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जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा
२५७ सिद्धांत प्रस्तुत किया है; जैन दर्शन के निरपेक्ष कालमान-'समय' आदि उसी प्रकार के सिद्धान्त के द्योतक हैं। इस प्रकार काल के विषय में भी दोनों सिद्धान्तों में बहुत साम्य है, फिर भी न्यूटन के सिद्धांत ने प्रकाश-गति की सीमितता को अस्वीकार करने के कारण आकाश और काल के पारस्परिक सम्बन्ध को स्वीकार नहीं किया है, जबकि जैन दर्शन में प्रकाश-गति की सीमितता से होने वाले आकाश और काल के पारस्परिक सम्बन्ध का विरोध नहीं है।
- इस प्रकार प्राग्-आइन्स्टीन विज्ञान के क्षेत्र की आकाश-काल-सम्बन्धी धारणाएं जैन दर्शन की विचारधारा के साथ दार्शनिक (तत्त्व-मैमासिक) अपेक्षा से अधिक सृदश्य रखती है। आपेक्षिकता का सिद्धान्त और जैन दर्शन
आइन्स्टीन द्वारा दिए गए आपेक्षिकता के सिद्धान्त के पश्चात् विज्ञान के क्षेत्र में जो नई क्रांति आई, उसका आकाश-काल की धारणाओं पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। इस सिद्धान्त के आविष्कार, इसके भौतिक विज्ञान के विविध पहलुओं पर पड़े हुए प्रभाव तथा इसके दार्शनिक पक्ष की चर्चा भी हम कर चुके हैं। जैन दर्शन के माध्यम से इसकी तुलानात्मक समीक्षा यहां की जा रही है।
आकाश और काल के विषय में आपेक्षिकता के सिद्धान्त के दो पहलू हो जाते
हैं
१. आकाश और काल की सापेक्षता। २. आकाश और काल की वास्तविकता।
आइन्स्टीन द्वारा प्रदत्त मूल आपेक्षिकता के सिद्धान्त में कहा गया है: “किसी भी प्रकार के प्रयोग के द्वारा किसी भी गतिमान निकाय की निरपेक्ष गति का पता नहीं लगाया जा सकता।" इस सिद्धान्त के आधार पर सामान्यतया यह तात्पर्य निकाला जाता है कि निरपेक्ष आकाश का कोई अस्तित्व ही नहीं है। यदि यही तात्पर्य सही हो, तो जैन दर्शन का आकाशास्तिकाय का सिद्धान्त आपेक्षिकता के सिद्धान्त के साथ ही मेल नहीं खाता। किन्तु उक्त तात्पर्य निर्विवादतया मान्य नहीं है। सर्वप्रथम तो यह जानना आवश्यक है कि आपेक्षिकता के सिद्धांत में कथित अशक्यता ज्ञाता-सापेक्ष असमर्थता के कारण है अथवा वस्तु-सापेक्ष असम्भवता के कारण है। यदि ज्ञाता-सापेक्ष असमर्थता के परिणाम रूप ही हम किसी भी गतिमान निकाय के निरपेक्ष गति को जानने में असमर्थ रहते हैं, तो निरपेक्ष गति के वास्तविक अस्तित्व का अन्त नहीं आ जाता। जैन दर्शन के आधार पर यही कहा जा सकता है कि उक्त अशक्यता ज्ञाता-सापेक्ष असमर्थता के कारण ही है, न कि वस्तु-सापेक्ष असम्भवता के कारण।
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