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________________ जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा २५५ का सारांश यही है कि वे 'आपेक्षिकता के सिद्धान्त' को स्वीकार करते हैं, फिर भी 'आकाश' और 'काल' की वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता के निरूपण को इस सिद्धांत का फलित प्रतिपादित करते हैं। __आकाश और काल की वास्तविकता के पक्ष में जिन वैज्ञानिकों का अभिमत है, उनमें प्रो. हेनी मार्गेनौ का नाम भी उल्लेखनीय है। प्रो. मार्गेनौ के अनुसार: कोई भी पदार्थ सापेक्ष होने से, अवास्तविक नहीं बन जाता। निरपेक्ष आकाश' की मान्यता को यद्यपि आपेक्षिकता का सिद्धांत स्वीकार नहीं करता, फिर भी उससे 'आकाश' की वास्तविकता का अस्वीकार नहीं होता है। आकाश भी एक कन्स्ट्रक्ट्स' माना गया है, जो प्रमाणित है और इसलिए वास्तविक भी है। मार्गेनौ मानते हैं कि 'आकाश' के भौमितिक गुण-धर्मों का वास्तविक जगत् के पदार्थ कहां तक अनुकरण करते हैं, इसमें संदिग्धता तो हो सकती है, परन्तु 'आकाश' की वास्तविकता तो असन्दिग्ध है। उदाहरणार्थ कोई भी वास्तविक पदार्थ' पूर्ण रूप से सरल रेखात्मक हो, ऐसा अनुभव में न भी आता हो, फिर भी वास्तविक सरल रेखा आकाश के दो बिन्दुओं के बीच अस्तित्व रखती है और आकाश वास्तविक बिन्दुओं का बना हुआ है। 'आपेक्षिकता के सिद्धान्त' के दार्शनिक पक्ष की चर्चा के निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि आकाश और काल के स्वरूप के विषय में 'आपेक्षिकता के सिद्धान्त' के आधार पर अब तक सर्वमान्य निरूपण नहीं हो सका है। आकाश और काल वस्तु-सापेक्ष हैं अथवा ज्ञाता-सापेक्ष, यह दुविधा अब तक भी वैज्ञानिकों के सामने खड़ी उपसंहार 'आकाश' और 'काल' का स्वरूप भी रहस्यमय बना हुआ है। कुछ एक 'रिक्त आकाश' का प्रतिपादन करते हैं, तो अन्य 'अवगाहित आकाश' का; कई 'निरपेक्ष आकाश' का निरूपण करते हैं, तो कई ‘सापेक्ष आकाश' का; आकाश को 'वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता' के रूप में स्वीकार करने वाले भी हैं और 'ज्ञाता-सापेक्ष वास्तविकता' के रूप में करने वाले भी है। दूसरी और 'काल' के विषय में भी इस प्रकार की विभिन्न विचारधाराएं हैं। न्यूटन का अभिमत था-निरपेक्ष आकाश और काल पृथक्-पृथक् अस्तित्व रखते हैं। इस अभिमत के सहारे वैज्ञानिकों ने भौतिक ईथर की कल्पना की और 'आपेक्षिकता के सिद्धान्त' ने भौतिक ईथर को तिलांजलि देकर सापेक्ष आकाश-काल की स्थापना की। 'आपेक्षिकता के सिद्धान्त' से वैज्ञानिक जगत् में नई क्रान्ति आई। 'आकाश' और 'काल' की संयुक्त चतुर्वैमितिक सततता, प्रकाश की सीमित गति के कारण आकाश और काल की परस्परबद्धता, गति का 'आकाश' और 'काल' पर प्रभाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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