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जैन दर्शन और विज्ञान मिल्न, बौंडी और दूसरे बुर्जुआ आदर्शवादी वैज्ञानिक यह बताते हैं कि “लाल स्थानान्तर" से ब्रह्माण्ड के फैलाव के बारे में पता चलता है जो मानो सीमित नहीं, है; बल्कि उसका सीमाबद्ध परिमाण है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि किसी समय अतीत में ब्रह्माण्ड बिल्कुल छोटा था और एक ही 'जनक-परमाणु' से बना था। इस असाधारण ईश्वर रचित 'परमाणु' में सभी ग्रह, तारे और और मंदाकिनियां मूलरूप में निहित थीं। इसके बाद पारमाणविक विस्फोट हुआ और छोटे-से ब्रह्माण्ड को टुकड़े-टुकड़े कर दिया और 'जनक-परमाणु' के टुकड़े अब मंदाकिनियां विभिन्न ज्योतिपिंडों के रूप में चारों तरफ उड़ते फिरते हैं। लेमैत्रे और मिल्न ने तो यह भी हिसाब लगा लिया था कि कई लाख करोड़ साल पहले ऐसा विस्फोट हुआ था और इसी काल को विश्वारम्भ' समझना चाहिए।
"ऐसे सिद्धांतों और सत्रों का वैज्ञानिक दिवालियापन जाहिर है। वास्तव में अगर विश्वाकाश सीमित ही होगा, तो आदर्शवादियों द्वारा कथित वह सीमित ब्रह्माण्ड कहां है?
___"लाल स्थानान्तर की प्रकृति की अभी तक सम्पूर्ण व्याख्या नहीं की गई है। जो भी हो, अगर यह घटना सचमुच ही मंदाकिनियों के फैलाव का नतीजा है, तो जहां पदार्थ की विचित्रता का कोई अन्त नहीं है और न हो सकता है, उस समस्त ब्रह्माण्ड में इस फैलाव का सम्बन्ध जोड़ना असम्भव है।"
होयल के स्थायी अवस्थावान् विश्व-सिद्धांत की विस्तृत चर्चा हम कर चुके हैं। इस सिद्धांत का मुख्य आधार निम्न दो बातें हैं :
१. विश्व का विस्तार हो रहा है। २. विश्व में नया जड़ उत्पन्न हो रहा है। इस सिद्धांत के परिणामस्वरूप ये दो तथ्य सामने आये हैं :३. विश्व काल की दृष्टि से अनादि और अनन्त है। ४. विश्व-आकाश अनन्त है। जैन दर्शन का विश्व-सिद्धांत इस विषय में निम्न चार तथ्यों को रखता है। १. आकाश द्रव्य अगतिशील है। अत: विश्व का विस्तार नहीं हो सकता। २. असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती। विश्व-स्थित द्रव्य की राशि
'अचल' है।
३. विश्व काल की दृष्टि से अनादि और अनन्त है। १. विश्व और परमाणु, पृ० १४३-१४४ ।
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