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________________ २६ जैन दर्शन और विज्ञान खोये बिना ही वास्तविकता का एक खण्ड बनता है, इस व्यक्ति 'मैं' के रूप में आता है जो जन्मा था और मर जायेगा। वाईल का यह अभिमत व्यक्तिगत चैतन्य को स्पष्ट रूप से वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता के रूप में बताता है। भौतिक पदार्थ के विषय में वाईल का दृष्टिकोण ज्ञाता-सापेक्षवाद की ओर झुका हुआ दिखाई देता है। यद्यपि वे स्वयं स्वीकार करते हैं-"मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि वह विचारधारा, जो विश्व की घटनाओं को केवल अहं द्वारा जनित चैतन्य के नाटक के रूप में बताती है, सरल वास्तविकतावाद की विचारधारा से अधिक सत्य है। प्रत्युत यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि यदि हम वास्तविकता के विषय में स्पष्ट धारणा तथा उसके निरपेक्ष तात्पर्य को समझना चाहते हैं, तो चैतन्य के विषय-रूप पदार्थ ही वह आदि बिन्दु है, जहां से हमें प्रारम्भ करना होगा।'२ किन्तु थोड़ा-सा ही आगे चल कर वे भौतिक पदार्थ की वास्तविकता को गलत बताने का प्रयत्न करते हैं-सत्य के सिद्धांत का दार्शनिक परीक्षण हमें इसी निष्कर्ष पर पहुंचायेगा कि जिन अनुभवों के आधार पर हम वास्तविकता को पकड़ते हैं, उन अनुभवों को कराने वाले विषय-ग्रहण, स्मृति आदि कार्यों में एक भी कार्य ऐसा नहीं है, जो हमें ज्ञेय पदार्थों को अस्तित्ववान् बताने का तथा उनको गृहीत (ज्ञान) रूप के सदृश रचना वाले बताते का निर्णयात्मक अधिकार दे।''३ इस प्रकार भौतिक पदार्थों के वास्तविक अस्तित्व को तथा उनके गुणों की वस्तु-सापेक्षता को भी संदिग्ध बताया गया है। वाईल द्वारा की गई वर्ण की व्याख्या में तो स्पष्ट रूप से ज्ञाता-सापेक्षवाद का निरूपण मिलता है : “यह सरलतया देखा जा सकता है कि हरे' नामक गुण का अस्तित्व केवल 'हरे' की संवेदना और इन्द्रियों के द्वारा गृहीत पदार्थ के बीच के सम्बन्ध के रूप में ही है; किन्तु उसको अपने आप में कोई वस्तु मान कर अपने आप में अस्तित्ववान पदार्थों के साथ सम्बन्धित मानना निरर्थक है।.........इस (आधुनिक भौतिक विज्ञान की गाणितिक पद्धति) के अनुसार तो 'वर्ण' वस्तुत: ईथर का स्पन्दन ही है अर्थात् गति है..... (आपेक्षिकता के सिद्धांत के बाद तो) वर्ण' ईथर-स्पन्दन नहीं अपितु केवल उन गाणितिक फलनों के मूल्यों की श्रेणियां हैं, जिनमें आकाश की तीन विमिति और काल की एक विमिति से सम्बन्धित चार स्वतन्त्र परामितर है। यहां पर वाईल आधुनिक विज्ञान की पारिभाषिक गाणितिक शब्दावली में वर्णों को केवल गाणितिक संज्ञा के रूप में बताकर उसकी वस्तु-सापेक्षता का सर्वथा १. वही, पृ० ६। २. वही, पृ० ५। ३. वही, पृ० ५। ४. स्पेस-टाईम-मैटर, पृ० ३-४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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