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जैन दर्शन और विज्ञान उदाहरणार्थ, पानी में जहाज चल रहा हैं; तो स्थूल दृष्टि से कहा जा सकता है की जहाज की गति पानी की अपेक्षा से होती है; किन्तु पृथ्वी की गति के कारण पानी भी स्थिर नहीं माना जा सकता। इस प्रकार जहाज भी चल रहा है और पानी भी । इससे आगे पृथ्वी की गति भी सूर्य की अपेक्षा से है; किन्तु सूर्य स्वयं ही गतिमान् है और अपने समस्त सौर मण्डल के साथ अन्तरिक्ष में घूम रहा है । इस प्रकार, स्थिर पदार्थ के अभाव में किसको गति की अपेक्षा का केन्द्र बनाया जाए? यह प्रश्न जब न्यूटन के सामने आया, तो सापेक्ष गति और निरपेक्ष गति के बीच भेद करने के लिए पहले तो उसने बताया कि यह सम्भव हो सकता है कि गतिशील नक्षत्रमण्डल से बहुत दूर अन्तरिक्ष में कोई ऐसा पदार्थ विद्यमान हो सकता है, जो कि निरपेक्षतया स्थिर हो और उसके संदर्भ में निरपेक्ष गति को समझाया जाय । किन्तु साथ ही उसने यह स्वीकार किया कि ऐसे कोई पदार्थ का ज्ञान हम निरीक्षण द्वारा तो करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं; अत: सबसे सरल हल यह है कि आकाश को ही स्थिर मानकर 'संदर्भ का ढांचा'
बनाया जाय ।
'काल' के विषय में भी न्यूटन के सिद्धान्त को वैज्ञानिक जगत् में मान्यता मिल गई । अन्यान्य दार्शनिक सिद्धान्तों की अपेक्षा में न्यूटन के काल - सम्बन्धी निरूपण में यह विशेषता थी कि इसमें काल एक स्वतन्त्र तत्त्व माना गया था । निरपेक्ष काल के निरूपण से न्यूटन ने आकाश और काल को एक दूसरे से स्वतन्त्र रखा है; अतः पदार्थों की गति से 'काल' के प्रवाह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । काल का प्रवाह तो अपने आप में सदा बिना किसी परिवर्तन के एक रूप से अनन्त भूत से अनन्त भविष्य तक चलता रहता है, यह न्यूटन का मन्तव्य था ।
आपेक्षिकता के सिद्धान्त का आविष्कार
न्यूटन के 'निरपेक्ष आकाश' के सिद्धान्त से भौतिक विज्ञान में उपस्थित होने वाली समस्याओं का हल निकालने का प्रयत्न अठाहरवीं और उन्नीसवीं सदी के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया। इन समस्याओं में 'प्रकाश तरंगों' के प्रसार की समस्या मुख्य थी । प्रकाश तरंग के रूप में प्रसारित होता है, यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त था, किन्तु इसका प्रसार शून्य आकाश में किस माध्यम से होता है - यह प्रश्न उपस्थित होने पर वैज्ञानिकों को किसी ऐसे माध्यम की कल्पना करनी पड़ी, जो कि प्रकाश-तरंगों के प्रसार में सहायक हो। इस माध्यम को 'ईथर' कहा गया और माना गया कि ईथर एक ऐसा भौतिक तत्त्व है, जो कि समग्र आकाश में व्याप्त है और जो प्रकाश-तरंगों के प्रसार में उसी तरह सहायक होता है जिस तरह समुद्र की तरंगों के प्रसार में पानी होता है, अथवा ध्वनि के तरंगों के प्रसार में हवा होती है।
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