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________________ जैन दर्शन और विज्ञान जैन आचार्यों ने इस समस्या पर विचार किया । उन्हें लगा- दोनों दृष्टियां ठीक नहीं हैं। दोनों में कमियां हैं । ज्ञेय पदार्थ दो हैं- द्रव्य और पर्याय । इनके सिवाय जानने का कोई विषय ही नहीं है । सारा ज्ञेय विषय इन दो भागों में ही विभक्त होता है। विषय दो हैं तो जानने की दृष्टियां भी दो ही होंगी। द्रव्य को जानने वाली दृष्टि द्रव्यार्थिक नय है और पर्याय को जानने वाली दृष्टि पर्यायार्थिक नय है । अनेकांत और सम्यक् दर्शन २३२ प्रश्न होता है—सम्यक् दर्शन क्या है? द्रव्य को जानने वाली दृष्टि द्रव्य में अटक जाती है तो वह मिथ्या दर्शन है और पर्याय को जानने वाली दृष्टि पर्याय में अटक जाती है तो वह भी मिथ्या दर्शन है । द्रव्य को जानने वाली दृष्टि द्रव्य का प्रतिपादन करती है किन्तु पर्याय को अस्वीकार नहीं करती और पर्याय को जानने वाली दृष्टि पर्याय का प्रतिपादन करती है किन्तु द्रव्य को अस्वीकार नहीं करती। दोनों दृष्टियां परस्पर सापेक्ष हो जाती हैं। इसका नाम है सम्यक् दर्शन । निरपेक्ष दृष्टि मिथ्या दर्शन और सापेक्ष दृष्टि सम्यक् दर्शन । अनेकांत और सम्यक् दर्शन - दोनों समान अर्थ वाले बन जाते हैं । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक- दोनों दृष्टियां अलग-अलग होती हैं तो एकांतवाद होता है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक- दोनों दृष्टियां सापेक्ष होती हैं, संयुक्त हो जाती हैं तो अनेकांतवाद प्रस्तुत हो जाता है। दोनों दृष्टियों का अलग होना मिथ्या दर्शन है और दोनों दृष्टियों का संयुक्त होना सम्यक् दर्शन है I अनेकांत के निष्कर्ष जैन दर्शन ने द्रव्य और पर्याय की व्याख्या अनेकांत के आधार पर की। इसलिए जैन दर्शन न द्रव्यवादी है और न पर्यायवादी है । वह द्रव्य को भी स्वीकार करता है और पर्याय को भी स्वीकार करता है । इसी आधार पर जैन दर्शन के सन्दर्भ में कहा गया- वह न नित्यवादी है और न अनित्यवादी है किन्तु नित्यानित्यवादी है। वह न सामान्यवादी है और न विशेषवादी है किन्तु सामान्यविशेषवादी है। न कवादी है और न अनेकवादी है, किन्तु एकानेकवादी है। वह न अस्तिवादी है और न नास्तिवादी है, किन्तु अस्तिनास्तिवादी है । ये सारे निष्कर्ष अनेकांत के आधार पर फलित हुए हैं। 1 शाश्वतवाद की समस्या मूल दृष्टियां दो हैं- द्रव्यनय और पर्यायनय । जितना नित्यता का अंश है, जितना शाश्वत है, उसका प्रतिपादन करने वाली दृष्टि द्रव्य दृष्टि है, द्रव्यार्थिक दृष्टि है । जितना परिवर्तन का अंश है; जितना अनित्य है, उसका प्रतिपादन करने वाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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