SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १९७ 1 अर्थात् हैं'। दूसरा कहता है - नास्ति अर्थात ' नहीं है।' दोनों की दो दिशाएं हैं। विवाद की स्थिति आ जाती है। महावीर ने कहा- जो कहता है अस्ति, वह भी सही नहीं है और जो कहता है नास्ति, वह भी सही नहीं है। दोनों गलत हैं। दोनों सही तब हो सकते हैं जब दोनों अपने-अपने कथन के साथ अपेक्षा जोड़ देते हैं । और कहते हैं कि इस दृष्टि से, इस अपेक्षा से यह है और इस अपेक्षा से यह नहीं है - स्यादस्ति, स्यान्नास्ति । जब स्यादस्ति कहने से भी काम नहीं चलता और स्यान्नस्ति कहने से भी काम नहीं चलता तब स्याद् अवक्तव्य कहना होता है। यह मानकर चलो कि सत्य नहीं कहा जा सकता, संपूर्ण सत्य कहा नहीं जा सकता । सत्य की प्रकृति, स्वभाव ही ऐसा है कि वह कहा नहीं जा सकता। हम जो कहते हैं वह सत्य का एक अंशमात्र होता है । हम अंशमात्र का कथन करके पूरे सत्य के प्रति शायद अन्याय ही करते हैं, एक दृष्टि से । इस बात को मानकर ही तुम कहो कि पूरा सत्य कहा नहीं जा सकता । 1 आज के पेरासाइकोलॉजिस्ट टेलीपैथी का प्रयोग करते हैं। टेलीपैथी का अर्थ है - विचार - संप्रेषण । इसके लिए मानसिक क्षमता के विकास की जरूरत होती थी । साधक मानसिक क्षमता को बढ़ाने का प्रयत्न करते थे । हमने बोलने की बहुत आ डालकर मानसिक क्षमता को कमजोर किया है, गंवाया है। यदि हम न बोलकर अपनी मानसिक क्षमता को विकसित करें तो ऐसा भी हो सकता है कि बिना कहे भी बात समझ में आ सकती है । 'गुरोस्तु मौनव्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशया:'- जिस गुरु की आत्म-शक्ति प्रबल होती है, वह मौन बैठता है। शिष्य आते हैं, नाना प्रकार के संदेह लेकर। गुरु के पास बैठते हैं, गुरु की सन्निधि प्राप्त करते हैं। उनके सारे संशय नष्ट हो जाते हैं, उनका समाधान हो जाता है। क्योंकि वहां मन भाषा चल रही है । मन अपना काम करता हैं, संदेह मिट जाता है । भाषा - विवेक के सूत्र एक बात के कर्कश शब्दों में कहा जा सकता है, उसे ही सरस तरीके से कहा जा सकता है । कर्कशता भाषा की फूहड़ता है, सरसता एक साधना है। फर्क तथ्य का नहीं, कथ्य का है 1 मन में यदि कर्कशता नहीं है तो भाषा में कर्कशता नही आ सकती । मन ही यदि कर्कश है तो भाषा कर्कश होने से नहीं बच सकती। इसीलिए साधक को बोलते समय इस बात का ख्याल रखना आवश्यक है कि वह कर्कश न बोले । कर्कश की तरह ही भाषा प्रयोग का एक अन्य रूप है कठोर । सत्य १. देखें, इसी पुस्तक का तीसरा अध्याय, पृ. १२६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy