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________________ जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा २५९ तर्क नहीं रह जाता। ऐसा भी सम्भवतः माना जा सकता है कि हमारी आकाशगंगा का गुरुत्व- केन्द्र (सेंटर ऑफ ग्रेविटी) निरपेक्ष आकाश में (कम से कम लगभग ) स्थिर है।' इससे आगे आपेक्षिकता के सिद्धांत के आलोचक यह भी कह सकते हैं- 'हम आशा कर सकते हैं कि भविष्य के नाप-तोल निरपेक्ष आकाश की स्पष्ट परिभाषा देने में हमें समर्थ बना देंगे । .. . और इस प्रकार हम आपेक्षिकता के सिद्धान्त का खण्डन कर सकेंगे।'' इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि आपेक्षिकता के सिद्धान्त के आधार पर निरपेक्ष आकाश के अस्तित्व को स्वीकार न करना गलत सिद्ध हो सकता 1 : प्रो. मार्गेनौ भी इस बात को स्वीकार तो करते हैं कि निरपेक्ष आकाश एक सम्भवित कन्स्ट्रक्ट्स है "निरपेक्ष आकाश को स्वीकार करने वाला अपनी विचारधारा को इस सरल तथ्य पर आधारित करता है कि त्रिवैमितिक आकाश की कल्पना वह तभी कर सकता है, जबकि वह आकाश पदार्थशून्य हो । इस प्रकार का आकाश एक सम्भवित कन्स्ट्रक्ट्स है और वह प्राथमिक प्रश्न के ढांचे ही निरपेक्ष है।'' इससे आगे उन्होंने यही बताया है कि इस प्रकार का आकाश उपयोगी न होने वैज्ञानिक इसको स्वीकार नहीं करते, फिर भी इतना तो स्पष्ट रूप से स्वीकार्य हो ही जाता है कि निरपेक्ष आकाश का अस्तित्व समाप्त नहीं हुआ है । निरपेक्ष आकाश को जिस प्रकार से जैन दर्शन ने स्वीकार किया है, उसका खण्डन तो आपेक्षिकता के सिद्धांत के द्वारा किया ही नहीं जा सकता। हां, यह अवश्य मानना पड़ता है कि भौतिक विज्ञान के प्रायोगिक क्षेत्र में इस प्रकार के निष्क्रिय तत्त्व की कोई आवश्यकता प्रतीत न होने से उसके अस्तित्व को मानना भी आवश्यक न समझा जाये । आपेक्षिकता के सिद्धांत का दूसरा पहलू है- आकाश और काल की वास्तविकता । हम देख चुके हैं कि वैज्ञानिक इस विषय में एकमत नहीं हैं । आइन्स्टीन आदि जहां आकाश और काल को चेतन (ज्ञाता) द्वारा कल्पित तत्त्व ही मानते हैं, वहां राइशनबा आदि उसकी वास्तविकता को स्वीकार करते हैं। इस समस्या का हल प्राप्त करने के लिए हमें पहले कुछ धारणाओं का स्पष्टीकरण करना पड़ेगा। वैज्ञानिक शब्दावलि में आकाश, काल, आकश-काल की चतुर्वैमितिक सततता गुरुत्व - क्षेत्र या आव्यूहीय क्षेत्र (मेट्रिकल फील्ड) तथा ईथर; इन शब्दों द्वारा किन-किन तथ्यों का निरूपण हुआ है और जैन दर्शन के पारिभाषिक शब्दों (आकाशास्तिकाय, काल, धर्म, अधर्म, द्रव्य) से ये कहां तक सम्बन्धि होते हैं? ये दो महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं। 'आकाश' शब्द का प्रयोग आइन्स्टीन आदि केवल 'पदार्थ-क्रम' के अर्थ में रहते हैं, जबकि राइशनबाख आदि पदार्थ - क्रम के अतिरिक्त आकाश को एक स्वतन्त्र वास्तविकता के रूप में देखते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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