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________________ २०७ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली कोई मैल नहीं रहना। इसका दूसरा परिणाम है-चित्त की सन्तुष्टि । पदार्थ की उपलब्धि के बिना भी मन संतोष से इतना भर जाता है कि सारी चाह मिट जाती है, कुछ भी नहीं चाहिए। इसी प्रकार मंत्र की आराधना से स्मृतिशक्ति का विकास होता है, बौद्धिक शक्तियों का विकास होता है और अनुभव की चेतना जागती है। ये मानसिक निष्पत्तियां हैं, जो प्रत्यक्ष अनुभव में आती हैं। __मंत्र की आराधना का शरीर पर प्रभाव होता है। मंत्र की आराधना जैसे-जैसे विकसित होने लगती है, अनायास ही व्यक्ति की आंखों में आंसू उछल पड़ते हैं, शरीर रोमांचित हो जाता है, कंठ गद्गद् हो जाता है, वाणी भारी-सी हो जाती है। ये शारीरिक लक्षण प्रकट होने लगते हैं। स्वास्थ्य का भी परिवर्तन होता है। ___ जाप करने वाला या मंत्र की आराधना करने वाला व्यक्ति क्षय, अरूचि, अग्नि की मंदता आदि-आदि बीमारियों पर नियन्त्रण पा लेता है। मंत्र की आराधना के द्वारा तैजस शरीर को सक्रिय बनाया जाता है। मंत्र की आराधना का सबसे पहला प्रभाव पड़ता है तैजस शरीर पर। जब तक तैजस शरीर तक मंत्र नहीं पहुंचता, तब तक मंत्र सफल नहीं होता। वह मात्र शब्द का पुनरावर्तन बनकर रह जाता है। ___ मंत्र की सफलता का सूत्र है-शब्द को आगे पहुंचाते-पहुंचाते, स्थूल शरीर की सीमाओं को पार कर, तैजस शरीर की सीमा में पहुंचा देना। जब मंत्र तैजस शरीर तक पहुंच जाता है, तब वहां उसकी शक्ति बढ़ जाती है। फिर तैजस शरीर से जो प्राणधारा निकलती है, उससे मंत्र शक्तिशाली बन जाता है। इस स्थिति में शरीर की शक्ति बढ़ जाती है, मन की शक्ति बढ़ जाती है और संकल्प की शक्ति बढ़ जाती है-मन की सारी क्रियाओं की शक्ति बढ़ जाती है। मंत्र की साधना का बहुत बड़ा परिणाम, उपलब्धि या निष्पत्ति है--संकल्प-शक्ति का विकास। मंत्र की आराधना जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, संकल्प-शक्ति का विकास होता चला जाता है। इससे इच्छा-शक्ति बहुत विकसित होती है, प्रबल होती है। इससे एक प्रकार का कवच हमारे चारों ओर बन जाता है। तब बाहर का आक्रमण, बाहर का संक्रमण, बाहर का कुप्रभाव उस कवच को भेदकर व्यक्ति की चेतना तक नहीं पहुंच पाता। वह बाहर ही रह जाता है। आभामण्डल, लेश्याओं का घेरा और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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