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जैन दर्शन और परामनोविज्ञान
प्रस्तुत प्रकरण से अवधि-ज्ञान और मन:पर्यवज्ञान की मीमांसा करते हुए परामनोविज्ञान द्वारा प्रस्तुत दूरबोध और परिचित्त बोध के साथ उनका तुलनात्मक अध्ययन हमें करना है।
__अवधिज्ञान- इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना चेतना दर्पण पर मूर्त पदार्थों के जो बिम्ब उभरते हैं, उन्हें पकड़ने वाला उपयोग अवधिज्ञानोपयोग है। यह ज्ञान अतीन्द्रिय है, फिर भी इसमें तीव्र एकाग्रता की अपेक्षा रहती है। इस दृष्टि से ही इसका निरूक्त किया गया है-'अवधानम् अवधि:' अवधान अर्थात् एकाग्रता। ध्यान की गहराइयों से उतरे बिना अवधिज्ञानोपयोग हो ही नहीं सकता।
अवधि का दूसरा अर्थ भी किया जाता है-अवधिज्ञान मूर्त द्रव्यों को साक्षात् करने वाला ज्ञान है। मूर्तिमान द्रव्य की इसके ज्ञेय विषय की मर्यादा है। इसलिए यह 'अवधि' कहलाता है अथवा द्रव्य, क्षेत्र, और भाव की अपेक्षा इसकी अनेक इयत्ताएं बनती हैं। जैसे--इतने क्षेत्र काल और काल में इतने द्रव्य और इतने पर्यायों का ज्ञान करता है, इसलिए इसे अवधि कहा जाता है।
अवधि-ज्ञान के छह प्रकार हैं
१. अनुगामी-जिस क्षेत्र में अवधि-ज्ञान उत्पन्न होता है, उसके अतिरिक्त क्षेत्र में भी बना रहे, वह अनुगामी है।
२. अननुगामी-उत्पत्ति-क्षेत्र के अतिरिक्त क्षेत्र में बना न रहे, वह अननुगामी है।
३. वर्धमान-उत्पत्ति-काल में कम प्रकाशवान् हो और बाद में क्रमश: बढ़े वह वर्धमान है।
४. हीयमाण-उत्पत्ति काल में अधिक प्रकाशवान् हो और बाद में क्रमश: घटे, वह हीयमान है।
५. अप्रतिपाती-आजीवन रहने वाला अथवा केवल-ज्ञान उत्पन्न होने तक रहने वाला अप्रतिपाती है।
६. प्रतिपाती-उत्पन्न होकर जो वापिस चला जाए, वह प्रतिपाती है।
मन:पर्यवज्ञान-इन्द्रियों और मन की सहायता बिना किसी व्यक्ति की मानसिक अवस्थाओं-आकृतियों को जानना मन:पर्यवज्ञानोपयोग है।
यह ज्ञान मन के प्रवर्तक या उत्तेजक पुद्गलों-द्रव्यों को साक्षात् जानने वाला है। चिन्तक जो सोचता है, उसी के अनुरूप चिन्तन-प्रवर्तक पुद्गल द्रव्यों की आकृतियां-पर्याय बन जाती हैं। वे मन: पर्याय के द्वारा जानी जाती हैं इसीलिए इसका नाम है-मन की पर्यायों को साक्षात् करने वाला ज्ञान ।
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