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________________ जैन दर्शन और विज्ञान आयंबिल का प्रयोग अनेक बीमारियों को मिटाने वाला प्रयोग है। भयंकर बीमारियां आयंबिल से नष्ट होती हैं। पक्षाघात की बीमारी बहुत भयंकर होती है, किन्तु आयंबिल के द्वारा ठीक हो जाती है। अजीर्ण और अपच की बीमारी इससे ठीक होती है। एक साथ ज्यादा वस्तुएं खाने से बहुत बीमारियां होती है और एक अनाज खाने से पाचन-शक्ति को बहुत राहत मिलती है। एक वस्तु पेट में जाती है तो पचाने में सुविधा होती है और अनेक वस्तुएं एक साथ पेट में जाती हैं तो उन्हें पचाने में अधिक शक्ति लगानी पड़ती है। आयंबिल में नमक का भोजन नहीं होता। एक प्रयोग यह भी हो सकता है-कभी अलग-अलग खाया जाए। रोटी अलग, साग अलग; क्योंकि साग जरूरी होता है, यह तो ठीक बात है। पर इसमें तो फर्क नहीं पड़ेगा कि अलग-अलग खाया जाए, पूर्ति तो हो जाएगी। अलग खाने का मतलब है अस्वाद का प्रयोग और साथ-साथ स्वास्थ्य का भी बहुत बड़ा प्रयोग हो जाएगा। रोटी के साथ साग खाते हैं तो पूरा चबाया नहीं जाता। स्वास्थ्य का मूल सिद्धांत है कि भोजन को जितना चबाया जाए उतना ही अच्छा है। एक बात तो जरूर है कि जो इतना चबाए तो उसे ज्यादा खाने की जरूरत भी नहीं पड़ती। पांच रोटियां जो काम नहीं करतीं, एक-डेढ़ रोटी उतना काम कर सकती है अगर चबाया जाए। नहीं चबाने का परिणाम होता है कि दांत भी खराब होते हैं और आंत भी खराब होती है। दांत और आंत दोनों के साथ शत्रुता का पोषण करना हो तो चबाना छोड़ दो। जिन लोगों ने बिना साग के कभी गेहूं की रोटी नहीं खायी उन्हें पता ही नहीं कि गेहूं का स्वाद कैसा होता है? बिना साग के गेहूं की रोटी खाकर देखें, पता चलेगा कि गेहूं कितना मीठा होता है, कितनी मिठास है गेहूं में ! इतना मीठा होता है कि फिर चीन डालने की बात ही नहीं आती। (२) शाकाहार बनाम मांसाहार मांसाहार का निषेध क्यों? हमारा जीवन आहार से शुरू होता है। आहार होता है, तब दूसरी प्रवृत्तियां चलती हैं। जैसी प्रवृत्ति, वैसा संस्कार; जितनी प्रवृत्ति, उतना संस्कार; जैसा संस्कार, वैसा विचार; जैसा विचार, वैसा व्यवहार। व्यवहार हमारी कसौटी है। भीतरी जगत् में कौन कैसा है, हम नहीं जान पाते। मनुष्य की जो प्रतिमा व्यवहार में बनती है उसी के आधार पर उसका मूल्यांक होता है। अच्छा व्यवहार, अच्छे विचार, अच्छा संस्कार अच्छे आहार बिना नहीं हो सकता। इसलिए हमारे धर्माचर्यों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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