________________
जैन दर्शन और परामनोविज्ञान
१२३ के आधार पर की जाती है। उसके आन्तरिक आयाम की व्याख्या सूक्ष्म और सूक्ष्मतर शरीर, प्राण-शक्ति, प्रज्ञा (अतीन्द्रिय चेतना) और अमूर्छा के आधार पर की जा सकती है। बाहरी व्यक्तित्व से हमारा घनिष्ट सम्बन्ध है। उसमें बुद्धि का स्थान सर्वोपरि है, इसलिए वह हमारे चितंन की सीमा बन गयी। उससे परे पराविद्या की भूमिका है। पराविद्या का पहला चरण है बुद्धि की सीमा का अतिक्रमण। जैसे ही प्रज्ञा का जागरण होता है, बुद्धि की सीमा अतिक्रांत हो जाती है। इन्द्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है। बाहरी व्यक्तित्व इस सीमा से आगे नहीं जा सकता। इस सीमा को पार करते ही मनुष्य का आन्तरिक व्यक्तित्व उजागर हो जाता है। वहां प्राण-शक्ति प्रखर होती है और चेतना सूक्ष्म । बुद्धि की सीमा में पदार्थ के प्रति मूर्छा का न होना सम्भव नहीं माना जाता किन्तु प्रज्ञा की सीमा में समता का भाव निर्मित होता है और अमूर्छा संभव बन जाती है। पराविद्या के क्षेत्र में प्राण-ऊर्जा और अतीन्द्रिय चेतना का अध्ययन किया गया है किन्तु अमूर्छा या वीतरागता उसके अध्ययन का विषय अभी नहीं बन पाया है। यह परामनोविज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण शाखा हो सकती है।
अमर्जा का विधायक अर्थ है-समता। उसका विकास होने पर अतीन्द्रिय चेतना अपने आप विकसित होती है। परामनोविज्ञान के क्षेत्र में काम करने वाले लोग केवल अतीन्द्रिय चेतना के विकास की खोज में लगे हुए हैं। यह खोज बहुत लम्बी हो सकती है और अनास्था भी उत्पन्न कर सकती है।
अतीन्द्रिय चेतना की स्पष्टता के लिए शरीरगत चैतन्य-केन्द्रों को निर्मल बनाना होता है। संयम और चरित्र की साधना जितनी पुष्ट होती है, उतनी ही उनकी निर्मलता बढ़ती जाती है.। चैतन्य-केन्द्रों को निर्मल बनाने का सबसे सशक्त साधन है ध्यान । अतीन्द्रियज्ञान के धुंधले रूप चरित्र के विकास के बिना भी संभव हो सकते हैं किन्तु अतीन्द्रिय चेतना के विकास के साथ चरित्र के विकास का गहरा सम्बन्ध है। यहां चरित्र का अर्थ समता है, राग-द्वेष या प्रियता-अप्रियता के भाव से मुक्त होना है। उसकी अभ्यास पद्धति प्रेक्षा-ध्यान हैं। भावतंत्र का परिष्कार
अग्रमस्तिष्क (फ्रंटल लॉब) कषय या विषमता के केन्द्र है। अतीन्द्रिय चेतना का केन्द्र भी वही है। जैसे-जैसे विषमता समता में रूपान्तरित होती है वैसे-वैसे अतीन्द्रिय चेतना विकसित होती चली जाती है। उसका सामान्य बिन्दु प्रत्येक प्राणी में विकसित होता है। उसका विशिष्ट विकास समता के विकास के साथ ही होता है। मनुष्य के आवेगों और आवेशों पर हाइपोथेलेमस का नियंत्रण है। उससे पिनियल और पिच्यूटरी ग्लैण्ड्स प्रभावित होते है। उनका स्राव एड्रीनल ग्लैण्ड को प्रभावित करता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org