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________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली २०५ मंत्र जाप का ही एक रूप है। वह आत्मशक्ति, प्राणशक्ति और चैतन्यशक्ति को जगाने का विज्ञान है। इसके दो विभाग हैं-एक भक्ति मार्ग और दूसरा तंत्र-मार्ग। जो लोग श्रद्धावान् और सरल होते हैं उनके लिए भक्ति-मार्ग है। बौद्धिक लोगों के लिए तंत्र का मार्ग है। मंत्रों के द्वारा जैव-रासायनिक परिवर्तन भी संभव है। मंत्र-शक्ति आज कोई अजूबा नहीं रह गई है। पूर्व और पश्चिम में अनेक लोग उस पर अनुसंधान कर रहे हैं। अनेक स्थानों पर मंत्रों के द्वारा शारीरिक चिकित्सा के प्रयोग हो रहे हैं। फिलिपाइन्स में तो बिना ऑपरेशन के केवल ध्वनि तरंगों के द्वारा ही शरीर की चीर-फाड़ की जा रही है। वैज्ञानिक इस खोज में गहराई से लगे हुए हैं कि ऑपरेशनों के लिए औजारों की आवश्यकता न रहे। मंत्र की शक्ति __ मंत्र के तीन तत्त्व हैं-शब्द, संकल्प और साधना। मंत्र का पहला तत्त्व है-शब्द। शब्द मन के भावों का वहन करता है। मन के भाव शब्द के वाहन पर चढ़कर यात्रा करते हैं। कोई विचार-संप्रेषण (टेलिपेथी) का प्रयोग करे, कोई सजेसन या ऑटोसजेसन का प्रयोग करे, उसे सबसे पहले ध्वनि का, शब्द का सहारा लेना पड़ता है। वह व्यक्ति अपने मन में भावों को तेज ध्वनि में उच्चारित करता है। जोर-जोर से बोलता है। ध्वनि की तरंगें तेज गति से प्रवाहित होती हैं। फिर वह उच्चारण को मध्यम करता है, धीरे करता है, मंद करता है। पहले होंठ, दांत, कंठ, सब अधिक सक्रिय थे, वे मंद हो जाते हैं, ध्वनि मंद हो जाती है। होंठों तक आवाज पहुंचती है पर बाहर नहीं निकलती। जब मंत्र की मानसिक क्रिया होती है, मानसिक जप होता है तब न कंठ की क्रिया होती है, न जीभ हिलती है, न होंठ और न दांत हिलते हैं। स्वर-तंत्र का कोई प्रकम्पन नहीं होता। शब्द अपने स्वरूप को छोड़कर प्राण में विलीन हो जाता है, मन में विलीन हो जाता है, तब वह अशब्द बन जाता है। मंत्र का दूसरा तत्त्व है-संकल्प। मंत्र-साधक की संकल्प-शक्ति दृढ़ होनी चाहिए। उसकी श्रद्धा और इच्छाशक्ति गहरी होनी चाहिए। प्रत्येक मंत्र-साधक में यह आत्मविश्वास और संकल्प होना ही चाहिए कि 'मैं अपने अनुष्ठान में अवश्य ही सफल होऊंगा।' मंत्र का तीसरा तत्त्व है-साधना। जब तक मंत्र-साधक आरोहण करते-करते मंत्र को प्राणमय न बना दे, तब तक वह सतत साधना करता रहे। वह निरंतरता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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