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________________ १२४ जैन दर्शन और विज्ञान है। वहां आवेश प्रकट होते है। ये आवेग अतीन्द्रिय चेतना को निष्क्रिय बना देते हैं। उसी सक्रियता के लिए हाइपोथेलेमस और पूरे ग्रन्थितंत्र को प्रभावित करना आवश्यक होता है। ग्रन्थितंत्र का सम्बन्ध मनुष्य के भावपक्ष से है। भावपक्ष का सृजन इस स्थूल-शरीर से नहीं होता। उसका सृजन सूक्ष्म और सूक्ष्मतर शरीर से होता है। सूक्ष्म शरीर से आगे वाले प्रतिबिम्ब और प्रकंपन हाइपोथेलेमस के द्वारा ग्रन्थितंत्र में उतरते है। जैसा भाव होता है, वैसा ही ग्रन्थियां का स्राव होता है और स्राव के अनुरूप ही मनुष्य का व्यवहार और आचरण बनता है। यह कहने में कोई जटिलता नहीं लगती कि मनुष्य के व्यवहार और आचरण का नियंत्रण ग्रन्थितंत्र करता है और ग्रंथितंत्र का नियंत्रण हाइपोथेलेमस के माध्यम से भावतंत्र करता है और भावतंत्र सूक्ष्म-शरीर के स्तर पर सूक्ष्म-चेतना के साथ जन्म लेता है। स्मृति, कल्पना और चिन्तन की पवित्रता से भावतंत्र प्रभावित होता है और उससे ग्रन्थितंत्र का स्राव बदल जाता है। उस रासायनिक परिवर्तन के साथ मनुष्य का व्यवहार और आचरण भी बदल जाता है। यह परिवर्तन मनुष्य की अतीन्द्रिय चेतना को सक्रिय में बहुत उपयोग करता है। (३) अतीन्द्रियं शक्ति-योगज उपलब्धियां एवं मन:प्रभाव जैन दर्शन का दृष्टिकोण ऋद्धि और लब्धि ध्यान, तप और भावना ये तीनों शक्ति के स्रोत हैं। इनके द्वारा वीतरागता उपलब्ध होती है, चैतन्य का शुद्ध स्वरूप उपलब्ध होता है, मोक्ष उपलब्ध होता है। इनकी धारा जिस दिशा में प्रवाहित होती है वही दिशा उदघाटित हो जाती है। इनसे साधक को अनेक प्रकार की ऋद्धियों या लब्धियां भी प्राप्त होती हैं। ये सामान्य व्यक्ति में नहीं होती , इसलिए इन्हें अलौकिक या लोकोत्तर कहा जाता है। कुछ लोग इन्हें चमत्कार मानते हैं। पूर्वाभास, दूरबोध, वस्तुओं का इच्छाशक्ति से निर्माण और परिचालन, स्पर्श से भयानक बीमारियों को मिटाना-ये सब चमत्कार जैसे लगते हैं। चमत्कार का खंडन करने वालों का कहना है कि ये बातें नहीं हो सकतीं। ये प्राकृतिक नियमों के विरूद्ध हैं। जिन लोगों ने ध्यान के क्षेत्र में अभ्यास किया है वे लोग इस चमत्कारवाद को स्वीकार नहीं करते । उनका अभिमत है कि ये सब चमत्कार नहीं है। ये सारी घटनाएं प्राकृतिक नियमों के आधार पर ही घटित होती है। जिन लोगों ने इन विषयों में प्राकृतिक नियमों का ज्ञान नहीं है वे ही इन्हें चमत्कार कह सकते है। ध्यान की परंपरा हजारों वर्ष पुरानी है। ध्यान के आचार्यों ने अनेक प्राकृतिक नियमों की खोज की है। जो कुछ घाटेत होता है वह प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन नहीं है, किन्तु प्रकृति के सूक्ष्म नियमों का अवबोध है। रेडियो-तरंगों के संचार-क्रम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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