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________________ अध्यात्म और विज्ञान ज्ञानी, जिसे परिभाषा में चतुर्दशपूर्वी कहा जाता है, वह ४८ मिनट के भीतर इतनी बड़ी ज्ञान राशि का अर्जन कर लेता है, जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। वे इतनी बड़ी ज्ञान-राशि का केवल कुछ मिनटों में पुनरावर्तन कर लेते हैं। प्राणशक्ति की विशिष्टता के कारण ऐसा संभव हो सकता है। प्राण की शक्ति जैसे-जैसे सूक्ष्म होती है, उसकी शक्ति बढ़ती जाती है। जो गणित एक आदमी अपने पूरे जीवन में कर सकता वह गणित कम्प्यूटर कुछ क्षणों में कर लेता है। चतुर्दशपूर्वी तो बड़ा कम्प्यूटर है। सबको इतना जल्दी दोहरा लेता है कि हर आदमी तो कर ही नहीं सकता। वह प्राणशक्ति को इतना विकसित कर लेता है कि उसमें अपूर्व शक्ति पैदा हो जाती है। प्राण-शक्ति जैसे-जैसे सूक्ष्म होती चली जाती है वैसे-वैसे उसकी क्षमता और कार्यशक्ति भी बढ़ती चली जाती है। ध्यान की साधना प्राणशक्ति को सूक्ष्म करने की साधना है। श्वास की संख्या जितनी बढ़ती है. शक्ति उतनी ही खर्च होती चली जाती है। श्वास की संख्या जितनी कम होती है। उतनी ही शक्ति बढ़ती चली जाती है। ध्यान करने वाला व्यक्ति, महाप्राण की साधना करने वाला व्यक्ति श्वास को सूक्ष्म करता चला जाता है। एक मिनट में १२, १०, ८, ६, ४, २, १। एक मिनट में एक श्वास और दो मिनट में एक श्वास चलता चले। चलते-चलते यह स्थिति आएगी कि पन्द्रह दिनों में एक श्वास, एक महिने में एक श्वास। मूल बात है शक्ति का भंडार होना चाहिए, शक्ति का संचय होना चाहिए। जो प्राण की साधना को नहीं जानता, वह शक्ति का संग्रह नहीं कर सकता। शक्ति आती है और चुक जाती है, संचय कभी होता ही नहीं। शक्ति-संचय की बात को अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में भी सोचें। अहिंसा प्राणशक्ति का आध्यात्मिकीकरण है। अगर अहिंसा नहीं है तो व्यक्ति शक्तिशाली कैसे बनेगा? अहिंसा नहीं है तो जो शक्ति आयी वह हिंसा के द्वारा खर्च हो जाएगी। हिंसक व्यक्ति सोचता है कि दूसरे की शक्ति को खर्च कर दूं, किन्तु उसकी अपनी शक्ति चुक जाती है। दूसरे की निंदा करने वाला, चुगली करने वाला, ईर्ष्या करने वाला, जलने वाला, मन में दाह रखने वाला व्यक्ति अपनी शक्ति के भंडार को विकसित नहीं कर सकता। दूसरों के प्रति बुरे विचार रखने वाला कोई भी अपनी अपनी शक्ति के संग्रह को बढ़ा नहीं सकता। ये सारे शक्ति के चुकने के कारण हैं, न होने के कारण हैं। अहिंसा इसलिए जरूरी है कि उससे हमारे व्यक्तित्व का विकास होता है। अब्रह्मचर्य के द्वारा समाप्त होती है। ब्रह्मचर्य का उपदेश इसलिए दिया गया कि व्यक्ति की शक्ति खर्च न हो। शक्ति का अर्जन और शक्ति का विसर्जन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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