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________________ ३१२ जैन दर्शन और विज्ञान दर्शन इस बात पर बल देता है कि पुद्गल के ये अनन्त पर्याय काल में घटित होने वाली घटनाएं' हैं, किन्तु पुद्गलास्तिकाय द्रव्य है, इसलिए उसका द्रव्य एक 'कालातीत सातत्य' या अविच्छिन्न सत्त्व' है; किन्तु काल में घटित होने वाली घटना नहीं। (३) पुद्गल नित्य, अविनाशी है-तत्त्वान्तरणीय नहीं है नित्यत्व एवं अतत्त्वान्तरणीयता (nontransmutability) ये दोनों गुण पुद्गल-सहित सभी द्रव्यों में होते हैं। इसलिए पुद्गल के लिए निम्नलिखित विशेषण प्रयुक्त हुए हैं-काल की अपेक्षा से पुद्गल अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो अनादि अतीत काल में जितने पुद्गल-परमाणु थे, वर्तमान में उतने ही हैं और अनन्त भविष्य में भी उतने ही रहेंगे। पुद्गल-द्रव्य की अपनी मौलिकता यथावत् बनी रहती है। पुद्गल नियत, शाश्वत, ध्रुव, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि सतत परिणमनशील होते हुए भी पुद्गल अपरिवर्तनीय (अतत्त्वान्तरणीय) है। पुद्गल सदा पुद्गल रहता है, उसका अन्य (द्रव्यों) में रूपान्तरण नहीं हो सकता। पुद्गल को धर्मास्तिकाय आदि अन्य द्रव्यों में बदला नहीं जा सकता। पुद्गल जीव के साथ सम्बद्ध होता है तथा दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं; फिर भी न कभी पुद्गल जीव के रूप में बदलता है और न जीव कभी पुद्गल के रूप में। अतत्त्वांतरणीयता के गुण के कारण सभी द्रव्य अपने स्वभाव को बनाए रखते हैं। (४) पुद्गल अचेतन सत्ता है, चेतन नहीं ___ पुद्गल चैतन्य-रहित अजीव पदार्थ है। वह सदा अजीव रहता है; वह न जानता है, न अनुभव करता है, न चिंतन-मनन करता है। इसलिए किसी भी पौद्गलिक उपकरण द्वारा यह कार्य संभव नहीं है। कम्प्यूटर, कृत्रिम बौद्धिकता आदि के सारे कार्य चेतना-रहित होने से अजीव की कोटि में ही आएंगे। जैन दर्शन ने जीव-निर्जीव या चेतन-अचेतन की भेद-रेखा "चैतन्य'' गुण के आधार पर निर्धारित की है। यद्यपि जीव द्वारा ज्ञान आदि कार्य में पुद्गल की सहायता ली जाती है, पर मूलचैतन्य का अस्तित्व तो जीव का अपना ही होता है। (५) पुद्गल परिणामी है अर्थात् परिवर्तनशील है; पुद्गल क्रियावान् है अर्थात् सतत सक्रिय है पुद्गल जड़ पदार्थ या अचेतन होते हुए भी सतत सक्रिय बना रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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