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४. विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली जैन जीवन-शैली
जैन धर्म की अपनी एक अलग जीवन-शैली है। जैन परम्परा में जिस तरह श्रावक की चर्या विकसित हुई है, उसकी अपनी अनेक विशेषताएं हैं। भगवान् महावीर ने अणुव्रतों के रूप में श्रावक-चर्या का जो प्रारूप प्रस्तुत किया था, वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं वैज्ञानिक है। अनेक आचार्यों के गुरुत्तर प्रयत्नों से जैन लोग खान-पान की दृष्टि से बहुत ऊंची भूमिका पर हैं। मद्यमांस का परिहार जैनत्व की अपनी एक अलग पहचान बन गई है। शैली क्यों?
साधु का जीवन एक-आयामी होता है। वह केवल साधना का जीवन जीता है। एक गृहस्थ को न जाने कितने घोड़ों की सवारी करनी पड़ती है। उसे अनेक आचार्यों का जीवन जीना होता है। उसके चारों ओर खिंचाव का वातावरण बना रहता है, उसे परिवार का जीवन जीना होता है, समाज का जीवन जीना होता है, राज्य का जीवन जीना होता है, आर्थिक जीवन जीना होता है, इसके साथ-साथ धार्मिक जीवन भी जीना होता है। उसके सामने समस्या है कि वह अनेक आयामों को कैसे जिये? उसके लिए जीवन की एक शैली चाहिए। जीवन-शैली
शैली शब्द 'शील' शब्द से बना है। शील का अर्थ है-स्वभाव। शैली का अर्थ है-व्यवहार। संस्कृत-अंग्रेजी कोश में शैली के अनेक अर्थ किये गये हैं। उनमें पहला है-behaviour व्यवहार। दूसरा है-जीवन का व्यवहार अथवा जीवन की कार्य-प्रणाली (life-style)। जैन गृहस्थ के जीवन का व्यवहार कैसा होना चाहिए? जीवन का तरीका कैसा होना चाहिए? साधना-पद्धति कैसी होनी चाहिए?
प्राचीन समय से जैन गृहस्थ में कुछ संस्कार चल रहे हैं। जैन गृहस्थ मांस नहीं खाता। जैन शराब नहीं पीता। पुराने आचार्यों ने जैन गृहस्थ के लिए सप्त व्यसन के परिहार का अभियान चलाया
१. शराब नहीं पीना २. मांस नहीं खाना ३. जूआ नहीं खेलना
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