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________________ ६४ जैन दर्शन और विज्ञान बन जाता है। इतना ही नहीं यह तो केवल बाह्य व्यक्तित्व की चर्चा है। भीतर के व्यक्तित्व की चर्चा करें तो लगता है कि प्राणशक्ति और विद्युत् एक बहुत बड़ा चमत्कार है। एक व्यक्ति बहुत अच्छा है और एक व्यक्ति बहुत बड़ा गुस्सैल है। एक व्यक्ति इतना सहनशील है कि हर बात सहन कर लेता है। एक व्यक्ति ईमानदार है तो दूसरा बड़ा बेईमान है। यह सारा क्यों होता है? यह प्राणशक्ति का खेल है। प्राणशक्ति के इतने दांव-पेच हैं कि वह सारे अनुभव कराती है। हमें सुख का अनुभव भी बिजली से होता है और दु:ख का अनुभव बिजली से होता है। मनुष्य राजी भी बिजली से होता है और नाराज भी बिजली से होता है। वासना से लिप्त भी बिजली से होता है और वासना से मुक्त भी बिजली से होता है। यदि हमारी भीतर की सारी विद्यत् की गतिविधियों को, प्रवृतियों को हम जान लें और उनका ठीक नियोजन करना जान जाएं तो बहुत सारी समस्याएं हल हो जाती है। साधना का अर्थ है-अपनी प्राण-विद्युत् को जान लेना और उसका सही उपयोग करना। विज्ञान की भाषा में एड्रीनल ग्रन्थि विकृत हो गई, आदमी चोर बन गया, अपराधी बन गया। आवश्यकता इस बात की है कि ज्ञान और विद्युत् दोनों साथ-साथ रहें। ज्ञान ऊपर रहता है और बिजली नीचे रहती है तो ज्ञान भी लज्जित होता है और आदमी अपराधी बन जाता है। ज्ञान का मूल्य तभी है कि ज्ञान और प्राण-दोनों साथ रहें, ज्ञान और प्राण का योग बराबर बना रहे। प्रश्न है इस विद्युत् को कैसे बदला जाए? धर्म की पूरी प्रक्रिया, साधना की पूरी प्रक्रिया, अध्यात्मवाद, रहस्यवाद-सारे उस बिजली के बदलने की पद्धति बतलाते है। कैसे बदला जाए? किस प्रकार बदला जाए? किस प्रकार का आचार, किस प्रकार का व्यवहार, किस प्रकार का चिन्तन, किस प्रकार का दर्शन हो, जिससे वह बिजली, प्राण-धारा बदले और प्राण-धारा चेतना के जागरण में सहयोगी बने-ये सब ज्ञातव्य हैं। ___पांचों इन्द्रियों की शक्तियां, बोलने की शक्ति, सोचने की शक्ति, चलने-फिरने की शक्ति, श्वास लेने की शक्ति और जीने की शक्ति-ये सारी शक्तियां एक ही शक्ति के विभिन्न रूप हैं। मूलत: एक है-प्राणशक्ति। यदि शक्ति नहीं है तो चेतना का उपयोग नहीं होता। सुख-दुख का अनुभव तो वास्तव में शक्ति का अनुभव है, बिजली का ही अनुभव है। हमारी प्राणशक्ति, जो निरन्तर हमारे जीवन को संचालित करती है, वह पैदा होती है और खपती रहती है। हर कोशिका बिजली को पैदा करती है और काम चलाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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