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जैन दर्शन और विज्ञान में पुद्गल समस्त जीव-संसार के क्रियाकलापों का मूल आधार है। जीव द्वारा होने वाले पुद्गलों का ग्रहण तीन प्रकार से सम्भव है
१. कर्म-अति सूक्ष्म पुद्गलों का प्रत्येक संसारी जीव के साथ सतत सम्बन्ध एवं प्रतिक्रियाएं होती रहती हैं। इन पुद्गलों को ही 'कर्म' (या कर्म-पुद्गल) कहा जाता है। जीव के साथ बन्धने के पश्चात् कर्म-पुद्गलों का परिणमन सतत चलता रहता है और जीव को प्रभावति करता रहता है।
२. शरीर-स्थूल पुद्गलों के ग्रहण और परिणमन के द्वारा स्थूल शरीर और सूक्ष्म पुद्गलों के ग्रहण और परिणमन से सूक्ष्म शरीर का निर्माण जीव करता है। औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस शरीर का निर्माण इस प्रक्रिया से होता है।
३. उपग्रह-श्वासोच्छ्वास, आहार, भाषा और मन के रूप में जीवन की समस्त प्रवृत्तियों में पुद्गलों का ग्रहण और परिणमन अनिवार्य है।
इस प्रकार जगत् जीव और पुदगलों के विभिन्न संयोगों का परिणाम है। दृश्य जगत् में विद्यमान सारे सजीव निर्जीव पदार्थ या तो जीवत्-शरीर (सचेतन) है या जीव-मुक्त (अचेतन) शरीर है।
यद्यपि ग्रहण-गुण के कारण जीव द्वारा पुद्गलों का ग्रहण सम्भव है, फिर भी जीव सभी प्रद्गलों को ग्रहण करने में समक्ष नहीं है। एक स्वतंत्र परमाणु से लेकर असंख्यात-प्रदेशी स्कंध तक के पुद्गल जीव द्वारा ग्रहण नहीं किए जा सकते । केवल अनन्त-अनन्त प्रदेशी स्कंधों को ही जीव ग्रहण कर सकता है।
___पुद्गल केवल सांसारिक जीवों के साथ बन्ध सकता है, मुक्त जीवों पर उसका कोई प्रभाव नहीं होता। इस प्रकार मुक्त जीव पुद्गल के प्रभाव से सर्वथा मुक्त होते हैं तथा परमाणु असंख्यात-प्रदेशी स्कंध जीव के प्रभाव से मुक्त रहते हैं। पुद्गल का वर्गीकरण
भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों के आधार पर पुद्गल का वर्गीकरण विभिन्न रूप से किया जा सकता है। सभी पुद्गल 'पुद्गल' हैं, इस दृष्टि से पुद्गल का एक ही प्रकार है। यह द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से है। परमाणु और स्कंध-ये दो प्रकार के पुद्गल हो सकते हैं। वर्गणाओं के आधार पर पुद्गल के आठ प्रकार किए जा सकते हैं-१. औदारिक, २. वैक्रिय, ३. आझरक, ४. तैजस, ५. कार्मण, ६. श्वासोच्छ्वास, ७. भाषा १. कर्म-सिद्धांत के विस्तृत विवेचन के लिए द्रष्टव्य है-जैन दर्शन और संस्कृति, पृ०
१२९-१५१।
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