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को न तोड़े। साधना में निरन्तरता और दिर्घकालिता- दोनों अपेक्षित हैं ।
दीर्घकाल का अर्थ है - जब तक मंत्र का जागरण न हो जाए, मंत्र वीर्यवान् न बन जाए, मन चैतन्य न हो, जो मंत्र शब्दमय था वह एक ज्योति के रूप में प्रकट न हो जाए, तब तक उसकी साधना चलती रहे ।
जैन दर्शन और विज्ञान
मंत्र स्वयं शक्तिशाली होता है। उसका वर्ण विन्यास, अक्षर-संरचना शक्तिशाली होती है। एक-एक अक्षर इतना शक्तिशाली होता है कि जिसकी कोई कल्पना नहीं की जा सकती। आप इसे दर्शन की गहराइयों में जाकर समझें । वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर ‘अ’ ‘आ' आदि अनन्त पर्यायों से मुक्त होता है । प्रत्येक अक्षर के अनन्त पर्याय हैं । अनन्त अवस्थाएं घटित होती हैं । हम उनकी कल्पना नहीं कर सकते। अक्षर अर्थात् अक्षरणशील । उसका कभी क्षरण नहीं होता । अक्षर तीन हैं- परमात्मा अक्षर है, आत्मा अक्षर है और वर्णमाला का वर्ण अक्षर है । इनका कभी क्षरण नहीं होता ।
आप स्वयं इसका अनुभव करें 'रें' 'रं' को लें । इसका उच्चारण करें। मात्र उच्चारण, मात्र ध्वनि । इसके साथ मंत्र की भावना न भी जोड़ें, इसके साथ अन्तर्ध्वनि को न भी जोड़ें, एकाग्रता को भी न जोड़ें, केवल रं, रं, रं की ध्वनि करते जाएं। कुछ समय बाद आप अनुभव करने लगेंगे कि आपके शरीर में ऊष्मा बढ़ रही है, ताप बढ़ रहा हैं
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'णमो अरिहंताणं' - इस सप्ताक्षरी मंत्र के जाप से कषाय क्षीण होते हैं । 'णमो अरिहंताणं' के जाप की चौंसठ विधियां है। तैजस केन्द्र में इस मंत्र का ध्यान करने से क्रोध उपशांत होता है, क्षीण होता है । आनंद - केन्द्र में इस मंत्र का ध्यान करने से मान, अहंकार क्षीण होता है । विशुद्धि - केन्द्र में इस मंत्र का धान करने से माया क्षीण होती है। तालु - केन्द्र में इसका ध्यान करने से लोभ क्षीण होता है । इस मंत्र के द्वारा सारे कषाय क्षीण होते हैं। मंत्र से उत्पन्न होने वाली ध्वनि तरंगों के द्वारा, मंत्र के साथ घुलने वाली भावना के द्वारा, संकल्प - शक्ति और मंत्र के साथ होने वाली गहन श्रद्धा के द्वारा तथा मंत्र के साथ होने वाले इष्ट के साक्षात्कार के द्वारा कषाय नष्ट होते है ।
मंत्र - शक्ति का यह एक उदाहरण मात्र है ।
मंत्र की आराधना की अनेक निष्पत्तियां है । ये निष्पत्तियां आतंरिक भी हैं और बाह्य भी हैं, मानसिक भी हैं और शारीरिक भी हैं। मंत्र की आराधना से जब मंत्र सिद्ध होने लगता है, तक कुछ निष्पत्तियां हमारे सामने प्रकट होती हैं।
पहली निष्पत्ति है- मन की प्रसन्नता । जैसे-जैसे मंत्र सिद्ध होने लगता है, मन में प्रसन्नता आने लगती है । उस समय न हर्ष, न शौक, न राग, न द्वेष का
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