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________________ १९८ जैन दर्शन और विज्ञान कहना आवश्यक है, पर उसे कठोर बनाकर कहना भाषा - विवेक का खंडन है । इसीलिए कहा गया है कि-सत्यं ब्रू यात् प्रियं ब्रू यात् मा ब्रू यात् सत्यम- प्रियं । सत्य बोलो पर ऐसा सत्य बोलो जो प्रिय हो । अप्रिय सत्य मत बोलो । कभी-कभी ऐसा भी क्षण आता है कि कठोर सत्य को भी प्रकट करना पड़ता है । पर यह आदत नहीं होनी चाहिए। कठोर सत्य को कहने की भी साधक की तैयारी होनी चाहिए। पर उसके लिए उसे अपने मन को अत्यंत मृदु बनाना होगा । मृदु मन के द्वारा निकला हुआ कटु सत्य थोड़ी देर के लिए कटु महसूस हो सकता है । पर अन्तत: वह मृदुता में परिणत होता ही है । कटुता और स्पष्टता बहुत सारे लोग इतने व्यावहारिक होते हैं कि कटु सत्य को व्यक्त करने की हिम्मत ही नहीं करते । यह साधना नहीं, कायरता है। इससे भलाई की नहीं अपितु बुराई की जड़ें मजबूत होती हैं, जो लोग अपने साथियों से कटु सत्य कहने में केवल इसलिए डरते हैं कि हमसे नाराज हो जायेंगे, वे अपने साथियों के हितेच्छु नहीं, दुश्मन हैं। साधक वह हो सकता है जो समय पर कटु सत्य को प्रकट करने का भी साहस रखता है । वे हां में हां नहीं मिला सकते। फिर भी उनसे यह अपेक्षा तो है ही कि वे पत्थरवाज होने से बचें। जो लोग सत्यवादिता के नाम पर पत्थरफेंक बात करते हैं वे अनजाने में ही दूसरे लोगों को तो पीड़ादायक होते ही हैं, अपने लिए भी स्वयं शत्रुओं की सेना खड़ी कर लेते हैं । वास्तव में स्पष्टवादिता के लिए आदमी को पात्र होना भी आवश्यक है। यह कभी संभव नहीं है कि सबको एक घाट पानी पिलाया जाये । वह स्पष्टवादिता ही कारगार हो सकती है जो सामने वाले व्यक्ति के दिल को ठेस नहीं पहुंचाये। साथ ही साथ सत्य कहने वाले व्यक्ति के लिए भी यह आवश्यक है कि वह निश्च्छिद्र हो । शब्द और भावना भाषा - विवेक भावना को तो आदर करता ही है, पर वह शब्द को भी अहिंसा का जामा पहनाता है । वास्तव में भाषा एक अहिंसक शिल्प है । जो भाषा - विवेक को नहीं जानता, वह अहिंसा को भी नहीं जानता। जो अहिंसा को नहीं समझता, वह साधना को भी नहीं समझ सकता । इसीलिए भाषा साधना के साथ बहुत गहरे अर्थों में जुड़ी हुई हैं । एक इस्लामी कहावत है कि मुंह से निकलने वाले हर शब्द को तीन फाटकों से होकर आना चाहिए। पहले फाटक पर दरबान पूछे - क्या यह सत्य है ? दूसरे फाटक पर पूछे - क्या यह आवश्यक है ? और तीसरे फाटक पर पूछा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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