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जैन दर्शन और विज्ञान मनोवर्गणा के पुद्गलों का ज्ञान विशिष्ट अवधिज्ञान से भी हो सकता है । पर मन: पर्यवज्ञान से जो बोध होता है, वह अधिक स्पष्ट और विशद होता है । जिस प्रकार एक फिजिशियन आंख, नाक, गला आदि शरीर के सभी अवयवों की जांच करता है, उसी प्रकार आंख, नाक आदि का विशेष डॉक्टर भी करता है । किन्तु दोनों की जांच और चिकित्सा में अन्तर रहता है। एक ही कार्य-क्षेत्र होने पर भी विशेषज्ञ के ज्ञान की तुलना में वह डॉक्टर नहीं आ सकता। इसी प्रकार मनः पर्यवज्ञान की तुलना में साधारण अवधिज्ञान नहीं आ सकता ।
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मनः पर्यवज्ञान के दो प्रकार हैं
१. ऋजुमति
२. विपुलमति ।
सामान्य रूप से मानसिक पुद्गलों को ग्रहण करने वाला मनः पर्यवज्ञान ऋजुमति कहलाता है। उसके विशेष पर्यायों का बोध करने वाला मनः पर्यवज्ञान विपुलमति कहलाता है । उदाहरणार्थ- व्यक्ति ने मन में घट का चिन्तन किया । ऋजुमति वाला जानेगा कि इसने 'घट' का चिन्तन किया है । विपुलमति वाला जानेगा कि इसने घट का चिन्तन किया है; वह घट सोने का है, पाटलिपुत्र में बना हुआ है, आज बना हुआ है, आकृति में बड़ा है, आदि। इस प्रकार विशेष विवरण का बोध भी उसे हो जाएगा।
अतीन्द्रिय ज्ञान की उपलब्धि चैतन्य- केन्द्रों के निर्मलीकरण से होती है । चैतन्य - केन्द्र क्या है?
जो दृश्य है वह स्थूल शरीर है। इसके भीतर तैजस और कर्म - ये दो सूक्ष्म शरीर है। उनके भीतर आत्मा है । वह चैतन्यमय है । जैसे सूर्य और हमारे बीच में बादल आ जाते हैं वैसे ही आत्मा के चैतन्य और बाह्य जगत् के बीच में कर्म - शरीर में बादल छाए हुए हैं। इसीलिए चैतन्य - सूर्य का पूर्ण प्रकाश बाह्य जगत् पर नहीं पड़ता। बादलों के होने पर भी सूर्य का प्रकाश पूरा ढक नहीं जाता। वैसे ही कर्म - शरीर का आवरण होने पर भी चैतन्य पूरा आवृत नहीं होता। उसकी कुछ रश्मियां बाह्य जगत् को प्रकाशित करती रहती हैं। मनुष्य अपने प्रयत्न से कम शरीरगत ज्ञानावरण को जैसे-जैसे विलीन करता है वैसे-वैसे चैतन्य की रश्मियां अधिक प्रस्फुटित होने लगती है। कर्म-शरीरगत ज्ञानावरण की क्षमता जितनी विलीन होती हैं, उतने ही स्थूल शरीर में प्रज्ञान की अभिव्यक्ति के केन्द्र निर्मित हो जाते हैं । ये ही हमारे चैतन्य - केन्द्र हैं ।
समूचा शरीर ज्ञान का साधन
आत्मा के असंख्य प्रदेश ( अविभागी अवयव ) हैं । ज्ञानावरण उन सबको
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