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________________ विश्व का परिमाण और आयु २९१ ४. आकाश-द्रव्य अनन्त है । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि षड्-द्रव्यमय लोकाकाश सान्त है। स्थायी - अवस्थावान् विश्व- सिद्धांत और जैन दर्शन के विश्व- सिद्धांत की तुलना उक्त चार तथ्यों के आधार पर सरलता से हो सकती है। प्रथम दो बातें, जो कि स्थायी अवस्थावान् विश्व- सिद्धांत का आधार है, जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता । अन्तिम दो विचारों के विषय में जैन दर्शन और उक्त सिद्धांत में काफी सामंजस्य दिखाई देता है। तीसरे तथ्य के विषय में तो दोनों ही में सम्पूर्ण ऐक्य है। चौथे तथ्य के निरूपण में किंचित् भेद है। जैन दर्शन आकाश को अनन्त मानता हुआ भी निवासित आकाश (लोकाकाश) को सान्त मानता है; जबकि स्थायी - अवस्थावान् विश्व- सिद्धांत अनन्त आकाश में निवासित - अनिवासित का भेद नहीं करता । जैन दर्शन और होयल के सिद्धांत में दूसरे तथ्य का निरूपण पूर्व-पश्चिम - सा हुआ है। 'असत् से सत् पदार्थ की उत्पत्ति' का निरूपण अत्यन्त अतार्किक और अकल्पनीय प्रतीत होता है । आन्वीक्षिकी में यह एक सुप्रसिद्ध और सुप्रमाणित सत्य स्वीकार किया गया है कि असत् से किसी भी सत् पदार्थ की उत्पत्ति नहीं हो सकती । किसी भी सत् पदार्थ की उत्पत्ति का उपादान कारण 'सत्' ही होगा, चाहे वह किसी भी रूप में हो । यदि 'नये जड़' से हम केवल संहति" के ही उत्पादन का अर्थ ग्रहण करते हैं, तो जैन दर्शन के साथ उक्त परिकल्पना की संगति बिठाई जा सकती है । आधुनिक वैज्ञानिक धारणाओं के अनुसार संहति को भूत का मौलिक गुण माना गया है, जबकि जैन दर्शन के अनुसार संहति पुद्गल का मूलभूत गुण नहीं है संहति - शून्य पदार्थ का अस्तित्व मानने से (क) प्रकाश के वेग से अधिक वेग सम्भावित होता है । २ (ख) नये जड़ की उत्पत्ति की परिकल्पना को संगत बनाया जा सकता है । स्कन्ध-निर्माण से पूर्व पुद्गल संहति - शून्य अवस्था में अस्तित्ववान् होता है। परमाणु-सन्घात से जब स्कन्ध-निर्माण होता है, तब संहति - गुण अस्तित्व में आता है; अत: विश्व-विस्तार से उत्पन्न रिक्तता को भरने के लिए यदि नये जड़ की २ १. चूंकि संहति - शक्ति समीकरण के अनुसार दोनों एक ही सत् की पर्याय हैं, यहां 'संहति' के साथ शक्ति (ऊर्जा, एनर्जी) का ग्रहण अपने आप हो जाता है । २. इसकी विस्तृत चर्चा हम अगले प्रकरण में करेंगे। ३. चतुःस्पर्शी स्कन्धों में तो स्कन्धावस्था में भी संहति - शून्य अवस्था ही रहती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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