा अर्थात् राकेट में बैठे हुए मनुष्य के लिए तारे तक पहुंचने में ५० +६ १० = ३० वर्ष लगेंगे। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा २६३ उक्त उदाहरण से काल की विमिति के संकुचन को समझा जा सकता है, किन्तु इसके दार्शनिक पक्ष में उलझन पैदा हो जाती है। मनुष्य की प्राकृतिक प्रक्रियाएं (जिसमें उसकी आयु भी है) क्या इस संकुचन से प्रभावित होती हैं। अर्थात् गति के प्रभाव से काल का जो संकुचन हुआ है, उसके अनुसार ही क्या मनुष्य की प्राकृतिक प्रक्रियाएं कार्य करती रहेंगी? इस प्रश्न के उत्तर में सम्भवत: वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं। प्रो. मार्गेनौ इस विषय में यही अभिमत प्रकट करते हैं कि ये सभी संकुचन किसी भी अर्थ में वास्तविक ही हैं। जबकि एडिंग्टन के सामने जब यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि क्या आकाश-काल के संकुचन वास्तविक हैं?' तब उसके उत्तर में उन्होंने कहा था-“हम बहुधा 'सत्य' और 'वास्तविक सत्य' के बीच में भेद करते हैं। उसी के आधार पर गतिमान निकाय का संकुचन भी 'सत्य' कहा जा सकता है, पर वास्तविक सत्य' नहीं कहा जा सकता।" 'आपेक्षिकता के सिद्धांत' में आकाश और काल की परस्परापेक्षता का जो निरूपण किया गया है, वह निर्विवाद है। इसका आधार प्रकाश-गति की सीमितता है। यह एक तथ्य है कि हमारी इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह गति से तेज चलने वाले किसी भी साधन की सहायता से नहीं हो सकता; अत: घटना और द्रष्टा की (आकाशीय) दूरी के ऊपर युगपत्ता की परिभाषा आधारित हो जाती है। अत: किसी भी घटना के पूर्ण विवेचन में आकाश और काल दोनों जुड़े हुए रहते हैं, यह सिद्धांत निर्विवाद रूप से मान्य हो जाता है, किन्तु प्रकाश-गति की सीमितता का क्षेत्र कहां तक है? यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है। आपेक्षिकता के सिद्धान्त की सत्यता की कसौटी सम्भवत: तब हो सकेगी, जब स्थूल विश्व (मक्रोकोस्मोस) के नियमों की समीचीनता सूक्ष्म विश्व (माइक्रोकोस्मोस) में भी यथावत् सिद्ध हो जायेगी। अब तक सूक्ष्म विश्व विषयक विज्ञान की ज्ञानराशि अत्यधिक अल्प है, ऐसी स्थिति में वैज्ञानिक नियमों की सत्यता के विषय में अन्तिम रूप से कुछ भी कहना संभव नहीं माना जा सकता। उपसंहार समग्र विवेचन के निष्कर्ष में यही कहा जा सकता है कि प्रथम तो आपेक्षिकता का सिद्धान्त आकाश और काल-सम्बन्धी जिन धारणाओं को उपस्थित करता है, उनकी सत्यता असंदिग्ध नहीं है और दूसरा इसका दार्शनिक प्रतिपादन सर्वसम्मत नहीं है। कुछ वैज्ञानिकों के द्वारा किया गया प्रतिपादन सम्भवत: ईश्वरवादी दार्शनिक विचारधारा से प्रभावित है तथा स्पष्ट और तर्कसंगत भी नहीं १. देखें, दी नेचर ऑफ फिजिकल रियलिटी, पृ० १४९ । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैन दर्शन और विज्ञान है। आकाश-काल और विश्व की गति-स्थिति-सम्बन्धी समस्याओं को हल करने वाले जैन दर्शन के सिद्धान्त वस्तुत: ही आज के वैज्ञनिकों के सामने एक सम्यक् दार्शनिक प्रणाली उपस्थित करते हैं। यह सही अर्थ में अस्तित्व का दर्शन है। जैन दर्शन में निरूपित सिद्धान्त का स्रोत तर्क नहीं अपितु अन्त:-अनुभूति या विशिष्ट आत्म-ज्ञान है, जिसमें तत्त्व से प्रत्यक्ष सम्पर्क बनता है। तर्क तो इन सिद्धान्तों की एक कसौटी मात्र बन सकती है। वास्तविकता' के पीछे रहे क्यों' को हम सम्भवत: न तो तर्क के सहारे जान सकते हैं और न भौतिक साधन-प्रसाधन तथा ऐन्द्रिय ज्ञान की सहायता से जान सकते हैं। प्रो. मार्गेनौ ने वास्तविकता के स्वरूप नामक पुस्तक के अन्तिम पृष्ठों में लिखा है-“यह निश्चित है कि वास्तविकता का कोई भी कारण (भौतिक अर्थ में) हो नहीं सकता।........ऐसे बिन्दु पर जाते ही वैज्ञानिक छुट्टी ले लेता है और अस्तित्व का दर्शनिक सूत्रधार बन जाता है।" अभ्यास १. जैन दर्शन की द्रव्य-मीमांसा में वर्णित गति-माध्यम एवं स्थिति-माध्यम के स्वरूप को विस्तार से बताते हुए उनकी वैज्ञानिक दृष्टि से समीक्षा करें। २. जैन दर्शन के आकाश द्रव्य को समझाइए। उसकी तार्किक आधारों पर मीमांसा करें। ३. जैन दर्शन में काल को क्या माना गया है? इस विषय में क्या मतभेद है? एतद्विषयक वैज्ञानिक अवधारणा के साथ जैन दर्शन की तुलना करें। ४. आइंस्टीन से पूर्व विज्ञान के क्षेत्र में आकाश और काल की क्या अवधारणाएं थी? ५. आपेक्षिकता के सिद्धान्त द्वारा आकाश और काल के स्वरूप को किस रूप में प्रस्तुत किया गया है? ६. आपेक्षिकता के सिद्धान्त के दार्शनिक प्रतिपादन की विस्तृत चर्चा करें। ७. जैन दर्शन एवं आपेक्षिकता के सिद्धान्त की आकाश सम्बन्धी अवधारणाओं की तुलना करें। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. विश्व का परिमाण और आयु जैन दर्शन का दृष्टिकोण विश्व का आकार क्या है? अनन्त-असीम आकाश के बहुमध्यभाग में स्थित सान्त - ससीम 'लोक' का निश्चित आकार माना गया है। जो धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का आकार है, वही लोक का आकार बन जाता है। दूसरे शब्दों में जिस आकार से धर्म और अधर्म द्रव्य लोकाकाश में स्थित हैं, उसी आकार से 'लोक' स्थित है । सुप्रतिष्ठक आकार का अर्थ है - त्रिशरावसम्पुटाकार। एक शिकोरा (शराव ) उल्टा, उस पर एक शिकोरा सीधा, फिर उस पर एक उल्टा रखने से जो आकार बनता है, उसे त्रिशरावसम्पुटाकार कहते हैं । इस प्रकार से बने आकार में नीचे चौड़ाई अधिक और मध्य में कम होती है । पुनः ऊपर चौड़ाई अधिक होती है और अन्त में पुनः कम हो जाती है । अन्यत्र समग्र लोक का आकार पुरुष - संस्थान भी बतलाया गया है। दोनों हाथ कटि तट पर रख कर जैसे कोई पुरुष वैशाख संस्थान की तरह (पैर चौड़े रखकर ) खड़ा हो, वैसा ही सर्वथा यह लोक है । इस प्रकार विविध उपमाओं के द्वारा लोक का आकार स्पष्ट किया गया है। लोक के 'आयतन' का विवेचन गाणितिक होने से लोक का आकार कहां किस प्रकार है, इसकी स्पष्ट कल्पना गाणितिक विवेचन के द्वारा हो सकती है । विश्व कितना बड़ा है लोकाकाश शान्त और ससीम है; अत: उसका निश्चित 'आयतन' माना गया है । इसके गणितीय विवेचन के अतिरिक्त इसको भी उपमा के द्वारा समझाया गया है। 11 यह लोक कितना बड़ा है ?" गौतम के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा—“गौतम ! यह लोक बहुत बड़ा हैं पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऊर्ध्व और अधो दिशाओं में असंख्यात योजन का लम्बा-चौड़ा कहा गया है ।" गणितीय विवेचन लोक के आकार और आयतन के विषय में जैन साहित्य में विस्तृत गाणितिक विवेचन मिलता है, किन्तु दिगम्बर परम्परा और श्वेताम्बर - परंपरा में यह विवेचन भिन्न-भिन्न रूप में मिलता है । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जैन दर्शन और विज्ञान दिगम्बर-परम्परा दिगम्बर-परम्परा के अनुसार लोक का गाणितिक-विवेचन निम्नोक्त है। "लोक के तीन परिमाणों में से (ऊंचाई, लंबाई, चौड़ाई) प्रथम परिमाण अर्थात् ऊंचाई १४ रज्जु' है। दूसरा परिमाण (अर्थात् चौड़ाई) सर्वत्र ७ रज्जु है। तीसरा परिमाण (अर्थात् लम्बाई) सारे लोक में समान नहीं है। लोक के विभिन्न स्थानों पर लोक की लम्बाई भिन्न-भिन्न है। उसको समझने के लिए लोक के (ऊंचाई के प्रमाण से) दो विभागों की कल्पना करनी चाहिए। अर्थात् लोक के दो भाग करने चाहिए, जिसमें से प्रत्येक भाग की ऊंचाई ७ रज्जु हो। इन दो भागों में से, प्रथम अधस्तन भाग (अधोलोक) नीचे (आधार पर) ७ रज्जु लम्बा है और ऊपर क्रमश: घटता-घटता १ रज्जु । इस प्रकार अधोलोक का आकार समलम्बचतुर्भुजाधार समपार्श्व के सदृश होता है, जिसकी ऊंचाई ७ रज्जु, चौड़ाई सर्वत्र ७ रज्जु और लम्बाई नीचे आधार पर ७ रज्जु और ऊपर १ रज्जु है। अधोलोक का घनफल १९६ घन रज्जु है। ऊर्ध्वलोक की ऊंचाई ७ रज्जु है, चौड़ाई सर्वत्र ७ रज्जु है और लम्बाई नीचे १ रज्जु, बीच में ५ रज्जु और ऊपर १ रज्जु है। इस प्रकार ऊर्ध्वलोक दो समान समलम्ब चतुर्भुजाधार समपार्श्व का बना हुआ है। ऊर्ध्वलोक का घनफल १४७ घन रज्जु है। अधोलोक और ऊर्ध्वलोक के घनफलों को मिलाने पर समग्र लोक का घनफल निकलता है; समग्रलोक का घनफल = १९६ + १४७ = ३४३ घन रज्जु श्वेताम्बर-परम्परा श्वेताम्बर-परम्परा के आगम-साहित्य में यद्यपि लोक आयाम, विष्कम्भ आदि के विषय में विस्तृत गाणितिक विवेचन उपलब्ध नहीं है, फिर भी उत्तरवर्ती-ग्रन्थों में जो विवेचन किया गया है, उसके आधार पर यहां लोक का गणितीय विवेचन किया जा रहा है। इन ग्रन्थों के अनुसार लोक की ऊंचाई १४ रज्जु है। दूसरा परिमाण (चौड़ाई) और तीसरा परिमाण (लम्बाई) विभिन्न ऊंचाइयों पर भिन्न-भिन्न है और समान ऊंचाई पर समान है। लोक-प्रकाशकार विनयविजय गणी ने लिखा है : “इस घनीकृत लोक के तीन सौ तैंतालीस घन-रज्जु तत्त्वज्ञों द्वारा माने गए हैं।'' १. रज्जु जैन-खगोल-शास्त्र का नाप है, जिसके विषय में विस्तारपूर्वक विवेचन आगे किया गया Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व का परिमाण और आयु २६७ दो परम्पराओं का मतभेद और उसकी समीक्षा उपरोक्त विवेचन से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि श्वेताम्बर परम्परा और दिगम्बर-परम्परा, लोक के कुल आयतन के विषय में एकमत हैं ही कि लोक का आयतन ३४३ घन रज्जु है। दोनों परम्पराओं में मुख्य मतभेद रह जाता है-लोक के आकार के विषय में । लोक की ऊंचाई १४ रज्जु है, यह भी दोनों परम्पराओं को मान्य है। लोक की दो विमितियां (लम्बाई और चौड़ाई) लोक के अधस्तन अन्त पर सात रज्जु है, यह भी दोनों परम्पराएं मानती हैं। अधस्तन अन्त से ७ रज्जु ऊपर लोक की एक विमिति १ रज्जु, अधस्तन अन्त के १०-१/२ रज्जु ऊपर लोक की एक विमिति ५ रज्जु और ऊर्ध्वान्त में (अधस्तन अन्त से १४ रज्जु ऊपर) लोक की एक विमिति १ रज्जु है; यह भी दोनों परम्पराओं को मान्य है। जहां दिगम्बर-परम्परा लोक के उत्तर-दक्षिण बाहुल्य को सर्वत्र ७ रज्जु और लोक के समग्र आकार को 'आयत-चतुरस्राकृति' वाला मानती है, वहां श्वेताम्बर-परम्परा सर्वत्र समान बाहुल्य को स्वीकार नहीं करती है। लोक के उत्तर-दक्षिण बाहल्य की सर्वत्र सात रज्जु की स्थापना आचार्य वीरसेन की ही मौलिक देन है। इसी मान्यता को अधिक पुष्ट प्रमाण मिले हैं और अधिकांश विद्वानों ने इसको स्वीकार किया है। इससे यह कहा जा सकता है कि धवलाकार वीरसेनाचार्य से पूर्व दिगम्बर-परम्परा में लोक के आकार के विषय में गणित की दृष्टि से कोई सुस्पष्ट मान्यता नहीं थी। उस समय सम्भवत: श्वेताम्बर आचार्यों में मृदंगाकार लोक की कल्पना प्रचलित थी, उसका उल्लेख धवला में किया गया है। किन्तु उस मान्यता में गणितीय दृष्टि से यह त्रुटि थी कि लोक का समग्र घनफल ३४३ घन रज्जु से बहुत कम था। वीरसेनाचार्य ने गणितीय आधारों पर मृदंगाकार लोक का घनफल निकाल कर दिखा दिया कि यह मान्यता ३४३ घन रज्जु की मान्यता के साथ संगत नहीं हो सकती है। तदुपरान्त उन्होंने दो प्राचीन गाथाओं के आधार पर यह बताया कि लोक का घनफल अधोलोक में १९६ घनरज्जु और ऊर्ध्वलोक में १४७ घन रज्जु होना चाहिए। उन्होंने अपनी प्रतिभा द्वारा खोज निकाला कि ऐसा फलित तभी हो सकता है, जबकि लोक की एक विमिति को सर्वत्र सात रज्जु मान लिया जाये। इस परिकल्पना के आधार पर उन्होंने लोक की जो आकृति बनाई, उसमें लोक का समग्र घनफल ३४३ घनरज्जु, अधोलोक का १९६ घनरज्जु और ऊ र्वलोक का १४७ घनरज्जु हुआ। इस आकृति में मूल मान्यताएं जैसे कि समग्र ऊंचाई १४ रज्जु, अधोलोकान्त में बाहुल्य सात रज्जु, लोक-मध्य में १ रज्जु, ऊर्ध्वलोक के मध्य में ५ रज्जु और ऊर्ध्वलोक के अन्त में १ रज्जु ही सुरक्षित रह गई। इस प्रकार वीरसेन द्वारा प्रतिपादित लोकाकृति दिगम्बर-परम्परा में सर्वमान्य हो गई। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान श्वेताम्बर परम्परा में लोक के विषय में मूल मान्यताओं में उपरोक्त मान्यताओं के अतिरिक्त इन मान्यताओं का भी समावेश होता है : २६८ १. लोक का आयाम - विष्कम्भ ( लम्बाई-चौड़ाई) समान ऊंचाई पर समान होना चाहिए । २. लोक की लम्बाई-चौड़ाई में उत्सेध की अपेक्षा क्रमिक वृद्धि-हानि होनी चाहिए । इन मान्यताओं को यदि स्वीकार किया जाये, तो 'उत्तर - दक्षिण सर्वत्र सात रज्जु बाहुल्य' की कल्पना संगत नहीं होती है । इसलिए श्वेताम्बर - परम्परा के आचार्यों ने 'उत्तर-दक्षिण सर्वत्र सात रज्जु' वाली मान्यता को स्वीकार नहीं किया है । दूसरी ओर ३४३ घनरज्जु वाली मान्यता को वे स्वीकार करते हैं। लोक का कुल आयतन ३४३ घनरज्जु है, जिसमें अधोलोक का घन-फल १९६ घन रज्जु और ऊर्ध्वलोक का घनफल १४७ घन रज्जु है । धवलाकार आचार्य वीरसेन ने लोक के सम्पूर्ण घनफल को ३४३ घन रज्जु तथा अधोलोक के घनफल को १९६ घन रज्जु और ऊर्ध्वलोक के घनफल को १४७ घन रज्जु सिद्ध करने के लिए लोक के उत्तर-दक्षिण सर्वत्र सात रज्जु मोटाई की कल्पना की है, क्योंकि उनके मतानुसार लोक को अन्य प्रकार से मानने पर उक्त घनफल सम्भव नहीं है। आधुनिक गणित-पद्धतियों के प्रकाश में यदि आधुनिक गणितीय पद्धतियों के प्रकाश में उक्त समस्या का अध्ययन किया जाये, तो ऐसा समाधान निकल सकता है, जो उल्लिखित मूल मान्यताओं के साथ संगत हो और उसमें गणितीय विधियों की पूर्णता भी सुरक्षित रहे। इस प्रकार का प्रयत्न करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि लोक का ३४३ घन रज्जु आयतन श्वेताम्बर - र-परम्परा के द्वारा प्रतिपादित मूल मान्यताओं पर निकाला जा सकता है। इस प्रकार के प्रयत्न के फलस्वरूप हम लोकाकृति के जिस निर्णय पर पहुंचते हैं, उसकी ये विशेषताएं उल्लेखनीय हैं। : इस नवीन आकृति में सर्वत्र सात रज्जु बाहुल्य माने बिना भी समग्र लोक का घनफल ३४३ घन रज्जु, ऊर्ध्वलोक का १४७ घन रज्जु और अधोलोक का १९६ घन रज्जु सम्भव हो जाता है । इस नवीन आकार में चारों ओर से लोक का आकार समान दिखाई देता १. आधुनिक 'समाकलन- गणित' में ठोस आकृत्तियों के आयतन निकालने की विधि के आधार पर लोकाकृति का आयतन निकालने पर ३४३ घन रज्जु का आयतन हो सकता है । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९ विश्व का परिमाण और आयु है। पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण विस्तार सात रज्जु, एक रज्जु, पांच रज्जु और एक रज्जु है। नवीन आकृति पूर्णरूप से सममित (symmetrical) है। रज्जु का अंकीकरण रज्जु जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। जैन दर्शन में जहां लोक के सम्बन्ध से दूरी का विवेचन हुआ है, वहां अधिकांशतया ‘रज्जु' शब्द का उपयोग हुआ है। ‘रज्जु' को हम जैन ज्योति-भौतिकी (astrophysics) का क्षेत्र-मान कह सकते हैं। व्यावहारिक भाषा में एक रज्जु का मान अंसख्यात योजन बताया गया है। कुछ विद्वानों ने रज्जु को अंकों के द्वारा व्यक्त करने का--अंकीकरण करने का प्रयत्न किया है। रज्जु' का मान निन्नोक्त परिभाषा में दिया गया है : "२,०५७,१५२ योजन प्रतिक्षण की गति से निरन्तर चलने वाला देव छ: महीने में जितनी दूरी तय करता है, उसे एक रज्जु कहा जाता है।" इस आधार पर १ रज्जु = १०० माईल होता है। गणितीय विवेचन का उपसंहार इन दो तथ्यों में आ जाता है(१) विश्व त्रिशरावसम्पुटाकार से स्थित है। १९६ (२) विश्व का घनफल १० घन माईल से भी अधिक है। विश्व : काल की दृष्टि से विश्व की अनादि-अनन्तता जैन दर्शन के अनुसार विश्व शाश्वत है। यह तथ्य जैन आगमों में अनेक स्थलों में अनेक प्रकार से समझाया गया है। लोक और अलोक-"ये दोनों पहले से हैं और पीछे रहेंगे; अनादि काल से हैं और अनन्त काल तक रहेंगे। दोनों शाश्वत भाव हैं; अनानुपूर्वी हैं। इनमें पौर्वापर्य (पहले-पीछे का) क्रम नहीं है।'' समग्र विश्व पांच अस्तिकायों का समूह है। ये पांचों अस्तिकाय धुव, नियत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य हैं। इसलिए समग्र विश्व स्वत: ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अवस्थित और नित्य है। दूसरे शब्दों में, यह विश्व भूतकाल में विद्यमान था, वर्तमान काल में विद्यमान है और भविष्य में विद्यमान रहेगा। वह न तो कभी बनाया गया और न कभी विनाश को प्राप्त होगा। काल की दृष्टि से यह आदि-रहित और अन्त-रहित है। जैन दर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है। किसी भी विचार के विषय में वह Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० जैन दर्शन और विज्ञान एकान्तता को स्वीकार नहीं करता। इसलिए 'विश्व' को जहां एक ओर शाश्वत मान लिया गया, वहां दूसरी ओर परिवर्तनशील भी । पूर्व विवेचित 'परिणामी - नित्यवाद' इस तथ्य का प्रतिपादन करता है कि प्रत्येक पदार्थ 'उत्पत्ति और नाश' रूप परिवर्तन के होते हु भी अपना अस्तित्व रख लेता है । दूसरे शब्दों में विश्व के समस्त पदार्थ-जीव और अजीव-उत्पत्ति, नाश और ध्रुवता की त्रिपुटी से युक्त हो जाते हैं । इस प्रकार विश्व शाश्वत भी है, अशाश्वत भी । विश्व छ: द्रव्यों का समूह मात्र है, अतः विश्व की 'शाश्वतता--अशाश्वतता' को समझने के लिए छ: द्रव्यों की शाश्वतता - अशाश्वतता का विश्लेषण आवश्यक होगा । छहों ही द्रव्य कब, कैसे और किससे अस्तित्व में आए ? इन प्रश्नों का समाधान 'अनादि' अस्तित्व के स्वीकार करने से ही हो सकता है । अर्थात् जो द्रव्यों के अस्तित्व को 'सादि' स्वीकार करते हैं, उनके लिए ये समस्याएं बनी रहती हैं । किन्तु जो द्रव्यों के अस्तित्व को 'अनादि' मानते हैं, उनके लिए यह प्रश्न उठते ही नहीं । द्रव्यों के अस्तित्व को 'सादि' मानने पर असत् से सत् की उत्पत्ति स्वीकार करनी पड़ती है। यह कार्यकारणवाद के साथ संगत नहीं हो सकता। क्योंकि उपादान कारण यदि असत् होता है, तो कार्य सत् नहीं हो सकता। इसलिए उपादान की मर्यादा को स्वीकार करने वाले असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं मान सकते, नियामकता की दृष्टि से ऐसा होना भी नहीं चाहिए । अन्यथा समझ से परे की अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है । अत: छ: द्रव्यों का अस्तित्व अनादि सिद्ध हो जाता है । परिणामी - नित्यत्ववाद इन द्रव्यों के अस्तित्व को अनन्त सिद्ध कर देता है । इस प्रकार षड् द्रव्य अस्तित्व की दृष्टि से 'अनादि-अनन्त' सिद्ध हो जाने पर विश्व की शाश्वता प्रमाणित हो जाती है । षड् द्रव्यों में होने वाले 'परिणमन' विश्व को 'अशाश्वत' भी बना देते हैं । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल; इन चार द्रव्यों में स्वाभाविक परिणमन होता रहता है । इस परिणमन के कारण ही शाश्वत काल तक ये पदार्थ अपने अस्तित्व को बनाए रखते हैं । दृश्य विश्व की समस्त लीलाएं पुद्गलास्तिकाय (पुद्गल ) और जीवास्तिकाय (आत्मा) के परिणमनों के कारण होती रहती हैं । काल- चक्रीय विश्व- सिद्धांत विश्व की शाश्वतता - अशाश्वतता का अब तक का विवेचन समग्र विश्व की दृष्टि से किया गया । विश्व के मध्य भाग में स्थित 'तिर्यग् लोक' के विशेष स्थानों के लिए 'अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी काल - चक्र के सिद्धान्त को जैन दर्शन स्वीकार करता है । समग्र लोक की ऊंचाई १४ रज्जु है, अधोलोक की ७ रज्जु से कुछ अधिक है और ऊर्ध्वलोक की ७ रज्जु से कुछ कम । इन दोनों के बीच में तिर्यग्-लोक है । तिर्यग्-लोक Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व का परिमाण और आयु २७१ के मध्य में समय-क्षेत्र' है। समय-क्षेत्र में ही सूर्य चन्द्रकृत व्यावहारिक काल होता है। समय-प्रवाह के साथ प्रकृति की कुछ प्रक्रियाओं में परिवर्तन भी होता रहता है। इन परिवर्तनों को समझाने के लिए अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल-चक्र' का सिद्धान्त है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी का अर्थ हास और विकास का एक सुदीर्घ काल-चक्र। एक काल-चक्र २० कोटाकोटि अद्धा-सागरोपम काल में पूरा होता है। इतना काल व्यतीत होने में असंख्य वर्ष बीत जाते है। प्रत्येक काल-चक्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के चक्रार्ध होते हैं। उत्सर्पिणी काल-चक्राध में समय क्षेत्र की प्रकृतिजन्य सभी प्रक्रियाएं क्रमश: निर्माण और विकास की ओर बढ़ती हैं और अन्त में प्रगति चरम सीमा को प्राप्त होती है। इसके बाद अवसर्पिणी काल-चक्रार्ध के प्रारम्भ होने पर वे प्रक्रियाएं पुन: ध्वसं और हास की ओर चलती हैं और अन्त में वे विनाश की चरम मर्यादा तक पहुंचती हैं। दूसरे शब्दों में उत्सर्पिणी के काल-चक्रार्ध में प्रकृति की चाबी भरी जाती है और चरम अवस्था के बाद पुन: उसका खाली होना प्रारम्भ होता है। अवसर्पिणी काल-चक्रार्ध के अंत तक प्रकृति की चाबी की रिक्तता उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त करती है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी की परिभाषा करते हुए कहा गया है, “जिस काल-चक्रार्ध में सभी शुभ भाव क्रमश: क्षीण होते हैं और अशुभ भाव क्रमश: वृद्धिंगत होते हैं, वह 'अवसर्पिणी' है। जिस काल-चक्रार्ध में सभी शुभ भाव क्रमश: वृद्धि को प्राप्त करते हैं और अशुभ भाव क्रमश: क्षीण होते हैं, वह उत्सर्पिणी है।" अवसर्पिणी काल में पुद्गलों में (परमाणु तथा परमाणु-समूहों में) स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि की अपेक्षा से अनन्त गुण की हानि होती है। उत्सर्पिणी काल में इससे विपरीत होता है। उत्सर्पिणी के बाद अवसर्पिणी और अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी, इस प्रकार काल-चक्र चलता रहता है। अनादि भूत में अनन्त काल-चक्र व्यतीत हो गये और अनन्त भविष्य में अनन्त काल-चक्र व्यतीत होंगे। प्रत्येक काल चक्रार्ध के छ: खण्ड होते हैं, जिनको 'आरा' कहते हैं। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में उत्तरोत्तर हानि और वृद्धि का विस्तृत वर्णन जैन आगमों में मिलता है। यहां पर केवल तीन प्रक्रियाओं के विषय में हानि-वृद्धि की चर्चा की जाती है। १. दिगम्बर परम्परा में एक काल-चक्र के वर्षों की संख्या का नाम 'कल्प' भी मिलता है। अर्ध-महाकल्प के ४१३, ४५२, ६३०, ३०२, २०३, १७७, ७४९, ५१२, १९२४१०५० वर्ष होते हैं। अर्थात् महाकल्प के ८.२६४१०७६ वर्ष होते हैं। किन्तु यह संख्या असंख्य वर्षों की अपेक्षा में अत्यन्त छोटी है। वस्तुत: तो दिगम्बर परम्परा के अनुसार उत्कृष्ट संख्यात वर्ष का मान 'अचलात्म' है। अचलात्म के ८४९x१०० वर्ष होते हैं। जो कि, ४.५४१०१४९ लगभग होते हैं। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जैन दर्शन और विज्ञान अवसर्पिणी काल में समय बीतने के साथ-साथ मनुष्यों का आयुष्य, ऊंचाई और पृष्ठ-करंडक (पृष्ठ-अस्थि) की संख्या में हानि होती रहती है। निम्न कोष्ठक के द्वारा उन हानियों का प्रमाण स्पष्ट हो जाएगा। प्रत्येक आरे के प्रारम्भ में आयुष्य आदि का मान : an १२८ ६४ mx i will २० वर्ष आरा-क्रमांक आयुष्य ऊंचाई | पृष्ठ-अस्थि-संख्या ३ पल्योपमः ६००० धनुष्य २५६ २ पल्योपम ४००० धनुष्य १ पल्योपम २००० धनुष्य १ कोड़ पूर्व १५०० धनुष्य ४८ १३० वर्ष ७ हाथ २१ हाथ उत्सर्पिणी काल में आयु, ऊंचाई पृष्ठ-अस्थि-संख्या आदि में क्रमश: वृद्धि होती है। वर्तमान युग वर्तमान में जो आरा चल रहा है, वह अवसर्पिणी काल का पांचवां आरा है। इस आरे का प्रारम्भ श्रमण महावीर के निर्वाण के ३ वर्ष ८-१/२ मास पश्चात् हुआ था। भगवान् महावीर का निर्वाण ई. पू. ५२७ में हुआ था; अत: ई. पू. ५२७ में पांचवें आरे का आरम्भ होता है। यह आरा २१००० वर्ष का है। छठे आरे का प्रारम्भ में होने वाली स्थिति का वर्णन विस्तृत रूप से जैन साहित्य में मिलता है। “उस समय दु:ख से लोगों में हाहाकार होगा। अत्यन्त कठोर स्पर्श वाला, मलिन, धूलि-युक्त पवन चलेगा। वह दु:सह व भय उत्पन्न करने वाला होगा। वर्तुलाकार वायु चलेगी, जिससे धूलि आदि एकत्रित होगी। पुन:-पुन: धूलि उड़ने से दशों दिशाएं रज:सहित हो जाएंगी। धूलि से मलिन अंधकार समूह के हो जाने से प्रकाश का आविर्भाव बहुत कठिनता से होगा। समय की रूक्षता से चन्द्रमा अधिक शीत होगा और सूर्य भी अधिक तपेगा। उस क्षेत्र में बार-बार बहुत अरस-विरस मेघ, क्षार मेघ, विद्युन्मेघ, अमनोज्ञ मेघ, प्रचण्ड वायु वाले मेघ बरसेंगे।..........उस समय भूमि अग्निभूत, मुर्मुरभूत भस्मभूत हो जाएगी। पृथ्वी पर चलने वाले जीवों को बहुत कष्ट होगा। उस क्षेत्र के मनुष्य विकृत वर्ण, गन्ध, रस, १. पल्योपम के असंख्यात वर्ष होते हैं। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व का परिमाण और आयु २७३ स्पर्श वाले होंगे तथा वे ऊंट की तरह वक्र चाल चलने वाले, शरीर के विषम संधि-बन्ध को धारण करने वाले, ऊंची-नीची विषम पसलियों तथा हड्डियों वाले और कुरूप होंगे। उत्कृष्ट १ हाथ की अवगाहना (ऊंचाई) और २० वर्ष की आयु होगी। बड़ी-बड़ी नदियों का विस्तार रथ के मार्ग जितना होगा। नदियों में पानी बहुत थोड़ा रहेगा। मनुष्य भी केवल बीज रूप ही बचेंगे। वे उन नदियों के किनारे बिलों में रहेंगे। सूर्योदय से १ मुहूर्त पहले और सूर्यास्त से १ मुहूर्त पश्चात् बिलों से बाहर निकलेंगे और मत्स्य आदि को उष्ण रेतों में पकाकर खायेंगे।........इस प्रकार छठे आरे का प्रारम्भ होकर २१००० वर्ष तक यह स्थिति उत्तरोत्तर विषम बनती रहेगी।' छठे आरे का अन्त होने पर अवसर्पिणी काल-चक्रार्ध समाप्त हो जाएगा। उस समय हास अपनी चरम सीमा पर पहुंचेगा। इसके बाद पुन: उत्सर्पिणी काल-चक्रार्ध प्रारम्भ होगा। जिससे प्रकृति का वातावरण पुन: सुधरने लगेगा। शुद्ध हवाएं चलेंगी, स्निग्ध मेघ बरसेंगे और अनुकूल तापमान होगा। सृष्टि बढ़ेगी, गांव और नगरों का पुनः निर्माण होगा।" यह क्रमिक विकास उत्सर्पिणी के अन्त में निर्माण के चरम शिखर पर पहुंचेगा। इस प्रकार काल-चक्र सम्पन्न होता है। प्रकृति के इतिहास में होने वाले इस अध्याय-परितर्वन को लोक प्रलय और सृष्टि कहते हैं। जैन विचारधारा के अनुसार प्रलय का अर्थ 'आत्यन्तिक नाश' नहीं; वह ध्वंस (हास) की अन्तिम मर्यादा है।" उपसहार प्रस्तुत विषय के उपसंहार में यह कहा जा सकता है कि जैन दर्शन के अनुसार : १. विश्व अस्तित्व की अपेक्षा से अनादि और अनन्त है। २. इस शाश्वत विश्व में प्रतिक्षण उत्त्पत्ति और विनाश रूप अनन्त परिणमन होते रहते हैं। ३. विश्व के विशेष क्षेत्रों (समय-क्षेत्र) में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल-चक्र का प्रवर्तन होता रहता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण : विश्व का परिमाण आइन्स्टीन के आपेक्षिकता के सिद्धांत से पहले वैज्ञानिकों में विश्व के परिमाण के बारे में दो विचारधाराएं थीं : १. विश्व स्वयं ही अनन्त है। २. विश्व अनन्त समुद्र में जड़ आदि पदार्थों में समूहरूप एक द्वीप समान Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ जैन दर्शन और विज्ञान प्रथम विचारधारा के पीछे यह तर्क था कि यदि विश्व को सान्त (ससीम) मान लिया जाए, तो यह प्रश्न सहसा खड़ा हो जाता है कि विश्व की सीमा से परे क्या है? इस विकट प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाने के कारण वैज्ञानिकों ने यह मान लिया कि विश्व अनन्त (असीम) है। दूसरी विचारधारा के पीछे न्यूटन के 'गुरुत्वाकर्षण के नियम' का आधार था। यदि हम विश्व को अनन्त मान लें, (और क्योंकि अनन्त विश्व में स्थित सभी पदार्थों की संहति (Mass) समानतया विभाजित होनी चाहिए), तो गुरुत्वाकर्षण के नियमानुसार अनन्त विश्व में व्याप्त सभी पदार्थ का संगठित गुरुत्वाकर्षण बल' सब पदार्थों के अनन्त तक व्याप्त होने के कारण, अनन्त हो जाएगा; और विश्व का समस्त आकाश अनन्त प्रकाश से चमक उठेगा। किन्तु वास्तव में यह स्थिति नहीं है। इसलिए 'अनन्त विश्व' की कल्पना भी सत्य नहीं है। अत: 'विश्व अनन्त आकाश के अन्दर एक द्वीप के समान है' यह विचारधारा कुछ एक वैज्ञानिकों ने मान्य रखी। 'विश्व एक द्वीप' की कल्पना भी आशंकाओं से मुक्त नहीं थी। 'तारापुञ्ज या आकाशगंगाओं की गति के नियम' (Dynamic Laws of the Motion of Galaxies) इन आशंकाओं को उत्पन्न करते हैं। अनन्त आकाश की तुलना में ससीम विश्व में स्थित द्रव्य-राशि इतनी कम है कि आकाश-गंगाओं के गति की नियमों के कारण वह राशि बादल के बिन्दुओं की तरह अनन्त आकाश में विलीन हो जाती और समग्र विश्व रिक्त हो जाता। किन्तु स्थिति यह नहीं है। अत: इस कल्पना को सिद्ध करने के लिए भी प्रमाण आवश्यक थे। आपेक्षिकता के सिद्धान्त द्वारा समाधान आइन्स्टीन के अनुसार विश्व के आकार प्रकार की जो कल्पना हम युक्लिडीय (Euclidean) भूमिति के आधार पर करते हैं, वह ठीक नहीं है। गुरुत्व-क्षेत्र (Gravitational Field) में चलने वाली प्रकाश की किरणें सीधी रेखा में नहीं चलती हैं, किन्तु वक्र रेखा या वर्तलाकार में चलती हैं-इस बात से यह सिद्ध हो जाता है कि युक्लिडीय भूमिति के नियम गुरुत्व-क्षेत्र में लागू नहीं होते। विश्व में समाहित तारा, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, आकाशगंगा आदि समस्त पदार्थों के गुरुत्व के कारण उनकी संहति (Mass) और गति (Velocity) के अनुपात में सारा विश्वाकाश वक्रता धारण करता है। अर्थात् प्रत्येक पदार्थ अपने आस-पास के आकाश को वक्र बनाता है। सामान्य आपेक्षिकता के सिद्धांतानुसार उस वक्रता के परिमाण का आधार पदार्थ-स्थित संहति पर रहता है। जितनी संहति अधिक होगी, उतनी ही वक्रता भी बढ़ेगी। दूसरे शब्दों में प्रत्येक पदार्थ अपनी संहति के अनुसार विश्वाकाश की वक्रता में योग देता है। अत: सारे विश्व का आकार विश्व-स्थित सभी द्रव्यों की Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व का परिमाण और आयु २७५ सामूहिक द्रव्य-राशि पर आधारित है। - इस प्रकार सामान्य आपेक्षिकता का सिद्धान्त' विश्व अर्थात् 'आकाशकाल की चतुर्वैमितिक सततता' की भूमिति और विश्व-स्थित संहति के बीच सीधा सम्बन्ध दर्शाता है। विश्व कितना बड़ा है?' इस प्रश्न का उत्तर हम तभी दे सकते हैं, जब हमें विश्व की भूमिति का सही ज्ञान हो। किन्तु यदि हम विश्व-स्थित 'संहति' का सही-सही पता लगा सकें, तो आइन्स्टीन के समीकरण हमें विश्व की भूमिका का ज्ञान कराते हैं। आइन्स्टीन ने कल्पना की कि विश्व-स्थित भौतिक पदार्थों की संहति-राशि सीमित है। अत: आइन्स्टीन का विश्वाकाश, जो गाणितिक संज्ञा 'आव्यूह' (Matrix) द्वारा दर्शाया जाता है, युक्लिडियेतर और सान्त (finite) बन जाता है। पदार्थों की सामूहिक द्रव्य-राशि के कारण सारा विश्व उस प्रकार से वक्र बना है कि समग्र विश्व-आकाश एक बद्ध वक्राकार' धारण करता है। अत: विश्वाकाश ससीम बन जाता है। फिर भी बद्धाकार होने के कारण यदि प्रकाश की एक किरण एक स्थान से चलेगी, तो सारे विश्व की परिक्रमा कर, फिर मूल स्थान पर आ जाएगी। इस प्रकार आइन्स्टीन का विश्व अनन्त नहीं है और युक्लिडीय भूमिति के नियमों से भी बाधित नहीं है। गणित की भाषा में विश्व चतुर्वैमितिक (Four-dimensional) सततता है, जो कि गोले (sphere) की त्वचा (Surface) के समान है। आपेक्षिकता के सिद्धांत के द्वारा विश्व का जो नया दर्शन मिला, उसे समझाने के लिए सर जेम्स जीन्स ने साबुन के बुलबुले का उदाहरण दिया है : __“साबुन के बुलबुले की कल्पना कीजिए, जिसकी त्वचा के ऊपरी भाग में नाना प्रकार की रेखाएं आदि हों। विश्व उस बुलबुले का भीतरी भाग नहीं, परन्तु उसकी बाह्य त्वचा के स्थान में है। दोनों में केवल यह अन्तर है कि साबुन का बुलबुला दो ही विमिति वाला है, जबकि विश्व-आकाश का गोला चार विमिति वाला-तीन विमितियां आकाश की और एक काल की; विश्व जिस पदार्थ का बना हुआ है, वह रिक्त आकाश है, जो कि रिक्त काल के ऊपर लपेटा हुआ है।" यह मन्तव्य सुप्रसिद्ध वैज्ञानिकों के शब्दों में अधिक स्पष्ट होगा। प्रो. सर ए. एस. एडिंग्टन लिखते हैं : "प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में यह प्रश्न उत्पन्न होता होगा कि क्या आकाश का अन्त है?' यदि है, तो उससे आगे क्या है? यदि नहीं है, तो आकाश के १. सर ए. एस. एडिंग्टन ने इसके आधार पर यह पता लगाया है कि यदि विश्व-स्थित धनाणुओं (Protons) और ऋणाणुओं (Electrons) की संख्याएं समान हों, तो यह संख्या १.१९x१०५ दखें, दी न्यू पाथवेज इन साईन्स, पृ० २२१; दी एक्सपाण्डिंग यूनिवर्स, पृ० ६८) Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ जैन दर्शन और विज्ञान बाद आकाश........' यह कल्पना भी अचिन्त्य है। आपेक्षिकता के सिद्धांत से पहले जो रूढ़ विचार प्रचलित था, उसके अनुसार आकाश (विश्व) अनन्त था। यद्यपि अनन्त आकांश की कल्पना अचिन्त्य है, फिर भी भौतिक विज्ञान-जगत में इसी कल्पना को स्वीकार कर हमें संतोष मान लेना पड़ा। यद्यपि यह कल्पना चित्त को अशान्त करने वाली थी, फिर भी अतार्किक नहीं थी। अब आइन्स्टीन का सिद्धांत हमें इस दुविधा से बाहर ले जाता है। 'आकाश सान्त भी है, अनन्त भी' अथवा 'सान्त, किन्तु असीम'-ये शब्द प्राय: आकाश के लिए प्रयुक्त होने लगे हैं।" - वैज्ञानिक वरनर हाइजनबर्ग विश्व की सान्तता-अनन्तता का स्पष्टीकरण करते हुए लिखते हैं : “विश्व द्वारा अवगाहित आकाश सान्त हो, ऐसी सम्भावना है। इसका अर्थ यह नहीं होता कि कोई एक स्थान पर विश्व का अन्त आ जाता है। उक्त कथन का तात्पर्य यही है कि विश्व में किसी एक ही दिशा में गति करने वाला पदार्थ अनन्त: उसी स्थान पर पहुंच जाता है, जहां से वह चलना प्रारम्भ हुआ था। चतुर्वैमितिक विश्व की यह स्थिति द्विवैमितिक पृथ्वी-तल (Surface) के सदृश होती है, जहां एक स्थान से पूर्व की दिशा में निरन्तर चलने वाला व्यक्ति, उसी स्थान पर पश्चिम की ओर से पुन: पहुंच जाता है।" ___ आपेक्षिकता के सिद्धांत के सुप्रसिद्ध व्याख्याकार प्रो. एन. आर. सेन, आइन्स्टीन के विचारों को उद्धृत करते हुए लिखते हैं : “आइन्स्टीन के सापेक्षवाद-सिद्धान्त से जो एक बात हमें मिलती है, वह यह है कि चतुर्वैमितिक विश्व आकाशीय विमितियों में सांत है और काल की विमिति में अनन्त है। विश्व का आकार बेलनाकार (cylinderical) है, जिसकी बाह्य सतह उस दिशा में तो सीमित है, जिसमें रेखाओं के द्वारा बेलनाकार की उत्पत्ति हुई है। यह सीमित विमिति विश्व-वेलन की तीन आकाशीय विमितियों को सूचित करती है। किन्तु वेलन इन दो विमितियों में तो अनन्त है। उसी तरह विश्व भी काल-विमिति में अनन्त है अर्थात् काल की दृष्टि से वह अनंत भूत से अनन्त भविष्य तक रहता है।" वैज्ञानिकों के उपरोक्त विचारों से विश्व का आकार और परिमाण, बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है। फिर भी आधुनिक विज्ञान के बहुत सारे सिद्धांतों की तरह आइन्स्टीन का ससीम विश्व उतना ही दृष्टिगम्य हो सकता है, जितना की अणु में स्थित ऋणाणु (Electron) या प्रकाशाणु (Photon) दृष्टिगम्य है। परन्तु गणित के आधार पर विश्व का यथार्थ परिमाण निश्चिततापूर्वक निकाला जा सकता है। यदि हम मान लेते हैं कि हमारी आकाशगंगा की समीपवर्ती आकाश में स्थित जड़ पदार्थ का औसत घनत्व सारे विश्व में स्थित जड़ पदार्थ के औसत घनत्व के समान है तो आइन्स्टीन के समीकरण से विश्व की वक्रता-त्रिज्या निकाली जा सकती है। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व का परिमाण और आयु २७७ माउण्ट विलसन वेधशाला के प्रसिद्ध खगोलवेत्ता एड्वीन हबल (Edwin Hubble) ने प्रयोगों के द्वारा इकाई घनफल आकाश में स्थित औसत संहति-राशि की संख्या निकाली गई है। उस संख्या का आइन्स्टीन के क्षेत्र समीकरण में उपयोग करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि विश्व की वक्रता-त्रिज्या (radius of curvature) ३५,०००,०००,००० प्रकाश-वर्ष है अर्थात् २.१ x १०२३ माईल है। दूसरे शब्दों में एक प्रकाश की किरण जिसकी गति प्रति सैकिण्ड लगभग १,८६,००० माईल की है, अगर विश्व की परिक्रमा करने निकले, तो उसे एक चक्कर लगाने में २० अरब से भी अधिक वर्ष लग जाएंगे। आइन्स्टीन के उक्त निर्णय के बाद, जब विश्व-विस्तार का सिद्धांत आया, तब उसके आधार पर विश्व की वक्रता-त्रिज्या फिर निकाली गई। यह करीब ५० करोड़ प्रकाश-वर्ष है। आइन्स्टीन की कल्पना ससीम वर्ष की है, किन्तु एक वैज्ञानिक असीम विश्व का प्रतिपादन भी करते हैं। डॉ. फ्रेड होयल के विश्व-सिद्धांत में 'अनन्त विश्व' का प्रतिपादन हुआ है। इसके अतिरिक्त सोवियत वैज्ञानिक भी असीम विश्व का प्रतिपादन करते हैं। सुप्रसिद्ध सोवियत लेखक व. मेजेन्तसेव ने 'विश्व और परमाण नामक अपनी पुस्तक में लिख है : “अगर हम यह विचार स्वीकार करें कि विश्व-आकाश की कहीं सीमा है, तो तुरन्त यह प्रश्न उठता है-इस सीमा के पार क्या है? विश्वाकाश में ब्रह्माण्ड की कोई सीमा नहीं हो सकती। महाजागतिक द्वीपपुंज पर नक्षत्र-जगत की गठन क्या है, हम अभी नहीं जानते, लेकिन चाहे यह असंख्य द्वीप' मंदाकिनियां (आकाशगंगाएं) हों या ब्रह्माण्ड अनेक विशाल ‘महाजागतिक द्वीप-समूहों'-मेटागैलिक्टकों (बाह्य मंदाकिनियों) से बना हो, हर सूरत में हमारे चारों तरफ की दुनिया असीम है।" फिर भी विश्व सांत है, या अनन्त? इस प्रश्न का पूर्ण रूप से समाधान नहीं हो पाया; क्योंकि विश्व की वक्रता गाणितिक रूप में ऋण (negative) अथवा धन (positive)-दोनों में से एक हो सकती है और इसके अनुसार ही विश्व अनन्त या सांत हो जाता है। विश्व-सम्बन्धी मूलभूत समीकरणों (equations) को हल करने पर विश्व सांत और बद्ध (closed) न होकर, अनन्त और खुला (open) पाया जाता है। जबकि हबल के द्वारा की गई तारापुञ्जों के तेज की गणना हमें बद्ध एवं बहुत ही छोटे (सांत) विश्व, जिसकी त्रिज्या केवल थोड़े करोड़ प्रकाश-वर्ष ही है, की कल्पना पर पहुंचाती है। १. हबल द्वारा दी गई औसत घनत्व-राशि इस प्रकार है : ०००००००००००००००००००००००००००००१ ग्राम प्रति घन सेण्टीमीटर (दखें, दी यूनिवर्स एण्ड डॉ. आइन्सटीन, पृ० १०५ ।) Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जैन दर्शन और विज्ञान विश्व का परिमाण स्थिर या बढ़ता हुआ? आइन्स्टीन के उपरोक्त विश्व-परिमाण के निश्चय के अनन्तर एक ऐसी प्रक्रिया वैज्ञानिकों के सामने आई, जिससे विश्व के परिमाण और आकार के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी कहना उनके लिए सम्भव नहीं रहा। यह प्रक्रिया दूरवीक्षण यन्त्र (telescope) के द्वारा वैज्ञानिकों के सामने आई। दूरवीक्षण यन्त्र से जब विश्व के अति दूर भागों में स्थित आकाश-गंगाओं (galaxies) की गति का अध्ययन किया गया, तब पता चला कि ये आकाशगंगाएं एक दूसरे से दूर जा रही हैं-अर्थात् ऐसा लगा कि विश्व बड़ा होता जा रहा है। जिस प्रकार गुब्बारे में (baloon) हवा भरने से वह फुलता है-विस्तृत होता है, उसी प्रकार विश्व भी विस्तृत हो रहा है। इस प्रकार कि प्रक्रिया से वैज्ञानिकों में दो मत हो गए। जो प्रक्रिया वस्तुत: देखी गई थी, वह यह थी कि दूर-स्थित आकाश-गंगाओं का वर्णपट-मापकयन्त्र (spectrometer) द्वारा अध्ययन किया गया, तब उनके वर्णपट (spectrum) में लाल रेखा (red line) में परिवर्तन दिखाई दिया। लाल रेखा के परिवर्तन से अनुमान किया गया कि दूरस्थ आकाशगंगाएं एक दूसरे से दूर जा रही हैं अर्थात् विश्व विस्मृत हो रहा है। विश्व-विस्तार के सिद्धांत में संदिग्धता का स्पष्ट उदाहरण विख्यात ब्रिटिश वैज्ञानिक सर जेम्स जीन्स के शब्दों में मिलता है: 'किन्तु तारापुञ्जों की इन गतिओं के विषय में संदिग्धता को पूर्ण अवकाश रह जाता है कि ये वास्तविक हैं या नहीं? इनका प्रतिपादन कोई भी प्रत्यक्ष माप की प्रक्रिया पर आधारित नहीं है।' आगे चलकर वे स्पष्ट करते हैं : “दूरस्थित निहारिकाएं अपने से दूर जा रही हैं, इस मान्यता का केवल यही कारण है कि उनका जो प्रकाश हमें दिखाई देता है, वह सामान्यत: जितना होना चाहिए उससे अधिक है। किन्तु गति के अतिरिक्त अन्य प्रक्रियाएं भी प्रकाश को अधिक लाल बना सकती हैं। उदाहरणार्थ, सूर्य का प्रकाश केवल सूर्य के भार के कारण लाल बन जाता है; उससे कहीं और अधिक लाल वह सूर्य के वातावरण के दबाव के कारण बनता है, जैसे कि हम सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय देखते हैं। अन्य प्रकार के ताराओं का प्रकाश भी कोई रहस्यमय प्रकार से लाल बनता है, जिस रहस्य का उद्घाटन हम अब तक नहीं कर सके हैं। इसलिए दूरस्थ निहारिकाएं आकाश में स्थिर होने पर भी, उनका प्रकाश अधिक लाल होगा और इस रक्तीकरण के आधार पर वे निहारिकाएं हम से दूर जा रही हैं,' इस प्रकार की धारणा के प्रलोभन में हम आ जाते इस चर्चा का उपसंहार करते हुए हम यह कह सकते हैं कि विश्व परिमाण की स्थिरता के बारे में वैज्ञानिकों में दो मत हैं Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ विश्व का परिमाण और आयु १. विश्व का परिमाण स्थिर है। २. विश्व का परिमाण विस्तृत हो रहा है। 'विश्व की आयु' के विषय में जो सिद्धांत प्रस्तुत हुए हैं वे भी इन दो विचारधाराओं पर आधारित हैं। विश्व की आयु क्या है? सादि और सान्त विश्व के सिद्धांत "विश्व की आयु क्या है'' इस प्रश्न के दो अर्थ होते हैं-वर्तमान में विश्व की आयु क्या है अर्थात् जब से विश्व की आदि हुई है, तब से आज तक कितना काल बीत चुका? दूसरा अर्थ है “विश्व की सम्पूर्ण आयु क्या है? अर्थात् जब से विश्व का प्रारम्भ हुआ तब से लेकर जब तक उसका अंत होगा, तब तक कितना काल बीतेगा? "विश्व की आयु क्या है?" इस प्रश्न का विज्ञान में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इस प्रश्न के उत्तर में भी वैज्ञानिकों के दो मत रहे हैं १. विश्व भूतकाल में किसी एक निश्चित समय पर अस्तित्व में आया और भविष्य में किसी एक निश्चित समय पर वह अस्तित्व-विहीन भी हो जाएगा। २. विश्व काल की दृष्टि से अनादि और अनन्त है। प्रथम मान्यता का आधार मुख्यत: तो विश्व-विस्तार' का सिद्धांत है। प्रयोगों के द्वारा दूरस्थ आकाशगंगाओं के बढ़ने की गति का माप निकाला गया और जाना गया कि जिस वेग से आकाशगंगाएं अंतरिक्ष में बढ़ रही हैं, वह अत्यधिक तीव्र है। अपनी पृथ्वी के समीप रही हुई आकाशगंगाएं एक सैकिंड में करीब १०० मील दूर निकल जाती हैं, जबकि जो आकाश-गंगाएं २-१/२ करोड़ प्रकाश-वर्ष दूर हैं, वे लगभग २४,००० मील प्रति सैकिंड की गति से दूर हो रही हैं। प्रयोगों के आधार पर एड्वीन हबल (Edwin Hubble) ने एक नियम इस सम्बन्ध में प्रस्तुत किया है। इस नियम के अनुसार ६० लाख प्रकाश-वर्ष की मर्यादा में स्थित आकाशगंगाओं के लिए, गति का आधार उनकी पृथ्वी से दूरी जाती है। इसका अर्थ यह होता है कि ज्यों-ज्यों आकाशगंगाएं पृथ्वी से दूर जाती हैं, त्यों-त्यों उनकी गति बढ़ती है। इस नियम के आधार पर यदि आकाशगंगाओं की भूतकालीन गति का अध्ययन किया जाए, तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इस विश्व में करीब २०० करोड़ वर्ष पूर्व सभी आकाशगंगाएं एक ही स्थान में थीं। यद्यपि इस निर्णय की कल्पना का आधार यह है कि आकाशगंगाओं की गति जैसी वर्तमान में है, वैसी ही सदा थी। इस निर्णय के बाद किये गए प्रयोगों के आधार पर यह संख्या १००० करोड़ वर्ष हो जाती है। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० जैन दर्शन और विज्ञान विश्व-विस्तार के आधार पर विश्व की आदि को समझाने के लिए कुछ वैज्ञानिकों ने प्रयत्न किया है, जिनमें से एबे लेमैत्रे (Abbe Lemaitre) और डॉ. ज्योर्ज गेमो (George Gamow) विश्व की आदि है', इस सिद्धांत को स्वीकार करते बेल्जियम के सुप्रसिद्ध विश्व-विज्ञानवेत्ता एबे लेमैत्रे के विचारानुसार यह विश्व प्रारम्भिक स्थिति में एक अद्भुत अणु के रूप में था। जब उस अणु का विस्फोट हुआ, तब से उसका विस्तार होना प्रारम्भ हुआ। आज तक वह इतने विशाल रूप को पा चुका है तथा और भी विस्तृत हो रहा है। इसी से सादृश्य रखने वाला एक और सिद्धांत वाशिंग्टन विश्वविद्यालय के सप्रसिद्ध वैज्ञानिक डाक्टर ज्योर्ज गेमो ने प्रस्तुत किया है। इस सिद्धांत के अनुसार आज से करीब ५० करोड़ वर्ष पूर्व, इस विश्व का आदि रूप समप्रकार की किरणों का गोला था, जिसका तापमान इतना अधिक था कि जिसकी कोई कल्पना ही नहीं की जा सकती। वर्तमान में किसी भी आकाशीय ताराओं के अन्तरतम गर्भ में भी वह तापमान विद्यमान नहीं है। वह १५० करोड़ डिग्री से भी अधिक था। विश्व की इस प्रारम्भावस्था में न तो कोई पदार्थ (Elernent) था, न कोई लघुतम द्रव्यकण (Molecule) ही और न कोई अणु (Atom) भी। केवल स्वैरविहारी न्यूट्रोन' इधर-उधर घूम रहे थे। जब यह गोला विस्तृत होना शुरू हुआ, तब इसका तापमान क्रमश: घटने लगा। पांच मिनट के अस्तित्व में वह तापमान घटकर करीब १० करोड़ डिग्री हो गया। तब इधर-उधर घूमने वाले न्यूट्रोनों की गति थोड़ी मन्द हुई; वे एक-दूसरे से मिलने लगे व परस्पर जुड़ने लगे; क्रम से काल बीतने पर लघुतम द्रव्यकण और पदार्थ बनने लगे। इस प्रकार वर्तमान सभी पदार्थ विश्व में उषाकाल के थोड़े-से क्षणों में बने थे और आज ५० करोड़ वर्ष से विस्तारमान विश्व में अपना कार्य कर रहे हैं। केम्ब्रिज रेडियो-ज्योतिर्विज्ञान के प्रोफेसर मार्टीन रीले और उनके अन्य पांच साथियों द्वारा रखे गए विश्व-सिद्धांत के अभिमतानुसार विश्व का एक निश्चित १. आधुनिक अणु-विज्ञान के अनुसार प्रत्येक पदार्थ के अणु में केन्द्र होता है, जिसे नाभि (Nucleus) कहते हैं। उसके चारों ओर उससे भी सूक्ष्म ऋण-आवेशित कण, जिन्हें इलेक्ट्रोन कहते हैं, बहुत तेज गति से चक्कर काटते रहते हैं। सूक्ष्म धन-आवेशित कण, जिन्हें प्रोटोन कहते हैं और सूक्ष्म आवेश-रहित कण, जिन्हें न्यूट्रोन कहते हैं, नाभि में स्थिर रूप से रहते हैं। इलेक्ट्रोन का भार समग्र अणु के भार के सहस्रांश से भी कम होता है। नाभिक कणों में ही अणु का अधिकांश भार स्थित होता है। इस प्रकार प्रोटोन और न्यूट्रोन अधिक भारवान होते हैं, जबकि इलेक्ट्रोन अल्प भारवान् । इलेक्ट्रोन ऋण-आवेशित, प्रोटोन धन-आवेशित और न्यूट्रोन आवेश-रहित होते हैं। दिखें, ८वां प्रकरण)। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ विश्व का परिमाण और आयु आरंभ है' इस तथ्य की पुष्टि हुई है। इस सिद्धांत के परिणामस्वरूप निम्न चार तथ्य सामने आये हैं १. विश्व का विस्तार हो रहा है। २. विश्व में स्थित सारा द्रव्य, जिसका हमारी पृथ्वी केवल एक अंश मात्र है, तेज गति से दूर हटता जा रहा है। इस प्रकार मध्य में केवल एक छिद्र हो गया है। ३. विश्व का अंत कभी-न-कभी होगा। उक्त सिद्धांत 'मुलाई रेडियो-ऑबजरवेटरी' में रेडियो-दूरवीक्षण यंत्र के द्वारा किए गए निरीक्षणों पर आधारित है। इस यंत्र के द्वारा वैज्ञानिक ८,०००,०००,००० प्रकाश वर्ष दूरी तक के आकाश का तथा ८,०००,०००,००० वर्ष तक भूतकाल का अध्ययन कर पाए हैं। यह सिद्धान्त लेमैत्रे के सिद्धान्त से काफी मिलता-जुलता है। इसके अनुसार सहस्रों वर्षों पूर्व सारा विश्व अत्यधिक सूक्ष्म आयतन (वोल्यूम) में समाहित था। सहसा इसका विस्फोट हुआ और तबसे विश्व-स्थित आकाश-गंगाएं एक-दूसरे से दूर होनी शुरू हुई हैं। ___ इस सिद्धांत के आविष्कर्ताओं ने विश्व की आदि के विषय में निश्चित काल बताया है, जिसके अनुसार दस अरब वर्ष पूर्व विश्व का प्रारंभ माना गया है। किन्तु 'विश्व के अंत' के विषय में इन्होंने कोई निश्चित काल नहीं बताया है। फिर भी उनकी यह मान्यता तो है ही कि विश्व अनन्त काल तक नहीं रहेगा। थोड़े ही वर्षों पूर्व जो स्थायी-अवस्थावान्-विश्व' का सिद्धांत कैम्ब्रिज के ही सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. फ्रेड होयल द्वारा प्रस्तुत हुआ था, उसका कड़ा विरोध प्रो. मार्टीन रीले ने अपने सिद्धान्त में किया है। विश्व का अन्त भी आएगा, इस सिद्धान्त की आधारशिला उष्णता-गति-विज्ञान (thermodynamics) का दूसरा नियम है। इस नियम के अनुसार प्रकृति की सभी मूलभूत प्रक्रियाएं अप्रतिगामी हैं अर्थात् परिवर्तन की दिशा एक है। इसी विज्ञान के अनुसार विश्व-स्थित जड़-द्रव्यों की राशि में भी परिवर्तन हो रहा है और यह परिवर्तन हास की दिशा में है। प्रकृति की सभी प्रक्रियाएं बता रही हैं कि विश्व की जड़-राशि (शक्तिरूप एवं द्रव्यरूप) शून्य आकाश में विलीन हो रही है। इस प्रकार सारा विश्व मानो मृत्यु की ओर दौड़ रहा है। इस अवस्था को वैज्ञानिक परिभाषा में उत्कृष्ट ताप-अनुपात अत्रोपी' (Maximum Entropy) की अवस्था कहते हैं।' “आज से अरबों वर्ष पश्चात् जब यह अवस्था आएगी, तब विश्व की Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ जैन दर्शन और विज्ञान सभी प्रवृत्तियां स्थगित हो जाएंगी। सारे विश्व का उष्णतामान एक ही हो जाएगा। तब न तो प्रकाश रहेगा, न जीवन और न उष्मा। केवल नैरन्तरिक और अटल स्थिरता या जड़ता ही रहेगी। काल स्वयं समाप्ति को प्राप्त होगा। ...सब कुछ, जो प्रकृति में देखा जाता है, उससे इसी सिद्धांत की पुष्टि होती है कि विश्व निश्चित रूप से अंतिम अंधकार और विनाश की ओर आगे बढ़ रहा है।" इस प्रकार विश्व की आदि को स्वीकृत करने वाले सिद्धांतों में भी विश्व की आदि कब हुई, इसके निर्णय में ऐक्य नहीं है। अनादि और अनन्त विश्व के सिद्धांत जो सिद्धांत हमें शाश्वत अर्थात् अनादि और अनन्त विश्व की बात सुझाते हैं, उनमें पांच महत्त्वपूर्ण प्रकार हैं १. स्वत: संचालित कम्पनशील (self & pulsating) विश्व । २. अतिपरवलीय (hyperbolic) विश्व। ३. चक्रीय (cyclic) विश्व। ४. स्थायी-अवस्थावान् (steady-state) विश्व । ५. आइन्स्टीन का विश्व । स्वत: संचालित कम्पनशील विश्व और अतिपरवलीय विश्व-स्वत: संचालित कम्पनशील विश्व का सिद्धांत और अतिपरवलीय विश्व का सिद्धांत विस्तारमान विश्व के सिद्धांत पर आधारित है। इस कल्पना के अनुसार विश्व का विस्तार जब एक उत्कृष्ट स्थिति तक पहुंचता है, तब वह फिर सिकुड़ना शुरू होता है। सिकुड़ते हुए विश्व में रहे हुए द्रव्य जब उत्कृष्ट घनता को प्राप्त होते हैं, तब वह पुन: विस्तृत होना आरम्भ हो जाता है; और इस प्रकार अनन्त काल तक यह क्रम चलता रहता है। अर्थात् सिकुड़ने और विस्तृत होने का यह कम्पन' अनन्त काल तक चलता रहता इस प्रकार के सिद्धांत का प्रतिपादन कैलिफोर्निया इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलोजी' के प्रोफेसर डॉ. आर.सी. टोलमेन (R.C. Tolman) द्वारा स्वतन्त्र रूप से अन्य आधारों पर भी किया गया है। डॉ. टोलमेन का सिद्धांत 'उष्णता-गति-विज्ञान' के दूसरे नियम पर आधारित 'विश्व का अन्त है', इस सिद्धांत के विरुद्ध निरूपण करता है। डॉ. टोलमेन ने यह बताया है कि कुछ निश्चित परिस्थितियों में विश्व के विस्तार और संकोच की क्रिया प्रतिगामी हो सकती है अर्थात् विश्व की १. देखें, फॉम युक्लिड टू एडिंग्टन, पृ० ४६; दी यूनिवर्स एण्ड डॉ. आइन्सटीन, पृ० ११० । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व का परिमाण और आयु २८३ प्रक्रियाएं एक ही दिशा में हो रही हैं, यह मान्यता गलत हो सकती है। डॉ. टोलमेन ने साथ में यह परिकल्पना भी की है कि यह सम्भव है कि विश्व में कहीं नई जड-राशि उत्पन्न होरही हो। इस परिकल्पना के आधार पर उन्होंने यह प्रतिपादन किया है कि वर्तमान में जो विश्व का विस्तार हो रहा है, कुछ काल पश्चात् विश्व पुन: सिकुड़ना आरम्भ हो जाएगा और इस प्रकार विस्तार-संकोच के चक्र शाश्वत काल के लिए चलते रहेंगे। दूसरे प्रकार का विश्व अतिपरवलीय है; अर्थात् आज से अनन्त काल पूर्व विश्व अत्यन्त विस्तृतावस्था में था, जब कि उसमें रहे हुए जड़ द्रव्यों की घनता बहुत ही कम थी। उसके बाद वह सिकुड़ना शुरू हुआ और तब तक सिकुड़ता रहा, जब तक उत्कृष्ट घनता को प्राप्त न हुआ। उसके बाद वह पुनः विस्तार की ओर अग्रसर होना आरम्भ हुआ है और अनन्त काल तक इस तरह विस्तृत होता रहेगा। चक्रीय विश्व-स्वत: संचालित कम्पनशील विश्व के सिद्धांत का प्रतिपादन दूसरे आधार पर भी स्वतंत्रतया किया जा सकता है। इसका आधार है-आइन्स्टीन का 'द्रव्य और शक्ति की तुल्यता का सिद्धान्त' (प्रिंसिपल ऑफ इक्वीवेलेन्स ऑफ मास एण्ड एनर्जी)। उष्णता-गति-विज्ञान के दूसरे नियम के अनुसार विश्व की जड़-राशि का विनाश हो रहा है, इस सिद्धांत को कुछ वैज्ञानिक स्वीकार नहीं करते। इन वैज्ञानिकों का कहना है कि विश्व एक ओर जहां विनाशोन्मुख हो रहा है, वहां यह सम्भावना भी हो सकती है कि किसी प्रकार से और कहीं-न-कहीं, उसका पुन: निर्माण भी हो रहा होगा। आइन्स्टीन के 'द्रव्य और शक्ति की तुल्यता के सिद्धान्त' के आधार पर यह परिकल्पना की जा सकती है किस जो शक्ति विकिरण रिडिएशन) के रूप में आकाश में लीन हो रही है, वही पुन: इस सिद्धान्त के अनुसार द्रव्य-रूप में परिणत होकर, क्रमश: ऋणाणु, अणु और लघुतम द्रव्य-कण का रूप धारण करती हैं। ये स्वयं एक दूसरे के साथ जुड़कर स्थूल पदार्थ का रूप धारण करते हैं। ये स्थूल पदार्थ गुरुत्व-प्रभाव के कारण एक-दूसरे में मिलकर निहारिका, तारापुज आदि आकाशीय पिण्डों का निर्माण करते हैं, जो अन्त में बड़ी-बड़ी आकाशगगांओं के रूप में विश्व में फिर से अपना अस्तित्व धारण करते हैं। इस क्रम से विश्व का जीवन-क्रम शाश्वत काल के लिए चलता हो।' इन संभावनाओं को पुष्ट करने वाले कुछ प्रयोग भी प्रयोगशालाओं में किए गए हैं। इन प्रयोगों ने बताया है कि जब गामा किरण के रूप में प्रकाशाणु किसी भी द्रव्यकणों के साथ टकराते हैं, तब ऋणाणु और धनाणु (पाजिट्रॉन) की उत्पत्ति होती है। थोड़े काल पूर्व ही खगोलवेत्ताओं ने यह निश्चित किया है कि आकाश-स्थित हलके पदार्थों के अणु एक-दूसरे के साथ मिलकर रज और वायु के सूक्ष्म कणों के रूप में परिणत होते रहते हैं। इससे आगे हावर्ड के डॉ. फ्रेड Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जैन दर्शन और विज्ञान एल. हीपल (Fred L. Whipple) ने अपनी सुप्रसिद्ध 'रजोमेघ-कल्पना' (डस्ट-क्लाउड हाइपोथिसिस) में यह बताया है कि आकाश-स्थित सूक्ष्म रजकण, ताराओं के प्रकाश के दबाव से एक-दूसरे के निकट आते हैं और एकीभूत हो जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप कणों का एक समूह बनता है, जो कि बड़ा होने पर एक मेघ का स्वरूप धारण करता है। यह छोटा-सा रजोमेघ क्रमश: बढ़ता हुआ अन्यान्य भौतिक प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप अन्तत: प्रकाशमान ताराओं का स्वरूप धारण करता है। अपने सारे सौरमण्डल की उत्पत्ति इसी प्रकार हुई थी, ऐसा हीपल का मानना इस प्रकार विकिरण से क्रमश: समग्र विश्व में सभी सूक्ष्म-स्थूल पदार्थों की उत्पत्ति सिद्ध होने पर "हम एक स्वयं संचालित कम्पनशील विश्व की कल्पना पर पहुंचते हैं, जिस विश्व में अनन्त काल तक निर्माण और ध्वंस, प्रकाश और तम, संघटन और विघटन, ताप और शीत, विस्तार और संकोच आदि के चक्र स्वत: चलते रहते हैं। उष्णता-गति-विज्ञान के दूसरे नियम में और उक्त प्रकार के चक्रवत् चलाने वाले विश्व में परस्पर विरोध-सा दिखाई देता है। इस विषय में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक सर जेम्स जीन्स लिखते हैं, “यह कल्पना शक्य है कि विशेष प्रकार की आकाशीय स्थितियों में जिनका हमें ज्ञान नहीं है, उष्णतागति-विज्ञान का दूसरा नियम कार्यक्षम न हो। ...चक्रीय विश्व का सिद्धांत अधिक प्रसिद्धि प्राप्त और मान्य है, इस विषय में कोई सन्देह नहीं है।"२ इस प्रकार स्वयं संचालित कम्पनशील विश्व' का सिद्धांत विश्व का अनादि और अनन्त प्रमाणित करता है। वस्तुत: तो डा. गेमो का सिद्धांत भी अतिपरवलीय विश्व की कल्पना को स्वीकार करता है। इसलिए डा. गेमो ने भी वास्तविक दृष्टि से 'अनादि विश्व' को ही स्वीकार किया है। स्वयं डा. गेमो के शब्दों में देखें, तो “इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हमारा यह विश्व शाश्वत काल से अस्तित्व में था और अब से करीब ५० करोड़ वर्ष पूर्व तक समान रूप से सिकुड़ रहा था। आज से ५० करोड़ वर्ष पूर्व तक वह उस स्थिति को प्राप्त हुआ, जहां पर कि संकोच की उत्कृष्ट स्थिति आ जाने से विश्व की सभी जड़-राशि केवल अणु के सूक्ष्म केन्द्र के अन्दर समाहित हो गई। ...जिसके बाद में वह पुनः विस्तृत होना शुरू हुआ है, जो अनन्त काल तक विस्तृत होता रहेगा।" १. दी यूनिवर्स एण्ड डा० आइन्सटीन, प० ११३ । २. मिस्टीर्यस यूनिवर्स, पृ० १३३ । ३. दी न्यु एस्ट्रोनोमी, पृ० २३ । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ विश्व का परिमाण और आयु - अनादि विश्व की कल्पना को स्वीकार करना ही पड़ेगा, इस बात को स्पष्ट करते हुए, 'विश्व की आदि' नामक प्रकरण में लिंकन बारनेट लिखते हैं, “विश्व के निर्माण का चिन्तन, विश्व की आदि को अनन्त भूत में ढकेल देता है। यद्यपि वैज्ञानिकों के द्वारा नाना सिद्धांत से तारापुंज, तारा, तारा-रज, अणु और अणु के सूक्ष्म अवयवों का निर्माण भी गाणितिक विधि से समझाया गया है, फिर भी प्रत्येक सिद्धांत को एक अनुमान या कल्पना का आधार लेना पड़ता है कि इससे पूर्व कुछ विद्यमान था’ चाहे वह 'कुछ' स्वतन्त्र-विहारी न्यूट्रोन के रूप में हो, चाहे विकिरण के रूप में हो अथवा अकल्पनीय 'विश्व-उपादान' के रूप में हो, उसी में से इस बहुरूपधारी विश्व का निर्माण हुआ है। ___ इस प्रकार अब तक विवेचित सिद्धांत प्राय: एक या दूसरे रूप से इस तथ्य को तो स्वीकार करते ही हैं कि यह विश्व शाश्वत अर्थात् अनादि और अनन्त है। स्थिरावस्थावान् विश्व (Steady State Universe)-नव्यतम प्रचलित सिद्धांतों में एक सिद्धांत, जो स्थिरावस्थान विश्व' की कल्पना करता है, का विवेचन करना भी बहुत उपयोगी होगा। यह सिद्धांत भी शाश्वत विश्व के विचार को ही स्वीकार करता है। यह सिद्धांत फ्रेड होयल, थोमस गोल्ड आदि वैज्ञानिकों के द्वारा रखा गया है। इसके अनुसार यद्यपि विश्व विस्तृत हो रहा है, फिर भी उसमें नई जड़-राशि उत्पन्न हो रही है, जिसके परिणामस्वरूप विश्व स्थित जड़-राशि की संहति बढ़ती है, किन्तु विश्व-विस्तार के कारण नए जड़ की उत्पत्ति होने पर भी, विश्व में जड़ की घनता स्थिर रह जाती है। इस सिद्धांत को समझाते हुए फ्रेड होयल लिखते हैं, “विश्व विस्तार के सम्बन्ध में एक प्रश्न उठता है कि यदि दूरस्थ आकाशगंगाएं एक-दूसरे से दूर जा रही हैं, तो आकाश अधिक से अधिक रिक्त क्यों नहीं होता? इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत सिद्धांत के अनुसार यह है कि विश्व में नई आकाशगंगाएं, आकाशगंगाओं के नए गुच्छ (clusters) निरन्तर बन रहे हैं। उनका निर्माण विस्तारमान आकाशगंगाओं के दूरीकरण से जनित रिक्ताकाश को पुन: भर देता है। परिणामस्वरूप आकाश की स्थिति जैसी पहले थी, वैसी रह जाती है।"३ १. दी यूनिवर्स एण्ड डा० आइन्स्टीन, पृ० ११५ । २. दी युनिटी ऑफ दी यूनिवर्स, पृ० १४३ । ३. इसके लिए देखें, 'दी यूनिवर्स' पुस्तक में फेड होयल द्वारा लिखित निबन्ध 'दी स्टैडी स्टेट यूनिवर्स' पृ० ७७। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान इस प्रकार इस सिद्धांत के अनुसार काल-क्रम के साथ विश्व की स्थूल आकृतियों में परिवर्तन नहीं आता- - अर्थात् स्थिर अवस्था रहती है। केवल आकाशगंगा अथवा आकाशगंगाओं के गुच्छों में परिवर्तन आता है । इस सिद्धांत के परिणामस्वरूप कुछ एक विस्मयोत्पादक तथ्य सामने आए हैं : १. विश्व अनादि और अनन्त है ( काल की दृष्टि से ) २. आकाश और काल अनन्त हैं । ३. समस्त आकाश में निरन्तर रूप से नया जड़ उत्पन्न हो रहा है । इस प्रकार से वर्तमान में ऐसा एक भी सिद्धांत वैज्ञानिक जगत् में नहीं है, जो कि सर्वमान्य हो । २८६ आइन्स्टीन का विश्व-यदि विस्तारमान विश्व के सिद्धांत को स्वीकार न करें, तो भी आइन्स्टीन के द्वारा दिए गए विश्व - सिद्धांत के आधार पर विश्व अनादि और अनन्त सिद्ध होता है । जैसे की रिचार्ड जिस (Richard Hughes) अपने फिजिक्स, एस्ट्रोनोमो एण्ड मेथेमेटिक्स नामक लेख में लिखते हैं: "इस प्रकार - विमिति क्षेत्र - विमिति की तरह पूर्ण वर्तुल (बद्ध परिमिति ) में समाहित नहीं होती है। अर्थात् हम भविष्य काल में चाहे जितने दूर चले जाएं, फिर भी हम भूत काल को प्राप्त नहीं कर सकते । यद्यपि यह कल्पना करने की कोई आवश्यकता नहीं है कि काल की आदि है और अन्त भी । "२ काल इस समग्र विवेचन के उपसंहार में हम कह सकते हैं कि विश्व - आयु सम्बन्धी वैज्ञानिकों के द्वारा अब तक दिए गए सिद्धांतों में अधिकांश सिद्धांत एक या दूसरे रूप में, 'विश्व का अस्तित्व अनन्त काल से है,' इस तथ्य को स्वीकार करते हैं । दूसरा विचार यह है कि विश्व की आदि किसी निश्चित समय पूर्व हुई और किसी समय इसका अन्त भी हो जाएगा। इस सिद्धांत को स्वीकार करने वाले वैज्ञानिकों ने भी विश्व की आदि का काल भिन्न-भिन्न बताया है । 'काल और क्षेत्र सांत है या अनन्त ?' इस प्रश्न के सम्बन्ध में वैज्ञानिक जगत् में जो अनिश्चितता है, उसकी स्पष्ट झांकी हमें प्रो. हेन्री मार्गेनौ के आधुनिक विज्ञान के दर्शन' पर लिखी हुई पुस्तक से मिलती है- “क्या काल और आकाश अनन्त है ? आज का विज्ञान, इस अधिकतम रोचक प्रश्न पर दुर्भाग्यवश अनिश्चित रहा है। अब तक किए गए प्रतिपादनों में से सबसे अधिक सफल वह प्रतिपादन है, १. वही, पृ० ७७ । २. कोस्मोलो जीओल्ड एण्ड न्यू, पृ० २२९, में उद्धृत । ३. दी नेचर ऑफ दी फिजिकल रियलिटी, पृ० १६३ । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व का परिमाण और आयु २८७ जो सांत आकाश-काल का प्रतिपादन करता है । किन्तु कुछ वैज्ञानिक सांत आकाश और अनन्त काल का प्रतिपादन करते हैं, जबकि कुछ दोनों को सात स्वीकार करते हैं। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक मीन्काउस्की का आव्यूह, जो आपेक्षिकता के सिद्धांत में प्रयुक्त है, दोनों को अनन्त प्रतिपादित करता है !" (III) तुलनात्मक अध्ययन आइन्स्टीन का विश्व और जैन-लोक आइन्स्टीन के वेलनाकार विश्व में आकाश को इस प्रकार वक्र माना गया है कि सम्पूर्ण विश्व एक बद्ध-आकार को धारण करने वाला और 'सान्त' बन जाता है। जैन दर्शन भी लोक-आकाश को वक्र तथा सान्त स्वीकार करता है । आइन्स्टीन के विश्व में समग्र आकाश स्वयं सान्त और बद्ध हो जाता है, जबकि जैन दर्शन के अनुसार आकाश द्रव्य तो अनन्त है; किन्तु लोकाकाश सान्त और बद्ध है। अथवा यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय - इन दो द्रव्यों की सान्तता और बद्धाकारता के कारण लोक सान्त और बद्धाकार हो जाता है । आइन्स्टीन के विश्व में समग्र आकाश अवगाहित है - भरा हुआ है - रिक्त नहीं है । आइन्स्टीन के ई. १९०५ के मूलभूत समीकरणों के अनुसार तो अवगाहित पदार्थ के अभाव में आकाश का अस्तित्व ही नहीं रह जाता। 1 विश्व की वक्रता के विषय में विश्व - समीकरण के हल वैज्ञानिकों के सामने यह समस्या खड़ी कर देते हैं कि वक्रता धन है अथवा ऋण ? धन वक्रता वाला विश्व सान्त और बद्ध तथा ऋण वक्रता वाला विश्व अनन्त और खुला पाया जाता है । आइन्स्टीन का विश्व धन वक्रता वाला है; अतः सान्त और बद्ध है । ऋण वक्रता वाले विश्व की सम्भावना भी विश्व समीकरण के आधार पर हुई है। इस प्रकार धन और ऋण वक्रता के आधार पर क्रमश: 'सान्त और बद्ध' तथा 'अनन्त और खुले' विश्व की सम्भावना होती है। लोकाकाश की वक्रता धन और अलोकाकाश की ऋण मान लेने पर जैन दर्शन का विश्व- सिद्धान्त पुष्ट हो सकता है। इस प्रकार जैन विश्व - सिद्धान्त धन और ऋण वक्रता स्वीकार करने वाले विश्व - सिद्धान्त का समन्वय है । करते श्री जी. आर. जैन आइन्स्टीन के विश्व की जैन-लोक के साथ तुलना हुए लिखते है; “आइन्स्टीन के वेलनाकार विश्व- सिद्धान्त के अनुसार विश्व की आदि भी नहीं है । अन्त भी नहीं है, दूसरे शब्दों में यह 'स्थिर इकाई' है । अब १. कास्मोलोजी ओल्ड एण्ड न्यू पृ० १२३ - १२४ । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ जैन दर्शन और विज्ञान यदि हम विश्व को अनन्त (क्षेत्र की दृष्टि से) मान लेते हैं, तो इसकी स्थिरता' सम्भव नहीं हो सकती। क्योंकि वैसी स्थिति में हम यह सोच सकते हैं कि अनन्त आकाश अनेक विश्वों से भरा हुआ है और इनके आकर्षण के कारण अपना विश्व अनन्त आकाश में बिखर जाता है। इसलिए अपने विश्व की स्थिरता को टिकाने के लिए हमें यह मानना ही पड़ेगा कि विश्व 'सान्त' है। किन्तु दूसरी ओर गणितीय समीकरण सान्त विश्व से परे शून्य आकाश के अस्तित्व को असम्भव बताते हैं। इसलिए सारा आकाश ही 'सान्त' है, जो कि विश्व को भी सान्त बनाता है। “इस तर्क की अपेक्षा में जैन दृष्टिकोण अधिक बुद्धिगम्य है। जैन विचारधारा के अनुसार विश्व (लोकाकाश) का स्थैर्य इसलिए बना रहता है कि इससे बाहर गति और स्थिति के माध्यम नहीं हैं। परिणामस्वरूप, जड़-पदार्थ या ऊर्जा इससे बाहर जा ही नहीं सकते, अर्थात् विश्व की कुल ऊर्जा सदा अचल रह जाती है। दूसरी बात यह है कि जैन दर्शन आकाश को द्रव्य (सत्) मानता है; अत: लोकाकाश के परे 'असत्' नहीं, किन्तु एकमात्र आकाश का ही अस्तित्व होता है। इस प्रकार सभी बाधाएं निपुणता से दूर हो जाती हैं।" ___आइन्स्टीन के विश्व' सम्बन्धी विचारों के पक्ष एवं प्रतिपक्ष में वैज्ञानिकों के द्वारा आलोचनाएं हुई हैं। इस प्रकार का विश्व, जैसा कि पहले बताया गया, सरलतापूर्वक बुद्धिगम्य नहीं हो सकता है। कुछ वैज्ञानिकों ने उसे यह कह कर 'अकल्पनीय' बताया है कि यह "कल्पना करना असम्भव है कि एक अद्भुत सीमा के बाद 'आकाश' का अस्तित्व न हो और गणितज्ञों के लिए भी सीमित आकाश की कल्पना करना अपनी बुद्धि का दिवाला निकालने के समान हो जाता है। अन्य प्रसिद्ध लेखकों ने इसके सम्बन्ध में कहा कि “एक मर्यादा से परे कुछ नहीं होने की विचारधारा स्व-खण्डनात्मक है।"२ जैन दर्शन के लोकालोक' के विश्व-सिद्धान्त में और आइन्स्टीन के सान्त और वक्र विश्व वाले सिद्धान्त' में सादृश्य अधिक है, वैसदृश्य अल्प। स्थूल रूप से इन तीन बातों में दोनों सिद्धान्तों में वैसदृश्य लगता है १. जैन दर्शन समग्र आकाश को अनन्त मानता है, केवल लोकाकाश को सान्त मानता है। आइन्स्टीन का सिद्धान्त समग्र आकाश को सान्त मानता है। २. जैन दर्शन का आकाश युक्लिडीय भी हो सकता है। आइन्स्टीन आकाश युक्लिडियेतर है। १. एक्सप्लोरिंग दी यूनिवर्स, ले० एच० वार्ड, पृ० १६ । २. फोम युक्लिड टू एडिंग्टन, पृ० १८८। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ विश्व का परिमाण और आयु ३. जैन दर्शन लोकाकाश के आकार को वक्र स्वीकार करता है। आइन्स्टीन का समग्र आकाश वक्र (पारिभाषिक अर्थ में) है। इन सब तर्क-वितर्कों से हम इतना तो कह सकते हैं कि जैन दर्शन का लोकाकाश और अलोकाकाश का विश्व-सिद्धान्त आइन्स्टीन के सान्त किन्तु असीमित' आकाश के विश्व-सिद्धान्त से अधिक बुद्धिगम्य व तर्क-संगत है। विश्व-सिद्धान्त के दूसरे पहलू काल के विषय में तो आइन्स्टीन का अभिमत और जैन दर्शन का मन्तव्य परस्पर में पूर्ण सामंजस्य रखते हैं। दोनों ही सिद्धान्त विश्व को काल की दृष्टि से अनादि और अनन्त स्वीकार करते हैं। आइंस्टीन के विश्व में काल विमिति का अनन्त तक व्याप्त होना और जैन दर्शन के विश्व-सिद्धांत में काल की दृष्टि से लोकालोक का अनादि-अनन्त होना, एक ही तथ्य का उच्चारण है। 'काल की दृष्टि से विश्व की शाश्वतता' को प्रतिपादित करने वाले ये दो सिद्धांत-वैज्ञानिक जगत् में आइन्स्टीन का सिद्धांत और दार्शनिक जगत् में जैन दर्शन का सिद्धांत-काल की दृष्टि से विश्व को सादि सान्त मानने वाले अन्य वैज्ञानिक और दार्शनिक सिद्धांतों को एक बड़ी चुनौती है। विस्तारमान विश्व और जैन-लोकालोक जैन दर्शन के दृष्टिकोण से निम्न कारणों के आधार पर विश्व आकाश का विस्तार न होना सर्वथा असम्भव है : १. आकाश 'अगतिशील' द्रव्य है। २. आकाश एक अखण्ड द्रव्य है तथा क्षेत्र की दृष्टि से अनंत और असीम है। अर्थात् ऐसा कोई भी स्थान नहीं है; जहां आकाश न हो। ऐसी स्थिति में आकाश का विस्तार कैसे और कहां हो सकता है? ३. यदि आकाश को सान्त भी मान लिया जाये, तो भी नाना प्रश्न खड़े हो जाते हैं। जैसे-सान्त आकाश के परे क्या है? यदि 'कुछ' है तो आकाश से किस प्रकार से भिन्न है और वह 'कुछ' विस्तारमान है या स्थिर? यदि वह भी विस्तारमान है, तो किसमें' विस्तृत हो रहा है? यदि उससे भी परे अन्य कोई तत्त्व है और उससे परे अन्य कोई तत्त्व, तो इस प्रकार अनवस्था दोष आ जायेगा। यदि वह कुछ' स्थिर है, तो आकाश को स्थिर मानने में क्या आपत्ति है? दूसरे पक्ष में यदि सान्त आकाश से परे कुछ नहीं है तो आकाश का विस्तार किसमें होगा? क्योंकि कुछ नहीं' में आकाश का विस्तार हो नहीं सकता। इस प्रकार ये सामान्य तर्क पर आधारित प्रश्न भी सुलझ नहीं पाते हैं। सुप्रसिद्ध सोवियत वैज्ञानिक व. मेजेन्तसेव ने लिखा है : “लेमैत्रे, एडिंग्टन, Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० जैन दर्शन और विज्ञान मिल्न, बौंडी और दूसरे बुर्जुआ आदर्शवादी वैज्ञानिक यह बताते हैं कि “लाल स्थानान्तर" से ब्रह्माण्ड के फैलाव के बारे में पता चलता है जो मानो सीमित नहीं, है; बल्कि उसका सीमाबद्ध परिमाण है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि किसी समय अतीत में ब्रह्माण्ड बिल्कुल छोटा था और एक ही 'जनक-परमाणु' से बना था। इस असाधारण ईश्वर रचित 'परमाणु' में सभी ग्रह, तारे और और मंदाकिनियां मूलरूप में निहित थीं। इसके बाद पारमाणविक विस्फोट हुआ और छोटे-से ब्रह्माण्ड को टुकड़े-टुकड़े कर दिया और 'जनक-परमाणु' के टुकड़े अब मंदाकिनियां विभिन्न ज्योतिपिंडों के रूप में चारों तरफ उड़ते फिरते हैं। लेमैत्रे और मिल्न ने तो यह भी हिसाब लगा लिया था कि कई लाख करोड़ साल पहले ऐसा विस्फोट हुआ था और इसी काल को विश्वारम्भ' समझना चाहिए। "ऐसे सिद्धांतों और सत्रों का वैज्ञानिक दिवालियापन जाहिर है। वास्तव में अगर विश्वाकाश सीमित ही होगा, तो आदर्शवादियों द्वारा कथित वह सीमित ब्रह्माण्ड कहां है? ___"लाल स्थानान्तर की प्रकृति की अभी तक सम्पूर्ण व्याख्या नहीं की गई है। जो भी हो, अगर यह घटना सचमुच ही मंदाकिनियों के फैलाव का नतीजा है, तो जहां पदार्थ की विचित्रता का कोई अन्त नहीं है और न हो सकता है, उस समस्त ब्रह्माण्ड में इस फैलाव का सम्बन्ध जोड़ना असम्भव है।" होयल के स्थायी अवस्थावान् विश्व-सिद्धांत की विस्तृत चर्चा हम कर चुके हैं। इस सिद्धांत का मुख्य आधार निम्न दो बातें हैं : १. विश्व का विस्तार हो रहा है। २. विश्व में नया जड़ उत्पन्न हो रहा है। इस सिद्धांत के परिणामस्वरूप ये दो तथ्य सामने आये हैं :३. विश्व काल की दृष्टि से अनादि और अनन्त है। ४. विश्व-आकाश अनन्त है। जैन दर्शन का विश्व-सिद्धांत इस विषय में निम्न चार तथ्यों को रखता है। १. आकाश द्रव्य अगतिशील है। अत: विश्व का विस्तार नहीं हो सकता। २. असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती। विश्व-स्थित द्रव्य की राशि 'अचल' है। ३. विश्व काल की दृष्टि से अनादि और अनन्त है। १. विश्व और परमाणु, पृ० १४३-१४४ । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व का परिमाण और आयु २९१ ४. आकाश-द्रव्य अनन्त है । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि षड्-द्रव्यमय लोकाकाश सान्त है। स्थायी - अवस्थावान् विश्व- सिद्धांत और जैन दर्शन के विश्व- सिद्धांत की तुलना उक्त चार तथ्यों के आधार पर सरलता से हो सकती है। प्रथम दो बातें, जो कि स्थायी अवस्थावान् विश्व- सिद्धांत का आधार है, जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता । अन्तिम दो विचारों के विषय में जैन दर्शन और उक्त सिद्धांत में काफी सामंजस्य दिखाई देता है। तीसरे तथ्य के विषय में तो दोनों ही में सम्पूर्ण ऐक्य है। चौथे तथ्य के निरूपण में किंचित् भेद है। जैन दर्शन आकाश को अनन्त मानता हुआ भी निवासित आकाश (लोकाकाश) को सान्त मानता है; जबकि स्थायी - अवस्थावान् विश्व- सिद्धांत अनन्त आकाश में निवासित - अनिवासित का भेद नहीं करता । जैन दर्शन और होयल के सिद्धांत में दूसरे तथ्य का निरूपण पूर्व-पश्चिम - सा हुआ है। 'असत् से सत् पदार्थ की उत्पत्ति' का निरूपण अत्यन्त अतार्किक और अकल्पनीय प्रतीत होता है । आन्वीक्षिकी में यह एक सुप्रसिद्ध और सुप्रमाणित सत्य स्वीकार किया गया है कि असत् से किसी भी सत् पदार्थ की उत्पत्ति नहीं हो सकती । किसी भी सत् पदार्थ की उत्पत्ति का उपादान कारण 'सत्' ही होगा, चाहे वह किसी भी रूप में हो । यदि 'नये जड़' से हम केवल संहति" के ही उत्पादन का अर्थ ग्रहण करते हैं, तो जैन दर्शन के साथ उक्त परिकल्पना की संगति बिठाई जा सकती है । आधुनिक वैज्ञानिक धारणाओं के अनुसार संहति को भूत का मौलिक गुण माना गया है, जबकि जैन दर्शन के अनुसार संहति पुद्गल का मूलभूत गुण नहीं है संहति - शून्य पदार्थ का अस्तित्व मानने से (क) प्रकाश के वेग से अधिक वेग सम्भावित होता है । २ (ख) नये जड़ की उत्पत्ति की परिकल्पना को संगत बनाया जा सकता है । स्कन्ध-निर्माण से पूर्व पुद्गल संहति - शून्य अवस्था में अस्तित्ववान् होता है। परमाणु-सन्घात से जब स्कन्ध-निर्माण होता है, तब संहति - गुण अस्तित्व में आता है; अत: विश्व-विस्तार से उत्पन्न रिक्तता को भरने के लिए यदि नये जड़ की २ १. चूंकि संहति - शक्ति समीकरण के अनुसार दोनों एक ही सत् की पर्याय हैं, यहां 'संहति' के साथ शक्ति (ऊर्जा, एनर्जी) का ग्रहण अपने आप हो जाता है । २. इसकी विस्तृत चर्चा हम अगले प्रकरण में करेंगे। ३. चतुःस्पर्शी स्कन्धों में तो स्कन्धावस्था में भी संहति - शून्य अवस्था ही रहती है । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ जैन दर्शन और विज्ञान उत्पत्ति की परिकल्पना की जाती है, तो उसका यही तात्पर्य हो सकता है कि पहले से ही विद्यमान परमाणुओं के द्वारा अष्टस्पर्शी स्कन्धों का नव-निर्माण होता है। इस प्रकार, वस्तुत: 'नया जड़' उत्पन्न नहीं होता, पर संहति-शून्य अवस्था में पहले से ही विद्यमान पुद्गल का रूपांतर संहतिमान् अवस्था में हो जाता है। इसी प्रकार जहां विद्यमान जड़ के नाश की परिकल्पना की गई है, वहां भी यही तात्पर्य हो सकता है कि संहतिमान् अवस्था में रहे पुद्गल-स्कंध संहति-शून्य अवस्था में परिणत होते हैं। यदि आकाश-गंगाओं की गति का तात्पर्य समग्र विश्व का विस्तार न लेकर केवल कुछ आकाश-गंगाओं के एक-दूसरे से दूर जाना ही हो, तो स्थायी-अवस्थावान विश्व-सिद्धांत जैन दृष्टिकोण के साथ काफी संगत हो जाता है। विस्तार के बाद संकोच और संकोच के बाद विस्तार-इस रूप में आकाश-गंगाओं की गति व प्रतिगति के क्रम की भी परिकल्पना की गई है। इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि आकाश-गंगाओं की गति-प्रतिगति के साथ स्कन्ध-निर्माण के स्कन्ध-ध्वंस का क्रम चलता रहता हो और विस्तार से जनित रिक्तता व संकोच से जनित बहुलता की परिणति की पूर्ति होती रहती हो। इस प्रकार, अनन्त-काल तक ध्वंस-निर्माण के साथ-साथ स्थायी अवस्था बनी रहती हो। यह उल्लेखनीय है कि सन् १९६४, जून में होयल के साथ भारतीय युवा वैज्ञानिक जयन्त विष्णू नारलीकर ने गणितीय आधारों पर एक नया विश्व-सिद्धांत प्रस्तुत किया है, जिसमें स्थायी-अवस्थावान् विश्व-सिद्धांत को ही नया रूप दिया गया है। प्रस्तुत संहित-शून्य पदार्थ की परिकल्पना उक्त सिद्धांत के लिए काफी महत्त्वपूर्ण हो सकती है। आरोह-अवरोहशील विश्व और अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल-प्रवाह के साथ विश्व-प्रक्रियाओं में आरोह-अवरोह आते रहते हैं। यह निरूपण वैज्ञानिकों के द्वारा स्वत: संचालित कम्पनशील विश्व', 'अति-परिवलीय विश्व' और 'चक्रीय विश्व' के सिद्धांतों के रूप में किया गया है। दूसरी ओर जैन दर्शन के अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल-चक्र का सिद्धांत इसी तथ्य का निरूपण करता है। इनमें परस्पर कहां तक समानता हो सकती है, इसकी चर्चा उपयोगी होगी। स्वत: संचालित कम्पनशील विश्व की कल्पना विश्व-विस्तार के सिद्धांत पर आधारित है; अत: जैन दर्शन का जो मतभेद विश्व-आकाश के विषय में विस्तारमान १. होयल-नारलीकर सिद्धांत की घोषणा से पूर्व ही संहति-शून्य पदार्थ के अस्तित्व की सम्भावना का संकेत अन्तर्राष्ट्रीय प्राच्यविद्या सम्मेलन, दिल्ली में ४ जनवरी, १९६४ को पढ़े गए 'स्पेस एण्ड टाइम इन जैन मैटाफिजिक्स एण्ड मोडर्न फिजिक्स' शीर्षक मुनि महेन्द्र कुमार के शोध-पत्र में किया जा चुका था। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व का परिमाण और आयु २९३ विश्व-सिद्धांत' के साथ है, वह इसके साथ भी स्वाभाविक रूप से हो ही जाता है। परन्त काल के दृष्टिकोण से विश्व के निरूपण के विषय में यह सिद्धांत और जैन दर्शन एक-दूसरे के बहुत निकट आ जाते हैं। दोनों ही विश्व के अस्तित्व को अनादि-अनन्त स्वीकार करते हैं और काल-प्रवाह के साथ विश्व के आरोह-अवरोह का प्रतिपादन करते हैं। ___आइन्स्टीन के 'द्रव्य और शक्ति की समानता' के नियम पर आधारित चक्रीय विश्व-सिद्धांत की विस्तृत चर्चा में हमने देखा कि किस प्रकार यह सिद्धांत विश्व को निर्माण और ध्वंस के अनन्त चक्रों में से गुजरने वाला किन्तु शाश्वत घोषित करता है। वैज्ञानिक जगत् में यह एक ऐसा सिद्धांत है, जो जैन दर्शन के कालचक्र-सिद्धांत के साथ अधिकतम सामंजस्य रखता है। चक्रीय विश्व-सिद्धांत' और 'अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी का सिद्धांत' स्थूल रूप से एक ही तथ्य का निरूपण करते हैं कि विश्व की प्रक्रियाओं में काल-प्रवाह के साथ निर्माण और ध्वंस क्रमश: होता रहता है और इन चक्रों के चलते रहने पर भी विश्व का अस्तित्व अनादि अनन्त है। 'चक्रीय विश्व-सिद्धांत' के विषय में निम्न दो बातें उल्लेखनीय हैं १. यह सिद्धांत जिन परिकल्पनाओं पर आधारित है (जिनका संक्षिप्त विवेचन हम कर चुके हैं), वे ठोस प्रायोगिक और सैद्धांतिक आधार पर निर्मित २. इस सिद्धांत के अन्तर्गत विश्व का केवल काल की दृष्टि से ही निरूपण किया गया है, अत: विश्व-आकाश विस्तारमान है या स्थिर, इसके विषय में यह सिद्धांत कुछ भी नहीं कहता। ___ अतिपरवलीय विश्व-सिद्धांत और स्वत: संचालित कम्पनशील विश्व-सिद्धांत में केवल इतना ही अन्तर है किस अतिपरवलीय विश्व-सिद्धांत विश्व को काल की दृष्टि से अनादि-अनन्त मानता हुआ भी उसमें केवल एक संकोच-विस्तार की कल्पना करता है, जबकि स्वत:संचालित कंपनशील विश्व में अनन्त संकोच-विस्तार की कल्पना की गई है; अत: स्वत: संचालित कंपनशील विश्व के साथ जैन दर्शन के अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी-सिद्धांत का जितना सादृश्य था, उतना अतिपरवलीय सिद्धांत के साथ नहीं है। डॉ. ज्योर्ज गेमो का उद्विकासी विश्व-सिद्धान्त' भी 'अतिपरवलीय विश्व सिद्धान्त' पर आधारित है। डॉ. गेमो ने 'उद्विकासी-विश्व' के प्रतिपादन में एक मनोरंजक कल्पना की है। सिकुड़ते हुए और विस्तृत होते हुए विश्व में काल-प्रवाह के साथ विश्व की अन्य प्रक्रियाओं पर क्या प्रभाव रहा होगा, इस विषय का निरूपण Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ जैन दर्शन और विज्ञान कर हुए डॉ. गेमो लिखते हैं.' 'जब विश्व सिकुड़ रहा था, तब क्या विश्व की सभी प्रक्रियाएं उल्टे क्रम से चलती थी? यह प्रश्न हम अपनी कल्पना के बल पर अपने आपको पूछ सकते हैं। इससे आगे यह कल्पना भी कर सकते हैं कि क्या साठ से अस्सी करोड़ वर्ष पूर्व आप यह पुस्तक उल्टे क्रम से - अंतिम पृष्ठ से प्रारम्भ कर आदि पृष्ठ की ओर पढ़ रहे थे ? अथवा कल्पना को इससे भी आगे दौड़ाने पर यह प्रश्न भी हो सकता है कि क्या उस समय मनुष्य अपने मुंह में से पकाई हुई मुर्गी निकाल कर, अपने रसोईघर में उसमें जीवन डालकर उसे बाहर खेत में भेजा करते थे; जहां वे मुर्गियां वृद्धावस्था से युवावस्था और युवावस्था से बाल-अवस्था को प्राप्त होती हुई अंत में अण्डे का स्वरूप धारण कर लेती थीं? इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर केवल वैज्ञानिक आधार पर नहीं दिया जा सकता। क्योंकि जब विश्व सिकुड़ता - सिकुड़ता उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त हुआ था, तब विश्व- स्थित समस्त जड़- राशि केवल एक छोटे से अणु के भीतर समाहित हो गई थी और इस प्रक्रिया के कारण संकोचमान - विश्व में 'कौन-सी क्रिया किस रूप में होती थी?' इसका सारा इतिहास ध्वस्त हो गया । " डॉ. गेमो द्वारा किये गये इस निरूपण की समीक्षा जैन दर्शन के 'कालचक्रीय-सिद्धांत' के आलोक में करने से सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक की विचित्र कल्पनाओं का और प्रश्नों का समाधान सहज रूप से मिलना सम्भव हो सकता है । प्रकृति की प्रक्रियाओं के उलटने का अर्थ 'पुस्तक को अंत से शुरू कर आदि तक पढ़ना' और 'मुंह से मुर्गी निकाल कर मुर्गी का ह्रास होकर अण्डे में प्रविष्ट होना' आदि नहीं है । किन्तु उसका अर्थ होता है - पुद्गल के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श - इन मूल गुणों की पर्यायों में हानि-वृद्धि होना और इसके परिणामस्वरूप ही मनुष्यों के आयुष्य, ऊंचाई, अस्थि- संख्या आदि जीवन से सम्बन्धित प्रक्रियाओं में अवसर्पिणी काल में उत्तरोत्तर ह्रास और उत्सर्पिणी काल में उत्तरोत्तर विकास होता रहता है । सादि विश्व- सिद्धान्त और जैन दर्शन सादि-विश्व-सिद्धान्तों के विषय में एक बात ध्यान देने योग्य यह है कि १. वन, टू, थ्री इन्फिनिटी, पृ० ३३५ । २. जैन दर्शन के कालचक्र - सिद्धान्त में प्राणियों की ऊंचाई आदि का जो निरूपण किया गया है, उसकी पुष्टि कुछ एक आधुनिक वैज्ञानिक खोजों द्वारा हुई है। एक पुरातत्त्व अन्वेषण-युगल डॉo लूई लीके और श्रीमती मेरी लीके ने पूर्व अफ्रीका से टांगानिका में आज से २० लाख वर्ष पूर्व के मनुष्य एवं पशुओं के कुछ अवशेषों की खोज की है। उनके अनुसार उस युग में रहने वाली भेड़ के सींग १५ फीट लम्बे थे तथा एक पक्षी की लम्बाई दो मंजिल मकान जितनी थी, जिसके अंडे 'बाउलिंग' गेंद से भी बड़े होने चाहिए। देखें, रीडर्स डाइजेस्ट, अप्रेल १९६४ में The Man of Two Millions Years ago and His Companions शीर्षक लेख । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ विश्व का परिमाण और आयु क्या ये सिद्धान्त विश्व' के अस्तित्व मात्र को 'सादि' स्वीकार करते हैं, अथवा 'विश्व' की वर्तमान या विशेष अवस्था को? यदि वे केवल विश्व की वर्तमान या विशेष अवस्था का 'आरम्भ' स्वीकार करते हैं, तो यह स्वयं स्वीकृत हो जाता है कि विश्व का अस्तित्व तो अनादि है ही; केवल विश्व की अवस्था का परिवर्तन कोई निश्चित काल पूर्व हुआ था। ऐसी स्थिति में जैन दर्शन के साथ इन सिद्धान्तों का अधिक वैषम्य नहीं रह जाता। किन्तु यदि वे विश्व में अस्तित्व मात्र से ही आरम्भ का प्रतिपादन करते हैं, तो जैन दर्शन के अनुसार वह तर्क-संगत नहीं होता। एबे लेमैत्रे के सिद्धांत के विरोध में जैन दर्शन वही तर्क उपस्थित करता है कि जिस अद्भुत अणु में से विश्व का जन्म हुआ, उस अणु का अस्तित्व अनादि है या सादि? यदि उसको अनादि माना जाये, तो विश्व' भी अनादि हो जाता है। यदि उसको 'सादि' माना जाये, तो उसका उपादान कारण कुछ और मानना पड़ेगा। अब चूंकि असत् उपादान से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती; अत: उस अणु का उपादान कारण भी सत् होना चाहिए। इसको यदि सादि माना जाये तो उसी प्रकार उपादान कारणों की परम्परा चलने पर 'अनवस्था-दोष' उत्पन्न हो जाता है; अत: कहीं-न-कहीं 'अनादि उपादान' स्वीकार करना ही पड़ता है, जो विश्व को मूलत: अनादि बना देता सान्त विश्व-सिद्धान्त और जैन दृष्टिकोण विश्व के अस्तित्व का एक समय अंत आ जायेगा'-इस सिद्धांत का निरूपण मुख्यत: उष्णता-गति-विज्ञान के दूसरे नियम पर आधारित है। इस सिद्धांत के प्रतिपादन के विषय में निम्न छ: बातों की ओर ध्यान देना आवश्यक है: १. इस सिद्धान्त के अनुसार “विश्व-स्थित जड़ राशि (शक्ति रूप एवं द्रव्य रूप) शून्य आकाश में विलीन हो रही है।" इस निरूपण का अर्थ होता है कि विश्व की जड़-राशि का नाश हो रहा है, किन्तु 'द्रव्य और शक्ति की सुरक्षा के नियम' के अनुसार विश्व की जड़-राशि शाश्वत काल के लिए अचल रहती है। इस प्रकार उक्त सिद्धांत इस नियम के साथ असंगत है। 'द्रव्य और शक्ति की सुरक्षा का नियम' विज्ञान का मूलभूत आधार माना गया है। जैन दर्शन के परिणामी-नित्यत्व-वाद' के दृष्टिकोण से भी यह निरूपण सम्यग् नहीं लगता। २. दूसरी ध्यान देने योग्य बात है-इस विषय में सर जेम्स जीन्स का सुझाव । सर जेम्स जीन्स के अनुसार, 'यह सर्वथा कल्पनीय है कि विशेष प्रकार की आकाशीय स्थिति में उष्णता-गति-विज्ञान का यह (दूसरा) नियम सही न हो।" परिणामस्वरूप 'विश्व का अंत है' यह निरूपण गलत हो जाता है। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ जैन दर्शन और विज्ञान इसी तथ्य का स्पष्ट निरूपण एडिंग्टन के शब्दों में इस प्रकार मिलता है : “वैज्ञानिक दर्शन में यह साधारणतया माना हुआ तथ्य है कि प्रकृति के नियमों द्वारा किसी शाश्वत सत्य का प्रतिपादन नहीं होता; केवल हमारे सीमित अनुभव में आने वाली प्रक्रियाओं के लिए उनका सत्य होना सम्भव है। इससे आगे ये सर्वदा और सर्वत्र सत्य है'-ऐसा विधान करने का हमें कोई अधिकार नहीं है।" ३. तीसरा महत्त्वपूर्ण तर्क उक्त सिद्धान्त के विरोध में यह है कि उष्णता-गति-विज्ञान का दूसरा नियम स्वयं कहां तक प्रमाणित है, यह चर्चास्पद विषय ४. इस सिद्धान्त की संदिग्धता का चौथा प्रमाण है-उष्णता गतिविज्ञान' के प्राचीन असापेक्षवादी (non-relativistic) निरूपण और नवीन सापेक्षवादी निरूपण का वैषम्य। ५. प्रस्तुत सिद्धान्त का ठोस विरोध विश्व के पुनर्निमाण की कल्पना पर आधारित 'चक्रीय-विश्व-सिद्धांत' ने किया है। ६. सान्त विश्व-सिद्धान्त वस्तुत: तो केवल इतना ही प्रतिपादन करता है कि एक निश्चित समय के बाद विश्व-स्थित अन्त्रोपी उत्कृष्टतम स्थिति को प्राप्त कर लेगी। किन्तु उस अवस्था में विश्व के 'अस्तित्व' का भी नाश हो जायेगा, यह किस प्रकार कहा जा सकता है? विश्व की उत्कृष्टतम अन्त्रोपी वाली दशा में भी न केवल विश्व का अस्तित्व बना रहेगा, किन्तु उसके पुनर्निर्माण की सम्भावना भी रह जायेगी। कुछ वैज्ञानिकों का यह प्रतिपादन कि उस स्थिति में काल स्वयं समाप्ति को प्राप्त होगा' गलत है। इसके अतिरिक्त आधुनिक विज्ञान के प्राय: सभी सिद्धान्त-चक्रीय विश्व-सिद्धान्त, स्वत: संचालित कम्पनशील विश्व-सिद्धान्त, स्थायी अवस्थावान् विश्व-सिद्धान्त, उद्विकासी विश्व-सिद्धान्त-विश्व की काल विमिति को अनादि-अनन्त स्वीकार करते हैं; जैन दर्शन भी यही प्रतिपादन करता है। इस प्रकार ये सभी सिद्धान्त इस सिद्धान्त के विरोध में हैं। यदि उक्त सिद्धान्त को सही मान लिया जाये, तो भी वह 'विश्व की वर्तमान व्यवस्थित अवस्था का अंत आ जायेगा'-इस रूप तक ही सीमित रह जाता है। 'विश्व-अस्तित्व का अंत' या विश्व की काल-विमिति का अंत'-इस प्रकार का प्रतिपादन उक्त सिद्धान्त से फलित नहीं होता। निष्कर्ष का नवनीत १. वर्तमान में विज्ञान-जगत् में विश्व-सम्बन्धी एक भी ऐसा सिद्धान्त नहीं है जो निर्विवादतया सबके द्वारा स्वीकृत हो। जैन दर्शन एक सर्वांगीण और व्यवस्थित विश्व-सिद्धान्त इस प्रहेलिका के समाधान के रूप में प्रस्तुत करता है। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व का परिमाण और आयु २९७ २. विज्ञान - जगत् में 'आकाश' और 'विश्व' के बीच में कोई अन्तर नहीं है । इसके परिमाण के विषय में दो मत हैं : १. विश्व ( आकाश ) सान्त है । २. विश्व (आकाश) अनन्त है । जैन दर्शन विश्व और आकाश को सर्वथा एक नहीं मानता। 'विश्व' को 'आकाश' का एक भाग मानता है। इसके अनुसार : १. आकाश (सम्पूर्ण) अनन्त है । २. विश्व (लोकाकाश) सान्त है । ३. अलोकाकाश अनन्त है । ' ३. 'विश्व सान्त है या अनन्त ?' इस प्रश्न को सुलझाने के लिए वैज्ञानिक 'आकाश की वक्रता' की कल्पना करते हैं । जैन दर्शन इसका समाधान - ( १ ) ॠण-धन ईथर और ( २ ) आकाश के विभागीकरण के निरूपण से करता है 1 ४. 'विस्तारमान विश्व' का सिद्धान्त यद्यपि विज्ञान - जगत् में अधिक से अधिक मान्यता प्राप्त हो रहा है, फिर भी इसका स्थान 'असंदिग्ध' नहीं है । जैन दर्शन के आधार पर लोकाकाश का विस्तार असंभव है; वह आकाशीय पिण्डों की गति की संभावना से इन्कार नहीं करता । ५. विज्ञान - जगत् के अधिकांश सिद्धान्त और जैन दर्शन मानते हैं कि विश्व कल की दृष्टि से आदि - रहित और अन्त - रहित है । ६. वैज्ञानिकों का चक्रीय विश्व- सिद्धान्त और जैन दर्शन का 'काल चक्र' का सिद्धान्त परस्पर अधिक साम्य रखते हैं 1 ७. भौतिक विज्ञान का मूलभूत सिद्धान्त 'द्रव्य और शक्ति की सुरक्षा का नियम' और जैन दर्शन का मौलिक सिद्धान्त परिणामी - नित्यत्ववाद' एक ही तथ्य का उच्चारण करते हैं कि अनन्त परिणमनों के होते हुए भी पदार्थ शाश्वत है। यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि जैन दर्शन के विश्व - सिद्धान्त की तर्क-संगतता आज के वैज्ञानिकों को प्रभावित करने वाली है। निम्न तथ्य विशेषतः १. इसको सांकेतिक रूप में इस प्रकार लिखा जा सकता है : आकाश = लोक + अलोक आकाश-अनन्त लोक-सान्त अलोक- अनन्त Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ जैन दर्शन और विज्ञान ध्यातव्य हैं : १. आकाश एक वस्तु सापेक्ष वास्तविकता है; किन्तु पुद्गल (मैटर) से भिन्न है। २. आकाश लोक और अलोक के रूप में विभाजित है। ३. विश्व (लोकाकाश) का आकार त्रिशरावसम्मुट' होने के कारण वक्रतायुक्त है। ४. विश्व का परिमाण (वाल्युम) किसी भी रूप में १०१० घन माइलों से कम नहीं है। ५. अलोकाकाश अनन्त है। वह रिक्त होते हुए भी असत् (अवास्तविक) नहीं है। ६. लोकाकाश में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय नामक दो द्रव्य (reality) हैं, जो कि गति और स्थिति के असाधारण माध्यम हैं। अलोकाकाश में इनका अभाव होने से वहां कोई अन्य द्रव्य न तो है और न जा सकता है। ७. आकाश-द्रव्य अगतिशील है। ८. सभी पदार्थ (सत्) द्रव्यत्व की अपेक्षा से शाश्वत-अनादि-अनन्त हैं; अत: विश्व भी शाश्वत है। ९. विश्व के विशेष क्षेत्रों में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालचक्र का प्रवर्तन होने से प्रकृति की प्रक्रियाओं में आरोह-अवरोह होते रहते हैं। अस्तु आज के इस यन्त्र-प्रधान युग में, दीर्घकाय दूरवीक्षणयंत्र' (टेलिस्कॉप), रेडियो-दूरवीक्षणयंत्र, सूक्ष्मवीक्षणयंत्र (माइक्रोस्कोप), वर्णपट मापक यंत्र (स्पेक्ट्रोमीटर) आदि यथार्थतम मापने वाले यन्त्रों से सुसज्जित वैधशालाओं एवं प्रयोगशलाओं के होते हुए भी यदि वैज्ञानिक विश्व-प्रहेलिका को नहीं सुलझा पाये हैं, तो उस युग में जबकि इन साधनों का सर्वथा अभाव था, जैन दार्शनिकों ने विश्व की सान्तता', 'आकाश और काल की अनन्तता', 'गति-स्थिति माध्यमों (ईथरों) की वास्तविकता' विश्व का निश्चित परिमाण और आकार, पदार्थ में परिणामी-नित्यत्व धर्म, कालचक्र के प्रवर्तन के साथ प्रकृति के परिवर्तन आदि तथ्यों का विवेचनपूर्वक और असीम निश्चलता से किस प्रकार प्रतिपादन किया, यही प्रश्न जिज्ञासा-शील मनुष्य को इन्द्रिय-प्रत्यक्ष की छोटी तलैया से निकाल कर आत्म-प्रत्यक्ष के लहलहाते महासागर की ओर झांकने को उत्कण्ठित कर देता है। १. माउण्ट विलसन की वैधशाला में ६० इंच और माउण्ट पैलोमेर की वैधशाला में २०० इंच की दीर्घता के काच से-युक्त दूरवीक्षण यंत्र का उपयोग होता है। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९९ विश्व का परिमाण और आयु अभ्यास १. जैन दर्शन के अनुसार विश्व के आकार और परिमाण की चर्चा करें। २. जैन दर्शन के काल-चक्रीय सिद्धांत को विस्तार से समझाइए। ३. आपेक्षिकता के सिद्धांत से पूर्व और पश्चात् कालीन वैज्ञानिकों द्वारा विश्व के परिमाण को किस प्रकार समझाया गया ? ४. विस्तारमान विश्व का वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करें। ५. वैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत विश्व की आदि और अन्त' सम्बन्धी सिद्धांतों को समझाते हुए उनके वैज्ञानिक आधारों को स्पष्ट करें। ६. जैन दर्शन के विश्व के परिमाण-सम्बन्धी विचारों की आइन्स्टीन के एतद्विषयक विचारों के साथ तुलना करें। ७. सादि सान्त विश्व-सिद्धांतों का जैन दर्शन के आधार पर खंडन करें। ८. जैन दर्शन और विज्ञान के 'अनादि-अनन्त विश्व-सिद्धांतों' की तुलना करें। ९. जैन दर्शन के कालचक्रीय सिद्धांत का वैज्ञानिक आधारों पर मूल्यांकन करें। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. जैन दर्शन और विज्ञान में (क) जैन दर्शन में पुद्गल 1 'पुद्गल' शब्द जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है । जो वर्ण, स्पर्श, गन्ध और रस- इन गुणों से युक्त है, वह पुद्गल है। पुद्गल का आधुनिक पर्यायवाची शब्द जड़ अथवा भौतिक पदार्थ हो सकता है। किन्तु ऊर्जा, जो कि वस्तुत: जड़ का ही रूप है, पुद्गल के अन्तर्गत आ जाती है। पुद्गल 1 छह द्रव्यों में जीव को छोड़कर शेष पांचों ही द्रव्य अजीव हैं; पुद्गल भी अजीव है । वह चैतन्य- गुण से रहित है। । पुद्गल के सूक्ष्मतम अविभाज्य अंश को परमाणु कहा जाता है। विश्व ( लोकाकाश) में परमाणुओं की संख्या अनन्त है और प्रत्येक परमाणु, स्वतन्त्र इकाई है। जब ये परमाणु परस्पर जुड़ते हैं, तब 'स्कन्ध' का निर्माण होता है । स्कन्ध में दो से लेकर अनन्त परमाणु हो सकते हैं । लोकाकाश के जितने भाग को एक परमाणु अवगाहित करता है, उतने भाग को 'प्रदेश' कहा जाता है । किन्तु पुद्गल की स्वाभाविक अवगाहन-संकोच - शक्ति के कारण लोकाकाश के एक प्रदेश में ‘अनन्त-प्रदेशी’' (अनन्त परमाणुओं से बना हुआ ) स्कन्ध ठहर सकता है I समग्र लोकाकाश में (जो कि असंख्यात प्रदेशात्मक है ) अनन्त 'अनन्त- प्रदेशी' स्कन्ध विद्यमान हैं। इस प्रकार द्रव्य - संख्या की दृष्टि से पुद्गल द्रव्य अनन्त हैं, क्षेत्र की दृष्टि से स्वतंत्र परमाणु एक प्रदेश का अवगाहन करता है और स्वतन्त्र स्कन्ध एक से लेकर असंख्यात प्रदेशों का अवगाहन करता है तथा समग्र पुद्गल द्रव्य समस्त लोक में व्याप्त हैं; काल की दृष्टि से अनादि और अनन्त हैं; स्वरूप की दृष्टि से वर्ण, स्पर्श आदि गुणों से युक्त, चैतन्य - रहित और मूर्त हैं । पुद्गल का नामकरण / परिभाषा पुद्गल शब्द की व्युत्पत्ति है - पुद् गल । पुद् = पूरण अर्थात् संघात यानी संयुक्त यानी संयुक्त होना (Fusion ) और गल = अर्थात् भेद यानी वियुक्त होना (fission) । केवल वह पदार्थ ही पुद्गल है जिसमें संश्लिष्ट और विश्लिष्ट होने की क्षमता है। छह द्रव्यों में केवल पुद्गल द्रव्य में ही यह क्षमता है, अन्य पांच द्रव्यों में नहीं। जो द्रव्य प्रति समय मिलता - गलता रहे, बनता - बिगड़ता रहे, टूटता - जुड़ता रहे; वह पुद्गल है । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ जैन दर्शन और विज्ञान में पुद्गल पुद्गल के लाक्षणिक गुण हैं-स्पर्श , रस, गन्ध और वर्ण। इन गुणों के कारण पुद्गल मूर्त (इन्द्रिय-ग्राह्य) बनता है। ये गुण केवल पुद्गल-द्रव्य में ही होते हैं, अन्य पांच द्रव्यों में नहीं। इसलिए शेष पांच द्रव्य अमूर्त या अरूपी होते हैं। पुद्गल द्रव्य रूपी या इन्द्रिय-ग्राह्य होने का तात्पर्य केवल यह नहीं कि वह चक्षु-ग्राह्य है, पर सभी इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य है। अर्थात् पुद्गल की विलक्षण पहिचान यह है कि वह छुआ जा सकता है, चखा जा सकता है; सुंधा जा सकता है और देखा भी जा सकता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि स्पर्श रस, गंध और वर्ण-ये चारों ही गुण सभी पुद्गलों में प्रकट या अप्रकटरूप में एक साथ विद्यमान होते ही हैं। पुद्गल के लाक्षणिक गुण और गुणों की पर्याय वर्ण के मूल पांच प्रकार हैं-काला, नीला, लाल, पीला, श्वेत । गंद के मूल दो प्रकार हैं-सुगंध और दुर्गंध। रस के पांच प्रकार हैं-मीठा, कटु, खट्टा, कसैला, तिक्त। स्पर्श के आठ प्रकार हैं-शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, गुरु लघु, मृदु, कठोर। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-ये पुद्गल के गुण हैं। कृष्ण आदि पांच रंग वर्ण-गुण की पर्याय हैं; सुगंध-दुर्गंध गंध गुण की पर्याय हैं इसी प्रकार मधुर आदि पांच तथा शीत आदि आठ क्रमश: रस और स्पर्श गुण की पर्याय हैं। इस प्रकार चार गुणों की २० पर्यायें हैं। हम गुण को नहीं जानते बल्कि उसकी पर्याय को जानते हैं। जैसे-स्पर्श गुण नहीं जाना जा सकता, अपितु शीत या उष्ण पर्याय का ज्ञान हम कर सकते हैं। पर्याय बदलती रहती है, पर गुण सदा बना रहता है। जैसे-स्पर्श गुण सदा बना रहता है, पर शीत का उष्ण या उष्ण का शीत के रूप में पर्याय-परिवर्तन घटित होता रहता है; हम इन्हीं पर्यायों को जानते रहते हैं। जैसे गुणों की पर्याय होती हैं, वैसे द्रव्य की पर्याय भी होती हैं। सभी द्रव्यों की अनन्त पर्यायें होती हैं। पुद्गल-द्रव्य की अनन्त पर्यायों में से कुछ विशिष्ट पर्यायों की चर्चा करेंगेपुद्गल की विशिष्ट पर्याय १. शब्द-एक स्कन्ध के साथ दूसरे स्कंध के टकराने या किसी स्कंध के टूटने से जो ध्वनि रूप परिणाम उत्पन्न होता है, उसे शब्द कहते हैं। शब्द कर्ण/श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है। परमाणु शब्द उत्पन्न नहीं कर सकता। वैशेषिक दर्शन में शब्द को आकाश द्रव्य का गुण माना गया है, पर जैन दर्शन के अनुसार वह आकाश का गुण नहीं, वरन् पुद्गल की पर्याय है। इस मान्यता के समर्थन में अनेक तर्क दिए गए हैं। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ जैन दर्शन और विज्ञान उत्पत्ति की दृष्टि से शब्द के मुख्य दो प्रकार हैं-१. वैनसिक-स्वाभाविक या प्राकृतिक-जैसे बादलों का गर्जना। २. प्रायोगिक-प्रयत्नजन्य । प्रायोगिक के दो प्रकार हैं-१. भाषात्मक २. अभाषात्मक। पहले प्रकार में मनुष्य, पशु-पक्षियों आदि की ध्वनियां आती हैं। दूसरे प्रकार में प्रकृति-जन्य और वाद्य-यंत्रों से उत्पन्न होने वाली ध्वनियों का समावेश होता है। भाषात्मक शब्द के दो भेद हैं-१. अक्षरात्मक २. अनक्षरात्मक । पहले वर्ग में ऐसी ध्वनियां आती हैं जो अक्षरबद्ध की जा सके और लिखी जा सके। दूसरे वर्ग में रोने-चिल्लाने, खांसने-फुसफुसाने आदि की तथा पशु-पक्षियों आदि की ध्वनियां आती हैं, जिन्हें अक्षरबद्ध नहीं किया जा सकता । ___अभाषात्मक के दो भेद हैं-१. वैस्रसिक, २. प्रायोगिक । वाद्य-यंत्रों से उत्पन्न होने वाली ध्वनियां दूसरे वर्ग में हैं। इनके चार प्रकार हैं-तत, वितत, घन, सुषिर। १. तत-जो ध्वनि चर्म-तनन आदि झिल्लियों के कम्पन से उत्पन्न होती है। जैसे-भेरी, तबला, ढोलक आदि आघात वाद्य (percussion instruments) २. वितत-वीणा आदि तंत्रि-यंत्रों (string instruments) में तंत्री (तार) के कम्पन से उत्पन्न ध्वनि । जैसे-वीणा, तम्बुरा, सीतार आदि। ३. धन-घण्टा आदि ठोस (घन) द्रव्यों के अभिघात से उत्पन्न ध्वनि । जैसे घण्टा, ताल आदि। ४. सुषिर-बंसी आदि में रहे रिक्तस्थान में रहे वायु-प्रतर के कंपन से उत्पन्न ध्वनि। जैसे-बंशी, शंख आदि। एक अन्य अपेक्षा से शब्द के तीन भेद भी किए जाते हैं-१. जीव शब्द, २. अजीव शब्द, ३. मिश्र शब्द। शब्द वैनसिक प्रायोगिक - भाषात्मक अभाषात्मक अक्षरात्मक अनक्षरात्मक तत वितत घन सुषिर Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ जैन दर्शन और विज्ञान में पुद्गल २. बन्ध (fusion) 'बन्ध' शब्द का अर्थ है बंधना, जुड़ना, मिलना, संयुक्त होना। दो या दो से अधिक परमाणुओं का भी बन्ध हो सकता है और दो या दो से अधिक स्कंधों का भी। इसी तरह एक या एक से अधिक परमाणुओं का एक या एक से अधिक स्कंधों के साथ भी बन्ध होता है। पुद्गल-परमाणुओं (कार्मण वर्गणाओं) का जीव द्रव्य के साथ भी बंध होता है। बंध की एक विशेषता यह है कि उसका विघटन या विखण्डन या अंत अवश्यम्भावी है; क्योंकि जिसका प्रारम्भ होता है, उसका अंत भी अवश्यमेव होता है। एक नियम यह भी है कि जिन परमाणुओं या स्कंधों का परस्पर बंध होता है, वे परस्पर सम्बद्ध रह कर भी अपना-अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम रखते हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के साथ दूध और पानी की भांति अथवा रासायनिक प्रतिक्रिया से सम्बद्ध होकर भी अपनी पृथक् सत्ता नहीं खोता। उसके परमाणु कितने ही रूपान्तरित हो जाएं फिर भी उनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम रहता है। यह तो स्वष्ट है कि पुद्गल द्रव्य सकिय है और जो सक्रिय होता है उसका टूटते-फूटते रहना, जुड़ते-मिलते रहना स्वाभाविक ही है। हां, उसमें कोई-न-कोई कारण निमित्त के रूप में अवश्य होता है; उदाहरणार्थ मिट्टी के अनेक कणों का बन्ध होने पर घड़ा बनता है। इसमें कुम्हार निमित्त है। द्रव्य की अपनी रासायनिक प्रक्रिया भी बंध का कारण बन जाती है। कपूर आदि के सम्मिलन से बनी हुई अमृतधारा और उद्जन (हाइड्रोजन) आदि वातियों (गैसों) के मिलने से बना हुआ जल ऐसी ही प्रक्रियाओं के प्रतिफल हैं। जैनाचार्यों ने बन्ध की प्रक्रिया का अत्यन्त सूक्ष्म विश्लेषण किया है। यद्यपि विज्ञान इस विश्लेषण को अपने प्रयोगों द्वारा पूर्णत: सिद्ध नहीं कर सका है तथापि इसकी वैज्ञानिकता में कोई संदेह नहीं है। परमाणु से स्कंध, स्कंध से परमाणु और स्कंध से स्कंध किस प्रकार बनते हैं इस विषय में हम मुख्यत: चार तथ्य पाते हैं १. स्कंधों की उत्पत्ति कभी भेद से, कभी संघात से और कभी भेदसंघात से होती है। स्कंधों का विघटन अर्थात् कुछ परमाणुओं का एक स्कंध से विच्छिन्न होकर दूसरे स्कंध से मिल जाना भेद कहलाता है। दो स्कंधों का संघटन या संयोग हो जाना संघात है और इन दोनों प्रक्रियाओं का एक साथ हो जाना भेद-संघात है। २. परमाणु की उत्पत्ति केवल भेद-प्रक्रिया से ही संभव है। . ३. पुद्गल में पाये जाने वाले स्निग्ध और रूक्ष नामक दो गुणों के कारण Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ही यह प्रक्रिया संभव है 1 भी ४. बंध की प्रक्रिया में संघात से उत्पन्न स्निग्धता अथवा रूक्षता में से जो गुण अधिक परिमाण में होता है, नवीन स्कंध उसी गुण-रूप में परिणत होता है । उदाहरण के लिए एक स्कंध पन्द्रह स्निग्धगुणयुक्त स्कंध और तेरह रूक्षगुणयुक्त स्कंध से बने तो यह नवीन स्कंध स्निग्ध गुणरूप होगा । आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में भी हम देखते हैं कि यदि किसी परमाणु में से ऋणाणु (इलेक्ट्रान) निकाल लिया जाए तो वह धन-विद्युद् आवेशित (पोजीटिव्हली चार्ज्ड) और यदि एक ऋणाणु जोड़ दिया जाए तो वह ऋणाणु विद्युद् आवेशित (निगेटिव्हली चार्ज्ड ) हो जाता है । ३. भेद (fission) स्कंधों का विघटन अर्थात् कुछ परमाणुओं का स्कंध से विच्छिन्न होकर अलग हो जाना अन्तरंग और बहिरंग- इन दोनों प्रकार के निमित्तों से स्कंधों का अनेक स्कंधों अथवा परमाणुओं के रूप में विच्छिन्न होना भेद कहलाता है । भेद के भी दो प्रकार हैं - १. वैस्रसिक २. प्रायोगिक । जैन दर्शन और विज्ञान वैसिक भेद- किसी भी पौद्गलिक स्कंध का स्वाभाविक विघटन वैस्रसिक भेद कहलाता है। उदाहरणार्थ - बादलों का विघटन । वायु, वर्षा, जल-प्रवाह आदि नैसर्गिक परिबलों द्वारा होने वाला विघटन भी इस कोटि में समाविष्ट है । आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से रेडियो क्रियात्मक तत्त्वों में से विकिरण का उत्सर्जन भी वैि भेद का स्पष्ट उदाहरण है । निमित्त की विविधताओं के कारण भेद के पांच या छह प्रकार होते हैं१. उत्कर - फाड़ना। मुंग आदि पदार्थों को दाल के रूप में दो भागों में फाड़ना या विभाजित करना । २. चूर्ण - पीसना | गेहूं आदि पदार्थों को पीसकर आटा बनाना । ३. खंड-टूकड़े करना। लोह आदि पदार्थों को तोड़कर टूकड़े करना । ४. प्रतर-तहों या परतों (layers) में विभाजन करना । अबरक आदि पदार्थों की परत उतारना । ५. अनुतटिका - दरार पड़ना । काच दिवार आदि पदार्थों में दरार डालना । सवार्थसिद्धि के अनुसार भेद के छह प्रकार इस रूप में मिलते हैं१. उत्कर - करौत आदि से जो लकड़ी आदि को चिरा जाता है । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में पुद्गल ३०५ २. चूर्ण - गेहूं आदि का जो सत्तु (आदि) या कनक आदि बनती है I ३. खण्ड - घट आदि के जो कपाल (यानी ठीकरा या ठीकरी) और शर्करा (कंकरा ) आदि टूकड़े होते हैं । ४. चूर्णिका - उड़द या मुंग आदि का जो खण्ड (दाल के रूप में) किया जाता है । ५. प्रतर - मेघ के जो अलग-अलग पटल आदि होते हैं । ६. अनुचटण - तपाए हुए लोहे के गोले आदि को घन आदि से पीटने पर जो स्फुलिंगें निकलते हैं। (४) सौक्षम्य और ( ५ ) स्थौल्य सूक्ष्मता - सूक्ष्मता का अर्थ है छोटापन । यह दो प्रकार की है । अन्त्य सूक्ष्मता और आपेक्षिक सूक्ष्मता । अन्त्य सूक्ष्मता परमाणुओं में ही पायी जाती है और आपेक्षिक सूक्ष्मता दो छोटी-बड़ी वस्तुओं में तुलनात्मक दृष्टि से पायी जाती है । स्थूलता - स्थूलता का अर्थ बड़ापन है । वह भी दो प्रकार का है : अन्त्य स्थूलता जो महास्कन्ध में पायी जाती है और आपेक्षिक स्थूलता जो छोटी-बड़ी वस्तुओं में तुलनात्मक दृष्टि से पायी जाती है । दूसरी अपेक्षा स्थूलता और सूक्ष्मता की परिभाषा इस प्रकार भी की जा सकती है जो किसी दूसरे पदार्थ को न रोक सके और न ही स्वयं किसी से रुक सके, अथवा एक-दूसरे में समा कर रह सके या एक दूसरे में से पार हो जाए उसे सूक्ष्म कहते हैं; तथा जो पदार्थ दूसरे को रोके अथवा दूसरे से रुक जाए, एक-दूसरे में न समा सके न पार हो सके वह स्थूल कहलाता है 1 कोई पदार्थ पूर्णत: सूक्ष्म है, कोई कम सूक्ष्म है, कोई पूर्णत: स्थूल है, कोई स्थूल है। जो किसी से भी किसी प्रकार न रुके और प्रत्येक पदार्थ में समा कर रह सके वह पूर्ण सूक्ष्म है। जो हर पदार्थ से रुक जाए तथा किसी में भी समा कर रह न सके और किसी में से भी पार न हो सके, वह पूर्ण स्थूल है। जो किसी से रुक जाए और किसी से नहीं तथा किसी में समा जाए और किसी में नहीं अथवा किसी-में-से पार हो जाए और किसी- में से नहीं, वह कम सूक्ष्म तथा कम स्थूल है अर्थात् उसमें सूक्ष्मता तथा स्थूलता दोनों मिले हुए हैं। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ जैन दर्शन और विज्ञान इस प्रकार उत्कृष्ट स्थूल का नाम है 'स्थूल-स्थूल', मध्यम स्थूल का नाम 'स्थूल' और जघन्य स्थूल का नाम है 'स्थूल-सूक्ष्म' (पहले स्थूल, फिर सूक्ष्म)। इसी प्रकार उत्कृष्ट सूक्ष्म का नाम है 'सूक्ष्म-सूक्ष्म', मध्यम सूक्ष्म का नाम है 'सूक्ष्म' और जघन्य सूक्ष्म का नाम है 'सूक्ष्म-स्थूल' (पहले सूक्ष्म, फिर स्थूल)। इन्हीं नामों को उत्कृष्ट स्थूलता से क्रमपूर्वक घटाते-घटाते उत्कृष्ट सूक्ष्मता-पर्यन्त यदि गिना जाए तो यों होगा-उत्कृष्ट स्थूल, मध्यम स्थूल, जघन्य स्थूल, जघन्य सूक्ष्म, मध्यम सूक्ष्म, उत्कृष्ट सूक्ष्म, या स्थूल-स्थूल, स्थूल, स्थूल-सूक्ष्म, सूक्ष्म-स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्म-सूक्ष्म। वह पदार्थ जो किसी दूसरे में न तो समा सकता है, न किसी दूसरे में-से आर-पार हो सकता है, न स्वयं अपनी स्थिति तथा शक्ल बदल सकता है, जहां रख दिया जाए वहां ही ज्यों-का-त्यों पड़ा रहता है, वह स्थूल-स्थूल' पुद्गल स्कन्ध है। इस प्रकार पृथ्वी अर्थात् सभी छोटी या बड़ी ठोस वस्तुएं इस श्रेणी में आ जाती है। वे पदार्थ जो सबमें तो नहीं पर किसी पदार्थ में समा सके और किसी पदार्थ से आर-पार हो सके, स्वयं अपनी स्थिति तथा शक्ल भी बदल सके, जहां उसे रखा जाए वहां ही ज्यों-की-त्यों पड़ा रहता है, वह स्थूल-स्थूल' पुद्गल स्कन्ध है। इस प्रकार पृथ्वी अर्थात् सभी छोटी या बड़ी ठोस वस्तुएं इस श्रेणी में आ जाती हैं। वे पदार्थ जो सबमें तो नहीं पर किसी पदार्थ में समा सकें और किसी पदार्थ से आर-पार हो सकें, स्वयं अपनी स्थिति तथा शक्ल भी बदल सके जहां उसे रखा जाए वहां ही ज्यों-की-त्यों पड़ी न रह सके, जिन्हें टिकाने के लिए बहुत कुछ साधनों की सहायता लेनी पड़े, तथा जिन्हें तोड़ने पर पुन: स्वयं मिल जाएं, वे सब स्थूल' पुद्गल स्कन्ध हैं। इस प्रकार जल तथा वायु तत्त्व इस श्रेणी में आ जाते हैं। वह पदार्थ जो कुछ अन्य पदार्थों में से आर-पार हो सके, तथा जिसे किसी प्रकार भी पकड कर रखा न जा सके, वह स्थूल-सूक्ष्म पदार्थ है, जैसे प्रकाश; क्योंकि यह शीशे में से आर-पार हो जाता है। स्पर्शनेन्द्रिय का जो विषय गर्मी-सर्दी, रसनेन्द्रिय का जो विषय स्वाद, घ्राणेन्द्रिय का जो विषय गन्ध और कर्णेन्द्रिय का जो विषय शब्द, ये चारों प्रकार के पदार्थ 'सूक्ष्म-स्थूल' हैं। यहां तक के सर्व पदार्थ तथा विषय तो हम सबको प्रत्यक्ष है; परन्तु इससे आगे की श्रेणी में स्थूलता बिलकुल नहीं रह जाती और इसलिए वे हमारी इन्द्रियों के विषय भी नहीं बन सकते। वे हर पदार्थ में-से आर-पार भी हो जाते हैं। ऐसे पदार्थ 'सूक्ष्म' कहलाते हैं। आज के भौतिक विज्ञान द्वारा खोजने पर चुम्बक की किरणें तथा रेडियो की तरंगें इस श्रेणी में ग्रहण की जा सकती हैं; क्योंकि ये हर पदार्थ में-से Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ जैन दर्शन और विज्ञान में पुद्गल आर-पार होने की शक्ति रखती हैं, और इन्द्रियों द्वारा किसी प्रकार भी इनका ग्रहण नहीं किया जा सकता; परन्तु आगम के अनुसार कार्मण वर्गणाएं इस कोटि में आती हैं। कार्मण वर्गणा एक प्रकार का सूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध है, जो इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। स्वयं परमाणु सूक्ष्म-सूक्ष्म' पुद्गल है, जिससे सूक्ष्म अन्य कोई पुद्गल संभव नहीं है। (६) संस्थान (आकार) संस्थान का अर्थ है आकार-रचना-विशेष। संस्थान भी पुद्गल का एक महत्त्वपूर्ण पर्याय है जिसके कारण त्रि-आयामात्मक आकाश में पुद्गल अवगाहन कर सकता है। संस्थान अनन्त प्रकार के हो सकते हैं। मोटे तौर पर उसे दो प्रकार में बांटा जा सकता है-इत्थं संस्थान, अनित्थं संस्थान । जिसके विषय में यह संस्थान इस प्रकार का है' ऐसा निर्देश किया जा सके वह 'इत्थं' लक्षण संस्थान है। उसके मुख्य पांच प्रकार हैं-१. वृत्त-गोलाकार २. त्रिकोणाकार ३. चतुष्कोण ४. आयत ५. परिमण्डल-वलयाकार । मेघ आदि के आकार जो कि अनेक प्रकार के हैं और जिनके विषय में यह इस प्रकार का है।' ऐसा नहीं कहा जा सकता, वह अनित्थं लक्षण संस्थान है। (७) प्रकाश और (८) अंधकार प्रकाश और अन्धकार-दोनों ही पुद्गल के परिणमन हैं। प्रकाश पुद्गल की पर्याय है जिसके निमित्त से प्राणी देख सकते हैं। अंधकार अदृश्यता का कारण है और यह भी पुद्गल की ही पर्याय है। जैन दर्शन ने अंधकार को प्रकाश का केवल अभाव नहीं माना है। प्रकाश का वैज्ञानिक विवेचन इस प्रकार है-वह चाहे सूर्य का हो, चाहे दीपक का, निरन्तर गतिशील है। वैज्ञानिकों ने लोक (ब्रह्माण्ड) में घूमने वाले आकाशीय पिण्डों की गति, दूरी आदि को मापने के लिए प्रकाश-किरण को ही अपना माप-दण्ड मान रखा है; क्योंकि उसकी गति सदा समान है। प्रकाश में पहले भार नहीं माना गया था, लेकिन अब यह सिद्ध हो चुका है कि वह एक शक्ति का भेद होते हुए भी भारवान है। वैज्ञानिकों ने यह भी पता लगाया है कि प्रकाश विद्युत्-चुम्बकीय तत्त्व है। वह एक वर्गमील क्षेत्र पर प्रति मिनिट आधी छटाक मात्रा में सूर्य से गिरता है। ताप-ताप को हम उष्णता कह कर समझ सकते हैं। इसे पुद्गल के उष्ण स्पर्श गुण का पर्याय कहा जाना चाहिए; तभी ताप का विवेचन पूर्णत: वैज्ञानिक दृष्टि से होगा। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ जैन दर्शन और विज्ञान परमाणु में धनाणु और ऋणाणु निरन्तर गतिशील रहते हैं और इसी तरह अणु में स्वयं परमाणु और अणु-गुच्छकों में अणु निरन्तर गतिशील रहते हैं। यही आंतरिक गति जब बहुत बढ़ जाती है और सूक्ष्म कण परस्पर टकराते हुए इधर-उधर दौड़ने लगते हैं तब वे ताप के रूप में दिखने लगते हैं। जैन सूत्रकारों ने आतप, उद्योत और प्रभा के रूप में प्रकाश के तीन प्रकार बताए हैं। आतप-सूर्य, अग्नि आदि का उष्ण प्रकाश। उसमें ऊर्जा का अधिकांश ताप-किरणों (heat rays) के रूप में प्रगट होता है। उद्योत-चन्द्रमा, जुग्नु आदि का शीतल प्रकाश। उसमें ऊर्जा का अधिकांश प्रकाश-किरणों (lightrays) के रूप में प्रगट होता है, ताप का पूर्ण अभाव या अल्प मात्रा होती है। प्रभा-रत्न आदि प्रकाश देने वाले पदार्थों से निकलनेवाले प्रकाश को प्रभा कहते हैं। तम (अन्धकार)-जो देखने में बाधक हो और प्रकाश का विरोधी हो वह अन्धकार है। कुछ जैनेतर दार्शनिकों ने अन्धकार को कोई वस्तु न मानकर केवल प्रकाश का अभाव माना है पर यह उचित नहीं। यदि ऐसा मान लिया जाए तो यह भी कहा जा सकेगा कि प्रकाश भी कोई वस्तु नहीं है, वह तो केवल तम का अभाव है। विज्ञान भी अन्धकार को प्रकाश का अभावरूप न मानकर पृथक् वस्तु मानता है। विज्ञान के अनुसार अन्धकार में भी उपस्तु किरणों (इंफ्रारेड हीट रेज) का सद्भाव है जिनसे उल्लू और बिल्ली की आंखें तथा कुछ विशिष्ट अचित्रीय पट (फोटोग्राफिक प्लेट्स) प्रभावित होते हैं। इससे सिद्ध होता है कि अन्धकार का अस्तित्व दृश्य प्रकाश (विजिबिल लाइट) से पृथक् होता है। छाया-प्रकाश पर आवरण पड़ने पर छाया उत्पन्न होती है। प्रकाश-पथ में अपारदर्शक वस्तुओं (ओपेक बॉडीज) का आ जाना आवरण कहलाता है। छाया को अन्धकार के अन्तर्गत रखा जा सकता है और इस प्रकार वह भी प्रकाश का अभाव रूप नहीं अपितु पुद्गल की पर्याय सिद्ध होती है। विज्ञान की दृष्टि में अणुवीक्षों (लेंसों) और दर्पणों के द्वारा प्रतिबिम्ब दो प्रकार के होते हैं, वास्तविक और अवास्तविक । इनके निर्माण की प्रक्रिया से स्पष्ट है कि ये ऊर्जा/प्रकाश के ही रूपान्तर हैं। ऊर्जा ही छाया (शेडो) और वास्तविक Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में पुद्गल ३०९ (रिअल) एवं अवास्तविक ( वर्चुअल ) प्रतिबिम्बों (इमेजों ) के रूप में लक्षित होती है । व्यक्तिकरण पट्टियों (इन्टरफेरेन्स बैंड्स) पर यदि गणनायंत्र ( काउंटिंग मशीन ) चलाया जाए तो कालीपट्टी (डार्क बैंड) में - से भी प्रकाश - वैद्युत रीति से (फोटो-इलेक्ट्रिकली) ऋणाणुओं (इलेक्ट्रोन्स) का नि:सरित होना सिद्ध होता है । तात्पर्य यह कि काली पट्टी केवल प्रकाश के अभावरूप नहीं, उसमें भी ऊर्जा होती है और इसी कारण उससे विद्युदणु निकलते हैं। काली पट्टियों के रूप में जो छाया होती है वह भी ऊर्जा का ही रूपान्तर है । वर्गीकरण - प्रकाश-पथ में दर्पणों (मिरर्स) और अणुवीक्षों (लेंसेस) का आ जाना भी एक प्रकार का आवरण ही है। इस प्रकार के आवरण से वास्तविक और अवास्तविक प्रतिबिम्ब बनते हैं । ऐसे प्रतिबिम्ब दो प्रकार के होते हैं, वर्णादि विकार परिणत और प्रतिबिम्बमात्रात्मक । वर्णादि विकार परिणत छाया में विज्ञान के वास्तविक प्रतिबिम्ब लिए जा सकते हैं, जो विपर्यस्त (इन्वर्टेड) हो जाते हैं और जिनका परिमाण ( साइज ) बदल जाता है। ये प्रतिबिम्ब प्रकाश - रश्मियों के वस्तुतः मिलन से बनते हैं और प्रकाश को ही पर्याय होने से स्पष्टतः पौद्गलिक हैं । प्रतिबिम्बमात्रात्मिका छाया के अन्तर्गत विज्ञान के अवास्तविक प्रतिबिम्ब ( वर्चुअल इमेजेज ) रखे जा सकते हैं, जिनमें केवल प्रतिबिंब ही रहता है, प्रकाश- रश्मियों के मिलने से ये प्रतिबिम्ब नहीं बनते । विद्युत् (बिजली) - विद्युत् को हम साधारणतः धन- विद्युत् और ऋण-विद्युत् दो रूपों में देखते हैं। ये दोनों ही पुद्गल-पर्याएं हैं और दोनों का वैज्ञानिक मूलाधार एक ही है । वैज्ञानिक दृष्टि से विद्युत् के दो रूप हैं- धन और ऋण । धन का आधार उद्युत्कण (प्रोटॉन) और ऋण का आधार विद्युत्कण (इलेक्ट्रान) है। इस सिद्धांत के अनुसार विश्व का प्रत्येक पदार्थ विद्युन्मय है । रेडियो- क्रियातत्त्व (रेडियो एक्टिविटी ) - ) - जब किसी परमाणु (एटम) से किसी कारणवश उसके मूलभूत कण, विद्युत्कण और उद्युत्कण, पृथक् होते हैं तब बम फटने की तरह धड़ाके की आवाज होती है, साथ ही उससे एक प्रकार की लौ निकलती है जो प्रकाश की तरह आगे-आगे बढती चली जाती है । इसी के प्रसारण को रेडियो-क्रियातत्त्व या किरण - प्रसारण (रेडिएशन) कहते हैं । आधुनिक विज्ञान के १०३ तत्त्व - वैज्ञानिकों ने पुद्गल की कुछ ऐसी पर्यायों का पता लगाया है, जो अपनी एक स्वतन्त्र जाति रखती हैं और जिनमें किसी अन्य जाति का मिश्रण स्वभावत: नहीं होता । ऐसी अमिश्रित जाति की पुद्गल - पर्यायों को ही विज्ञान में तत्त्व कहा जाता है। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० जैन दर्शन और विज्ञान जैन दर्शन को इस १०३ की संख्या से भी कोई आपत्ति नहीं । ये १०३ तत्त्व केवल पुद्गल द्रव्य की ही पर्याय हैं। __ अणुबम-पहले वैज्ञानिकों की मान्यता थी कि उनका तथाकथित परमाणु टूटता नहीं, विच्छिन्न नहीं होता; लेकिन धीरे-धीरे उनकी यह मान्यता खण्डित होती गयी। धीरे-धीरे यह भी अन्वेषण हुआ कि परमाणुओं के बीजाणुओं की इकाई में अपार शक्ति भरी पड़ी हैं। उन्होंने यह अन्वेषण भी किया कि यूरेनियम नामक तत्त्व के परमाणुओं का विकिरण हो सकता है। इन्हीं सब अन्वेषणों के आधार पर अणुबम को जन्म मिला। यूरेनियम तत्त्व, जिसके परमाणुओं के विकिरण से अणु-विस्फोट होता है, पुद्गल-द्रव्य की पर्याय है; अत: यह सब पुद्गल द्रव्य का ही चमत्कार है। उद्जन बम-उद्जन बम का सिद्धांत अणुबम के सिद्धांत से ठीक विपरीत है। अणुबम अणुओं के विभाजन (fission) का परिणाम है जबकि उद्जन बम उनके संयोग (fusion) का। यह भी स्पष्टत: पुद्गल की ही पर्याय है। रेडियो/टेलीग्राम आदि-रेडियो, टेलीग्राम, ट्रांजिस्टर, टेलीफोन, टेलीप्रिंटर, बेतार-का-तार, ग्रामोफोन और टेप-रिकार्डर आदि अनेक यन्त्र आज विज्ञान के चमत्कार माने जाते हैं; पर इन सबके मूलभूत सिद्धांत पर दृष्टिपात करने से हम इसी निष्कर्ष पर आते हैं कि यह सब शब्द की अद्भुत शक्ति और तीव्रगति का ही परिणाम है और शब्द पुद्गल की ही पर्याय है। सचमुच पुद्गल के खेल अद्भुत और अनन्त हैं! टेलीविजन-जैसे रेडियो यन्त्र-गृहीत शब्दों को विद्युत्प्रवाह से आगे बढ़ा कर सहस्रों मील दूर ज्यों-का त्यों प्रकट करता है, वैसे ही टेलीविजन भी प्रसारणशील प्रतिच्छाया को सहस्रों मील दूर ज्यों-का-त्यों व्यक्त करता है। जैन शास्त्रों में बताया गया है कि विश्व के प्रत्येक मूर्त पदार्थ से प्रतिक्षण तदाकार प्रतिच्छाया निकलती रहती है और पदार्थ के चारों ओर आगे बढ़ कर विश्व भर में फैल जाती है। जहां उसे प्रभावित करने वाले पदार्थों-दर्पण, जल आदि का योग होता है, वहां वह प्रभावित भी होती है। टेलीविजन का आविष्कार इसी सिद्धांत का उदाहरण है; अत: टेलीविजन का अन्तर्भाव पुद्गल की छाया नामक पर्याय में किया जाना चाहिए। एक्स-रेज-एक्स-रेज भी विज्ञान-जगत् का एक महत्त्वपूर्ण एवं चमत्कारपूर्ण आविष्कार है। प्रकाश-किरणों की अबाध गति एवं अत्यन्त सूक्ष्मता ही इस आविष्कार का मूल है; अत: एक्स-रेज को पुद्गल की प्रकाश नामक पर्याय के अन्तर्गत रखना Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में पुद्गल ३११ ही उचित है। अन्य-विश्व में जो कुछ भी छूने, चखने, सूंघने, देखने और सुनने में आता है वह सब पुद्गल की पर्याय है। प्राणिमात्र के शरीर, इन्द्रिय और मन आदि पुद्गल से ही निर्मित हैं। विश्व का ऐसा कोई भी प्रदेश-कोना नहीं है, जहां पुद्गल द्रव्य किसी-न-किसी पर्याय में विद्यमान न हो। (ख) पुद्गल का सामान्य स्वरूप (१) पुद्गल अस्तिकाय है __ प्रत्येक पौद्गलिक पदार्थ अनेक अवयवों का समूह है, तथा आकाश-प्रदेशों में फैलता है (अवगाहन करता है।) इसलिए वह अस्तिकाय है। पुद्गल स्कन्ध संख्यात अथवा अनन्त प्रदेशों से बनता है; इसका आधार उसकी संरचना है। एक स्वतन्त्र परमाणु के कोई विभाग नहीं होते। पुद्गल का आकाश-प्रदेशों में अवगाहन-संख्यात, असख्यात, अनन्त प्रदेशी स्कंधों द्वारा आकाश का अवगाहन एक प्रदेश से असंख्यात प्रदेश तक होता है। आकाश के अवगाहन में अवगाढ़ आकाश-प्रदेशों की संख्या स्कंध के परमाणुओं की संख्या से अधिक नहीं हो सकती। उदाहरणार्थ-१०० परमाणुओं से निर्मित स्कंध जिसे सौ-प्रदेशी स्कंध कहा जाता है जघन्यत: एक आकाश-प्रदेश का अवगाहन कर सकता है, पर उत्कृष्टत: १०० आकाश-प्रदेशों में ही फैल सकता है, उसके अधिक में नहीं। अनन्त या अनन्त-अनंत अनन्त प्रदेशी स्कंध की उत्कृष्ट अवगाहना भी असंख्यात प्रदेश ही हो सकती है। अनन्त नहीं। यह इसलिए संभव है कि पुद्गल में संपीड्यता का अद्भुत गुण होता है जिसकी बदौलत असंख्यात प्रदेश जितने आकाश में भी अनन्तानंत परमाणुओं का स्कंध समाविष्ट हो जाता है। जैन दर्शन की यह मान्यता आधुनिक विज्ञान के इस आविष्कार के साथ सुसंगत होती है कि अणु का ९९.९७ % संहति (द्रव्यमान या mass) आण्विक नाभिक (nucleus) में समाविष्ट हो जाता है। जबकि नाभिक पूरे अणु का - वें भाग जितना आकाश अवगाहन करता है। (२) पुद्गल सत् और द्रव्य है वह सत् है, इसलिए वह परिवर्तनशील भी है और नित्य भी है। प्रत्येक क्षण में होने वाले पुद्गल के पर्यायों के परिवर्तन के दो कारण होते हैं-१. आंतरिक परिणमनशील संरचना; २. अन्य सत् (पदार्थों) के साथ पारस्परिक प्रतिक्रिया । जैन १. किसी भी स्कंध का अविभाज्य अंश 'प्रदेश' कहलाता है। वह एक परमाणु जितना होता है। ५०000000000000000 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ जैन दर्शन और विज्ञान दर्शन इस बात पर बल देता है कि पुद्गल के ये अनन्त पर्याय काल में घटित होने वाली घटनाएं' हैं, किन्तु पुद्गलास्तिकाय द्रव्य है, इसलिए उसका द्रव्य एक 'कालातीत सातत्य' या अविच्छिन्न सत्त्व' है; किन्तु काल में घटित होने वाली घटना नहीं। (३) पुद्गल नित्य, अविनाशी है-तत्त्वान्तरणीय नहीं है नित्यत्व एवं अतत्त्वान्तरणीयता (nontransmutability) ये दोनों गुण पुद्गल-सहित सभी द्रव्यों में होते हैं। इसलिए पुद्गल के लिए निम्नलिखित विशेषण प्रयुक्त हुए हैं-काल की अपेक्षा से पुद्गल अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो अनादि अतीत काल में जितने पुद्गल-परमाणु थे, वर्तमान में उतने ही हैं और अनन्त भविष्य में भी उतने ही रहेंगे। पुद्गल-द्रव्य की अपनी मौलिकता यथावत् बनी रहती है। पुद्गल नियत, शाश्वत, ध्रुव, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि सतत परिणमनशील होते हुए भी पुद्गल अपरिवर्तनीय (अतत्त्वान्तरणीय) है। पुद्गल सदा पुद्गल रहता है, उसका अन्य (द्रव्यों) में रूपान्तरण नहीं हो सकता। पुद्गल को धर्मास्तिकाय आदि अन्य द्रव्यों में बदला नहीं जा सकता। पुद्गल जीव के साथ सम्बद्ध होता है तथा दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं; फिर भी न कभी पुद्गल जीव के रूप में बदलता है और न जीव कभी पुद्गल के रूप में। अतत्त्वांतरणीयता के गुण के कारण सभी द्रव्य अपने स्वभाव को बनाए रखते हैं। (४) पुद्गल अचेतन सत्ता है, चेतन नहीं ___ पुद्गल चैतन्य-रहित अजीव पदार्थ है। वह सदा अजीव रहता है; वह न जानता है, न अनुभव करता है, न चिंतन-मनन करता है। इसलिए किसी भी पौद्गलिक उपकरण द्वारा यह कार्य संभव नहीं है। कम्प्यूटर, कृत्रिम बौद्धिकता आदि के सारे कार्य चेतना-रहित होने से अजीव की कोटि में ही आएंगे। जैन दर्शन ने जीव-निर्जीव या चेतन-अचेतन की भेद-रेखा "चैतन्य'' गुण के आधार पर निर्धारित की है। यद्यपि जीव द्वारा ज्ञान आदि कार्य में पुद्गल की सहायता ली जाती है, पर मूलचैतन्य का अस्तित्व तो जीव का अपना ही होता है। (५) पुद्गल परिणामी है अर्थात् परिवर्तनशील है; पुद्गल क्रियावान् है अर्थात् सतत सक्रिय है पुद्गल जड़ पदार्थ या अचेतन होते हुए भी सतत सक्रिय बना रहता है। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में पुद्गल ३१३ पुद्गल चाहे परमाणु के रूप में हो या स्कंध-रूप में हो, सतत परिवर्तनशील रहता है; उसमें कुछ-न-कुछ घटित होता रहता है। पुद्गल की प्रवृत्ति दो रूप में हो सकती है-१. ऐसा परिणमन जिसमें गति का अभाव होता है। यह परिणमन स्वाभाविक रूप में सभी पौद्गलिक पदार्थों में घटित होता रहता है, उत्पाद और व्यय का क्रम चलता रहता है। इसलिए पुद्गल पुद्गल रहते हुए भी उसकी पर्यायों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। पूर्व अवस्था का विनाश और उत्तर अवस्था की उत्पत्ति-यही परिणमन है। २. परमाणु या स्कंधों का आकाश-प्रदेशों में गमन-रूप परिवर्तन “क्रिया'' कहलाती है। प्रकम्पन, दोलन आदि भी गति क्रिया के उदाहरण हैं। परिणमन परिणमन या पर्याय के दो रूप हैं-(क) अर्थपर्याय, (ख) व्यंजन पर्याय । अर्थपर्याय आंतरिक परिवर्तन है जो एक 'समय' की अवधि का होता है, निरन्तर होता रहता है, और इसका प्रवाह अंत-हीन (अनन्त) होता है। जैसे काल-प्रवाह अपने आप में निरंतर और अंत-हीन होता है, वैसे ही अर्थपर्याय के रूप में पर्याय का प्रवाह प्रत्येक पुद्गल में घटित होता रहता है। अर्थपर्याय सम्पूर्णत: स्व-सापेक्ष होता है, पर-सापेक्ष नहीं। एक समयवर्ती होने के कारण वह न देखा जा सकता है, न व्यक्त किया जा सकता है। व्यंजनपर्याय आंतरिक और बाह्य दोनों रूप में हो सकता है। यह परिवर्तन कुछ अवधि पर्यन्त चलता है यानी इसमें एक समय से अधिक समय लगता है। इसे एक “ घटना'' के रूप में माना जा सकता है जो आकाश और काल में घटित होती है। पुद्गल की विभिन्न व्यक्त अवस्थाएं व्यंजनपर्याय का ही रूप है। जैसे-एक लेखनी' पुद्गल की व्यंजनपर्याय है। व्यंजनपर्याय स्थूल, कालांतरस्थायी और अभिव्यक्त किया जा सकता है। अर्थपर्याय सूक्ष्म, एक समयवर्ती और अव्यक्त होता है। क्रिया गति के लिए क्रिया शब्द का प्रयोग किया गया है। यद्यपि जीव भी गतिशील द्रव्य है, फिर भी जीव की गति सदा पुद्गल-सापेक्ष होती है। अपने आपमें जीव “अगतिशील' है। इस दृष्टि से छह द्रव्यों में पद्गल को ही गतिशील या गमन के लिए सक्षम माना जा सकता है। पुद्गल भी गतिशील होते हुए भी सदा गतिमान नहीं रहता। गति के पश्चात् पुद्गल स्थिति या स्थिरावस्था में आता है। गति और स्थिति के रूप में पर्याय बदलता रहता है। दो गतियों के बीच स्थिरावस्था आती रहती है। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ जैन दर्शन और विज्ञान गति स्थानांतर के रूप में या कंपन के रूप में हो सकती है। भगवती सूत्र में गति के कुछ प्रकारों की चर्चा की गई है। गति स्वाभाविक भी हो सकती है, बाह्य निमित्त या बल के प्रभाव से भी हो सकती है। गति प्रकम्पनात्मक भी हो सकती है और चक्रात्मक भी हो सकती है, या दोनों एक साथ भी हो सकती है। परमाणु की गति के सन्दर्भ में इसकी विस्तार से चर्चा की जाएगी। (६) पुद्गल गलन-मिलन-धर्मा है छह द्रव्यों में केवल पुद्गल ही एक ऐसा द्रव्य है, जो गलन-मिलन-धर्मा है। एक पुद्गल दूसरे पुद्गल के साथ मिलकर नए पुद्गल का निर्माण कर सकता है; इसे पूरण (fusion) कहा जाता है तथा एक पुद्गल-स्कंध टूट कर या विघटित होकर अन्य पुद्गल-स्कंधों में बदल सकता है। विघटन की इस क्रिया को गलन (fission) कहा जाता है। 'बन्ध' और 'भेद' जिनकी चर्चा ऊपर की गई है क्रमश: पूरण और गलन धर्म का ही परिणाम है। बन्ध या भेद की प्रक्रिया ही पुद्गल की शक्ति या ऊर्जा की उत्पत्ति में निमित्त बनती है। आधुनिक विज्ञान में अणुबम और हाइड्रोजन बम क्रमश: फिशन और फ्यूजन की प्रक्रियाओं द्वारा जनित आणविक ऊर्जा द्वारा निर्मित होते हैं। जैन दर्शन के द्वारा प्रतिपादित पुद्गल के गलन-मिलन धर्मों के ये स्पष्ट उदाहरण हैं। अणुबम के निर्माण के लिए यूरेनियम-२३५ नामक धातु के अणु का विखंडन किया जाता है। जब यह प्रक्रिया घटित होती है, तो ऊर्जा का विमोचन होता है जिसकी मात्रा अत्यधिक है। हाइड्रोजन बम के निर्माण में हाइड्रोजन के अणुओं का संघटन किया जाता है जिसके परिणाम स्परूप अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा का विमोचन होता है। सामान्य जीवन में कोयले को जलाकर ताप प्राप्त करने की प्रक्रिया में भी कोयले के कार्बन-अणु हवा के आक्सीजन-अणु के साथ संयोजित होते हैं और साथ ही ऊर्जा का विमोचन होता है जो ताप या प्रकाश के रूप में होती है। यह स्पष्ट होता है कि जैन दर्शन और विज्ञान दोनों एक ही तथ्य का निरूपण करते हैं-दृश्य जगत् में पुद्गल का समस्त रूपांतरण उसके गलन-मिलन धर्म के कारण ही हो रहा है। यह गलन-मिलन की प्रक्रिया स्वाभाविक या प्रयोग-जन्य दोनों रूप में संभव है। एक पौद्गलिक स्कंध जो परमाणुओं के संयोग से निर्मित है दूसरे पौद्गलिक स्कंध के रूप में परिवर्तित हो सकता है। यहां तक कि जिसे विज्ञान ने मौलिक तत्त्व (element) माना है, वे भी एक-दूसरे में परिवर्तित हो सकते हैं या किए जा सकते हैं। जैसे-रेडियो-क्रिया के परिणाम स्वरूप यूरेनियम (जो एक मौलिक तत्त्व है) स्वत: सीसे के रूप में परिवर्तित हो जाता है। कृत्रिम प्रयोगों द्वारा पारे को Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ जैन दर्शन और विज्ञान में पुद्गल सोने में बदला जा सकता है। पुद्गल में यदि गलन धर्म या वियोजक शक्ति का अभाव होता, तो सब परमाणुओं का पिंड बन जाता और यदि मिलन धर्म या संयोजक शक्ति का अभाव होता, तो एक-एक परमाणु अलग-अलग रहकर कुछ नहीं कर पाते। इस प्रकार के गलन-मिलन धर्म की विशेषता से ही समस्त पौद्गलिक जगत् के परिवर्तन हमारे सामने आते हैं। विभिन्न परमाणुओं के संयोग (मिलन) से और विखण्डन (गलन) से इस प्रकार स्कंधों का हो सकता है (क) दो परमाणुओं के संयोग से दो परमाणुवाले एक स्कंध का निर्माण होगा, इसे द्वि-प्रदेशी स्कंध कहा जाता है। द्वि-प्रदेशी स्कंध के विखण्डन से दो परमाणु बनेंगे। (ख) तीन परमाणुओं के संयोग से-(i) त्रि-प्रदेशी स्कंध बनेगा अथवा - (ii) द्वि-प्रदेशी स्कंध+एक परमाणु यह द्विप्रदेशी स्कंध तीन प्रकार से संभव हो सकता है-जैसे यदि तीन परमाणु अ, ब, स है, तो एक विकल्प-अब+स दूसरा विकल्प-अस+ब तीसरा विकल्प-बस+अ इस प्रकार कुल चार संभावनाएं हैं। १. विज्ञान के अनुसार संसार में मूल तत्त्व ९२ हैं। हाइड्रोजन से लेकर यूरेनियम तक इन ९२ तत्त्वों में सोना, चांदी, लोहा, पारा आदि सभी तत्त्वों का समावेश होता है। इनके अणुओं की संरचना भिन्न-भिन्न होने से इनके स्वरूप एवं गुणधर्मों में भिन्नता रहती है। जैसे हाइड्रोजन का अणुभार केवल एक (इकाई) होता है, तो यूरेनियम का अणु-भार २३५ होता है। यह भार अणु के केन्द्र में रहे संहतिवाले लघुकणों के कारण होता है। परिधि पर घुमने वाले लघुकणों में भार नगण्य होता है। केन्द्रक कणों में प्रोटोन एवं न्यूट्रोन होते हैं तथा परिधि के कण इलेक्ट्रोन कहलाते हैं। पारे का अणु-भार २०० है। उसमें एक प्रोटोन और मिलाया जाय, तो उसका भार २०१ हो जाएगा। ऐसा करने पर एक अल्फा कण का विकिरण उस अणु से बाहर निकल जाता है, जिसका भार ४ होता है। ऐसा होने से पीछे अणुभार १९७ बचता है, जो सोने के एक अणु का भार है। अर्थात् पारा सोने में बदल गया। प्राचीन युग में भी पारे से सोना बनाने की विधियां थीं, ऐसा उल्लेख मिलता है। यद्यपि इस विधि का पूरा ज्ञान अब उपलब्ध नहीं है, फिर भी यह स्पष्ट है कि आणविक विस्फोट की स्थिति पैदा करने से यह हो सकता है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ जैन दर्शन और विज्ञान इसी प्रकार आगे के विकल्प बनाए जा सकते हैं। परमाणु-मिलन (fusion) के नियम जैन दर्शन ने परमाणुओं के संघात' (मिलन) के लिए उनके स्निग्ध-रूक्ष स्पर्श को कारण माना है, स्निग्ध-रूक्ष स्पर्शे की तुलना आधुनिक विज्ञान द्वारा प्रतिपादित धन विद्युत् (positive electricity) और ऋण-विद्युत् (negative electricity) आवेश के साथ की जा सकती है, क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार विद्युत् या बिजली (lightening) की उत्पत्ति में स्निग्ध-रूक्ष गुण ही निमित्त बनते हैं। इसके लिए सूत्र है-“स्निग्धरूक्षगुणनिमित्तो विद्युत्"। प्रत्येक पुद्गल-परमाणु और पुद्गल-स्कंध में स्निग्ध या रूक्ष स्पर्श अवश्य ही होता है। इन स्पर्श की मात्रा जिसे 'गुण' (Unit) कहा जाता है के आधार पर यह निर्धारित होता है कि दो पुद्गलों का संघात हो सकता है या नहीं। इनकी न्यूनतम मात्रा एक गुण होती है, जिससे कम मात्रा नहीं होती। यह एक प्रकार से 'क्वांटम' यानी एक 'पूर्ण राशि' या' पेकेट' है जो अपूर्णांक या भिन्न (fraction) द्वारा अभिव्यक्त नहीं हो सकता। इसका तात्पर्य हुआ कि कोई परमाणु एक गुण स्निग्ध या एक गुण रूक्ष हो सकता है, पर आधा ( ) या पाव (1) नहीं। इसी तरह दो, तीन 'गुण' वाला हो सकता है पर १-१/२, २-१/२ आदि नहीं। आधुनिक विज्ञान के अनुसार 'क्वांटम सिद्धांत' द्वारा भी यही प्रतिपादित हुआ है। ऊर्जा का एक न्यूनतम अंश 'क्वांटम' कहलाता है। विज्ञान के अनुसार 1h.2h आदि के रूप में यह ऊर्जा हो सकती है, जहां h को Planck'sConstant कहा जाता है। जैन दर्शन के अनुसार पुद्गलों के संयोग के नियम इस प्रकार हैं१. एक गुण स्निग्ध या रूक्ष परमाणु का संयोग नहीं होता। २. विरोधी स्पर्श वाले परमाणु/स्कंध जिनमें दो या दो गुण से अधिक स्निग्धत्व या रूक्षत्व होता है संयुक्त हो सकते हैं। उदाहरणार्थ-२ गुण स्निग्ध+२ गुण रूक्ष पुद्गल मिल सकते हैं। ३. समान स्पर्श वाले परमाणु/स्कंध जिनमें दो गुण या दो गुण से अधिक स्निग्धत्व (या रूक्षत्व) हो तथा इनके गुणों में दो का अन्तर हो, तो ये परमाणु/ स्कंध परस्पर संयुक्त हो सकते हैं। १. 'h' का मूल्य है-६.६२५१७४१०४ जूल-सैकिण्ड Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में पुद्गल ३१७ उदाहरणार्थ-२ गुण स्निग्ध+४गुण स्निग्ध पुद्गल मिल सकते हैं। पर २ गुण स्निग्ध+३ गुण स्निग्ध पुद्गल नहीं मिल सकते। इन नियमों के आधार पर स्कंधों का निर्माण कैसे होगा, यह निम्न कोष्ठक से स्पष्ट होता है " १+१ १+२ १+३ १+४ या ४ से अधिक x+x (x-१ से अधिक) '.x+(x+१) x+(x+२) x+(x+३) या अधिक ७. पुद्गल संख्या की दृष्टि से अनन्त है; क्षेत्र की दृष्टि से सम्पूर्ण लोकाकाश में पुद्गल व्याप्त है पुद्गल के दोनों रूप-परमाणु और स्कंध संख्या की दृष्टि से अनन्त हैं। स्वतन्त्र परमाणुओं की संख्या सदा अनन्त रहती है। उनमें से अनन्त परमाणु प्रति समय स्कंधों के रूप में परिणत होते रहते हैं तथा स्कंधों से निकलकर अनन्त परमाणु स्वतंत्र रूप धारण करते रहते हैं। गलन-मिलन स्वभाव वाले पुद्गल-जगत् में यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है, फिर भी परमाणुओं की संख्या अनन्त ही बनी रहती है; स्वतंत्र परमाणु की संख्या में वृद्धि या हानि भी हो सकती है, पर सभी पुद्गल स्कन्धों के साथ रहे परमाणुओं और स्वतंत्र परमाणुओं की कुल संख्या अचल (constant) बनी रहती है। स्कंधों में भी द्वि-प्रदेशी स्कंध (यानी दो परमाणुओं से निर्मित) से लेकर अनन्त-प्रदेशी स्कंध (यानी अनन्त परमाणुओं से निर्मित) तक सभी प्रकार के स्कंधों में प्रत्येक प्रकार के स्कंधों की संख्या अनन्त है तथा कुल पुद्गल-स्कंधों की संख्या भी अनन्त है; पर ये संख्याएं अचल नहीं हैं। इनमें हानि या वृद्धि के बावजूद भी प्रत्येक प्रकार के स्कंधों की संख्या अनन्त से कम नहीं होती।। गुणों (मात्रा) की तरतमता के आधार पर भी परमाणु और स्कंधों के अनन्त-अनन्त प्रकार हो जाते हैं। जैसे-एक गुण (unit) काले परमाणु अनन्त हैं यावत् अनन्त गुण काले परमाणु भी अनन्त हैं। इसी प्रकार दो गुण काले, तीन गुण Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ जैन दर्शन और विज्ञान काले आदि परमाणु भी अनन्त-अनन्त हैं। इसी प्रकार एक गुण स्निग्ध, दो गुण स्निग्ध आदि भी समझने चाहिए। जैसे पूर्व में चर्चा हो चुकी है, कालांतर के साथ परमाणु के स्पर्श आदि गुण (qualities) बदल सकते हैं तथा इनकी मात्रा (units) में भी न्यूनाधिकता होती रहती है। जैसे स्वतंत्र परमाणुओं में गुण एवं गुणों की मात्रा में परिवर्तन होता रहता है, उसी प्रकार स्कंधों में गुण एवं गुणों की मात्रा में भी होता रहता है। इन सारे परिवर्तनों के परिणामस्वरूप पुद्गल-जगत् में पर्यायों का अकल्पित परिवर्तन चलता रहता है। इस निरन्तर चलने वाले पौद्गलिक परिणमनों के बावजूद भी पुद्गल की द्रव्यात्मक शाश्वतता बनी रहती है। इसे ही जैन दर्शन में “परिणामी-नित्यत्व-वाद'' की संज्ञा दी जाती है। कुल मिलाकर समग्र पुद्गल-राशि-परमाणुओं की समग्र संख्या -सदा शाश्वत बनी रहती है। पूरा लोक पुद्गल से भरा हुआ पुद्गल अनन्त हैं-परमाणु और स्कंध दोनों अनन्त हैं। क्षेत्र की दृष्टि से ये अनन्त पुद्गल सम्पूर्ण लोक-आकाश में फैले हुए हैं। एक परमाणु आकाश के एक प्रदेश का अवगाहन करता है; अनन्त परमाणु भी एक प्रदेश में समाविष्ट हो सकते हैं; स्कंध भी एक प्रदेश से लेकर असंख्यात प्रदेशों तक अवगाहन कर सकते हैं। जिस आकाश-प्रदेशों पर एक स्कंध है, उन्हीं आकाश-प्रदेशों पर अन्य अनन्त स्कंधों का समावेश भी हो सकता है। उत्कृष्टत: एक ही स्कन्ध पूरे लोक आकाश का अवगाहन भी कर सकता है। पुद्गल के परिणमन की विशेषता के कारण असंख्यात प्रदेशात्मक लोक में अनन्त पुद्गलों का समावेश हो जाता है। दूसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि सम्पूर्ण लोक में कहीं पर भी खाली स्थान नहीं है अर्थात् जहां पद्गल का अस्तित्व न हो, ऐसा एक आकाश-प्रदेश भी कहीं नहीं मिलता। इस प्रकार पूर्ण आकाश में कहीं पर भी शून्यावकाश (Vacuum) नहीं है। ८. पुद्गल जीव को प्रभावित करता है और उससे प्रभावित भी होता है। दोनों में अन्त:क्रिया सम्भव है। पुद्गल द्रव्य में ग्रहण नाम का एक गुण होता है। पुद्गल के सिवाय अन्य द्रव्यों में किसी दूसरे द्रव्य के साथ मिलने की शक्ति नहीं है। एक पुद्गल अन्य पुद्गल के साथ मिलने की क्षमता तो रखता ही है, पर इसके अतिरिक्त जीव के द्वारा भी उसका ग्रहण किया जाता है। पुद्गल स्वयं जाकर जीव से नहीं चिपटता, किन्तु वह जीव की क्रिया से आकृष्ट होकर उसके साथ संलग्न हो जाता है। जीव-सम्बद्ध या जीव के साथ बद्ध पुद्गल का जीव पर बहुविध असर होता है। जीव पर पुद्गल का प्रभाव और पुद्गल पर जीव का प्रभाव-यह अन्योन्य प्रभाव या अन्त:क्रिया (interaction) ही Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९ जैन दर्शन और विज्ञान में पुद्गल समस्त जीव-संसार के क्रियाकलापों का मूल आधार है। जीव द्वारा होने वाले पुद्गलों का ग्रहण तीन प्रकार से सम्भव है १. कर्म-अति सूक्ष्म पुद्गलों का प्रत्येक संसारी जीव के साथ सतत सम्बन्ध एवं प्रतिक्रियाएं होती रहती हैं। इन पुद्गलों को ही 'कर्म' (या कर्म-पुद्गल) कहा जाता है। जीव के साथ बन्धने के पश्चात् कर्म-पुद्गलों का परिणमन सतत चलता रहता है और जीव को प्रभावति करता रहता है। २. शरीर-स्थूल पुद्गलों के ग्रहण और परिणमन के द्वारा स्थूल शरीर और सूक्ष्म पुद्गलों के ग्रहण और परिणमन से सूक्ष्म शरीर का निर्माण जीव करता है। औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस शरीर का निर्माण इस प्रक्रिया से होता है। ३. उपग्रह-श्वासोच्छ्वास, आहार, भाषा और मन के रूप में जीवन की समस्त प्रवृत्तियों में पुद्गलों का ग्रहण और परिणमन अनिवार्य है। इस प्रकार जगत् जीव और पुदगलों के विभिन्न संयोगों का परिणाम है। दृश्य जगत् में विद्यमान सारे सजीव निर्जीव पदार्थ या तो जीवत्-शरीर (सचेतन) है या जीव-मुक्त (अचेतन) शरीर है। यद्यपि ग्रहण-गुण के कारण जीव द्वारा पुद्गलों का ग्रहण सम्भव है, फिर भी जीव सभी प्रद्गलों को ग्रहण करने में समक्ष नहीं है। एक स्वतंत्र परमाणु से लेकर असंख्यात-प्रदेशी स्कंध तक के पुद्गल जीव द्वारा ग्रहण नहीं किए जा सकते । केवल अनन्त-अनन्त प्रदेशी स्कंधों को ही जीव ग्रहण कर सकता है। ___पुद्गल केवल सांसारिक जीवों के साथ बन्ध सकता है, मुक्त जीवों पर उसका कोई प्रभाव नहीं होता। इस प्रकार मुक्त जीव पुद्गल के प्रभाव से सर्वथा मुक्त होते हैं तथा परमाणु असंख्यात-प्रदेशी स्कंध जीव के प्रभाव से मुक्त रहते हैं। पुद्गल का वर्गीकरण भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों के आधार पर पुद्गल का वर्गीकरण विभिन्न रूप से किया जा सकता है। सभी पुद्गल 'पुद्गल' हैं, इस दृष्टि से पुद्गल का एक ही प्रकार है। यह द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से है। परमाणु और स्कंध-ये दो प्रकार के पुद्गल हो सकते हैं। वर्गणाओं के आधार पर पुद्गल के आठ प्रकार किए जा सकते हैं-१. औदारिक, २. वैक्रिय, ३. आझरक, ४. तैजस, ५. कार्मण, ६. श्वासोच्छ्वास, ७. भाषा १. कर्म-सिद्धांत के विस्तृत विवेचन के लिए द्रष्टव्य है-जैन दर्शन और संस्कृति, पृ० १२९-१५१। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जैन दर्शन और विज्ञान ८. मन। इन आठ वर्गणाओं के विषय में हम विस्तृत चर्चा कर चुके हैं। आधुनिक विज्ञान भौतिक वास्तविकता को मुख्यत: दो भागों में विभाजित करता है-१. पदार्थ, २. ऊर्जा । इनका भी पारस्परिक रूपातंरण अब संभव हो गया है, जिसकी चर्चा हम कर चुके हैं। अवस्था के आधार पर पदार्थ तीन प्रकार के माने जाते हैं-१. ठोस, २. तरल, ३. वायु। तापमान के आधार पर अवस्थाओं का रूपांतरण संभव है। ___ आधुनिक विज्ञान में मूल तत्त्वों (elements) के आधार पर विश्व के सभी भौतिक पदार्थों को ३०३ प्रकारों में बांटा जाता है। पर जैसे हम चर्चा कर चुके हैं परिवर्तन के द्वारा तत्त्वों में भी रूपांतरण किया जा सकता है। जैन दर्शन का वर्गीकरण अधिक मौलिक प्रतीत होता है, क्योंकि कृत्रिम साधनों द्वारा एक का दूसरे में रूपांतरण संभव नहीं है। परमाणुओं का स्कन्ध में या स्कन्ध का परमाणुओं में अथवा आठ वर्गणाओं का पारस्परिक रूपांतरण केवल वैनसिक रूप से ही हो सकता है; कृत्रिम (प्रायोगिक) साधनों द्वारा नहीं। अभ्यास १. पुद्गल शब्द की व्युत्पत्ति के आधार पर उसके स्वरूप को बताते हुए पुद्गल के मुख्य गुणों के स्वरूप को स्पष्ट करें। २. जैन दर्शन ने शब्द, प्रकाश आदि विशेष पर्यायों की जो व्याख्या प्रस्तुत की है उस पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए उसकी वैज्ञानिकता की मीमांसा करें। ३. पुद्गल के सामान्य स्वरूप को समझने के लिए मुख्य आधार-बिंदु कौन-कौन-से हैं? इनमें से किन्हीं दो को विस्तार से समझाइए।' १. जैन दर्शन और संस्कृति, पृ० ४७-४९ । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. जैन दर्शन और विज्ञान में परमाणु (१) जैन परमाणुवाद जैन दर्शन में प्रतिपादित परमाणुवाद प्राचीनता और मौलिकता दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। जैन परमाणुवाद का सम्बन्ध भगवान पार्श्व (ई० पू० ८५०) से माना जाय तो इससे अधिक प्राचीन परमाणुवाद का कोई रूप उपलब्ध नहीं होता। भगवान् महावीर (ई०पू० ५९९) से माना जाय तो भी वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद और ग्रीक दार्शनिक डेमोक्रिट्स से जैन परमाणुवाद प्राचीनतर सिद्ध होता है। इतना ही नहीं, जिस विस्तार के साथ परमाणु के स्वरूप, गुणधर्म आदि पर जैन दर्शन में प्रकाश डाला गया है, उतना कणादीय या डेमोक्रिट्स के परमाणुवाद में उपलब्ध नहीं होता। कुछ विषय तो ऐसे हैं जहां तक आधुनिक विज्ञान भी अभी नहीं पहुंच सका है। हम यहां जैन परमाणुवाद के मुख्य सिद्धांतों की चर्चा करेंगे तथा यथासंभव आधुनिक विज्ञान के सिद्धांतों के आलोक में उनकी समीक्षा भी करेंगे। चार प्रकार के परमाणु भगवती सूत्र में परमाणु चार प्रकार का कहा गया है १. द्रव्य परमाणु-पुद्गल द्रव्य का अविभाज्य अंश। इसे हम भौतिक विश्व की प्राथमिक इकाई (Primary unit of the physical world) के रूप में कह सकते हैं। हमारे प्रस्तुत विषय का संबंध इसी द्रव्य परमाणु से है। २. क्षेत्र परमाणु--आकाश का अविभाज्य अंश या प्रदेश। इसे आकाश-द्रव्य की प्राथमिक इकाई (Primary unitof space or space-point) कहा जा सकता ३. काल परमाणु-काल का अविभाज्य अंश या 'समय' । यह काल की प्राथमिक इकाई (Primary unitof time) है। ४. भाव परमाणु-स्पर्श आदि गुणों की अविभाज्य मात्रा या क्वांटम (अविभाज्य राशि) यह भी पौद्गलिक गुणों की प्राथमिक इकाई है। गुणों के तारतम्य की अनन्तता के कारण ये अनन्त होते हैं। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ परमाणु की परिभाषा परमाणु को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया गया है। १. परमाणु समस्त भौतिक अस्तित्व का मूल आधार है-जिसे अन्तिम उपादान (ultimate building block) कहा जा सकता है । जैन दर्शन और विज्ञान २. अछेद्य, अभेद्य, अग्राह्य और निर्विभागी पुद्गल - खण्ड को परमाणु कहते हैं। परम+अणु-परमाणु का तात्पर्य है - वस्तु का अन्तिम अविभाज्य अंश । वह दो प्रकार का है-निश्चय-परमाणु ( absolute ultimate atom) और व्यवहार परमाणु (emirical atom)। वास्तविक सूक्ष्मतम परमाणु निश्चय - परमाणु है; व्यावहारिक परमाणु अनन्त सूक्ष्मतम परमाणुओं का समुदय है । आधुनिक विज्ञान जिसे अणु (atom) की संज्ञा देता है, वह विभाज्य है; अत: उसे केवल व्यावहारिक परमाणु की कोटि में रखा जा सकता है । व्यावहारिक परमाणु साधारण दृष्टि से अग्राह्य, अछेद्य, अभेद्य आदि रूप है, अत: साधारण शक्ति या बल (force) या अस्त्र-शस्त्र से वह तोड़ा नहीं जा सकता। उसकी परिणति सूक्ष्म होती है। जो नैश्चयिक परमाणु है, वह इन्द्रियातीत ज्ञान का ही विषय बन सकता है, इन्द्रिय ज्ञान का नहीं । I ३. परमाणु को एक विशुद्ध ज्यामितिक बिन्दु के रूप में माना जा सकता है, क्योंकि वह अनर्ध (जिसका कोई मध्य-बिन्दु न हो) और अप्रदेशी है । उसमें न लम्बाई है, न चौड़ाई, न गहराई - वह अविम (dimensionless ) है । वह अन्तिम और शाश्वत इकाई है। ४. परमाणु वह है जिसका क्षेत्रिय दृष्टि से आदि, मध्य, अन्त एक है - या जो अनादि, अमध्य, अनन्त है । उसमें स्पर्श आदि गुणों की विद्यमानता होने पर भी इन्द्रियां उसे ग्रहण नहीं कर सकती । ५. परमाणु वह है जिसमें ५ वर्णों में से एक वर्ण है; २ गन्धों में से एक गन्ध है; ५ रसों में से एक रस है; ८ स्पर्शो में से केवल २ स्पर्श हैं- स्निग्ध या रूक्ष, शीत या उष्ण । वह शब्द का कारण है, पर स्वयं शब्द नहीं है। जो स्कन्धों का निर्माण करता है, पर स्कन्ध नहीं है । परमाणु के स्वरूप को इस प्रकार समझाया गया है १. परमाणु समस्त भौतिक जगत् का मूल कारण है । २. वह भौतिक जगत् की अन्तिम परिणति है । १. कारणमेव तदन्त्य, नित्यः सूक्ष्मश्च भवति परमाणुः । एकरसगन्धवर्णों, द्विस्पर्श: कार्यलिंगश्च ।। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ जैन दर्शन और विज्ञान में परमाणु ३. वह सूक्ष्म है-इन्द्रियग्राह्य नहीं है। ४. वह नित्य है-उसका अस्तित्व सदा बना रहता है; स्कन्ध में मिलने पर भी परमाणु का अस्तित्व समाप्त नहीं होता। ५. उसमें एक रस, एक गन्ध, एक वर्ण होता है। ६. उसमें दो स्पर्श होते हैं। वह स्निग्ध-शीत, स्निग्ध-उष्ण, रूक्ष-शीत या रूक्ष-उष्ण होता है। उसमें गुरुत्व, लघुत्व, कठोरत्व, कोमलत्व नहीं होता। ७. वह कार्यलिङ्ग है-परमाणु के अस्तित्व का अनुमान उसके कार्य यानी सामूहिक क्रिया से होता है। परमाणु के गुणों का ज्ञान भी सामूहिक गुणों से ही किया जा सकता है। एक अकेले परमाणु को सीधे नहीं जाना जा सकता। परमाणु के गुणधर्म परमाणु पुद्गल है; अत: पुद्गल के मूल गुण-धर्म परमाणु में भी होते हैं। जैसे १. परमाणु सत् है, द्रव्य है। २. परमाणु नित्य, अवस्थित, शाश्वत, अविनाशी है। ३. परमाणु अचेतन है। ४. परमाणु में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श होते हैं; संस्थान नहीं होता; लम्बाई, चौड़ाई, गहराई नहीं होती। ५. परमाणु परिणामी है; वह स्वयं अगुरुलघु-परिणामी है। परिणमन स्पर्श आदि गुणों की पर्याय में होता है। ६. परमाणु क्रियावान् है। जब वह गति करता है, तब वह गति स्पन्दनात्मक भी हो सकती है, स्थानांतरणात्मक भी हो सकती है। परमाणु अगुरुलघु यानी संहतिशून्य होने से उसका वेग (velocity) इतना तीव्र होता है कि वह एक समय में पूरे लोक की दूरी पार कर सकता है। ७. परमाणु मिलन-स्वभाव वाला है, पर उसका भेद नहीं होता। मिलन-स्वभाव के कारण परमाणु या स्कन्ध के साथ मिल सकता है, पर अभेद्य होने के कारण उसका विखण्डन नहीं हो सकता। ८. जीव द्वारा अकेले परमाणु का ग्रहण नहीं हो सकता, इसीलिए वह अग्राह्य है। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जैन दर्शन और विज्ञान परमाणु की विस्तृत व्याख्या १. नामकरण-परमाणु शब्द परम+अणु से बना है। अणु का अर्थ है-किसी भी पदार्थ का छोटा भाग। परम का अर्थ है अन्तिम । अन्तिम छोटे-से-छोटा हिस्सा परमाणु है। २. द्रव्य की दृष्टि से-परमाणु पुद्गलास्तिकाय द्रव्य है। उसमें गुण और पर्याय दोनों होते हैं। संख्या की दृष्टि से परमाणु अनन्त है। ३. क्षेत्र की दृष्टि से-एक परमाणु आकाश के एक प्रदेश का अवगाहन करता है, एक से अधिक प्रदेशों का अवगाहन नहीं कर सकता। लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर परमाणु का अस्तित्व है। अलोकाकाश में परमाणु का अभाव है। ___४. काल की दृष्टि से-प्रत्येक परमाणु अनादि काल से अस्तित्व में था और अनन्तकाल तक उसका अस्तित्व रहेगा। अत: परमाणु का अस्तित्व सदा बना रहता ५. गण की दृष्टि से-एक परमाणु में केवल एक वर्ण, एक गंध, एक रस और दो स्पर्श ही होते हैं। इस आधार पर ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस में से एक-एक वर्ण, गंध और रस, तथा चार स्पर्शों में से दो-दो स्पर्श होने से मूलत: ५x२x५४४ - २००० प्रकार के परमाणु हो सकते हैं। परन्तु वर्ण आदि की मात्रा या गुण (unit) की तरतमता के कारण उसके अनन्त प्रकार हो जाते हैं। ६. रूपत्व-परमाणु वर्ण आदि गुण-युक्त है; इसलिए मूर्त या रूपी है; पर सूक्ष्म होने के कारण इंद्रिय-ग्राह्य नहीं है। ७. संख्या-लोक में जितने परमाणु हैं, उतने ही सदा रहते हैं। न एक नया परमाणु बन सकता है, और न एक विद्यमान परमाणु नष्ट हो सकता है। ८. तत्त्व मीमांसा की दृष्टि से-परमाणु सत् है; उत्पाद, व्यय, धौव्य युक्त है। उसका वस्तु सापेक्ष (objective) अस्तित्व है। वह केवल काल्पनिक या ज्ञाता-सापेक्ष नहीं है। . ९. भूमिति की दृष्टि से-परमाणु अविम (dimensionless) है, वह अरूपी नहीं। वह भूमितिक बिन्दु है। एक आकाश प्रदेश का अवगाहन करता है। १०. परिणमन की दृष्टि से-परमाणु सत् है; इसलिए परिणमनशील है, उसके स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण गुणों में परिणमन होता है। अकेले परमाणु के सारे परिणमन वैस्रसिक ही होते हैं, प्रायोगिक नहीं। जब तक परमाणु स्वतन्त्र दशा में होता Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में परमाणु ३२५ है, परिणमन केवल स्पर्श आदि गुणों की मात्रा में होता है, गुण का प्रकारान्तरण नहीं होता। जैसे-काला वर्ण अन्य वर्ण में नहीं बदलता, पर एक गुण (unit) काला दो गुण काला यावत् अनन्त गुण काला हो सकता है। स्कन्ध के साथ प्रतिक्रिया होने के पश्चात् उसके गुणों का प्रकारांतरण भी संभव हो जाता है। अर्थात् उसका वर्ण अन्य किसी वर्ण में बदल सकता है। ११. शाश्वतता की दृष्टि से-परमाणु अविनाशी है, शाश्वत है। स्वतन्त्र अवस्था में या स्कन्ध में या स्कन्ध के साथ वह सदा अपने अस्तित्व को बनाए रखता है। इसीलिए विश्व (लोक ) में परमाणु जितने हैं उतने के उतने सदा बने रहते हैं। न नए परमाणु का जन्म होता है, न विद्यमान परमाणु का विनाश। १२. अगुरुलघुत्व-परमाणु अगुरुलघु है। गुरुत्व या लघुत्व स्पर्श के प्रकार हैं, जो केवल स्थूल पुद्गलों में होते हैं। वैज्ञानिक शब्दावली में कहें तो परमाणु संहति-शून्य (massless) है। १३. परिणामीनित्य-परमाणु द्रव्य की दृष्टि से नित्य है, पर्याय की दृष्टि से परिणामी है। इसलिए उसे परिणामीनित्य या नित्यानित्य कहा गया है। १४. अग्राह्य-परमाणु जीव द्वारा अग्राह्य है। सूक्ष्म होने के कारण जीव अकेले (स्वतंत्र) परमाणु को ग्रहण नहीं कर सकता। जीव केवल अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध को ही काम में ले सकता है। १५. एकत्व-अनेकत्व-मूलभूत द्रव्य के रूप में परमाणु एक है-अकेला है। वह एक स्वतन्त्र इकाई है। वह एक अविभाज्य सत्ता है; पर वह अनेक गुण एवं पर्यायों को धारण करने वाला है, इसलिए अनेकत्व का आधार है। क्षेत्र की दृष्टि से वह केवल एक प्रदेशावगाही है। १६. गति और क्रिया-परमाणु में स्वभावत: गतिशीलता और सक्रियता की प्रवृत्ति पाई जाती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि सभी परमाणु सदा और सर्वत्र सभी स्थितियों में सक्रिय या गतिमान बने रहते हैं। पर उनका झुकाव इस ओर रहता है। किसी भी परमाणु के चंचल बनने के विषय में एक प्रकार की अनियतता (uncertainty) होती है। वे कब चंचल बनेंगे-इस विषय में पूर्ण नियत कथन नहीं किया जा सकता। एक परमाणु सीमित समय तक ही एक आकाश-प्रदेश पर स्थिरावस्था में टिक सकता है। अक्रियता का यह काल 'असंख्यात समय' से अधिक नहीं होता। उसके पश्चात् वह निश्चित ही गति करेगा। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ जैन दर्शन और विज्ञान दूसरी ओर सक्रियता या चंचल अवस्था में भी परमाणु सीमित समय रह सकता है। एक अवधि के बाद वह परमाणु निश्चित ही स्थिरता को प्राप्त होगा। सक्रियता की अधिकतम कालावधि आवलिका का असंख्यातवां हिस्सा या असंख्यातांश है। सक्रियता और अक्रियता का न्यूनतम कालमान एक समय है। इस प्रकार परमाणु की सक्रियता सतत न होकर खण्डित रूप में होती है। इस अवधारणा की तुलना आधुनिक विज्ञान के क्वांटम सिद्धांत के साथ की जा सकती है। परमाणु क्वचित् स्थिर, क्वचित् चंचल-इस प्रकार बारी-बारी से होता रहता है। भगवती सूत्र में परमाणु की गति को इस प्रकार वर्णित किया गया है-'परमाणु कभी एजन करता है, कभी वेजन करता है, कभी चलायमान होता है, कभी स्पन्दन करता है, कभी क्षुब्ध होता है, कभी गति में प्रेरित होता है, आदि।' इस शब्दावली से स्पष्ट होता है कि परमाणु विभिन्न प्रकार से गति करता है। यह गति सरल कम्पन, सरल स्थानांतरण, जटिल कम्पन, जटिल स्थानांतरण, दोलन, प्रसारण, ग्रहण, घूर्णन, घर्षण, फिरकन (spin) या तरंग-प्रसार आदि रूप में हो सकती है। 'आदि' शब्द का प्रयोग यह सूचना करता है कि अन्य भी अनेक प्रकार की गति के रूप की संभावना है। परमाणु की गति के नियम परमाणु की गति कुछ सन्दर्भो में नियमों से नियत है, तो कुछ हद तक अनियतता के सिद्धांत का अनुसरण करती है। जैसे १. यदि बाहर का प्रभाव न हो, तो परमाणु की गति सदा अनुश्रेणी (अर्थात् सीधी रेखा में) होगी। २. यदि बाह्य प्रभाव हो, तो परमाणु की दिशा और वेग में अन्तर आ सकता ३. जीव का परमाणु की गति पर कोई प्रभाव नहीं होता। ४. परमाणु का न्यूनतम वेग आकाश के एक प्रदेश से दूसरे पर एक समय में होगा और अधिकतम वेग लोक के एक अन्त से दूसरे अन्त तक एक समय में होगा। ५. अक्रिय अवस्था का अधिकतम काल 'असंख्यात समय' होगा तथा सक्रिय अवस्था का अधिकतम काल 'आवलिका के असंख्यातवें अंश' जितना होगा। दूसरी ओर परमाणु की अनियतता से सम्बद्ध कुछ नियम हैं १. स्थित परमाणु कब चलायमान होगा, यह अनियत है। इसका तात्पर्य हुआ कि परमाणु द्वारा कितने काल के पश्चात् ऊर्जा का प्रसारण होगा यह नियत नहीं है। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में परमाणु ३२७ यह काल एक समय से लेकर असंख्यात समय तक हो सकता है। असंख्यात समय के पश्चात् तो वह निश्चित ही सक्रिय होगा ही। २. सक्रिय परमाण कितने काल तक सक्रिय रहेगा यह अनियत है। यह काल एक समय से लेकर 'आवलिका के असंख्यातवें अंश' जितना हो सकता है। पर इस अधिकतम कालावधि के पश्चात् तो वह निश्चित ही स्थिर होगा ही। ३. परमाणु अपनी गति किस दिशा में प्रारंभ करेगा, यह अनियत है। वह किसी भी दिशा में गति कर सकता है। ४. अक्रिय (स्थिर) दशा वाला परमाणु किस प्रकार की क्रिया प्रारम्भ करेगा, यह अनियत है। वह केवल एजन (कम्पन) कर सकता है या घूर्णन (rotation) या स्थानांतरण या युगपत् एकाधिक क्रियाएं भी कर सकता है। ५. सक्रिय होने पर, उसकी गति का वेग कितना होगा, यह भी अनियत है। वह न्यूनतम, मध्यम या अधिकतम वेग से गति करेगा-यह अनियत है। परमाणु की प्रतिघाती और अप्रतिघाती गति १. परमाणु की गति सामान्यत: अप्रतिघाती होती है अर्थात् विशेष अपवादों को छोड़कर परमाणु की गति का अवरोध न अन्य पुद्गल द्वारा हो सकता है और न जीव द्वारा। मार्ग में आने वाले किसी भी पदार्थ के भीतर से वह आर-पार निकल सकता है। २. जिस आकाश-प्रदेश पर अन्य पद्गल है, वहां पर परमाणु की अवस्थिति अप्रतिघाती रूप से हो सकती है। अर्थात् परमाणु वहां अपने स्वतंत्र अस्तित्व को बनाए रख सकता है। ३. परमाणु को अपनी गति को प्रारम्भ करने में या चालू रखने में उस आकाश-प्रदेश पर स्थित अन्य पुद्गलों द्वारा कोई प्रतिघात नहीं होता। जिन अपवादों के कारण प्रतिघात हो सकता है, वे हैं १. उपकाराभाव प्रतिघात-लोक की सीमा से परे गति-स्थित माध्यम के अभाव से परमाणु की गति प्रतिहत होती है। २. बन्धन-परिणाम-प्रतिघात-जब परमाणु किसी पुद्गल स्कंध के साथ बंधा हुआ है, तब उसकी गति स्वतन्त्र रूप से नहीं होती। ३. अति-वेग-प्रतिघात-अति तीव्र वेग वाले दो परमाणुओं के संघट्टन या टक्कर होने पर दोनों की गति में प्रतिपात पैदा हो जाता है। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ जैन दर्शन और विज्ञान परमाणु का तीव्रतम वेग परमाणु एक 'समय' में पूरे लोक की ऊंचाई को पार कर सकता है। इसका तात्पर्य हुआ कि उसका उत्कृष्टतम वेग है-१४ रज्जु/समय। एक रज्जु का मान असंख्यात योजन है। 'असंख्यात' का मान जैन दर्शन में प्रदत्त गणितीय आधारों पर निकालने से इस प्रकार प्राप्त हैअसंख्यात x से कम नहीं है जहां ० १०१३४ बार X=Y है तथा जहां Y का मूल्य माना गया है। __ आधुनिक विज्ञान के अनुसार विश्व में उत्कृष्टतम् वेग प्रकाश का है जो ३ लाख किलोमिटर/सैकिण्ड है। आइंस्टीन के आपेक्षिकता के सिद्धांत के अनुसार इससे १. इसकी पूर्ण गणितीय गणना के लिए मुनि महेन्द्र कुमार द्वारा लिखित विश्व-प्रहेलिका, . पृ. २५५-२७० द्रष्टव्य है। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में परमाणु ३२९ अधिक वेग किसी भी पदार्थ का होना संभव नहीं है । पर यदि संहति (Mass) को शून्य माना जाय तो प्रकाश से अधिक वेग की संभावना की जाती है । आइन्सटीन के पश्चात् आधुनिक विज्ञान में ऐसे सूक्ष्म कणों की संभावना की गई है जिनका वेग प्रकाश से अधिक हो । ' ' संहति - शून्य' (Massless) कणों की अवधारणा विशुद्ध गणितीय क्षेत्र से सम्बद्ध है। जैन दर्शन के परमाणु को भी संहति - शून्य मानना होगा तथा इस आधार पर उसके उपर्युक्त उत्कृष्टतम वेग की संभावना की जा सकती है। (२) आधुनिक विज्ञान में परमाणु- सिद्धांत विकास स- वृत्त पदार्थ का मूलभूत कण क्या है? सन् १८०३ में डाल्टन ने घोषणा की कि यह मूलभूत कण एटम (परमाणु) है; क्योंकि इसका रासायनिक क्रियाओं द्वारा और अधिक विभाजन नहीं किया जा सकता तथा यह रासायनिक तत्त्वों का सूक्ष्मतम भाग है । इलेक्ट्रॉन की खोज से पहले तक परमाणु (एटम) को ही पदार्थ का मूलभूत कण माना जाता था । सन् १८९७ में जे. जे. थॉमसन ने प्रयोगों द्वारा सिद्ध कर दिखाया कि एटम ही पदार्थ का मूलभूत कण नहीं है अपितु वह दो प्रकार के कणों द्वारा बना हुआ है, जिन पर विपरित लेकिन समान मात्रा में आवेश होते हैं। जिन कणों पर ऋणात्मक आवेश होता है, वे 'इलेक्ट्रॉन' कहलाते हैं तथा जिन पर धनात्मक आवेश होता है वे 'प्रोटॉन' कहलाते हैं। इलेक्ट्रॉन पर न्यूनतम संभव ऋणात्मक आवेश होता है जो कि ( - ४.८ x १० -१० ) ई० एस. यू. (इलेक्ट्रो- स्टेटिक यूनिट) के बराबर है । इलेक्ट्रॉन का द्रव्यमान ९.१ x १०.२८ - १० ग्राम होता है । इसी प्रकार प्रोटॉन पर न्यूनतम संभव धनात्मक आवेश होता है तथा वह (+४.८ x १० - १० ) ई० एस०यू० के बराबर है । प्रोटॉन का द्रव्यमान इलेक्ट्रॉन के द्रव्यमान से लगभग १८३७ गुना होता है । फिर यह खोज हुई कि एटम में न केवल आवेशित कण (इलेक्ट्रॉन तथा प्रोटॉन) ही होते हैं, बल्कि आवेश-रहित कण भी होते हैं। इन कणों का नाम 'न्यूटॉन रखा गया। न्यूट्रॉन का द्रव्यमान प्रोटॉन के द्रव्यमान के बराबर होता है । एटम की आकृति को प्रस्तुत करने के लिए समय-समय पर विभिन्न वैज्ञानिकों ने अलग-अलग मॉडल तैयार किए । सन् १९०४ में जे. जे. थॉमसन ने एटम की आकृति तरबू के अनुरूप बतलायी । उसके अनुसार जिस तरह तरबूज में बीज १. 'टेक्योन' (Tachyon) नामक कणों का अस्तित्व आधुनिक विज्ञान में चर्चा का विषय बना है, जिनकी गति प्रकाश से भी अधिक है। 1 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० जैन दर्शन और विज्ञान होते हैं उसी प्रकार एटम में इलेक्ट्रॉन बिखरे रहते हैं तथा प्रोटॉन तरबूज के गुद्दे की तरह होते हैं; लेकिन रदरफोर्ड ने थॉमसन के इस मॉडल को गलत साबित कर दिया तथा उसने सन् १९९१ में एक नया मॉडल प्रस्तुत किया। अपने प्रयोगों के आधार पर उसने यह सिद्ध किया कि एटम का पूरा धनात्मक आवेश एटम के नाभिक (केन्द्र) में स्थित होता है तथा ऋणात्मक आवेश उस नाभिक के चारों ओर समान रूप से वितरित होता है। एटम के नाभिक में न्यूट्रॉन भी स्थित रहते हैं। कुछ समय पश्चात् बोर (Bohr) नामक वैज्ञानिक ने रदरफोर्ड के मॉडल में संशोधन किया कि इलेक्ट्रॉन नाभिक के चारों ओर समान रूप से व्यवस्थित नहीं होते, बल्कि वे अपनी निश्चित कक्षाओं में केन्द्र के चारों ओर परिभ्रमण करते रहते हैं। विभिन्न कक्षाओं में इलेक्ट्रॉन की एक निश्चित गतिज ऊर्जा होती है। यदि तांबे के परमाणुओं को एक-के बाद-एक एक सीधी पंक्ति में रख दिया जाए तो एक इंच के लिए दस करोड़ परमाणुओं की आवश्यकता पड़ेगी। _ वैज्ञानिकों ने हिसाब लगाया है कि एक पिन के माथे पर दस करोड़ से भी अधिक परमाणु फैले होते हैं। अल्फा, बीटा तथा गामा का क्षय (रेडियोधर्मिता) भारी एटम के नाभिक अस्थायी होते हैं। ऐसा पाया गया है कि इन नाभिकों में-से निरन्तर कुछ-न-कुछ तब तक क्षय होता रहता है, जब तक कि ये एक स्थिर/स्थायी नाभिक को प्राप्त नहीं कर लेते। इस क्षयीकरण को रडियोधर्मिता' के नाम से जाना जाता है। इस क्रिया के दौरान नाभिक में-से अल्फा, बीटा तथा गामा का उत्सर्जन होता रहता है। अल्फा कण दो प्रोटॉन के बराबर होते हैं। बीटा कण इलेक्ट्रॉन के बराबर होते हैं तथा गामा किरणें (ऊर्जा) के रूप में उत्सर्जित होते हैं। ये किरणें प्रकृति से विद्युत्-चुम्बकीय होती है। गामा किरणों में कोई द्रव्यमान नहीं होता, लेकिन कुछ निश्चित ऊर्जा उनमें अवश्य होती है। इस क्षयीकरण की व्याख्या करने के लिए कई सिद्धांत दिए गये । वैज्ञानिक गामा ने अल्फा-क्षय का सिद्धांत प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, अल्फा कण भारी एटम के नाभिक में पहले से ही स्थित रहते हैं। दूसरी ओर, फरमी नामक वैज्ञानिक ने बीटा कणों के क्षय का कारण बताने के लिए अपना सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसके अनुसार बीटा कण नाभिक में पहले से नहीं रहते बल्कि उनकी उत्पत्ति उत्सर्जन की क्रिया के समय ही होती है। जब नाभिक के अन्दर न्यूट्रॉन प्रोट्रॉन में अथवा प्रोट्रॉन न्यूट्रॉन में परिवर्तित होते हैं, तब क्रमश: ऋणात्मक बीटा कण (इलेक्ट्रॉन) तथा धनात्मक बीटा कण (पोजीट्रॉन) उत्पन्न होते हैं। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में परमाणु ३३१ सन् १८२७ में पौली (Pauli) नामक वैज्ञानिक ने बीटा कणों के उत्सर्जन के सम्बन्ध में अपनी परिकल्पना प्रस्तुत की। उसने कहा कि बीटा कणों के साथ-साथ अन्य कणों का भी उत्सर्जन होता है, जिन्हें 'न्यूट्रीनों' के नाम से जाना जाता है। जब प्रोट्रॉन न्यूट्रॉन में परिवर्तित होता है, तब धनात्मक बीटा कणों के साथ न्यूट्रीनो उत्पन्न होता है और जब न्यूट्रॉन प्रोटोन में परिवर्तित होता है, तब प्रति - न्यूट्रीनों उत्पन्न होता है । न्यूट्रीनों इतने सूक्ष्म परिमाण के होते हैं कि वे दूसरे कणों से प्रभावित नहीं होते हैं । वे विद्युत् आवेश - रहित तथा संहति - रहित ( massless ) होते हैं; लेकिन उनमें एक निश्चित ऊर्जा होती है । क्वाण्टम सिद्धान्त (Quantum Theory ) भारी नाभिकों से निकलने वाली गामा किरणें अधिक ऊर्जा सम्पन्न विद्युत् चुम्बकीय तरंगें होती हैं । पाया गया है कि सभी विद्युत् चुम्बकीय तरंगों की ऊर्जा का वितरण नियमित नहीं होता है, बल्कि अनियमित होता है। इसकी व्याख्या मैक्स प्लैंक नामक वैज्ञानिक ने क्वाण्टम सिद्धांत की सहायता से की। इसके अनुसार एक स्थान से दूसरे स्थान तक विद्युत् चुम्बकीय तरंगों की ऊर्जा का स्थानांतरण क्वाण्टम के रूप में होता है । क्वाण्टम ऊर्जा की छोटी-से-छोटी इकाई है। फोटॉन विद्युत् चुम्बकीय ऊर्जा के क्वाण्टम का संवाहक (वाहन के समान) है। फोटॉन का एक निश्चित् संवेग होता है; लेकिन उसमें न तो संहति होती है और न ही विद्युत् आवेश । फोटॉन की ऊर्जा E=hv से प्रदर्शित की जाती है जहां h प्लैंक का नियतांक है। V विद्युत् चुम्बकीय तरंगों की आवृत्ति (फ्रिक्वेंसी) है। I फोटॉन की तरह ही 'फोनोन' यांत्रिकीय तरंगों की ऊर्जा का वाहक है । इस प्रकार ऊर्जा पदार्थ का ही दूसरा रूप है। वैसे भी आइन्स्टीन के ऊर्जा - द्रव्यमान सम्बन्ध के सिद्धांत से ऊर्जा तथा द्रव्यमान एक ही वस्तु / पदार्थ के दो पहलू हैं । प्रारम्भिक कण (Elementary Particles ) अब हम एटम से सम्बन्धित सभी प्रारम्भिक (मौलिक) कणों की सूची बना सकते हैं। इन कणों को हम इस प्रकार से वर्गीकृत कर सकते हैं: - १. इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन । २. न्यूट्रीनो, बीटा कण तथा पोजीट्रॉन । १. देखें, पृ० ३१८ । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जैन दर्शन और विज्ञान ३. फोटोन, फोनॉन। ४. प्रतिकण (एन्टी-पार्टिकल्स)। इनके अतिरिक्त बहुत से अन्य कण भी एटम से संबंधित हैं, जैसे-मैसॉन, ग्लुओन, बैरिऑन तथा अन्य स्ट्रेंज कण। एटम से सम्बन्धित इस प्रकार के कणों की संख्या सौ से भी अधिक है। प्रारम्भिक कण पदार्थ तथा विकरणों के सरलतम कण हैं। इनमें से बहुत से कणों का जीवन-काल बहुत ही अल्प है तथा सामान्यतया ये अस्तित्वहीन हैं। पहले उस सभी कणों को प्रारम्भिक कण कहा जाता था, जिनका पुन: विभाजन न हो सके; लेकिन आजकल इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन, मैसॉन, म्यूओन, बैरीऑन, स्टैंज कण तथा प्रतिकणों के लिए तथा फोटॉन के लिए इस शब्द का प्रयोग किया जाता है; लेकिन अल्फा कणों तथा ड्यूट्रोन के लिए इसका प्रयोग नहीं करते हैं। क्वार्क : पदार्थ का मूलभूत कण समझा जाता था कि विभिन्न प्रारम्भिक कणों की खोज से वैज्ञानिक की पदार्थ के मूलभूत (अन्तिम) कणों की खोज-जिज्ञासा समाप्त हो जाएगी; लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आज भी बहुत से वैज्ञानिक मूलभूत कणों की खोज में लगे हुए हैं। पाया गया है कि न्यूट्रॉन एक स्थिर कण नहीं है तथा इसका अर्द्ध जीवन-काल लगभग १२.८ मिनिट ही है। न्यूट्रॉन एक प्रोटॉन, एक इलेक्ट्रॉन तथा न्यूट्रीनों में टूट जाता है। प्रोट्रॉन भी एक अस्थिर कण है तथा इसका अर्द्ध जीवन-काल लगभग १०-२५ वर्ष है; अन्तत: न्यूट्रॉन तथा प्रोट्रॉन को हम एटम के मूलभूत कण नहीं मान सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि 'क्वार्क' पदार्थ का मूलभूत (अन्तिम) कण है तथा इसका और विभाजन नहीं किया जा सकता। सैद्धांतिक रूप से यह सिद्ध किया जा चुका है कि प्रोटॉन तीन क्वार्कों से मिलकर बना हुआ है। वैज्ञानिक अभी प्रायोगिक तौर पर इसके अस्तित्व को सिद्ध करने में लगे हुए हैं। मूलभूत कण का वेग बहत से वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है कि प्रकाश का वेग ३ x १०१० सें. मी. प्रति सेकंड होता है। माइकल्सन तथा मोर्ले ने सिद्ध किया कि प्रकाश का वेग किसी भी स्थिति में इससे अधिक नहीं हो सकता है। प्रकाश का वेग नियत है। अब प्रश्न यह है कि क्या किसी वस्तु का वेग प्रकाश के वेग से अधिक हो सकता है? आइंस्टीन ने इस प्रश्न का उत्तर ‘सापेक्षतावाद के सिद्धांत' को प्रतिपादित करके दिया। उन्होंने कहा कि किसी भी वस्तु का वेग प्रकाश से अधिक नहीं हो सकता। बहत समय तक Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में परमाणु ३३३ यही माना जाता रहा; लेकिन रूस के वैज्ञानिक कैरेनोव ने साबित किया कि कुछ विशिष्ट माध्यम में स्वयं प्रकाश का वेग भी ३ x १०१० से. मी./सेकंड से अधिक हो सकता है; लेकिन निर्वात में प्रकाश का वेग इतना ही होगा। आकर्षण के बल आकर्षण के बल तीन प्रकार के होते हैं : कूलम्ब बल, विद्युत्-चुम्बकीय बल तथा नाभिकीय (न्यूक्लीय) बल। सभी प्रारम्भिक कणों को एक साथ एक ही नाभिक में रखने के लिए जिम्मेदार नाभिकीय बल है। नाभिक तथा इलेक्ट्रॉन को एक साथ एक एटम में रखने के लिए जिम्मेदार विद्युत्-चुम्बकीय बल है। कूलम्ब बल एटम के लिए कार्य नहीं करते। (३) जैन दर्शन और विज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन मूलभूत कण और परमाणु : मूलभूत (अन्तिम) कण की परिकल्पना परमाणु की परिकल्पना से मिलतीजुलती है कि यह एक अविभाज्य इकाई है। (१) अब तक लगभग सौ से ऊपर प्रारम्भिक कणों को खोजा जा चुका है। इनमें से कुछ कण मूलभूत (अन्तिम या अल्टीमेट) कण नहीं हैं, जैसे-न्यूट्रॉन तथा प्रोटॉन; क्योंकि ये अन्य छोटे कणों में पुन: विभक्त हो जाते हैं। जैनदर्शन के अनुसार, परमाणुओं के दो सौ भेद होते हैं तथा इन सब परमाणुओं के अलग-अलग विशिष्ट गुण होते हैं। यहां यह स्पष्ट है कि अभी इन परमाणुओं को पाने के लिए और अधिक खोज की आवश्यकता है। (२) ‘परमाणु' पदार्थ (पुद्गल) का एक द्रव्यमान-रहित (संहति-रहित) कण है। यहां एक सामान्य प्रश्न यह उठ सकता है कि जब परमाणु में द्रव्यमान ही नहीं होता तब वह पदार्थ कैसे हो सकता है? कोई भी भौतिक पिण्ड विभिन्न परमाणुओं से मिलकर बना होता है; लेकिन जब परमाणु का कोई द्रव्यमान नहीं होता तब उस भौतिक पिण्ड में द्रव्यमान कहां से आ जाता है? इस कथन की व्याख्या वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर की जा सकती है। न्यूट्रीनो' एक मूलभूत कण है तथा यह बीटा कणों के क्षय के समय उत्पन्न होता है। यह द्रव्यमान-रहित होता है तथा अन्य कणों के साथ इसका पारस्परिक संबन्ध नहीं होता; लेकिन इसकी एक निश्चित ऊर्जा ही होती है। इसी प्रकार बहुत से अन्य कणों के साथ भी होता है। __ हम परमाणु के बारे में भी कह सकते हैं कि वह द्रव्यमान-रहित है; क्योंकि परमाणु हमेशा गतिशील रहता है, अत: उसकी कुछ निश्चित ऊर्जा अवश्य होती है। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ जैन दर्शन और विज्ञान वैसे भी आइन्स्टीन के अनुसार ऊर्जा तथा द्रव्यमान पदार्थ के ही गुण हैं। ऊर्जा को द्रव्यमान में तथा द्रव्यमान को ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है; अतः परमाणु के बारे में यह कहना कि वह द्रव्य-मान- रहित है, सही है। (३) जैसा कि हमने पहले कहा, परमाणुओं के दो सौ भेद होते है; लेकिन परमाणु के गुण स्पर्श, रस, गंध तथा वर्ण की तीव्रता के आधार पर परमाणुओं के अनन्त भेद हो सकते हैं। न्यूट्रीनो की धारणा भी कुछ ऐसी ही है । विभिन्न न्यूट्रीनो की अलग-अलग ऊर्जाएं होती हैं, इनकी यह ऊर्जा इस बात पर निर्भर करती है कि उस समय हुए विकिरण में बीटा कणों की ऊर्जा कितनी है? इसी प्रकार अन्य कणों के साथ भी होता है । ( ४ ) विभिन्न नाभिकीय कणों को एक ही नाभिक में रखने के लिए नाभिकीय बल जिम्मेदार है तथा नाभिक और इलेक्ट्रॉनों को एक ही एटम में रखे रखने के लिए जिम्मेदार विद्युत् चुम्बकीय बल है। जबकि परमाणुओं के स्निग्ध तथा रूक्ष गुण इन्हें एक ही पिण्ड ( स्कन्ध) में बनाये रखने के लिए जिम्मेदार हैं । ये दोनों दृष्टिकोण समान प्रतीत होते हैं 1 (५) किसी भी पिण्ड का वेग चाहे वह बड़ा हो या छोटा, प्रकाश के वेग से अधिक नहीं हो सकता अर्थात् ३ x १०० से० मी० / सेकंड से अधिक नहीं हो सकता। विज्ञान का यह एक आधारभूत सिद्धांत है । परमाणु का वेग प्रकाश के वेग से अधिकतम तक हो सकता है। यहां हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अभी वैज्ञानिकों के पास ऐसे उपकरण का अभाव है जो इतने अधिक वेग को नाप सके । इतना अवश्य है कि प्रकाश का वेग ३ X १०° सें० मी० / सेकंड से अधिक हो सकता है, जैसाकि वैज्ञानिक कैरेनोव ने सिद्ध किया है। (६) प्रकाश बहुत सारे फोटॉनों से मिल कर बना होता है । अब प्रश्न यह है कि क्या फोटॉन को मूलभूत (अन्तिम) कण माना जा सकता है? जैनदर्शन के अनुसार प्रकाश बहुत सारे परमाणुओं का समुदाय है । प्रकाश स्कन्ध के अन्तर्गत आता है; अत: प्रकाशकणों ( फोटॉनों) को परमाणु नहीं माना जा सकता । द्रव्याक्षरत्ववाद पुद्गल उत्पाद, व्यय और धौव्य युक्त है । अपनी जाति का त्याग किये बिना नवीन पर्याय की प्राप्ति उत्पाद है, पूर्व - पर्याय का त्याग व्यय है, द्रव्य के मूल तत्त्वों का ज्यों-व -का-त्यों रहना धौव्य है। बर्फ गल कर पानी बनता है । इस प्रक्रिया में बर्फ-रूपी पर्याय का व्यय होता है, जल-रूपी पर्याय का उत्पाद होता है; किन्तु दोनों अवस्थाओं में पुद्गल द्रव्य अविनष्ट बना रहता है। इस क्रिया में दो हाइड्रोजन अणुओं (हाइड्रोजन एटम) और एक ऑक्सीजन अणु से बने पानी के अणुगुच्छ ( मॉलीक्यूल) नहीं बदलते। पानी के भाप बनने की क्रिया में भी उसके अणुगुच्छ यथापूर्व रहते हैं । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में परमाणु ३३५ उक्त परिभाषा से दो महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष प्राप्त होते हैं, जो आधुनिक विज्ञान-सम्मत हैं : एक, पुद्गल (एवं अन्य द्रव्यों) की नित्यता (धौव्य) का सिद्धान्त विज्ञान का पदार्थ की अनाश्यकता का नियम (लॉ ऑफ इनडिस्ट्रक्टिबिलिटी ऑफ मैटर) है। इस नियम को प्रसिद्ध वैज्ञानिक लैव्हाइजियर ने १८ वीं शती में इन शब्दों में प्रस्तुत किया था : 'कुछ भी निर्मेय नहीं है और प्रत्येक क्रिया के अन्त में पदार्थ की उतनी ही मात्रा रहती है, जितनी उस क्रिया के आरंभ में रहती है। पदार्थों का केवल रूपान्तर (मॉडीफिकेशन) हो जाता है।' आधुनिक विज्ञान के अनुसार पदार्थ (मैटर) और ऊर्जा (एनर्जी) एक ही द्रव्य के दो रूप हैं; फलत: आजकल पदार्थ की अनाश्यकता के नियम के बदले पदार्थ और ऊर्जा के स्थिरण (कन्जर्वेशन ऑफ मैटर एण्ड एनर्जी) का नियम लागू होता है। दूसरा निष्कर्ष यह है कि पुद्गल (पदार्थ एवं ऊर्जा) तथा अन्य द्रव्यों को न तो शून्य में विलुप्त किया जा सकता है और न शून्य से बनाया जा सकता है। आधुनिक विज्ञान की भी विश्व (यूनिवर्स) के संबंध में यह धारणा है। . पदार्थ एवं ऊर्जा (मैटर एण्ड एनर्जी) आइन्स्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत-के-पूर्व विज्ञान पदार्थ (मैटर) और (एनर्जी) को दो विभिन्न द्रव्य मानता था। साथ ही यह धारणा थी कि न तो पदार्थ को ऊर्जा में बदला जा सकता है और न ऊर्जा को पदार्थ में । सापेक्षता के विशिष्ट सिद्धान्त (स्पेशल थिओरी ऑफ रिलेटिविटी) के E=mc2/ ऊर्जा = ऊर्जा (पदार्थ की मात्रा)x (प्रकाश की गति) सूत्र के अनुसार पदार्थ को ऊर्जा एवं ऊर्जा को पदार्थ में रूपान्तरित किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में पदार्थ और ऊर्जा एक ही द्रव्य के दो रूप हैं। एक किलोग्राम पदार्थ को पूर्णत: रूपान्तरित करके ९ x १०१६ जूल (एक माप-इकाई) ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। इतनी ऊर्जा से एक छोटे शहर का बिजलीघर कई महीनों तक चलाया जा सकता है। इस प्रकार के पदार्थ और ऊर्जा के परस्पर रूपान्तरण प्रकृति में और प्रयोगशाला में, अणु-भट्टियों में और अणु-शस्त्रों में होते रहते हैं। विशिष्ट महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि सापेक्षतावाद के सिद्धांत प्रवर्तन के सदियों पूर्व से ही जैनदर्शन पदार्थ और ऊर्जा को पुद्गल की पर्याय मानता है। सारे पदार्थ मॉलीक्यूलों से बनते हैं, प्रत्येक मॉलीक्यूल परमाणुओं (एटम्स) के संयोग से बनता है, प्रत्येक परमाणु में एक केन्द्रकण (न्यूक्लिअस) और कई इलेक्ट्रॉन होते हैं। प्रत्येक केन्द्रकण में प्रोटॉन एवं न्यूट्रॉन होते हैं। धनात्मक (पॉजीटिव्ह) और ऋणात्मक (निगेटिव्ह) विद्युतें एक दूसरे को आकर्षित करती हैं। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ जैन दर्शन और विज्ञान केन्द्रकण (न्यूक्लियस) में धनात्मक विद्युत् आवेश और इलेक्ट्रॉन में ऋणात्मक विद्युत् आवेश होता है; इसलिए परमाणु (एटम) में केन्द्रकण से इलेक्ट्रॉन बंधे रहते हैं। उदाहरण के लिए हाइड्रोजन अणु का केन्द्रकण केवल एक होता है और एक इलेक्ट्रॉन उसके चारों ओर चक्कर लगाता रहता है। कार्बन परमाणु के केन्द्र-कण में ६ प्रोटॉन एवं ६ न्यूट्रॉन होते हैं और छह इलेक्ट्रॉन उसकी परिक्रमा करते रहते हैं। परमाणुओं के सम्मिलन से मॉलीक्यूल, क्रिस्टल इत्यादि के बनने में भी धनात्मक एवं ऋणात्मक विद्युत् आवेश उत्तरदायी हैं। जैन दर्शन में स्निग्ध गुणवाले कणों के बंधने से स्कन्ध बनने का भी वर्णन है। केन्द्रकण (न्यूक्लियस) में जो प्रोट्रॉन बंधे रहते हैं वे धनात्मक विद्युत्आवेश-युक्त हैं। इससे स्पष्ट है कि दो धनात्मक विद्युत् आवेश-युक्त कणों (पार्टिकल्स) के बीच भी आकर्षण एवं बन्धन संभव है। जैन दर्शन का परमाणु इन्द्रियग्राह्य नहीं है। इन्द्रियग्राह्य (पर्सेप्टिबिल) का तात्पर्य यदि समझा जाए कि परमाणु किसी वैज्ञानिक प्रयोगशाला के यन्त्रों से ग्राह्य (डिटेक्टेबल) नहीं है तो निष्कर्ष निकलता है कि आधुनिक विज्ञान ने जो मौलिक कण (एलीमेंट्री पार्टिकल्स) खोज निकाले हैं, जैन दर्शन के अनुसार वे सब कई परमाणुओं के संयोग से बने स्कन्ध हैं। जैन दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु सब पदार्थ परमाणुओं से निर्मित हैं। साथ ही, विभिन्न प्रकार की ऊर्जा, आतप (हीट), प्रकाश (लाइट), विद्युत् (इलेक्ट्रीसिटी) आदि, पुद्गल की पर्याय हैं; इसलिए ऊर्जा में भी परमाणु होने चाहिये जैसे कि जल, स्वर्ण, वायु आदि के स्कंधों में हैं। आधुनिक प्रयोगशालाओं में ऊर्जा (एनर्जी) को पदार्थ (मैटर) के रूप में और पदार्थ को ऊर्जा के रूप में परिवर्तित करने की प्रक्रियाएं होती रहती हैं। इससे तात्पर्य है कि ऊर्जा और पदार्थ दोनों में एक ही मौलिक तत्त्व है तथापि आधुनिक विज्ञान पदार्थ को कणात्मक (पार्टिकल आस्पेक्ट) और ऊर्जा को तरंगात्मक विव्ह आस्पेक्ट) मानता है; साथ ही ऊर्जा की तरंगें किसी स्थिति (वातावरण) में कणात्मक रूप दर्शाती हैं और पदार्थ के कण समुचित स्थिति में तरंगात्मक रूप दर्शाते हैं। जहां तक मौलिक कणों (एलीमेंट्री पार्टिकल्स) का प्रश्न है, आज का वैज्ञानिक प्रोटॉन, न्यूट्रॉन, इलेक्ट्रॉन, कई प्रकार के मैसॉन, न्यूट्रीनों, क्वार्क इत्यादि कणों के अनुसंधान में रत हैं। यदि जैन दर्शन का परमाणु इन्द्रियग्राह्य के साथ-साथ यन्त्र-ग्राह्य भी नहीं है तो इन सब मौलिक कणों में से कोई भी कण जैनदर्शन का परमाणु नहीं हो सकता। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में परमाणु ३३७ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सामान्यत: जैन दर्शन की पुद्गल की धारणा आधुनिक विज्ञान की मान्यताओं से मूल रूप से मेल खाती है। सूक्ष्म रूप से दोनों की तुलना कठिन है। लगभग पिछले सौ वर्षों में विज्ञान ने जो प्रगति की है उससे नि:संदेह पदार्थ और ऊर्जा के विषय में अनगिनत सूक्ष्मतर विवरणों और मौलिक धारणाओं का प्रादुर्भाव हुआ है, जो प्रयोग-सिद्ध है। यह वैज्ञानिक प्रक्रिया आज भी अनवरत चालू है, रुकी नहीं है। लगता है, भविष्य में गहन अध्ययन और अनुसंधान के परिणामस्वरूप आधुनिक विज्ञान और जैन दर्शन की पुद्गल-संबंधी धारणाओं में कुछ और तालमेल स्थापित करना संभव होगा। परमाणु के मूल गुणधर्म परमाणु के गुणों में जैन दार्शनिकों ने गुरुत्व (भारीपन) और लघुत्व (हलकेपन) को भी मौलिक स्वभाव नहीं माना है; ये भी विभिन्न परमाणुओं के संयोगज परिणाम हैं । अन्वेषण की दृष्टि से यह संकल्पना भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि आधुनिक विज्ञान भी यह मानने लगा है कि स्थूलत्व से सूक्ष्मत्व की ओर जाते हुए तथाकथित परमाणु के छोटे-छोटे कण भार आदि गुणों से रहित हो जाते हैं; जैसे फोटॉन, न्यूट्रीनो आदि। जैनदर्शनकारों ने स्निग्धत्व और रूक्षत्व को परमाणुओं के परस्पर बंधन का कारण माना। ___वैज्ञानिकों ने भी परमाणुओं के परस्पर बन्धन का कारण धनविद्युत् (पॉजीटिव्ह चार्ज) - स्निग्धत्व और ऋणविद्युत् (निगेटिव्ह चार्ज) -रूक्षत्व को माना है। ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों ने शब्दभेद से एक ही बात कह दी है। इससे स्पष्ट है कि स्निग्धत्व और रूक्षत्व इन दो गुणों से धन और ऋण विद्युत् पैदा होती है। डॉ. बी. एल. शील ने भी अपनी पुस्तक 'पाजीटिव्ह साइंस ऑफ एन्सिएण्ट हिन्दूज' में इस बात का समर्थन किया है। जैन दर्शन के अनुसार रूक्ष परमाणु रूक्ष के साथ और स्निग्ध परमाणु स्निग्ध के साथ दो से लेकर अनन्त गुणांशों की तरतमता से बंधन को प्राप्त होते हैं। भारी ऋणाणु या 'नेगेट्रॉन' इस बात की पुष्टि करता है, क्योंकि यह केवल ऋणाणुओं का ही समुदाय है। इसी प्रकार डॉ. गेलमान के क्वार्क-सिद्धांत' के अनुसार एक प्रोट्रॉन तीन क्वार्क से मिल कर बना है; जिसमें से एक का आवेश धन १/३ तथा दो क्वार्क प्रत्येक धन २/३ आवेश के होंगे और इस प्रकार प्रोटॉन का कुल आवेश धन के बराबर होगा। १. देखें, पृष्ठ २९४-२९५ । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ जैन दर्शन और विज्ञान न्यूट्रॉन भी तीन क्वार्कों से मिलकर बना है, दो ऋण १/३ आवेश वाले और एक धन २/३ आवेश वाला, जिसमें कुल आवेश शून्य होगा। 'मेसॉर्न' दो क्वार्कों से मिल कर बना है। डॉ0 गेलमान के अनुसार यह आवश्यक नहीं है कि ये कण स्वतंत्र रूप में ही पाये जाएं। ये केवल बल (फोर्स), ऊर्जा (एनर्जी) अथवा धारा (करेंट) के रूप में भी हो सकते हैं, जो नाभिकीय कणों के भीतर तेजी से घूमते रहते हैं या जिनका अस्तित्व स्थिर कणों के रूप में केवल नाभिक के भीतर ही संभव है और इसलिए इन्हें बाहर से शायद कभी नहीं देखा जा सकता। उनकी यह बात जैन दर्शन के परमाणु-सिद्धांत से कुछ मेल खाती प्रतीत होती है। 'नेगेट्रॉन्स, या भारी ऋणाणु' रूक्ष-के-साथ-रूक्ष का बंधन चरितार्थ करते हैं। प्रोटॉन' का क्वार्क' स्निग्ध-का-स्निग्ध के साथ बंधन है। जैनदर्शनकार भी यही कहते हैं कि रूक्ष परमाणु रूक्ष-के-साथ और स्निग्ध परमाणु स्निग्ध-के-साथ दो से ले कर यावत् अनन्त गुणाशों की तरतमता से बन्धन को प्राप्त होते हैं। स्निग्ध और रूक्ष परमाणु तो बिना किसी शर्त के बन्ध जाते हैं, पर एक गुण रूक्ष और एक गुण स्निग्ध परमाणु कभी बन्धन को प्राप्त नहीं होते । सूक्ष्म परिणमन आधनिक भौतिक की क्वाण्टम गतिकी', जिसे वैज्ञानिक मैक्स प्लांक; नील्स बोहर, लुइस दे ब्रोगली, श्रोडिंगर, हाइजनबर्ग, बोर्न तथा पौली ने विकसित किया, के अनुसार एक गतिशील कण किन्हीं परिस्थितियों में एक कण की भांति व्यवहार करता है तथा किन्हीं परिस्थितियों में एक तरंग की भांति। किसी गतिशील कण की सही स्थिति तथा सही वेग का हम एक साथ पता नहीं कर सकते; इन में-से यदि एक का मान ठीक से ज्ञात कर भी लिया जाए तो दूसरे के मान में कुछ अनिश्चितता रहती है। किसी गतिशील कण की सही स्थिति तथा वेग को हम एक साथ नहीं जान सकते, उसकी प्रायिकता (प्राबेबिलिटि) ही ज्ञात की जा सकती है। जैन दर्शन के अनुसार परमाणु की स्वाभाविक गति सरल रेखा में है और वैभाविक गति वक्र रेखा में। परमाणु कम-से-कम एक समय में एक आकाश-प्रदेश का अवगाहन कर सकता है और अधिक-से-अधिक उसी समय में चतुर्दश रज्ज्वात्मक समूचे विश्व का। स्पष्ट है कि अणु-परमाणु कण के गति-संबंधी विचारों में दर्शन और विज्ञान में समानता भी है और असमानता भी, क्योंकि आधुनिक विज्ञान के अनुसार इलेक्ट्रॉन की गति गोलाकार है। १. आधुनिक विज्ञान में कृष्ण-विवर (Black Hole) और जैन दर्शन में कृष्णराजि और तमस्काय का वर्णन बहुत समान हुआ है जिसमें इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है। देखें भगवती सूत्र (भाष्य), ६/७०-१०६ । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में परमाणु ३३९ जैन दर्शन बताता है कि थोड़े से परमाणु विस्तृत आकाश - खंड को घेर लेते हैं, जिसे परमाणुओं का व्यायतीकरण कहते हैं और कभी-कभी वे परमाणु घनीभूत हो कर बहुत छोटे से आकाश देश में समा जाते हैं, जिसे परमाणुओं का समासीकरण कहते हैं। आधुनिक विज्ञान इस बात की पुष्टि करता है। हाल ही में खोजे गये सब-से-छोटे तारे के एक क्यूबिक इंच में १६७४० मन भार आंका गया है। यह सूक्ष्म परिणमन-क्रिया विज्ञान से मेल खाती है । अणु के दो अंग होते हैं, एक मध्यवर्ती नाभिक (न्यूक्लीयस) जिसमें धनाणु (प्रोटॉन्स) और न्यूटॉन्स होते हैं और दूसरा बाह्य कक्षीय कवच (ऑर्बिटल शेल) जिसमें ऋणाणु चक्कर लगाते हैं । नाभिक का घनफल पूरे अणु के घनफल से बहुत ही कम होता है और जब कुछ कक्षीय कवच अणु से विच्छिन्न हो जाते हैं तो अणु का घनफल कम हो जाता है। ये अणु विच्छिन्न अणु कहलाते हैं। ज्योतिष - सम्बन्धी अनुसंधानों से पता चलता है कि कुछ तारे ऐसे हैं जिनका घनत्व हमारी दुनिया की घनतम वस्तुओं से भी २०० गुणित है । एडिंग्टन ने एक स्थान पर लिखा है कि एक टन (२८ मन ) नाभिकीय (न्यूक्लीअर) पुद्गल हमारे वेस्ट कोट की जेब में समा सकता है। कुछ ही समय पूर्व एक ऐसे तारे का अनुसन्धान हुआ है जिसका घनत्व ६२० टन (१७३६० मन) प्रति घन इंच है। इतने अधिक घनत्व का कारण यही है कि वह तारा विच्छिन्न अणुओं से निर्मित है। उसके अणुओं में केवल नाभिक कण ही हैं, कक्षीय कवच नहीं । जैन सिद्धांत की भाषा में इसका कारण अणुओं का सूक्ष्म परिणमन है I परमाणु ऊर्जा और तेजोलेश्या परमाणु - शक्ति (न्यूक्लीअर एनर्जी) और तेजोलेश्या में यत् किंचित् साम्य है । भगवती सूत्र शतक १५ में तेजोलेश्या की प्रक्रिया प्रतिपादित है । "जो व्यक्ति छह महीने तक बेले का तप करे, ऊर्ध्वबाहु रह कर हमेशा सूर्य की आतापना ले, और पारणे में एक मुट्ठी उड़द और एक चुल्लू गरम पानी ग्रहण करे, वह तेजोलेश्या को प्राप्त करता है ।" तेजोलेश्या परमाणु-शक्ति की भांति ध्वंसकारी बन सकती है। तेजोलेश्या पौद्गलिक है और वह विस्तृत भाव को प्राप्त होकर अंग, बंग, मगध, मलय, मालव- जैसे १६ देशों को एक साथ भस्म कर देती है । कुद्ध अनगार में-से तेजोलेश्या निकल कर दूर गयी हुई दूर गिरती है, पास गयी हुई पास गिरती है। वह जहां गिरती है, वहां उसके अचित्त पुद्गल प्रकाश करते यावत् तपते हैं। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० जैन दर्शन और विज्ञान __ आधुनिक परमाणु-ऊर्जा तो केवल उष्मा के रूप में ही प्रकट होती है, पर तेजोलेश्या में उष्णता और शीतलता दोनों गुण विद्यमान हैं। भगवती सूत्र शतक १५ में तेजोलेश्या के दो भेद बताये गये हैं : उष्ण तेजोलेश्या (न्यूक्लीयर एनर्जी), शीतल तेजोलेश्या (एंटीन्यूक्लीयर एनर्जी)। .. शीतल तेजोलेश्या उष्ण तेजोलेश्या के प्रभाव को तत्क्षण नष्ट कर सकती है। वैज्ञानिक अभी तक उष्ण तेजोलेश्या अणुबम और उद्जन बम का ही आविष्कार कर पाये हैं, किंतु अणु-आयुद्धों का प्रतिकारण अस्त्र उन्हें अभी तक नहीं मिला है। . परमाणु-शक्ति दो तरह से उत्पन्न होती है : गलन (परमाणु-विखण्डन या परमाणु-विगलन; फिसन) से, पूरण (परमाणु-संलयन; न्यूक्लीयर फ्यूजन) से। .. यह परमाणु-विगलन तथा परमाणु-संलयन के सिद्धांत जैन दर्शन की 'पूरण-गलन धर्मत्वात् पुद्गल:' संकल्पना को परिपुष्ट करते हैं। पूरण अर्थात् मिलन या संयोग, गलन अर्थात् वियोग या पार्थक्य । भावी संभावना निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि वैज्ञानिक जिस परमाणु (एटम) के अनुसन्धान में रत है, जैन दर्शन के अनुसार वह अनेक परमाणुओं से संघटित कोई स्कन्ध (मॉलीक्यूल) है; क्योंकि जैन शास्त्रों में परमाणु की सूक्ष्मता के विषय में कहा गया है : परमाणु इंद्रियों का एवं प्रयोग का विषय नहीं है अत: वह मनुष्यकृत नाना प्रक्रियाओं से प्रभावित नहीं होता है। जैन दर्शन की परिभाषा के अनुसार इलेक्टॉन, प्रोट्रॉन, न्यूट्रॉन, फोटॉन, क्वार्क, न्यूट्रिनों आदि में से कोई भी कण परमाणु नहीं है; परमाणु के उदरस्थ जितने भी कण हैं, जैन दर्शन मानता है कि वे सूक्ष्मतम, या परमाणु, या मौलिक कण कहलाने के उपयुक्त नहीं हैं। जैनदर्शनकारों ने परमाणु के दो भेद किये हैं-निश्चय परमाणु और व्यवहार परमाणु। अविभाज्य और सूक्ष्मतम कण निश्चय परमाणु हैं और सूक्ष्मतम स्कंध जो इन्द्रिय-व्यवहार में सूक्ष्मतम-से लगते हैं, व्यवहार परमाणु हैं। विज्ञान का परमाणु वास्तव में व्यवहार परमाणु ही है। . सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक जी. ओ. जॉन्स, जे. रोटब्लेट तथा जी. जे. विटरो ने 'परमाणु और विश्व' (एटम एण्ड यूनीवर्स) नामक पुस्तक में, जो १९५६ ई. में लंदन से प्रकाशित है, स्पष्ट किया है कि " प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन ये तीन मूलभूत कण माने गये, और अब वह संख्या बीस तक पहुंच गयी है मौलिक अणुओं की यह अप्रत्याशित बढत बहत असंतोष का विषय है क्या वास्तव में पदार्थ के Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और विज्ञान में परमाणु ३४१ इतने टुकड़ों की आवश्यकता है, या मूलभूत अणुओं की यह बढ़त पदार्थ-मूलसम्बन्धी हमारे अज्ञान की सूचक है? सही तो यह है कि मौलिक कण अर्थात् परम+अणु, या परमाणु क्या है? यह पहेली अब तक सुलझ नहीं पायी है।' आशा है भविष्य में विज्ञान और दर्शन के समन्वय से प्राथमिक कण की पहेली को सुलझा कर सत्य के सन्निकट पहुंचा जा सकेगा। अभ्यास १. भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से जैन दर्शन में परमाणु के कितने प्रकार बताए गये ___हैं? परमाणु-पद्गल की विभिन्न परिभाषाओं को स्पष्ट करें। २. जैन दर्शन के परमाणु के गति और क्रिया-सम्बन्धी विवेचन को प्रस्तुत करते ___ हुए विज्ञान के सन्दर्भ में उसकी मीमांसा करें। ३. आधुनिक विज्ञान में परमाणु-सिद्धांत के विकास-वृत्त को अपने शब्दों में प्रस्तुत करें। ४. जैन दर्शन के परमाणुवाद और आधुनिक विज्ञान के परमाणुवाद की तुलना करते हुए बताएं कि भौतिक विश्व के स्वरूप को समझने के लिए इन दोनों को जानना क्यों जरूरी है? ५. जैन दर्शन के अनुसार परमाणु के मुख्य गुण-धर्मों को बताते हुए जैन परमाणुवाद पर विस्तार से प्रकाश डालें तथा सिद्ध करें कि ऐतिहासिक दृष्टि से इसका क्या महत्त्व है? १. अब यह संख्या बढ़कर १०० हो गई है। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणस्स सारमाया जैन विश्वभारती, संस्थान लाडनूं (राज)