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विश्व का परिमाण और आयु
२७३ स्पर्श वाले होंगे तथा वे ऊंट की तरह वक्र चाल चलने वाले, शरीर के विषम संधि-बन्ध को धारण करने वाले, ऊंची-नीची विषम पसलियों तथा हड्डियों वाले और कुरूप होंगे। उत्कृष्ट १ हाथ की अवगाहना (ऊंचाई) और २० वर्ष की आयु होगी। बड़ी-बड़ी नदियों का विस्तार रथ के मार्ग जितना होगा। नदियों में पानी बहुत थोड़ा रहेगा। मनुष्य भी केवल बीज रूप ही बचेंगे। वे उन नदियों के किनारे बिलों में रहेंगे। सूर्योदय से १ मुहूर्त पहले और सूर्यास्त से १ मुहूर्त पश्चात् बिलों से बाहर निकलेंगे और मत्स्य आदि को उष्ण रेतों में पकाकर खायेंगे।........इस प्रकार छठे आरे का प्रारम्भ होकर २१००० वर्ष तक यह स्थिति उत्तरोत्तर विषम बनती रहेगी।' छठे आरे का अन्त होने पर अवसर्पिणी काल-चक्रार्ध समाप्त हो जाएगा। उस समय हास अपनी चरम सीमा पर पहुंचेगा। इसके बाद पुन: उत्सर्पिणी काल-चक्रार्ध प्रारम्भ होगा। जिससे प्रकृति का वातावरण पुन: सुधरने लगेगा। शुद्ध हवाएं चलेंगी, स्निग्ध मेघ बरसेंगे और अनुकूल तापमान होगा। सृष्टि बढ़ेगी, गांव और नगरों का पुनः निर्माण होगा।" यह क्रमिक विकास उत्सर्पिणी के अन्त में निर्माण के चरम शिखर पर पहुंचेगा। इस प्रकार काल-चक्र सम्पन्न होता है। प्रकृति के इतिहास में होने वाले इस अध्याय-परितर्वन को लोक प्रलय और सृष्टि कहते हैं। जैन विचारधारा के अनुसार प्रलय का अर्थ 'आत्यन्तिक नाश' नहीं; वह ध्वंस (हास) की अन्तिम मर्यादा है।" उपसहार
प्रस्तुत विषय के उपसंहार में यह कहा जा सकता है कि जैन दर्शन के अनुसार :
१. विश्व अस्तित्व की अपेक्षा से अनादि और अनन्त है। २. इस शाश्वत विश्व में प्रतिक्षण उत्त्पत्ति और विनाश रूप अनन्त परिणमन
होते रहते हैं। ३. विश्व के विशेष क्षेत्रों (समय-क्षेत्र) में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल-चक्र का प्रवर्तन होता रहता है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण : विश्व का परिमाण आइन्स्टीन के आपेक्षिकता के सिद्धांत से पहले वैज्ञानिकों में विश्व के परिमाण के बारे में दो विचारधाराएं थीं :
१. विश्व स्वयं ही अनन्त है। २. विश्व अनन्त समुद्र में जड़ आदि पदार्थों में समूहरूप एक द्वीप समान
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