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जैन दर्शन और विज्ञान
केन्द्रों पर कार्य हो रहा है। डॉ. अनोखिन का मत है कि चिकित्सा क्षेत्र में उपवास से बड़ी सम्भावनाएं है। वे इस दिशा में और अधिक काम करने की अपेक्षा मानते हैं ।
भगवान् महावीर ने एक दिन के उपवास से लेकर छह महीने तक के उपवास को 'अनशन' की संज्ञा दी है। 'अनशन' शब्द आजकल भूख हड़ताल के चक्कर में पड़कर कुछ अवमत हो गया है। महावीर इसके सर्वथा विरुद्ध है । वे शरीर की शुद्धि के लिए भी उपवास की उपयोगिता को सीमित करना नहीं चाहते । उनका लक्ष्य तो उससे बहुत ऊपर है । वे तो केवल आत्मदर्शन के लिए ही उपवास का समर्थन करते हैं। उन्होंने स्वयं दो दिन से लेकर छह महीने तक के लम्बे उपवास किये । वे उपवास - काल में अपना अधिक समय आत्म- - चिन्तन में या धयान में ही बिताते थे । यद्यपि उन्होंने स्वयं तो अपनी तपस्या बिना पानी चौविहार ही की है, पर उनकी तपोयात्रा में पानी पीकर भी तपस्या करने का विधान है। इस अवस्था में केवल गर्म पानी का ही उपयोग अधिक किया जाता है। गर्म पानी को कीटाणुरहित भी माना गया है ।
भोजन में कमी करना ( ऊनोदरी तप) एवं अस्वादद-वृत्ति (वृत्ति - संक्षेप तप )
यदि कोई उपवास न कर सके, मो उसके लिए अन्य तपों का विधान किया गया है, जिनमें ऊनोदरी और वृत्तिसंक्षेप उल्लेखनीय हैं। ऊनोदरी का तात्पर्य है- भोजन में कमी करना, भूख से अधिक न खाना। भूख हो उससे एक-दो ग्रास भी कम करना ऊनोदरी है। खाद्य पदार्थों (द्रव्यों) की संख्या में कमी करना भी ऊनोदरी है। जैसे-५ या ७ पदार्थों से अधिक न खाना। अधिक 'द्रव्य' खाने का बुरा प्रभाव पाचन-क्रिया पर पड़ता है। दिन में बार-बार न खाना भी ऊनोदरी का एक प्रकार है । एक, दो या तीन बार से अधिक न खाना, दो बार के भोजन में भी बीच में तीन घण्टे का अन्तराल होना आदि भी ऊनोदरी के प्रयोग हैं।
वृत्ति-संक्षेप का अर्थ है - ऐसे विशेष संकल्प स्वीकार करना जिससे अस्वाद- द-वृत्ति का विकास हो । जो कुछ सहजभाव से मिल जाये उसे खाते समय स्वाद - भावना से मुक्त रहना वृत्ति-संक्षेप है। संकल्प का स्वीकार 'अभिग्रह' कहलाता है।
आधुनिक शरीरशास्त्र की दृष्टि से सामान्य रूप से स्वस्थ और साधारण श्रम करने वाले व्यक्ति को दिन भर में २५०० कैलोरी ताप उत्पन्न करने वाले भोजन की आवश्यकता होती है। महावीर ने उसे ३२ ग्रास की संज्ञा दी है। व्यक्ति की क्षमता के अनुसार उन्होंने इसमें कभी-बेसी का भी विधान किया है । पर मात्रा
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