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________________ ११४ जैन दर्शन और विज्ञान पर वास्तव में वह संधिकालीन ज्ञान है। उसे न इन्द्रिय-ज्ञान कहा जा सकता है और न अतीन्द्रिय-ज्ञान । वह इन्द्रिय और मन से उत्पन्न नहीं है; इसलिए उसे इन्द्रियज्ञान नहीं कहा जा सकता। अतीन्द्रियज्ञान की क्षमता उत्पन्न होने पर भविष्य में घटित होने वाली घटना अथवा अतीत-कालीन घटना को प्रत्येक अवधान के साथ जाना जा सकता है किन्तु पूर्वाभास में ऐसा नहीं होता। उसमें भविष्य की घटना का आकस्मिक आभास होता है। अवधान के साथ उसके ज्ञान का निश्चित संबंध नहीं होता; इसलिए उसे अतीन्द्रिय-ज्ञान भी नहीं कहा जा सकता। वह दिन और रात की संधि की भांति इन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियज्ञान का संधिज्ञान है। मानसिक ज्ञान चैतन्य-केन्द्र मस्तिष्क है। मन की सारी वृत्तियां उसके विभिन्न कोष्ठों के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं। हम इन्द्रिय और मन के ज्ञान से ही परिचित हैं और उनके चैतन्य केन्द्र ही हमारी शरीर-संरचना में स्पष्ट हैं। इन्द्रिय और मन ज्ञान की सीमा नहीं है। वे ज्ञान के आदि-बिंद हैं। यदि कोई व्यक्ति अपने शरीरस्थ चैतन्य-केन्द्रों को विकसित कर सके तो वह इंद्रिय और मन से अतीत विषयों को जान सकता है। वे चैतन्य-केन्द्र ध्यान के द्वारा विकसित किए जा सकते हैं। अतीन्द्रिय चेतना का प्रकटीकरण मनुष्य का स्थूल शरीर सूक्ष्मतर शरीर का संवादी होता है। सूक्ष्मतर शरीर में जिन क्षमताओं के स्पंदन होते है, उन सबकी अभिव्यक्ति के लिए स्थूल शरीर में केन्द्र बन जाते है। उसमें शक्ति और चैतन्य की अभिव्यजंना के अनेक केन्द्र हैं। वे सुप्त अवस्था में रहते हैं। अभ्यास के द्वारा उन्हें जागृत किया जाता है। अपनी जागृत अवस्था में वे 'करण' बन जाते है। 'करण' को विज्ञान की भाषा में विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र (Electro-magnetic Field) कहा जा सकता है। हठयोग और तंत्रशास्त्र में चैतन्य-केन्द्रों को चक्र कहा जाता है। जैन योग में चैतन्य-केन्द्रों के अनेक आकारों का उल्लेख मिलता है, जैसे-शंख, कमल, स्वास्तिक, श्रीवत्स, नंद्यावर्त, ध्वज, कलश, हल आदि। ये नाना आकार वाले चैतन्य-केन्द्र इंद्रियातीत ज्ञान के माध्यम बनते हैं। इनके माध्यम से चैतन्य का प्रकाश बाहर फैलता है। अतीन्द्रियज्ञान का एक प्रकार है अवधिज्ञान । जैसे जालीदार ढक्कन में रखे हुए दीप का प्रकाश जाली में से छनकर बाहर आता है, वैसे ही अवधि-ज्ञान की प्रकाश-रश्मियां इन चैतन्य-केन्द्रों के माध्यम से बाहर आती है। आनुगमिक अवधिज्ञान के दो प्रकार होते हैं-अंतगत और मध्यगत। जैसे कोई मनुष्य टार्च को आगे की ओर करता है तब उसका प्रकाश आगे की ओर फैलता है। एक दिशा में फैलने वाले प्रकाश की भांति अंतगत अवधिज्ञान होता है। उसका प्रकाश आगे-पीछे या दाएं -बाएं फैलता है। वह जिस दिशा में फैलता है उस दिशा में स्पष्ट होता है। किंतु उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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