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जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा के आधार पर सिद्ध किया है। उनके अभिमतानुसार गाणितिक आकाश के विविध भेद हो सकते हैं। इनमें से किसी एक को प्रेक्षण और प्रयोग के आधार पर वास्तविक आकाश माना जा सकता है। इस वास्तविक आकाश का वस्तु-सापेक्ष' अस्तित्व है। वे लिखते हैं-अभिसमयवादियों (conventionalists) के अनुसार वास्तविक आकाश की भूमिति के विषय में वस्तु-सापेक्ष निरूपण करना अशक्य है और इस विषय में तो हम ज्ञाता-सापेक्षात्मक और मनमाना निरूपण कर सकते है। वास्तविक आकाश की भूमिति का विचार ही निरर्थक है।' यह गलत धारणा है। यद्यपि भूमिति सम्बन्धी निरूपण कुछ एक मनमानी व्याख्याओं पर आधारित है, फिर भी यह निरूपण स्वयं में मनमाना नहीं बन जाता। एक बार व्याख्याओं का निश्यच कर लें ; बाद में वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता ही भूमिति के वास्तविक रूप को प्रकट करती है।' इसकी स्पष्टता के लिए उन्होंने एक सरल उदाहरण दिया है। जैसे-उष्णतामान के मापने में सेंटीग्रेड, फारनहाइट आदि विविध प्रकार के मानदण्ड काम में आते हैं। हम अपने अभिसमय के अनुसार कोई एक मानदण्ड को अंकित कर उष्णतामापक से वस्तु की उष्णता मानते हैं। जो अंक उष्णता को सूचित करता है, वह यद्यपि मानदण्ड के बदलने पर बदल सकता है, फिर भी उसकी यथार्थता' में परिवर्तन नहीं होता। एक वस्तु का उष्णतामान चाहें १५° सें० कहें अथवा ५९° फा. कहें, इसका आधार यद्यपि हमारे मानदण्ड की पसंदगी पर है, फिर भी वस्तु का उष्णतामान स्वयं में हमारी पसंदगी पर नहीं है; वह तो वस्तु-सापेक्ष ही है।
काल के सम्बन्ध में प्रचलित गलत धाराणाओं का भी राइशनबाख ने खण्डन किया है : “काल को चतर्थ विमिति के रूप में मानने से, बहुत लोगों की यह मान्यता बनी है कि काल भी आकाश की एक ही विमिति' है। किन्तु यह गलत है। चतुर्विमिति में आकाश और काल को जोड़ने का अर्थ मात्र यही है कि किसी भी घटना (Event) का निर्देश हम चार निर्देशांकों द्वारा कर सकते हैं-आकाश के तीन निर्देशांक और काल का चौथा निर्देशांक ।...........जिस प्रकार तीन मूल रंगों-लाल, हरा, और नीले-के द्वारा हम किसी भी वस्तु के रंग का निर्णय कर सकते हैं कि अमुक वस्तु में इन तीन की कितनी-कितनी मात्राएं हैं ; किन्तु ऐसा करने से वस्तु का रंग बदल नहीं जाता. ........(उस प्रकार) काल का चतुर्थ विमिति के रूप में निरूपण करने से काल के विषय में हमारे विचार में कोई परिवर्तन नहीं आता है।' उनका यह स्पष्ट अभिमत है कि चतुर्वैमितिक गाणितिक रूप को मानते हुए भी यह मानना आवश्यक नहीं है कि आकाश और काल के बीच कोई अन्तर ही नहीं है। आपेक्षिकता के सिद्धांत से काल के जिन गुण-धर्मों का ज्ञान हमें होता है, चतुर्थ विमिति के रूप में काल के प्रतिपादन के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। मिन्काउस्की के गाणितिक प्रतिपादन का यह अर्थ करना
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