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________________ २८९ विश्व का परिमाण और आयु ३. जैन दर्शन लोकाकाश के आकार को वक्र स्वीकार करता है। आइन्स्टीन का समग्र आकाश वक्र (पारिभाषिक अर्थ में) है। इन सब तर्क-वितर्कों से हम इतना तो कह सकते हैं कि जैन दर्शन का लोकाकाश और अलोकाकाश का विश्व-सिद्धान्त आइन्स्टीन के सान्त किन्तु असीमित' आकाश के विश्व-सिद्धान्त से अधिक बुद्धिगम्य व तर्क-संगत है। विश्व-सिद्धान्त के दूसरे पहलू काल के विषय में तो आइन्स्टीन का अभिमत और जैन दर्शन का मन्तव्य परस्पर में पूर्ण सामंजस्य रखते हैं। दोनों ही सिद्धान्त विश्व को काल की दृष्टि से अनादि और अनन्त स्वीकार करते हैं। आइंस्टीन के विश्व में काल विमिति का अनन्त तक व्याप्त होना और जैन दर्शन के विश्व-सिद्धांत में काल की दृष्टि से लोकालोक का अनादि-अनन्त होना, एक ही तथ्य का उच्चारण है। 'काल की दृष्टि से विश्व की शाश्वतता' को प्रतिपादित करने वाले ये दो सिद्धांत-वैज्ञानिक जगत् में आइन्स्टीन का सिद्धांत और दार्शनिक जगत् में जैन दर्शन का सिद्धांत-काल की दृष्टि से विश्व को सादि सान्त मानने वाले अन्य वैज्ञानिक और दार्शनिक सिद्धांतों को एक बड़ी चुनौती है। विस्तारमान विश्व और जैन-लोकालोक जैन दर्शन के दृष्टिकोण से निम्न कारणों के आधार पर विश्व आकाश का विस्तार न होना सर्वथा असम्भव है : १. आकाश 'अगतिशील' द्रव्य है। २. आकाश एक अखण्ड द्रव्य है तथा क्षेत्र की दृष्टि से अनंत और असीम है। अर्थात् ऐसा कोई भी स्थान नहीं है; जहां आकाश न हो। ऐसी स्थिति में आकाश का विस्तार कैसे और कहां हो सकता है? ३. यदि आकाश को सान्त भी मान लिया जाये, तो भी नाना प्रश्न खड़े हो जाते हैं। जैसे-सान्त आकाश के परे क्या है? यदि 'कुछ' है तो आकाश से किस प्रकार से भिन्न है और वह 'कुछ' विस्तारमान है या स्थिर? यदि वह भी विस्तारमान है, तो किसमें' विस्तृत हो रहा है? यदि उससे भी परे अन्य कोई तत्त्व है और उससे परे अन्य कोई तत्त्व, तो इस प्रकार अनवस्था दोष आ जायेगा। यदि वह कुछ' स्थिर है, तो आकाश को स्थिर मानने में क्या आपत्ति है? दूसरे पक्ष में यदि सान्त आकाश से परे कुछ नहीं है तो आकाश का विस्तार किसमें होगा? क्योंकि कुछ नहीं' में आकाश का विस्तार हो नहीं सकता। इस प्रकार ये सामान्य तर्क पर आधारित प्रश्न भी सुलझ नहीं पाते हैं। सुप्रसिद्ध सोवियत वैज्ञानिक व. मेजेन्तसेव ने लिखा है : “लेमैत्रे, एडिंग्टन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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