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जैन दर्शन और विज्ञान प्रथम विचारधारा के पीछे यह तर्क था कि यदि विश्व को सान्त (ससीम) मान लिया जाए, तो यह प्रश्न सहसा खड़ा हो जाता है कि विश्व की सीमा से परे क्या है? इस विकट प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाने के कारण वैज्ञानिकों ने यह मान लिया कि विश्व अनन्त (असीम) है।
दूसरी विचारधारा के पीछे न्यूटन के 'गुरुत्वाकर्षण के नियम' का आधार था। यदि हम विश्व को अनन्त मान लें, (और क्योंकि अनन्त विश्व में स्थित सभी पदार्थों की संहति (Mass) समानतया विभाजित होनी चाहिए), तो गुरुत्वाकर्षण के नियमानुसार अनन्त विश्व में व्याप्त सभी पदार्थ का संगठित गुरुत्वाकर्षण बल' सब पदार्थों के अनन्त तक व्याप्त होने के कारण, अनन्त हो जाएगा; और विश्व का समस्त आकाश अनन्त प्रकाश से चमक उठेगा। किन्तु वास्तव में यह स्थिति नहीं है। इसलिए 'अनन्त विश्व' की कल्पना भी सत्य नहीं है। अत: 'विश्व अनन्त आकाश के अन्दर एक द्वीप के समान है' यह विचारधारा कुछ एक वैज्ञानिकों ने मान्य रखी।
'विश्व एक द्वीप' की कल्पना भी आशंकाओं से मुक्त नहीं थी। 'तारापुञ्ज या आकाशगंगाओं की गति के नियम' (Dynamic Laws of the Motion of Galaxies) इन आशंकाओं को उत्पन्न करते हैं। अनन्त आकाश की तुलना में ससीम विश्व में स्थित द्रव्य-राशि इतनी कम है कि आकाश-गंगाओं के गति की नियमों के कारण वह राशि बादल के बिन्दुओं की तरह अनन्त आकाश में विलीन हो जाती और समग्र विश्व रिक्त हो जाता। किन्तु स्थिति यह नहीं है। अत: इस कल्पना को सिद्ध करने के लिए भी प्रमाण आवश्यक थे। आपेक्षिकता के सिद्धान्त द्वारा समाधान
आइन्स्टीन के अनुसार विश्व के आकार प्रकार की जो कल्पना हम युक्लिडीय (Euclidean) भूमिति के आधार पर करते हैं, वह ठीक नहीं है। गुरुत्व-क्षेत्र (Gravitational Field) में चलने वाली प्रकाश की किरणें सीधी रेखा में नहीं चलती हैं, किन्तु वक्र रेखा या वर्तलाकार में चलती हैं-इस बात से यह सिद्ध हो जाता है कि युक्लिडीय भूमिति के नियम गुरुत्व-क्षेत्र में लागू नहीं होते।
विश्व में समाहित तारा, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, आकाशगंगा आदि समस्त पदार्थों के गुरुत्व के कारण उनकी संहति (Mass) और गति (Velocity) के अनुपात में सारा विश्वाकाश वक्रता धारण करता है। अर्थात् प्रत्येक पदार्थ अपने आस-पास के आकाश को वक्र बनाता है। सामान्य आपेक्षिकता के सिद्धांतानुसार उस वक्रता के परिमाण का आधार पदार्थ-स्थित संहति पर रहता है। जितनी संहति अधिक होगी, उतनी ही वक्रता भी बढ़ेगी। दूसरे शब्दों में प्रत्येक पदार्थ अपनी संहति के अनुसार विश्वाकाश की वक्रता में योग देता है। अत: सारे विश्व का आकार विश्व-स्थित सभी द्रव्यों की
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