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________________ २५८ जैन दर्शन और विज्ञान राइशनबाख ने इस प्रकार के विपर्यय को स्पष्ट उदाहरण के द्वारा समझाया है : "अवश्य ऐसे बहुत सारे प्रसंग होते हैं, जहां भौतिक विज्ञान परिमाणों को निकालने में समर्थ नहीं होता। इसका अर्थ क्या यह होता है कि जिस राशि का हम परिमाण निकालना चाहते हैं, उसका अस्तित्व ही नहीं है? उदाहरणार्थ, हवा के एक घन सेंटीमीटर में रहे हुए अणुगुच्छे (मोलिक्यूल) की संख्या का सही-सही निश्चय करना अशक्य है। निश्चितता की अत्यधिक मात्रा के साथ हम कह सकते हैं कि एक-एक अणुगुच्छे को गिनने में हम असफल ही रहेंगे, तो फिर क्या हम यह परिणाम निकालें कि इस संख्या का अस्तित्व ही नहीं है? प्रत्युत हमें यही कहना होगा कि ऐसा पूर्णांक होना ही चाहिए, जो इस राशि का बिलकुल सही द्योतक हो। आपेक्षिकता के सिद्धांत की भूल इसी तथ्य में निहित है कि उसमें जानने की अशक्यता को वास्तविक असम्भवता के साथ उलझा दिया गया है।' इस उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि निरपेक्ष आकाश का कोई अस्तित्व ही नहीं है, ऐसा फलित आपेक्षिकता के सिद्धांत के आधार पर निकालना अयथार्थ होगा। विश्व के प्रथम श्रेणी के वैज्ञानिक हाइजनबर्ग ने इसी उलझन का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है-"ईथर नामक परिकल्पित द्रव्य, जो १९ वीं शताब्दी में मैक्सवेल के सिद्धान्तों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता था, अब आपेक्षिकता के सिद्धान्त के द्वारा नामशेष कर दिया गया है। इसी बात को कभी-कभी इस प्रकार भी कहा जाता है कि निरपेक्ष आकाश का सिद्धान्त' खण्डित हो चुका है। किन्तु ऐसे कथन को बहुत सावधानी के साथ स्वीकार करना चाहिए।" यद्यपि हाइजनबर्ग ने यह तो स्वीकार नहीं किया है कि आकाश नामक कोई स्वतन्त्र अगतिशील वास्तविकता का अस्तित्व है, फिर भी उन्होंने यह तो माना ही है कि भौतिक ईथर के नामशेष हो जाने से 'आकाश' नामशेष नहीं हो गया है। अन्यत्र उन्होंने एक तर्क आपेक्षिकता के सिद्धांत के आलोचकों के नाम पर उपस्थित किया है, जिसको यदि वे स्वीकार नहीं करते हैं, फिर भी यह तो मानते हैं कि तर्क को प्रायोगिक आधार पर गलत सिद्ध नहीं किया जा सकता; क्योंकि इसमें ऐसी कोई धारणा नहीं कि गई, जो विशिष्ट आपेक्षिकता के सिद्धान्त से भिन्न हो। इसको प्रस्तुत करते हुए वे लिखते हैं : "आपेक्षिकता के सिद्धान्त के आलोचकों का कहना है-निरपेक्ष आकाश और निरपेक्ष काल का नास्तित्व विशिष्ट आपेक्षिकता के सिद्धान्त द्वारा किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होता है। (उस सिद्धान्त में तो) यही बताया गया है कि किसी भी सामान्य प्रयोग में वास्तवकि आकाश और वास्तविक काल प्रत्यक्षत: भाग नहीं लेते, किन्तु यदि प्राकृतिक नियमों के इस पहलू को ध्यान में ले लिया जाये तथा गतिमान् निर्देश-निकायों के लिए सही प्रतीत्यमान काल (मानो) का व्यवहार किया जाये, तो निरपेक्ष आकाश की धारणा के विरोध में कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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