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________________ ३२३ जैन दर्शन और विज्ञान में परमाणु ३. वह सूक्ष्म है-इन्द्रियग्राह्य नहीं है। ४. वह नित्य है-उसका अस्तित्व सदा बना रहता है; स्कन्ध में मिलने पर भी परमाणु का अस्तित्व समाप्त नहीं होता। ५. उसमें एक रस, एक गन्ध, एक वर्ण होता है। ६. उसमें दो स्पर्श होते हैं। वह स्निग्ध-शीत, स्निग्ध-उष्ण, रूक्ष-शीत या रूक्ष-उष्ण होता है। उसमें गुरुत्व, लघुत्व, कठोरत्व, कोमलत्व नहीं होता। ७. वह कार्यलिङ्ग है-परमाणु के अस्तित्व का अनुमान उसके कार्य यानी सामूहिक क्रिया से होता है। परमाणु के गुणों का ज्ञान भी सामूहिक गुणों से ही किया जा सकता है। एक अकेले परमाणु को सीधे नहीं जाना जा सकता। परमाणु के गुणधर्म परमाणु पुद्गल है; अत: पुद्गल के मूल गुण-धर्म परमाणु में भी होते हैं। जैसे १. परमाणु सत् है, द्रव्य है। २. परमाणु नित्य, अवस्थित, शाश्वत, अविनाशी है। ३. परमाणु अचेतन है। ४. परमाणु में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श होते हैं; संस्थान नहीं होता; लम्बाई, चौड़ाई, गहराई नहीं होती। ५. परमाणु परिणामी है; वह स्वयं अगुरुलघु-परिणामी है। परिणमन स्पर्श आदि गुणों की पर्याय में होता है। ६. परमाणु क्रियावान् है। जब वह गति करता है, तब वह गति स्पन्दनात्मक भी हो सकती है, स्थानांतरणात्मक भी हो सकती है। परमाणु अगुरुलघु यानी संहतिशून्य होने से उसका वेग (velocity) इतना तीव्र होता है कि वह एक समय में पूरे लोक की दूरी पार कर सकता है। ७. परमाणु मिलन-स्वभाव वाला है, पर उसका भेद नहीं होता। मिलन-स्वभाव के कारण परमाणु या स्कन्ध के साथ मिल सकता है, पर अभेद्य होने के कारण उसका विखण्डन नहीं हो सकता। ८. जीव द्वारा अकेले परमाणु का ग्रहण नहीं हो सकता, इसीलिए वह अग्राह्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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