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जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा
२३३ दृष्टि पर्यायार्थिक दृष्टि या पर्यायार्थिक नय है। दो ही तत्त्व प्रत्येक दर्शन के सामने हैं-नित्य और अनित्य, शाश्वत और अशाश्वत। जैन दर्शन शाश्वतवादी नहीं है। शाश्वतवादी को कुछ करने की जरूरत नहीं होती। साधना का विधान बनाने की जरूरत नहीं होती। आत्मा शाश्वत है, नित्य है, जैसा है वैसा रहेगा तो साधना की कोई आवश्यकता नहीं है। व्यक्ति साधना किसलिए करे? यदि आत्मा में परिवर्तन नहीं होता है तो साधना व्यर्थ है। यदि परिवर्तन होता है तो शाश्वतता का सिद्धांत खंडित हो जाता है। दोनों ओर से विरोध प्रस्तुत हो जाता है। एकांगी दृष्टिकोण में दोनों ओर से समस्या आती है। तर्क जैन आचार्यों का
जैनाचार्यों ने एक तर्क प्रस्तुत कियानैकांतवादे सुखदुःखभोगो न पुण्य-पापे न च बंधमोक्षौ।
एकांतवाद में सुख और दुःख का भोग नहीं हो सकता, बंध और मोक्ष नहीं हो सकता, पुण्य और पाप नहीं हो सकता। अगर आत्मा बदलता नहीं है तो यह नहीं माना जा सकता कि वह पहले दु:खी था और अब सुखी बन गया। पहले दु:खी था और अब सुखी बन गया। इसका अर्थ है कि आत्मा पहले एक अवस्था में था और अब दूसरी अवस्था में आ गया, परिवर्तन हो गया। अगर आत्मा परिवर्तित नहीं होता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि पहले दु:खी था, बाद में सुखी बन गया। पहले सुखी और बाद में दु:खी, यह स्थिति परिवर्तनशील पदार्थ में ही घटित हो सकती है। इसीलिए जैन दर्शन ने आत्मा को न सर्वथा शाश्वत माना और न सर्वथा अशाश्वत माना। आत्मा शाश्वत भी है और आत्मा अशाश्वत भी है। आत्मा शाश्वत है, इसलिए अनादिकाल से उसका अस्तित्व बना रहता है। आत्मा अशाश्वत है, इसलिए उसका अस्तित्व नाना पर्यायों में परिवर्तित होता रहता है। वह कभी सुखी बनता है और कभी दु:खी बनता है। वह कभी मनुष्य बनता है और कभी पशु बनता है।
___ यदि आत्मा शाश्वत ही है तो पुण्य और पाप की व्यवस्था घटित नहीं हो सकती। यदि शाश्वत ही है तो मानना होगा कि सारे संसार की हत्या करके भी आत्मा उसमें लिप्त नहीं हो सकता। क्योंकि वह शाश्वत है, जैसा है, वैसा ही रहता है, उसमें एक राई का भी फर्क नहीं पड़ता। इस स्थिति में न पुण्य की बात हो सकती है और न पाप की। व्यक्ति कुछ भी करे, न पुण्य होगा और न पाप होगा। यदि आत्मा शाश्वत है तो बंध किसका और मोक्ष किसका? ये सारे परिवर्तनशील पदार्थों में ही घटित हो सकते हैं।
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