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________________ २३५ जैन दर्शन और विज्ञान : सत्य की मीमांसा परिवर्तन : अपरिवर्तन _आचार्य सिद्धसेन ने लिखा-द्रव्यार्थिक नय बिलकुल सही है। यदि द्रव्यार्थिक नय बिलकुल सही है तो सांख्य का कूटस्थ नित्य भी बिलकुल सही है। पर्यायार्थिक नय बिलकुल सही है और यदि पर्यायार्थिक नय सही है तो बौद्ध का क्षणभंगुरवाद बिलकुल सही है। यदि एकांत नित्यवाद निरपेक्ष है और वह कहता है-केवल कूटस्थ नित्य ही सही है, परिवर्तन सही नहीं है, तो वह सम्यक नहीं है। यदि एकांत अनित्यवाद निरपेक्ष है और वह कहता है केवल परिवर्तन ही सम्यक् है, अपरिवर्तन सही नहीं है, तो वह भी सम्यक् नहीं है। परिवर्तन और अपरिवर्तन-दोनों का समन्वय करो, दोनों को एक साथ जोड़ दो तो दोनों सही हो जाएंगे। वैराग्य का आधार : परिवर्तनवाद वस्तु को देखने का यह दृष्टिकोण अनेकांत की अपनी मौलिकता है। हम द्रव्य को किस दृष्टि से देखें। एक मकान है। हम उसे किस दृष्टि से देखें। हम सोचें-मकान द्रव्य है या पर्याय। हमारा दृष्टिकोण यह होना चाहिए-मकान एक पर्याय है, हम जो कपड़ा पहने हुए हैं, वह एक पर्याय है। जो पर्याय होता है, वह परिवर्तनशील होता है। वैराग्य का विकास परिवर्तनवाद के आधार पर होता है। वैराग्य के विकास का बहुत बड़ा आधार बनता है पर्यायवाद। अभी एक कपड़ा साफ-सुथरा और बढ़िया लग रहा था किन्तु थोड़ी ही देर बाद वह मैला हो जाएगा। कुछ दिनों के बाद वह फट जाएगा और कुछ समय बाद वह समाप्त हो जाएगा। वह क्षणभंगुर है। शरीर की भी यही अवस्था है। हर पदार्थ की यही अवस्था है। एक पदार्थ अभी बहुत अच्छा है किन्तु कुछ ही समय के बाद वह बदल जाएगा, बिगड़ जाएगा। इस परिवर्तनवाद के आधार पर वैराग्य का विकास हुआ। शाश्वतवाद के आधार पर वैराग्य जैसी कोई चीज बनती ही नहीं है। जो शाश्वत है, जैसा है, वैसा ही रहेगा, इसमें क्या राग होगा और क्या विराग होगा? राग और विराग-दोनों परिवर्तनवाद के आधार पर बनते हैं। पर्याय कहां से आता है पर्यायार्थिक नय हमारे सामने स्पष्ट है। प्रश्न उपस्थित किया गया-पर्याय कहां से आता है? एक मनुष्य है। प्रश्न होता है-क्या वह मनुष्य ही है। वह मनुष्य से पहले भी कुछ है, उसके बाद भी कुछ है? इस खोज में चलें तो हम द्रव्य तक पहुंचेंगे। जो कपड़ा अभी है, क्या वह पहले भी था, बाद में भी होगा? इस खोज में चलें तो हम परमाणु तक पहुंचेंगे। यह मूल द्रव्य की खोज है, सूक्ष्मतम तत्त्व की खोज है। पर्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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