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जैन दर्शन और विज्ञान भी चलता रहे। यह कैसे हो? अर्जन और विसर्जन के बीच तीसरी बात होती है सुरक्षा की, रक्षण की, संरक्षण की। ब्रह्मचर्य का सिद्धांत इसीलिए प्रतिपादित किया कि व्यक्ति शक्ति को खर्च न करे। कुछ लोग बहुत उलझ जाते हैं। आज के डॉक्टर भी उलझ जाते हैं। वे कहते हैं-वीर्य का कोई मूल्य नहीं हमारी दृष्टि में। वीर्य का मूल्य नहीं होगा उनकी दृष्टि में, उन्होंने उसका रासायनिक विश्लेषण किया होगा। किन्तु इस बात का तो मूल्य है कि प्रत्येक अब्रह्मचर्य की घटना के साथ बिजली भी खर्च होती है। बिजली बाहर जाती है, बिजली खर्च होती है और आदमी बिजली से शून्य होता
____ सबसे बड़ी सुरक्षा करनी है-प्राण-विद्युत् की। हमारी बिजली कम खर्च हो, उसका संग्रह कर सकें, उसका सही दिशाओं में प्रयोग कर सकें।
विद्युत् के बिना चेतना के केन्द्रों को सक्रिय नहीं किया जा सकता और चेतना के केन्द्रों को सक्रिय किए बिना कोई भी विशिष्टता प्राप्त नहीं की जा सकती।
प्राण की ऊर्जा को संग्रहीत करना और उस ऊर्जा का आध्यात्मिकीकरण करना, यह अपेक्षित है। आध्यात्मिकीकरण का अर्थ है-नीचे के केन्द्रों में ऊर्जा का न रखना, उस ऊर्जा को ऊपर के केन्द्रों में ले जाना। यह आध्यात्मिकीकरण की प्रक्रिया है।
ऊर्जा के ऊ:करण के दो मुख्य साधन है : १. श्वास लेने की समुचित प्रक्रिया का अभ्यास। २. चित्त को लम्बे समय तक एक बिन्दु पर टिकाए रखने का अभ्यास।
जो सांस लेना ठीक ढंग से नहीं जानता, वह प्राण को विकसित नहीं कर सकता। प्राण की शक्ति सांस के साथ नथुनों के द्वारा ही बाहर आती है। जो सांस को ठीक लेना नहीं जानता, वह प्राण का संग्रह कर नहीं सकता।
जिस व्यक्ति ने मन को एकाग्र करना सीख लिया, श्वास का संयम करना सीख लिया, वह फिर जहां चाहे वहां प्राण-ऊर्जा का उपयोग कर सकता है।
कोई साधक चाहे कि भृकुटि के बीच प्राण-ऊर्जा को टिकाना है तो उसका मन भी टिक जाएगा, प्राण-ऊर्जा भी टिक जाएगी और वहां पूरी प्रक्रिया शुरू हो जाएगी, अपने आप वहां का चैतन्य-केन्द्र सक्रिय हो जाएगा।
प्राण की प्रक्रिया, प्राण-ऊर्जा के विकास की प्रक्रिया, प्राण का आध्यात्मिकीकरण, बिजली को आध्यात्मिक बना देना, यह साधना का रहस्य है। जिस दिन प्राण को आध्यात्मिक बनाने की प्रक्रिया हमारी समझ में आ जाएगी, हम उसका अभ्यास शुरू करेंगे, प्राणशक्ति का संग्रह शुरू करेंगे और उसका जीवन उर्ध्वगमन में,
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