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जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा
२४७ इस प्रकार के ईथर-तत्त्व की कल्पना के बाद यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि जब गतिशील पदार्थ गति करते हैं, तब ईथर, जो कि सर्वत्र व्याप्त है, कि क्या स्थिति होती है? यदि वह भी पदार्थ की गति से प्रभावित होता है, तो उसमें से गुजरने वाली प्रकाश-तरगों पर भी उसका प्रभाव होना चाहिए। इस बात की सत्यता को परखने के लिए अनेक प्रकार के प्रयोग किए गये, जिसमें माइकलसन (Michelson) और मोर्ले (Morley) द्वारा किया गया प्रयोग (१८८१ ई.) उल्लेखनीय है। इस प्रयोग में गतिमान् पृथ्वी के ईथर से गुजरने से, ईथर पर क्या प्रभाव होता है, इसका प्रकाश-किरणों के द्वारा परीक्षण किया गया।
. यदि आकाशीय पिण्ड ईथर के अनन्त समुद्र में सचमुच ही तैर रहे हैं, तो उनकी गति का वेग जानना सहज है। जैसे-एक वेगवाली नदी में एक नौका को एक किनारे से दूसरे किनारे तक ले जाने में जितना समय लगता है, उससे अधिक समय उस नौका को नदी के प्रवाह की दिशा में ले जाकर वापस लाने में लगेगा, भले ही दोनों बार समान दूरी तय की जाती हो। इस प्रकार यदि पृथ्वी ईथर में वस्तुत: घुमती है, तो प्रकाश की एक किरण पृथ्वी की गति की दिशा में चलती हुई दर्पण तक पहुंच कर वापस लौटने में अधिक समय लेगी, अपेक्षाकृत उसके कि किरण पृथ्वी-गति की दिशा के साथ लम्बकोण करके चलेगी। यदि वस्तुत: ईथर-तत्त्व पृथ्वी की गति से प्रभावित होता है (अर्थात् पृथ्वी की गति से ईथर का प्रवाह भी गति करने लगता है), तो प्रकाश की गति पर ईथर का प्रभाव होना जरूरी है और यह यन्त्रों द्वारा नापा जा सकता है। ईथर का अस्तित्व प्रायोगिक आधार पर सिद्ध किया जा सकता हैं। माइकलसन और मोर्ले के प्रयोगों से प्रकाश की गति पर पड़ने वाला ईथर का प्रभाव किसी भी रूप में सामने न आया। यह प्रयोग इसके बाद भी अनेक बार दुहराया गया। किन्तु परिणाम शून्य रहा। इसके परिणाम-स्वरूप ईथर के अस्तित्व के विषय में दो विकल्प रह गये : १. ईथर तत्त्व है और इस पर पृथ्वी की गति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता अर्थात्
पृथ्वी स्थिर है। २. ईथर नाम का कोई तत्त्व नहीं है।
प्रथम विकल्प को स्वीकार करने का अर्थ होता है-पृथ्वी की गति को अस्वीकार करना, जो वैज्ञानिकों के लिए असम्भव-सी बात थी। फिर भी दूसरी ओर ईथर को नहीं मानने से प्रकाश की तरंग-रूप में प्रसरण-क्रिया को नहीं समझाया जा सकता।
इस प्रकार, जब कोई समाधान नहीं निकल रहा था, तब ई. १९०५ में यूरोप में एक छब्बीस वर्षीय नवयुवक वैज्ञानिक ने इसका सर्वग्राही समाधान दिया।
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