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________________ २३४ जैन दर्शन और विज्ञान जैन दर्शन की भाषा जैन दर्शन के अनुसार जैसी एक आत्मा है, वैसा ही एक परमाणु है। बहुत बार कहा जाता है-आत्मा अमर है, शरीर मरता है, यह जैन दर्शन की भाषा नहीं है। आत्मा अमर है, यह सर्वथा सही नहीं है। एक परमाणु भी अमर है। कोई फर्क नहीं है। अगर परमाणु मरता है, शरीर मरता है तो आत्मा भी मरता है। प्रश्न होता है-शरीर क्या है? शरीर मूल द्रव्य नहीं है। शरीर एक पर्याय है। मूल द्रव्य है परमाणु। शरीर नहीं रहा, हम कहते हैं-अमुक व्यक्ति मर गया। वस्तुत: नष्ट कुछ भी नहीं हुआ। केवल रूपान्तरण हुआ। जो परमाणु शरीर में थे, वे शरीर के रूप में समाप्त हो गये और दूसरे रूप में बदल गए । एक सार्वभौम सिद्धांत है-जितने द्रव्य इस संसार में हैं, उतने ही हैं, उतने ही थे और उतने ही रहेंगे। एक भी परमाणु न अधिक होगा और न न्यून होगा। कुछ भी परिवर्तन नहीं होगा। परिवर्तन का सिद्धांत अपरिवर्तन के सिद्धांत से जुड़ा हुआ है। समस्या है-जो केवल द्रव्यार्थिक नय को मानकर चलते हैं, वे कभी परिवर्तन की व्याख्या नहीं कर सकते और जो केवल परिवर्तन को मानकर चलते हैं, वे मूल स्रोत की व्याख्या नहीं कर सकते। समन्वय की मौलिक दृष्टियां बौद्ध दर्शन पर्यायवाची दर्शन है। जब उसके सामने आत्मा आदि के प्रश्न आए तो उन्हें अव्याकृत कहकर टाल दिया गया। क्योंकि एकांतवाद के द्वारा उनकी सम्यक् व्याख्या हो नहीं सकती। जैन दर्शन ने इन दोनों दृष्टियों-द्रव्यार्थिक दृष्टि और पर्यायार्थिक दृष्टि का समन्वय किया। जैन दर्शन ने कहा-मूल तत्त्व भी है और पर्याय भी है। इसलिए उसने द्रव्य की व्याख्या भी की और पर्याय की व्याख्या भी की। उसने शाश्वत और अशाश्वत-दोनों का समन्वय साधा। आज के विचारक और विद्वान कहते हैं-जैन दर्शन मौलिक दर्शन नहीं है। यह दूसरे दर्शनों का समुच्चय है। दूसरे दर्शनों के विचारों का एक पुलिन्दा है। यह धारणा क्यों बनी? इसका आधार बना-जैन आचार्यों की समन्वय-दृष्टि । जैन आचार्यों ने समन्वय किया नयों के आधार पर। यह उनका समन्वयपरक दृष्टिकोण था। समन्वय का दृष्टिकोण जिन दृष्टियों से किया, वे उनकी अपनी मौलिक थीं। किन्तु जब समन्वय साधा तो दूसरों को लगा-सांख्य आत्मा को कूटस्थ नित्य मानता है। नित्यवादवेदांत का सिद्धांत भी है। अनित्यवाद बौद्धों का सिद्धांत है। जैनों ने नित्यवाद सांख्य और वेदांत से ले लिया और अनित्यवाद-पर्यायवाद बौद्धों से ले लिया। पर यह लेने का प्रश्न नहीं था। यह प्रश्न था समन्वय का। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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