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जैन दर्शन और विज्ञान में पुद्गल
३११ ही उचित है।
अन्य-विश्व में जो कुछ भी छूने, चखने, सूंघने, देखने और सुनने में आता है वह सब पुद्गल की पर्याय है। प्राणिमात्र के शरीर, इन्द्रिय और मन आदि पुद्गल से ही निर्मित हैं। विश्व का ऐसा कोई भी प्रदेश-कोना नहीं है, जहां पुद्गल द्रव्य किसी-न-किसी पर्याय में विद्यमान न हो।
(ख) पुद्गल का सामान्य स्वरूप (१) पुद्गल अस्तिकाय है
__ प्रत्येक पौद्गलिक पदार्थ अनेक अवयवों का समूह है, तथा आकाश-प्रदेशों में फैलता है (अवगाहन करता है।) इसलिए वह अस्तिकाय है। पुद्गल स्कन्ध संख्यात अथवा अनन्त प्रदेशों से बनता है; इसका आधार उसकी संरचना है। एक स्वतन्त्र परमाणु के कोई विभाग नहीं होते।
पुद्गल का आकाश-प्रदेशों में अवगाहन-संख्यात, असख्यात, अनन्त प्रदेशी स्कंधों द्वारा आकाश का अवगाहन एक प्रदेश से असंख्यात प्रदेश तक होता है। आकाश के अवगाहन में अवगाढ़ आकाश-प्रदेशों की संख्या स्कंध के परमाणुओं की संख्या से अधिक नहीं हो सकती। उदाहरणार्थ-१०० परमाणुओं से निर्मित स्कंध जिसे सौ-प्रदेशी स्कंध कहा जाता है जघन्यत: एक आकाश-प्रदेश का अवगाहन कर सकता है, पर उत्कृष्टत: १०० आकाश-प्रदेशों में ही फैल सकता है, उसके अधिक में नहीं। अनन्त या अनन्त-अनंत अनन्त प्रदेशी स्कंध की उत्कृष्ट अवगाहना भी असंख्यात प्रदेश ही हो सकती है। अनन्त नहीं। यह इसलिए संभव है कि पुद्गल में संपीड्यता का अद्भुत गुण होता है जिसकी बदौलत असंख्यात प्रदेश जितने आकाश में भी अनन्तानंत परमाणुओं का स्कंध समाविष्ट हो जाता है। जैन दर्शन की यह मान्यता आधुनिक विज्ञान के इस आविष्कार के साथ सुसंगत होती है कि अणु का ९९.९७ % संहति (द्रव्यमान या mass) आण्विक नाभिक (nucleus) में समाविष्ट हो जाता है। जबकि नाभिक पूरे अणु का
- वें भाग जितना आकाश अवगाहन करता है। (२) पुद्गल सत् और द्रव्य है
वह सत् है, इसलिए वह परिवर्तनशील भी है और नित्य भी है। प्रत्येक क्षण में होने वाले पुद्गल के पर्यायों के परिवर्तन के दो कारण होते हैं-१. आंतरिक परिणमनशील संरचना; २. अन्य सत् (पदार्थों) के साथ पारस्परिक प्रतिक्रिया । जैन १. किसी भी स्कंध का अविभाज्य अंश 'प्रदेश' कहलाता है। वह एक परमाणु जितना होता है।
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