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जैन दर्शन और विज्ञान में पुद्गल
३१३ पुद्गल चाहे परमाणु के रूप में हो या स्कंध-रूप में हो, सतत परिवर्तनशील रहता है; उसमें कुछ-न-कुछ घटित होता रहता है। पुद्गल की प्रवृत्ति दो रूप में हो सकती है-१. ऐसा परिणमन जिसमें गति का अभाव होता है। यह परिणमन स्वाभाविक रूप में सभी पौद्गलिक पदार्थों में घटित होता रहता है, उत्पाद और व्यय का क्रम चलता रहता है। इसलिए पुद्गल पुद्गल रहते हुए भी उसकी पर्यायों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। पूर्व अवस्था का विनाश और उत्तर अवस्था की उत्पत्ति-यही परिणमन है। २. परमाणु या स्कंधों का आकाश-प्रदेशों में गमन-रूप परिवर्तन “क्रिया'' कहलाती है। प्रकम्पन, दोलन आदि भी गति क्रिया के उदाहरण हैं। परिणमन
परिणमन या पर्याय के दो रूप हैं-(क) अर्थपर्याय, (ख) व्यंजन पर्याय ।
अर्थपर्याय आंतरिक परिवर्तन है जो एक 'समय' की अवधि का होता है, निरन्तर होता रहता है, और इसका प्रवाह अंत-हीन (अनन्त) होता है। जैसे काल-प्रवाह अपने आप में निरंतर और अंत-हीन होता है, वैसे ही अर्थपर्याय के रूप में पर्याय का प्रवाह प्रत्येक पुद्गल में घटित होता रहता है। अर्थपर्याय सम्पूर्णत: स्व-सापेक्ष होता है, पर-सापेक्ष नहीं। एक समयवर्ती होने के कारण वह न देखा जा सकता है, न व्यक्त किया जा सकता है।
व्यंजनपर्याय आंतरिक और बाह्य दोनों रूप में हो सकता है। यह परिवर्तन कुछ अवधि पर्यन्त चलता है यानी इसमें एक समय से अधिक समय लगता है। इसे एक “ घटना'' के रूप में माना जा सकता है जो आकाश और काल में घटित होती है। पुद्गल की विभिन्न व्यक्त अवस्थाएं व्यंजनपर्याय का ही रूप है। जैसे-एक लेखनी' पुद्गल की व्यंजनपर्याय है। व्यंजनपर्याय स्थूल, कालांतरस्थायी और अभिव्यक्त किया जा सकता है। अर्थपर्याय सूक्ष्म, एक समयवर्ती और अव्यक्त होता है। क्रिया
गति के लिए क्रिया शब्द का प्रयोग किया गया है। यद्यपि जीव भी गतिशील द्रव्य है, फिर भी जीव की गति सदा पुद्गल-सापेक्ष होती है। अपने आपमें जीव “अगतिशील' है। इस दृष्टि से छह द्रव्यों में पद्गल को ही गतिशील या गमन के लिए सक्षम माना जा सकता है। पुद्गल भी गतिशील होते हुए भी सदा गतिमान नहीं रहता। गति के पश्चात् पुद्गल स्थिति या स्थिरावस्था में आता है। गति और स्थिति के रूप में पर्याय बदलता रहता है। दो गतियों के बीच स्थिरावस्था आती रहती है।
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