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________________ १५१ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली का यह विवेक मनुष्य का अपना होता है। जो व्यक्ति यह विवेक नहीं कर सकता, वह साधना के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकता। . महात्मा गांधी ने अपनी स्वास्थ्य साधना' नाम की छोटी-सी, पर महत्त्वपूर्ण पुस्तक में लिखा है-“पशु-पक्षियों का जीवन देखिए । वे कभी स्वाद के लिए नहीं खाते और न इतना अधिक ही खाते हैं कि पेट फटने लगे। वे केवल अपनी भूख मिटाने भर ही खाते हैं, जो कि उन्हें प्राकृतिक रूप से मिल जाता है। वे कुछ भी नहीं पकाते। क्या यह अच्छी बात है कि मनुष्य केवल पेट की उपासना करें? क्या यह अच्छी बात है कि मनुष्य सदा रोगों का शिकार बनता रहे? वास्तव में यदि मनुष्य भी प्रकृति-प्रदत्त वस्तुओं को उसी रूप में खाये, भूख से अधिक न खाये, स्वाद के लिए न खाये, तो वह भी पशु-पक्षियों की तरह रोग-मुक्त रह सकता है।" अतिभोजन से आंत श्लथ हो जाती है। वह मल को आगे नहीं ढकेल पाती। इस प्रकार कोष्ठबद्धता हो जाती है। उससे चिन्तन में कुंठा आती है। प्रसन्नता के लिए यह अनिवार्य है कि मल-संचय न हो। दो दिन तक खाना न खाया जाये तो भी आंतों को पचाने के लिए शेष रह जाता है। पर मल का उत्सर्ग न हो तो एक दिन में बेचैनी हो जाती है। आंतों में मल भरा रहने से अपान वायु का द्वार रूद्ध हो जाता है। फिर वह ऊपर जाती है और हृदय को धक्का लगाती है। जिसे हम सामान्यत: हृदय-रोग समझते हैं, वह बहुत बार यही होता है। अपने शरीर के तापमान से अधिक ठंडा और अधिक गर्म भोजन भी हानिप्रद होता है। उससे आंत और दांत दोनों विकृत होते हैं। भोजन का संबंध आवश्यकता पूर्ति से है पर उसका संबंध जब स्वाद से हो जाता है, तब मर्यादा का अतिक्रम और विपर्यय होने लगता है। अध्यशन-वर्जन अध्यशन आहार का एक दोष है। पहले खाया हुआ पचा नहीं, उसी बीच और खाना अध्यशन है। संभव हो तो पांच घंटे, कम से कम तीन घंटे पहले, दूसरी बार अन्न न खाया जाए। यह सामान्य मर्यादा रही है। कुछ हल्के भोजन जल्दी पच जाते हैं, पर अन्न तीन घंटे पहले नहीं पचता। पचने से पूर्व खाने से घोल कच्चा ही रह जाता है। प्राचीन काल में भोजन दो बार किया जाता था, कभी-कभी तीन बार भी। किन्तु आजकल इस सिद्धांत में परिवर्तन आ गया है। कई डाक्टर थोड़ा-थोड़ा बार-बार खाने को कहते है। उनका आशय संभवत: हल्के भोजन से है। अल्सर जैसे शरीर रोग में बार-बार खाया जाता है। आंध्रप्रदेश कृषि विश्वविद्यालय के डॉ. प्रो. सूर्यनारायण ने कहा है-“यह बात बिलकुल सही है कि जिस व्यक्ति को अपने आपको स्वस्थ बनाये रखने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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