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________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान ११३ आवृत किए हुए है। इस आवरण का विलय भी सब प्रदेशों में होता है। शरीरशास्त्र के अनुसार ज्ञान का स्रोत नाड़ी - संस्थान है । मस्तिष्क और सुषुम्ना के द्वारा ही सब ज्ञान होता है । कर्म-शास्त्र की भाषा में नाड़ी संस्थान को ज्ञान की अभिव्यक्ति का I माध्यम कहा जा सकता है | शरीरशास्त्र के अनुसार शरीर के सारे कोष एक जैसे है । कुछ कोशों को विशेषज्ञता प्राप्त हो गई है। इसलिए वे ज्ञान के स्रोत बन गए हैं। शरीर के कुछ भाग ज्ञान और संवेदन के साधन बने हुए हैं। वे भाग 'करण' कहलाते है। आंख एक 'करण' है। उसके माध्यम से रूप को जाना जा सकता है किन्तु मनुष्य के पूरे शरीर में 'करण' बनते की क्षमता है। यदि संकल्प के विशेष प्रयोगों के द्वारा पूरे शरीर को 'करण' किया जा सके तो कपोलों से भी देखा जा सकता है, हाथ और पैर की अंगुलियों से भी देखा जा सकता है। यह इन्द्रिय-चेतना का ही विकास है। इसे अतीन्द्रिय चेतना का विकास नहीं कहा जा सकता। पूरे शरीर से सुना जा सकता है, चखा जा सकता है, गंध का अनुभव किया जा सकता है । संभिन्न स्रोतोलब्धि आज का विज्ञान कहता है कि कानों की अपेक्षा दांतों से अच्छा सुना जा सकता है। दांत सुनने के शक्तिशाली साधन हैं । यदि थोड़ा-सा यांत्रिक परिवर्तन किया जाए तो जितना अच्छा दांत से सुना जा सकता है, उतना अच्छा कान से नहीं सुना जा सकता। एक लब्धि का नाम है - संभिन्न- श्रोतो - लब्धि । जो व्यक्ति इस लब्धि से सम्पन्न होता है, उसकी चेतना का इतना विकास हो जाता है कि उसका समूचा शरीर कान, आंख, नाक, जीभ और स्पर्श का काम कर सकता है । उसके लिए कान से सुनना या आंख से देखना आवश्यक नहीं होता। वह शरीर के किसी हिस्से से सुन सकता है, देख सकता है वह पांचों इन्द्रियों का काम समूचे शरीर से ले सकता है । उसके ज्ञान का स्रोत संभिन्न हो जाता है, व्यापक बन जाता हैं । मन की क्षमता I इन्द्रिय- चेतना की भांति मानसिक चेतना का विकास किया जा सकता है स्मृति मन का एक कार्य है। उसे विकसित करते-करते पूर्वजन्म की स्मृति ( जातिस्मृति) हो जाती है। यह भी अतीन्द्रिय चेतना (Extrasensory Percep tion- ई. एस. पी.) नहीं है। दूर-दर्शन, दूर- श्रवण, दूर-आस्वादन और दूरर - स्पर्शन का विकास भी इन्द्रिय चेतना का ही विकास है। ये सब विशिष्ट क्षमताएं है फिर भी इन्हें अतीन्द्रिय चेतना (ई. एस. पी.) नहीं कहा जा सकता । पूर्वाभास अतीन्द्रिय ज्ञान है ? परामनोविज्ञान के अनुसार पूर्वाभास (precognition) अतीन्द्रिय ज्ञान है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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