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________________ विश्व का परिमाण और आयु २७५ सामूहिक द्रव्य-राशि पर आधारित है। - इस प्रकार सामान्य आपेक्षिकता का सिद्धान्त' विश्व अर्थात् 'आकाशकाल की चतुर्वैमितिक सततता' की भूमिति और विश्व-स्थित संहति के बीच सीधा सम्बन्ध दर्शाता है। विश्व कितना बड़ा है?' इस प्रश्न का उत्तर हम तभी दे सकते हैं, जब हमें विश्व की भूमिति का सही ज्ञान हो। किन्तु यदि हम विश्व-स्थित 'संहति' का सही-सही पता लगा सकें, तो आइन्स्टीन के समीकरण हमें विश्व की भूमिका का ज्ञान कराते हैं। आइन्स्टीन ने कल्पना की कि विश्व-स्थित भौतिक पदार्थों की संहति-राशि सीमित है। अत: आइन्स्टीन का विश्वाकाश, जो गाणितिक संज्ञा 'आव्यूह' (Matrix) द्वारा दर्शाया जाता है, युक्लिडियेतर और सान्त (finite) बन जाता है। पदार्थों की सामूहिक द्रव्य-राशि के कारण सारा विश्व उस प्रकार से वक्र बना है कि समग्र विश्व-आकाश एक बद्ध वक्राकार' धारण करता है। अत: विश्वाकाश ससीम बन जाता है। फिर भी बद्धाकार होने के कारण यदि प्रकाश की एक किरण एक स्थान से चलेगी, तो सारे विश्व की परिक्रमा कर, फिर मूल स्थान पर आ जाएगी। इस प्रकार आइन्स्टीन का विश्व अनन्त नहीं है और युक्लिडीय भूमिति के नियमों से भी बाधित नहीं है। गणित की भाषा में विश्व चतुर्वैमितिक (Four-dimensional) सततता है, जो कि गोले (sphere) की त्वचा (Surface) के समान है। आपेक्षिकता के सिद्धांत के द्वारा विश्व का जो नया दर्शन मिला, उसे समझाने के लिए सर जेम्स जीन्स ने साबुन के बुलबुले का उदाहरण दिया है : __“साबुन के बुलबुले की कल्पना कीजिए, जिसकी त्वचा के ऊपरी भाग में नाना प्रकार की रेखाएं आदि हों। विश्व उस बुलबुले का भीतरी भाग नहीं, परन्तु उसकी बाह्य त्वचा के स्थान में है। दोनों में केवल यह अन्तर है कि साबुन का बुलबुला दो ही विमिति वाला है, जबकि विश्व-आकाश का गोला चार विमिति वाला-तीन विमितियां आकाश की और एक काल की; विश्व जिस पदार्थ का बना हुआ है, वह रिक्त आकाश है, जो कि रिक्त काल के ऊपर लपेटा हुआ है।" यह मन्तव्य सुप्रसिद्ध वैज्ञानिकों के शब्दों में अधिक स्पष्ट होगा। प्रो. सर ए. एस. एडिंग्टन लिखते हैं : "प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में यह प्रश्न उत्पन्न होता होगा कि क्या आकाश का अन्त है?' यदि है, तो उससे आगे क्या है? यदि नहीं है, तो आकाश के १. सर ए. एस. एडिंग्टन ने इसके आधार पर यह पता लगाया है कि यदि विश्व-स्थित धनाणुओं (Protons) और ऋणाणुओं (Electrons) की संख्याएं समान हों, तो यह संख्या १.१९x१०५ दखें, दी न्यू पाथवेज इन साईन्स, पृ० २२१; दी एक्सपाण्डिंग यूनिवर्स, पृ० ६८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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