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जैन दर्शन और विज्ञान को अतीन्द्रिय ज्ञानी देख सकता, इन्द्रिय ज्ञानी नहीं देख सकता । एक वस्तु या पुस्तक पड़ी है और उस पर कोई ढक्कन दे दिया गया । उसे एक इन्द्रियज्ञानी नहीं जान सकता किन्तु एक अतीन्द्रिय ज्ञानी जान सकता है । इन्द्रिय-ज्ञान और अतीन्द्रियज्ञान में यह एक भेद-रेखा है । आज विज्ञान के टेलीस्कोप और माइक्रोस्कोप जैसे सूक्ष्म उपकरण विकसित कर लिए हैं। आधुनिक वैज्ञानिक माईक्रोस्कोप जैसे सूक्ष्म से सूक्ष्म कणों को देखने में सफल हुए हैं, इलेक्ट्रोन और प्रोटोन को देखने में सफल हुए हैं। टेलीस्कोप के द्वारा सैकड़ों-हजारों प्रकाश वर्ष दूर की नीहारिकाओं को देखने में सफल हुए है । विद्युत् की गति एक सैकेंड में १,८३,००० माईल की है। गति से एक वर्ष में जितनी दूर प्रकाश जा सके उसे एक प्रकाश-वर्ष कहते है। ऐसे हजारों प्रकाशवर्ष की दूरी पर जो नीहारिकाएं हैं, सौर मंडल है, तारागृह हैं, उन्हें टेलीस्कोप के द्वारा देखा गया है । क्या यह इन्द्रिय-ज्ञान है ? क्या यह अतीन्द्रिय ज्ञान नहीं है? विज्ञान ने ऐसे यन्त्र और उपकरण विकसित कर लिए हैं, जिनसे शरीर के भीतर क्या हो रहा है, सारा दिखाई देने लग जाता है। वे उपकरण चमड़ी के भीतर विद्यमान समस्त तत्त्वों को देख लेते हैं। क्या इसे अतीन्द्रिय-ज्ञान नहीं कहा जा सकता ? इन्द्रियों से शरीर के भीतर नहीं देखा जा सकता। भीतर क्या हो रहा है, यह आंख से नहीं देखा जा सकता । सौर मंडल या एक सूक्ष्म कण को आंख से नहीं देखा जा सकता । पर इन्हें वैज्ञानिक उपकरणों के द्वारा देखा जा सकता है। यह क्यों नहीं मान लिया जाए - वैज्ञानिक उपकरण भी अतीन्द्रिय- - ज्ञान के साधन बन गए हैं?
समाधान : अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के सन्दर्भ में
जैन दर्शन के सामने यह एक अहं प्रश्न है। इससे इंद्रिय - ज्ञान और अतीन्द्रिय- ज्ञान की भेद-रेखा समाप्त हो जाएगी। इस समस्या का समाधान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के सन्दर्भ में ही खोजा जा सकता है । अवधिज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान है, किन्तु उसमें भी पुद्गलों का सहयोग आवश्यक होता है । अवधिज्ञान से व्यक्ति अपने ज्ञान को इतना विकसित और निर्मल बना ले, जिससे वह सूक्ष्म, दूरवर्ती और व्यवहित वस्तु को जान सके और चाहे वह ऐसे उपकरणों का विकास कर लें, जिनके द्वारा उन्हें वह जान सके। केवलज्ञान से नीचे की सीमा में जितने क्षायोपशमिक ज्ञान हैं, उनमें पुद्गल सहायक बनता है । अवधिज्ञान और मनः पर्यव ज्ञान में भी किसी न किसी रूप में पुद्गल का योग रहता ही है । इसका अर्थ है- नाड़ीतंत्र को इतना विकसित बना लिया जाए, जिससे व्यक्ति सूक्ष्म और व्यवहित तत्त्वों का ज्ञान कर सके । नाड़ीतंत्र को विकसित करें या बाहर के उपकरणों को विकसित करें, इन दोनों में बहुत अन्तर नहीं लगता। आन्तरिक निर्मलता बढ़ने से जो ज्ञान हुआ, वही बाह्य साधनों का योग मिलने से भी हो सकता है ।
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