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________________ जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा २४५ आइजक न्यूटन (ई. १६४२-१७२७) द्वारा सर्वप्रथम दिया गया था । दार्शनिक गेसेण्डी के आकाश सम्बन्धी विचारों से प्रभावित होकर न्यूटन ने इस सिद्धांत की स्थापना की थी। अपनी विश्व-विख्यात पुस्तक 'प्रिंसिपिया' (Principia) में 'आकाश' और 'काल' का विवेचन करते हुए न्यूटन ने लिखा है : निरपेक्ष आकाश, अपने स्वभाव और बाह्य किसी वस्तु की अपेक्षा बिना, सदा एक-सा और स्थिर रहता है" और काल के सम्बन्ध में “निरपेक्ष, वास्तविक और गाणितिक काल अपने आप और स्वभावत: किसी बाह्य वस्तु की अपेक्षा बिना सदा समान रूप से रहता है।" न्यूटन की इन व्याख्याओं स्पष्ट हो जाता है कि न्यूटन ने आकाश और काल को स्वतंत्र वस्तु सापेक्ष वास्तविक तत्त्व माना है। इनका अस्तित्व न तो ज्ञाता पर निर्भर है और न अन्य भौतिक पदार्थों पर, जिनको वे आश्रय देते हैं अथवा सम्बन्धित करते हैं । “सभी वस्तुएं आकाश में स्थान की अपेक्षा से रही हुईं हैं।" न्यूटन के इस कथन का तात्पर्य यही है कि आकाश एक अगतिशील ( स्थिर) आधार के रूप में है तथा उसमें पृथ्वी और अन्य आकाशीय पिण्ड रहे हुए हैं। यह (आकाश) असीम विस्तार वाला है। चाहे वह किसी द्रष्टा (अथवा ज्ञाता) के द्वारा देखा जाये (अथवा अनुभव किया जाय) या नहीं और चाहे वह कोई पदार्थ द्वारा अवगाहित हो अथवा नहीं, इनकी अपेक्षा बिना स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में है और सदा से अस्तित्व में था । जो कुछ भी विश्व में हो रहा है, वह आकाश में हो रहा है। प्रत्येक भौतिक पदार्थ आकाश में ही कहीं-न-कहीं रहा हुआ है और उसमें ही वह अपना स्थान परिवर्तन कर सकता है। न्यूटन के अनुसार आकाश की रचना में सातत्य है; अर्थात् आकाश एक और अखण्ड' तत्त्व है । सर्वत्र एकरूप है, अर्थात भिन्न-भिन्न पदार्थों द्वारा अवगाहित होने पर भी उनके गुणों में परिवर्तन नहीं आता है । प्राचीन यूनानी गणितज्ञ युक्लिड के द्वारा भूमिति के जिन नियमों का आविष्कार किया गया था, वे नियम न्यूटन के आकाश में लागू होते हैं । न्यूटन की यह धारणा थी कि आकाश समतल ( flat ) है । अतः युक्लिडीय भूमिति के नियम इसमें कार्यक्षम होते हैं। आकाश में चलने वाली प्रकाश की किरणें सीधी रेखा में चलती हैं और एक दूसरे के समान्तर होने के कारण ये परस्पर में कभी नहीं मिल सकतीं । इस प्रकार के प्रकाशिकी सम्बन्धी नियम भी युक्लिडीय भूमिति के नियमों के आधार पर बनाये गए। इसके अतिरिक्त यांत्रिकी (Mechanics) के क्षेत्र में जहां पदार्थों की गति का प्रश्न आया, तो न्यूटन ने गति को निरपेक्ष बनाने के लिए स्थिर आकाश में संदर्भ के ढांचे (frame of reference) के रूप में काम में लिया। किसी भी पदार्थ की गति होती है, तब वह दूसरे पदार्थो की अपेक्षा में मानी जाती है । अब यदि कोई ऐसा पदार्थ न हो, जो कि स्वयं स्थिर हो, तो पदार्थों की गति सदा सापेक्ष बन जाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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