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________________ १९६ जैन दर्शन और विज्ञान परमाणुओं में इतनी शक्ति आ जाती है कि प्राकृतिक घटना को वैसे ही घटना पड़ता है। एक व्यक्ति में सत्य का, ब्रह्मचर्य का इतना बल होता है कि प्रकृति भी उससे प्रभावित होती है-बादल होते हैं तो बिखर जाते हैं और नहीं हों तो बन जाते हैं। और भी न जाने क्या-क्या घटित हो जाता है। सत्य की शक्ति असीम है। जिन व्यक्तियों ने सत्य की निष्ठा बनाए रखी, वे विलम्ब से भले ही हो, आगे बढ़े हैं। यदि सत्य के प्रति अटूट निष्ठा होती है तो उसका अच्छा परिणाम अवश्य आता है। यदि वास्तव में सत्य का प्रयोग हो तो वाणी में भी अपार शक्ति आ जाती है। इससे वचनसिद्धि होती है। मौन की शक्ति हम बोलने से परिचित हैं। बोलने का क्या मूल्य है-इसे भलीभांति जानते है। हमारा सारा व्यवहार बोलने से चलता है। किन्तु न बोलने का भी अपना मूल्य है। जितना बोलने का मूल्य है उतना ही न बोलने का मूल्य है और एक अवस्था में शायद बोलने का मूल्य अधिक है। उसे मूल्य हो हमें समझना है। जितना भाषा का प्रयोग अधिक होगा, हम अधिक बोलेंगे तो हमारे अन्तर्ज्ञान में बाधा आएगी। चंचलता बाधा उत्पन्न करती है। भाषा का पहला काम है चंचलता उत्पन्न करना। बोलने से पहले चंचलता और बोलने के बाद चंचलता। जब हम बोलते हैं तो सबसे पहले मन को चंचल करना पड़ता है। यह सारा चंचलता का व्यवहार है। यह व्यवहार अन्तर्ज्ञान में बाधा उपस्थित करता है। ___ मौन का एक परिणाम हैं-निर्विचारता। जब हम मौन कर लेते हैं तब निर्विचारता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। __नहीं बोलने का दूसरा मूल्य है-विवाद-मुक्ति । मौन हो जाओ, विवाद अपने आप समाप्त हो जाएंगे। 'अतृणे पतितो वहिः, स्वयमेव विनश्यति'-आग जल रही है। उसे खाने के लिए घास नहीं मिली, भोजन नहीं मिला, तो वह स्वयं बुझ जाएगी, जलेगी नहीं। एक बोलता है और दूसरा यदि मौन हो जाता है, जो आग को घास नहीं मिलती, वह अपने आप शांत हो जाती है, बुझ जाती है। मौन का तीसरा लाभ है-अहं-मुक्ति। नहीं बोलने से अहंकार समाप्त हो जाता है। बोलने से अहंकार बढ़ता है। भगवान् महावीर ने इसीलिए कहा-न चित्ता तायए भासा, कओ विज्जाणुसासणं-भाषा हमें त्राण नही देती। नहीं बोलने का एक बहुत बड़ा मूल्य है-सत्य की सुरक्षा। अवक्तव्य, अनिर्वचनीय, अव्याकृत-ो शब्द सत्य की सुरक्षा करते हैं। एक कहता है-अस्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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