________________
२६०
जैन दर्शन और विज्ञान जैन दर्शन में भी आकाशास्तिकाय को आश्रय देने वाला वास्तविक द्रव्य कहा है। यह धारणा आइन्स्टीन की आकाश की धारणा से नितांत भिन्न है । यदि आइन्स्टीन की आकाश की धारणा को स्वीकार किया जाता है, तो उससे पदार्थों के आश्रय की समस्या नहीं सुलझती। अतः जहां हम तर्कशास्त्रीय भूमिका को लेते हैं, वहां आइन्स्टीन की 'आकाश' सम्बन्धी धारणा से काम नहीं चल सकता ।
इसके अतिरिक्त भी आइंस्टीन की दी हुई परिभाषा पर्याप्त नहीं है। जैसा कि स्पष्ट हो चुका है, सामान्य आपेक्षिकता के सिद्धांत में आकाश और गुरुत्व - क्षेत्र या आव्यूही क्षेत्र को एक बना दिया गया है, जहां आकाश केवल पदार्थों का क्रम न रह कर वक्रता को धारणा करने वाला कोई तत्त्व या क्षेत्र का रूप ले लेता है। अब 'यह क्षेत्र क्या स्वन्तत्र वास्तविकता है ? ' - इस प्रश्न का उत्तर यदि निषेध में नहीं है तो यह क्षेत्र भी सम्भवत: वास्तविक 'आकाश' से अधिक भिन्न नहीं रह जाता। सामान्यतया यह माना जाता है कि वक्रता या क्षेत्र की उत्पत्ति पदार्थों की संहति से उत्पन्न होती है। जहां पर भी संहति वाला पदार्थ होता है, वह अपने आस-पास इस क्षेत्र को वैसे ही उत्पन्न कर देता है, जैसे चुम्बक के आस-पास चुम्बकीय क्षेत्र हो जाता है अथवा विद्युत प्रवाह के आस-पास विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है । तब यही कहा जा सकता है कि क्षेत्र कोई स्वतन्त्र वास्तविकता नहीं है। किंतु वस्तुतः ऐसा नहीं है । पदार्थों के अभाव में सूक्ष्म मात्रा में वक्रता या क्षेत्र का अस्तित्व बना रहता है। एडिंग्टन ने इस तथ्य का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है : 'उस प्रदेश में जहां किसी भी प्रकार के ज्ञात भौतिक पदार्थ या विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र का अभाव है, वहां पर भी एक निश्चत अल्प मात्रा में प्राकृतिक वक्रता होती है, जिसे सुख्यात रूप से विश्व-सम्बन्धी अचल कहा जाता है । इस वक्रता का उत्तरदायी उस प्रदेश को रोकने वाला कोई तत्त्व है, जिसे चाहे हम आकाश कहें क्षेत्र कहें या ईथर कहें ।" इस उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह निश्चत है कि भौतिक पदार्थ के अभाव में भी कोई ऐसा तत्त्व रह जाता है, जिसे हमें स्वतन्त्र वास्तविकता का ही रूप मान लेना पड़ेगा। जैन दर्शन का 'आकाशास्तिकाय' तो सम्भवत: इससे भी भिन्न रह जायेगा। हां, जिस रूप में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय की कल्पना की गई है, उससे यह सम्भव प्रतीत होता है कि वे इस प्राकृतिक वक्रता के लिए उत्तरदायी हों । उक्त विवेचन से यह भी स्पष्ट
१. एडिंग्टन ने 'ईथर' सम्बन्धी एक नया सिद्धान्त उपस्थित किया है। उनके अभिमत में आपेक्षिकता के सिद्धांत ने भौतिक ईथर का अस्तित्व मिटा दिया है, किन्तु तब भी अभौतिक ईथर का अस्तित्व तो सम्भव हो सकता है। एडिंग्टन ने आकाश और ईथर में अविच्छिन्न सम्बन्ध की कल्पना की है और माना है कि आकाश, ईथर और क्षेत्र तीनों ही एक हैं। देखें, न्यू पाथवेज इन साइन्स, पृ० ३८-४१ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org