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________________ २५४ जैन दर्शन और विज्ञान कि आकाश और काल का केवल सम्मिलित रूप ही वास्तविक है, राइशनबाख के अनुसार गलत है। आकाश की विमितियों के विषय में वैज्ञानिकों और गणितज्ञों ने यह कल्पना भी की है कि इसकी विमितियों की संख्या चाहे जितनी हो सकती है किन्तु राइशनबाख ने माना है कि वस्तु-सापेक्ष दृष्टि से तो आकाश की केवल तीन विमितियां हैं। बहु-वैमितिक आकाश गाणितिक हो सकता है, परन्तु वास्तविक आकाश केवल त्रिवैमितिक है। वास्तविक आकाश की तीन विमितियां हैं। यह निरूपण उतना ही वस्तु-सापेक्षात्मक है जितना कि यह निरूपण कि 'भौतिक पदार्थ की तीन अवस्थाएं-ठोस, तरल और वायु-होती है; यह वस्तु-सापेक्ष विश्व के मूलभूत तथ्य का एक वर्णन है।" राइशनबाख ने आपेक्षिकता के सिद्धांत को मान्य रखते हुए यह निरूपण किया है कि 'आकाश' और 'काल' का वस्तु-सापेक्ष स्वतन्त्र अस्तित्व है। अपनी पुस्तक 'आकाश और काल का दर्शन के अन्त में आकाश और काल की वास्तविकता' शीर्षक के अन्तर्गत समग्र वैज्ञानिक व गाणितिक विवेचन के निष्कर्ष में वे लिखते हैं : “अत: हम निम्न कथन को आकाश और काल सम्बन्धी सबसे अधिक सामान्य विधान के रूप में लिख सकते हैं : 'सर्वत्र और सदा आकाश-काल की निर्देश-निकाय का अस्तित्व है।' यह निष्कर्ष आकाश और काल के बीच की भेदरेखा को अच्छी तरह प्रमाणित करता है।'' वस्तु सापेक्षता और ज्ञाता-सापेक्षता के बीच क्या अन्तर है तथा इसका आकाश और काल के साथ किस रूप में सम्बन्ध होता है, इसके विस्तृत विवेचन के बाद अन्तिम निष्कर्ष के रूप में उन्होंने लिखा है : “इस समग्र चिन्तन का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण परिणाम यह है कि आकाश के गुण-धर्म वस्तु-सापेक्ष हैं। जिन ज्ञान-मैमासिक विश्लेषणों (epistemological analyses) द्वारा हमने बहुत सारी समस्याओं को हल करने का प्रयत्न किया, उनका यह आकट्य अभिमत है कि 'आकाश' और 'काल' वास्तविक हैं।.....दार्शनिकों ने अब तक आकाश और काल के केवल आदर्शवादी प्रतिपादन को ही ज्ञान-मैमासिक विश्लेषण में शक्य माना है। किन्तु यह इसलिए हुआ है कि उन्होंने आकाश की गाणितिक और वास्तविक समस्याओं के द्विपक्षीय स्वरूप की उपेक्षा की है। गाणितिक आकाश काल्पनिक रचना है; अत: आदर्श है। भौतिक विज्ञान का कार्य है-इन गाणितिक रचनाओं में से किसी एक को वास्तविकता के साथ जोड़ने का। इस कार्य की निष्पत्ति में भौतिक विज्ञान वास्तविकता के विषय में निरूपणात्मक कथनों का उच्चारण करता है और हमारा लक्ष्य है, इन कथनों के वस्तु-सापेक्ष मूल तत्त्व को, वर्णन की अनिश्चितता के कारण घूसे हुए ज्ञाता-सापेक्ष बाह्य तत्त्व से विमुक्त करने का।' राइशनबाख के इस समग्र विवेचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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