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________________ २५६ जैन दर्शन और विज्ञान आदि विषय विशिष्ट आपेक्षिकता के सिद्धान्त' के परिणाम हैं। भौतिक-पदार्थ की संहति से होने वाली आकाश की वक्रता, आकाश के युक्लिडियेतर भौमितिक गुण-धर्म, गुरुत्व और जड़त्व की समानता आदि विषय 'सामान्य आपेक्षिकता के सिद्धान्त' के परिणाम हैं। फिर भी 'आकाश' और 'काल' का स्वरूप चिन्तन का विषय बना हुआ न्यूटन और जैन दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन न्यूटन द्वारा किया गया आकाश का निरूपण जैन दर्शन के आकाशास्तिकाय के साथ अत्यधिक सदृशता रखता है। दोनों विचारधाराओं में आकाश को एक स्वतंत्र वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया गया है तथा उसको अगतिशील, एक, अखण्ड और शून्यता की क्षमता वाल स्वीकार किया गया है; फिर भी इनमें एक महत्त्वपूर्ण अन्तर रह जाता है। न्यूटनीय भौतिक विज्ञान के आकाश के साथ भौतिक ईथर का अविच्छिन्न सम्बन्ध जोड़ कर गति की समस्या सुलझाने का प्रयत्न किया, जबकि जैन दर्शन अभौतिक ईथर (धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य) के सिद्धान्त से गति-स्थिति की समस्या का हल प्रस्तुत करता है। यही कारण था कि न्यूटन के सिद्धांतों ने नहीं सुलझने वाली एक ऐसी समस्या उत्पन्न कर दी, जिसके फलस्वरूप आपेक्षिकता के सिद्धान्त ने न्यूटन के भौतिक ईथर को तिलांजलि दे दी। जहां तक न्यूटन के आकाश की वास्तविकता-सम्बन्धी निरूपण का प्रश्न है, उसकी तर्कसम्मतता अब भी अविच्छिन्न ही है। पश्चिम के सुप्रसिद्ध दार्शनिक बर्टेण्ड रसल ने इसको स्वीकार करते हुए लिखा है : “न्यूटन का निरपेक्ष आकाश का सिद्धान्त उस दुविधा को दूर करता है, जो 'शून्य' और 'वास्तविकता' के सम्बन्ध से उपस्थित होती है। तर्कशास्त्र के आधार पर इस सिद्धान्त का खण्डन नहीं किया जा सकता। इस सिद्धान्त की अस्वीकृति का मुख्य कारण यही है कि निरपेक्ष आकाश' को जानना कतई सम्भव नहीं है; इसीलिए प्रायोगिक विज्ञान में उसकी धारणा कोई अनिवार्य परिकल्पना नहीं बन सकती। इससे भी अधिक व्यावहारिक कारण यह है कि भौतिक विज्ञान की गाड़ी इसके बिना नहीं चल सकती है।" उस उद्धरण से स्पष्ट हो जाता है कि न्यूटन का 'निरपेक्ष आकाश' अथवा जैन दर्शन का आकाशास्तिकाय का सिद्धान्त तर्क की दृष्टि से अकाट्य है। 'निरपेक्ष आकाश' के अस्तित्व पर आपेक्षिकता के सिद्धान्त' की चर्चा यथास्थान आगे की जायेगी। न्यूटन ने काल की जो परिभाषा दी है, उससे यह लगता है कि उन्होंने काल को वास्तविक तत्त्व या द्रव्य के रूप में न मान कर वास्तविक तथ्य के रूप में प्रतिपादित किया है। जैन दर्शन (श्वेताम्बर-परम्परा) भी काल को वास्तविक तत्त्व के रूप में स्वीकार नहीं करता। न्यूटन ने निरपेक्ष गाणितिक काल का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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