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________________ जैन दर्शन और परामनोविज्ञान ११५ प्रकाश सब दिशाओं में नहीं फैलता । यह अवधिज्ञान संपूर्ण शरीर के माध्यम से नहीं होता किंतु जितने चैतन्य-केंद्र विकसित होते हैं उतने चैतन्य - केन्द्रों के माध्यम से होता है । एक मनुष्य में एक चैतन्य - केन्द्र भी विकसित हो सकता है और अनेक चैतन्य - केन्द्र भी विकसित हो सकते हैं । इनके विकास का हेतु ध्यान है । जिन चैतन्य - केन्द्रों पर अवधान नियोजित किया जाता है वे विकसित हो जाते हैं। ध्यान की धारा आगे-पीछे, दाएं-बाएं-जिस दिशा में प्रवाहित होती है उस दिशा के चैतन्य - केन्द्र जागृत हो जाते है और वे चैतन्य - रश्मियों के बहिर्निर्गमन के माध्यम बन जाते हैं । जैसे दीवट पर रखे हुए दीप का प्रकाश चारों दिशाओं में फैलता है वैसे ही मध्यगत अवधिज्ञान की प्रकाश- रश्मियां समूचे शरीर से बाहर आती हैं । तंत्रशास्त्र और हठयोग में छह या सात चक्रों का सिद्धांत प्रतिपादित हुआ है। प्रतिपादन की प्राचीन शैली रूपकमय है अतः चक्रों के विषय में स्पष्ट कल्पना करना कठिन है। बहुत लोगों ने उन्हें किसी विशिष्ट अवयव के रूप में स्थूल शरीर में खोजने का प्रयत्न किया पर उन्हें अपनी खोज में कभी सफलता नहीं मिली स्थूल शरीर में ग्रन्थियां हैं। शरीर शास्त्र के अनुसार उनका कार्य बहुत महत्त्वपूर्ण है। उन्हें चक्र माना जा सकता है । चक्रों और ग्रन्थियों के स्थान भी प्राय: एक ही हैं। मूलाधार चक्र का किसी ग्रन्थि से सीधा संबंध नहीं है। स्वाधिष्ठान चक्र का काम ग्रन्थि (गोनाड्स) से संबंध है। मणिपूर चक्र का एड्रीनल से, अनाहत चक्र का थाइमस से, विशुद्धि चक्र थाइराइड से, का पिच्यूटरी से और सहस्रार चक्र का पिनियल से संबंध स्थापित किया जा सकता है । विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र जैन पराविद्या के अनुसार शक्ति और चैतन्य के केन्द्र अनगिन हैं । वे पूरे शरीर में फैले हुए हैं। उन्हें ग्रन्थियों तक सीमित नहीं किया जा सकता । ग्रन्थियों का काम सूक्ष्मतर या कर्मशरीर से आने वाले कर्म-रसायनों और भावों का प्रभाव प्रदर्शित करना है । अतीन्द्रिय चेतना को प्रकट करना उनका मुख्य कार्य नहीं है । वे अतीन्द्रिय चेतना की अभिव्यक्ति के लिए विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र बन सकते हैं अथवा उनसे आसपास का क्षेत्र विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र बन सकता है । उनके अतिरिक्त शरीर के और भी अनेक भाग विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र बन सकते है; इसलिए शक्ति केन्द्रों और चैतन्य-केन्द्रों की संख्या बहुत अधिक हो जाती है । हमारी कोख के नीचे बहुत शक्तिशाली चैतन्य-केन्द्र है । हमारे कंधे बहुत बड़े शक्ति केन्द्र हैं । फलित की भाषा में कहा जा सकता है कि शक्ति केन्द्र और चैतन्य - केन्द्र शरीर के अवयव नहीं है किन्तु शरीर के वे भाग हैं, जिनमें विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र बनने की क्षमता है। वे भाग नभ से नीचे पैर की एड़ी तक तथा नाभि से ऊपर सिर की चोटी तक आगे भी हैं, पीछे 1 " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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