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________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान १०९ (२) अतीन्द्रिय ज्ञान: दूरबोध एवं परचित्तबोध जैन दर्शन का दृष्टिकोण जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का लक्षण है-उपयोग । ज्ञान और दर्शन के रूप में जो चैतन्य की प्रवृत्तियां हैं, उन्हें उपयोग' कहा जाता है। ज्ञान द्वारा वस्तु का विशेष बोध होता है, दर्शन द्वारा सामान्य बोध होता है। यही अन्तर है ज्ञान और दर्शन में। मूलत: दोनों चैतन्य की प्रवृत्तियां है। आत्मा स्वभावत: जानने-देखने की क्षमता से युक्त है। कर्मों के आवरण के कारण यह क्षमता सीमित हो जाती है। फिर भी इस क्षमता का कुछ अंश तो प्रत्येक जीव में विद्यमान रहता ही है। अविकसित अवस्था में इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान किया जाता है, पर जब चेतना का विशेष विकास होता है, तो बिना इन्द्रियों की सहायता से भी आत्मा जान सकती है, देख सकती है। इसी अतीन्द्रिय ज्ञान की कोटि में अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान की गणना की जाती है। प्रत्यक्ष ज्ञान के दो प्रकार है-इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मन की सीमा में जो जाना जाता है वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। जो इन्द्रियों की सीमा से परे है, जहां इन्द्रियों की कोई अपेक्षा नहीं होती, वह अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष है। आकाश में ध्वनि के अनन्त प्रकम्पन बिखरे पड़े है किंतु व्यक्ति को उनका पता नहीं चलता, वह उन्हें पकड़ नहीं पाता। व्यक्ति के आसपास जो ध्वनि के प्रकंपन होते हैं उनका पता चलता हैं, उन्हें पकड़ा जा सकता है। इसका कारण है इन्द्रिय की सीमा। एक निश्चित आवृत्ति में ध्वनि के प्रकम्पन होते हैं, तो व्यक्ति उन्हें पकड़ पाता है। कान के लिए एक आवृत्ति का निर्धारण है। आंख के लिए भी एक आवृत्ति का निर्धारण है। निश्चित आवृत्ति में जो सामने आता है। व्यक्ति उसे देखता है, सुनता है। इन्द्रियों में भी बहुत तारतम्य है। आगमों में इन्द्रिय-पाटव शब्द का प्रयोग मिलता है। एक है इन्द्रिय का सामान्य ज्ञान और एक है इन्द्रिय का पाटव या इन्द्रिय-लाघव। जिसमें इन्द्रिय की पटुता बढ़ जाती है, वह दूर की बात देख लेता है, दूर की बात सुन लेता है, जान लेता है। यदि इन्द्रिय का पाटव नहीं होता है तो व्यक्ति स्वल्प सीमा में ही जानता है, देखता है। आज के वैज्ञानिक युग में एक प्रश्न जरूर सामने आ गया है और बड़ा चिन्तनीय प्रश्न है। दर्शन में इन्द्रिय-ज्ञान और अतीन्द्रिय ज्ञान के बीच जो भेद-रेखा खींची गई, उसका अर्थ है इन्द्रिय-ज्ञान स्थूल को जानता है, सन्निकृष्ट को जानता है और अव्यवहित को जानता है। अतीन्द्रिय ज्ञान सूक्ष्म, विप्रकृप्ट और व्यवहित को भी जान सकता है। दीवार से परे क्या है, आंख नहीं देख सकती किन्तु अतीन्द्रिय ज्ञानी देख सकता है। एक सूक्ष्म कण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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